देश में मीटू नामक सांस्कृतिक क्रांति का सूत्रपात हो गया। ‘व्हटसऐप’ पर रोमानी संदेश भेजने वाले आज धार्मिक उपदेश भेजते देखे जर रहे हैं। हर नारी में लोगों को देवी दिखनी शुरू हो गई। आज के फिल्म उद्योग और मीडिया के बंधु रात-रात भर जाग कर अपनी 50 साल पुरानी जिं़दगी को खंगाल रहे हैं। फोन पर बातचीत का सिलसिला सिर्फ महत्वपूर्ण मुद्दों तक सीमित है। पर नारी की तो बात छोड़ो आज तो लोग अपनी पत्नी से भी मज़ाक करना भूल गए। देश पूरी तरह गंभीर नजऱ आ रहा है। अब किस की हिम्मत है कि यह गाना गा जाए-
”तेरी प्यारी -प्यारी सूरत को
किसी की नजऱ न लगे’’।
शुक्र है इन पंक्तियों के रचियता हसरत जयपुरी साहब के ज़माने में यहा क्रांति नहीं थी, वरना उनका तो जीना मुहाल हो जाता कमोवेश यही हशर ‘बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं’ के लिखने वाले शैलेंद्र का होता। पर वे बच गए, पर नाना पाटेकर नहीं बच न बचे जितेंद्र उर्फ रवि कपूर नहीं बचे।
खैर, आजकल तो लोग चलते फिरते उठते बैठते बाजारों और गलियों में कुछ इस तरह की लाइनें गा रहे हैं:-
ऐ मां तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी?
या फिर कुछ के मुंह से यह गीत भी निकलने लगा है:- मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुल्हिनयां। प्तमी टू ने शेर को घास चरना सिखा दिया। देश की बड़ी हस्तियां परेशान हंै। क्या करें? किसी का 48 साल पुराना कारनामा सामने आ रहा है। तो किसी का 20 साल पुराना। अब यह प्रश्न बेमानी है कि 48 साल पहले जो हुआ उसे इतने सालों तक क्यों सामने नहीं लाया गया। कारण है साहस का न होना तब महिला अबला थी अब सबला बन गई है, उस समय साहस नहीं था। अब जब से प्तमी टू की शुरूआत हुई है, तब से सभी में साहस का संचार हो गया है। आजकल हर व्यक्ति जो किसी भी क्षेत्र में काफी नाम कमा चुका है। वह सवेरे का अखबार काफी घबराहट में खोलता है, पता नहीं वह कब प्तमी टू की चपेट में आ जाए। दूसरों की तो छोड़ो आजकल तो अपनी पत्नी से भी दब कर रहना पड़ रहा है, पता नहीं कब कह दे ”शादी के लिए परपोज़ करते समय आपकी नजऱों सही नहीं थी। आपने मेरी इज़ाजत लिए बिना मेरा हाथ पकड़ा था’’। मतलब यह कि पुरूष वर्ग में घबराहट फैल चुकी है।
यह भय और घबराहट जारी रहे तो अच्छा है, नही ंतो मीं टू जैसे अभियान किसी खास मकसद के लिए शुरू कर के अचानक गायब कर दिए जाते हैं। खैर अभी तो यह अभियान अपने यौवन पर है और मर्दों को उनके यौवन की गलतियों का एहसास करवा रहा है। अभी तक इस की पकड़ में फिल्मी और पत्रकारिता की दुनियां के लोग ही आए हैं। इससे यह लगने लगा है कि समाज में स्त्रियों का शोषण इन दो वर्गों के लोग ही करते हैं। समाज के किसी भी दूसरे क्षेत्र में ऐसा नहीं होता। खासतौर से राजनेता तो बिलकुल संत-महात्मा हैं। हालांकि कई संत भी आजकल धारा-376 के तहत सलाखों के पीछे हैं, पर फिर भी महात्मा होना एक अच्छे चरित्र का परिचायक माना जाता है। राजनेता को देश चलाना होता है उस पर भारी जिम्मेदारी है, इस कारण शायद उस पर आंच नहीं आ रही। एक केंद्रीय मंत्री पर आरोप लगा है, पर वह उसके मंत्री काल का नहीं बल्कि उस समय का है जब वह सज्जन एक अखबार के संपादक थे।
देश में हर रोज़ महिलाओं से छेड़छाड़, घरेलू हिंसा और बलात्कार के सैंकड़ों मामले सामने आते हैं। हमारे इस देश के कुछ राज्य तो ऐसे हैं जहां पंचायतें ही किसी महिला से बलात्कार करने की सज़ा सुना देती है। फिर होता है उस महिला का सामूहिक बलात्कार। ऐसी हज़ारों महिलाओं को आज भी मीं टू से कोई साहस नहीं मिला। गांवों के जमीदार और सामंत आज भी बेखौफ जी रहे हैं। इसी प्रकार किसी पुलिस अधिकारी या प्रशासनिक अफसर का नाम किसी महिला ने नहीं लिया है। जबकि थानों में क्या कुछ नहीं होता।
यहां बलात्कार की शिकार आठ साल की लड़की के गुनाहगारों को बचाने के लिए मंत्री तक सड़क पर उतर आते हैं। यहां अदालत कुछ बलात्कारियों को इसलिए छोड़ देती है क्योंकि वे उच्च जाति के होते हंै, जबकि पीडि़ता निम्न जाति से। अदालत ने कहा कि उच्च जाति के लोग निम्न जाति वाली के साथ शारीरिक संबंध बना ही नहीं सकते। गलत काम की सज़ा मिलनी ही चाहिए। वैसे कहते हैं -‘जस्टिस डिलेड,जस्टिस डिनाईड’। मतलब यह कि ‘देर से मिला इंसाफ जैसे नहीं मिला’। यहां स्थिति यह है, कि मीं टू ने व्यवस्था को कुछ हिलाया है। इसका कानूनी रूप क्या होगा, यह तो देखना है पर सामाजिक तौर पर गुनाहगार प्रताडि़त हो रहा है। यह दीगर बात है कि इनमें से असली गुनाहगार कितने हैं।
ज़रूरत है इसे इंडिया से भारत में ले जाने की। जहां रोज़ इस प्रकार की घटनाएं होती रहती हैं। वहां की पीडि़त महिलाएं यदि यह साहस जुटा पाएं और अपने पर अत्याचार करने वालों के नाम उजागर कर सकें तो इस मुहिम की सार्थकता बनती है। महानगरों और उच्च स्थानों पर बैठे लोगों पर आरोपों से यह अभियान पूर्ण नहीं हो सकेगा। उम्मीद करनी चाहिए कि जो होगा अच्छा ही होगा।