मुम्बई में 20 अप्रैल को 167 पत्रकारों की कोविड-19 की जाँच हुई। नतीजे चिंताजनक निकले, क्योंकि इनमें से 53 पत्रकार संक्रमित निकले। इसके बाद दिल्ली सरकार ने भी मीडियाकॢमयों की कोविड-19 की जाँच का फैसला किया। कुछ और राज्यों में भी कई पत्रकारों की जाँच रिपोर्ट पॉजिटिव आयी है। पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस मामले को गम्भीरता से लेते हुए राज्य सचिवालय नबन्ना से दिये एक सम्बोधन में इस पर चिन्ता जतायी। उन्होंने कहा कि पत्रकार चौबीसों घंटे काम कर रहे हैं। उनके पास कोई सुरक्षा कवच नहीं है और न ही उनका वेतन अच्छा है। हम सभी मान्यता प्राप्त पत्रकारों को 10 लाख रुपये का बीमा कवर दे रहे हैं। निश्चित ही ममता बनर्जी ने यह बेहतर कदम उठाया है। लेकिन जब पत्रकार कोविड-19 को लेकर अपना फर्ज़ निभाने मैदान में उतरते हैं, तो और भी कई कठिनाइयाँ और चुनौतियाँ उनके सामने होती हैं।
कोरोना वायरस एक वैश्विक महामारी है। लेकिन स्वाभाविक रूप से यह स्थानीय भी है। विडम्बना यह है कि इस महामारी की खबरों की माँग बड़े पैमाने पर रही है। लेकिन मीडिया घरानों का राजस्व हाल के वर्षों के मुकाबले कम हो गया है। ज़ाहिर है कि इसके चलते मीडियाकॢमयों के वेतन भुगतान में देरी, छँटनी, वेतन में कटौती के अलावा कुछ केंद्रों को बन्द करने की खबरें भी हैं। कुछ अखबारों और पत्रिकाओं ने प्रिंट संस्करण बन्द करके ई-एडिशन शुरू किये हैं। प्रिंट मीडिया उद्योग, जो पहले से ही कठिन दौर में है; अब इस संकटकाल में विपरीत आॢथक प्रभावों के कारण अस्तित्व के संकट का सामना कर रहा है। अधिकांश मीडिया घराने इससे प्रभावित हैं। समय की माँग है कि केंद्र और राज्य सरकारें अग्रपंक्ति के इन योद्धाओं की मदद के लिए आगे आएँ। क्योंकि ये अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा दाँव पर लगाकर इस महामारी पर सच्ची, ज़रूरी जानकारी प्रदान कर समाज की सेवा कर रहे हैं।
मीडिया उद्योग के लिए अगले कुछ महीनों में सबसे बड़ा संकट नकदी प्रवाह का होने वाला है। आईएनएस अध्यक्ष शैलेश गुप्ता ने सूचना एवं प्रसारण सचिव रवि मित्तल को पत्र लिखकर उन्हें विज्ञापन राजस्व में संकट की स्थिति, भारी इनपुट लागत और अखबारी कागज़ के आयात शुल्क के चलते प्रिंट मीडिया के अस्तित्व के संकट की याद दिलायी है। गुप्ता ने कहा है कि इस स्थिति में अखबारों को पृष्ठों की संख्या कम करने के साथ-साथ साप्ताहिक पन्नों को मुख्य संस्करणों में जोडऩा पड़ा है। लेकिन इन उपायों के बावजूद अखबार हर दिन घाटा झेल रहे हैं। अपने पत्र में उन्होंने अखबार के कागज़ पर 5 फीसदी सीमा शुल्क हटाने, समाचार पत्रों के प्रतिष्ठानों के लिए दो साल तक टैक्स होली-डे, ब्यूरो ऑफ आउटरीच एंड कम्युनिकेशन (बीओसी) की विज्ञापन दर में 50 फीसदी की वृद्धि और प्रिंट मीडिया के लिए बजट खर्च में 100 फीसदी वृद्धि के अलावा बीओसी से विज्ञापन के सभी बकाया बिलों के तत्काल भुगतान करने की मज़बूत दलील रखी है। विडम्बना यह है कि जब उपभोक्ता भोजन, दूध और किराने के सामान जैसी आवश्यक वस्तुओं का पूर्ण भुगतान करते हैं, तो अखबारों के मामले में यह लागू क्यों नहीं होता? उपभोक्ता अखबारों की लागत का केवल एक हिस्सा ही अदा करते हैं और बाकी विज्ञापनों के माध्यम से आना होता है; जो अब बन्द हैं। यदि प्रिंट मीडिया संस्थान प्रकाशन को स्थगित करते हैं, तो इससे बड़ी संख्या में मीडियाकॢमयों, वेंडरों और हॉकरों का रोज़गार चला जाएगा। इसलिए समय की माँग है कि सरकार लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की मदद के लिए एक प्रोत्साहन पैकेज के साथ आगे आये।