गर्मी की लंबी बड़ी छुट्टिया ंहम शाहजहांपुर में गुजारते थे। यहीं मेरी मां रहती थी। यहीं वह एक जोड़ा भी था। मेरे लिए यह अजीबोगरीब जोड़ा था जबकि दूसरे मिस्टर और मिसेज इन कह कर इनसे बातचीत करते। अंग्रेजी राज जाने के बाद ये यहीं छूट से गए थे। इनकी शायद इच्छा भी नहीं थी कि वे विलायत जाएं। ये देसी लोगों में ही रच-बस गए थे।
उनकी पृष्ठभूमि क्या थी इसका तो पता नहीं, लेकिन उनके बारे में इतना ही कुछ सुना था कि देश के विभाजन के बाद ये लोग इस कस्बे के आसपास घूमते दिखते थे। तब मिसेज इन की स्कर्ट की बड़ी चर्चा होती थीं यह उस भारतीय स्कर्ट की तरह तो नहीं थी जो लंबी लहरदार सी होती थी। बल्कि यह काफी छोटी थी। लोगों में जिज्ञासा भी होती होगी। आखिर उस पर लोगों की निगाहें तो अटकती। उनके चेहरे से भी यह झलकता कि वे यहां रहने वाले लोगों के नाक-नक्श की तो नहीं हैं। हां भले ही थोड़ा बहुत मेल हो। फिरंगियों की मक्खनी बूंदें शायद देसी बदन पर छिटकी हों। या फिर किसी हिम्मती जमींदार ने अपनी लालसाभरी निगाहों से किसी गोरी मेेम साहिब को बेधा हो।
बहरहाल जो हो मिस्टर और मिसेज इन इस बात को लेकर ज़रूर चिंता में थे कि जिंदगी के बचे खुचे साल कैसे गुजारे जाएं। इसके पहले कि अवध की इस ज़मीन के नवाब के संरक्षण की हैसियत भी खत्म हो जाए या वे खुद किसी ताजा खोदी गई कब्र में दफना दिए जाएं।
इसके साथ ही इस विलायती जोड़े ने अपना सारा माल-असबाब एक गाड़ी में लदा और खुद उसे चलाते हुए इस इलाके में एक कमरे की तलाश में जुटे। मेरी मां के परिवार ने अपने पूर्वजों के कई बंगलों में से किसी एक में इन्हें पनाह दी।
जब पहली बार मेरी नजऱ इन पर पड़ी जो अजब सी बात मुझे खटकी वह थी कि इनके पड़ोसी वे दो माली थे जिनकी झुर्रियां पड़ चुकी थीं। एक रसोइया और उसका अपना परिवार था, झुक चले चैकीदार थे। ये सभी, धोबी के ही दूरदराज के सगे संबंधी थे। ये सारे परिवार हमारे पूर्वजों के बंगले के पिछवाड़े में रहते थे जहां आम और अमरूद के बगीचे थे।
हालांकि इन लोगों और इन दंपति में गर्व का खासा अंतर दिखता था। लेकिन इनके पास कोई और विकल्प भी तो नहीं था। जब भी मैं बगीचें में आम या अमरूद की तलाश में निकलती तो मैं उन्हें एक जर्जर चारपाई पर बैठे एक-दूसरे को निहारते बिना हिले-डुले, एक से कपड़े पहने देखती। ऐसे ही गुजर जाते दिन।
वह उन पतलून के पुराने जोड़े पहने दिखता जिस पर बेडौल सी एक जैकेट होती और वह अपनी लंबी स्कर्ट, सिकुडी सी कमीज और लटकती छातियों पर लहराता एक स्कार्फ
एक दोपहर जब मैं अपनी मां से स्कूल से मिले कामकाज को निपटाने में मदद ले रही थी तो बातचीत छिड़ी कि मैं बाहर उन घरों की ओर जाऊं। इन दंपति से मिलूं और उनसे बात करूं कि वे मेरे स्कूली काम को पूरा करने में मदद दें।
‘वे क्या अंग्रेजी पढ़ाएंगे’
‘ हां, बेशक! धारा-प्रवाह अंग्रेजी। वे नबाब साहब के बच्चों को पढाते थे। जब तक कि वे यहां आए नहीं’।
‘लेकिन क्या अब वे पढ़ाएंगे जबकि हमें सब पूरा करके लखनऊ को लौटना है।
‘पापा उनसे एक भी रुपया नहीं लेते हैं..उनको उन्होंने कमरा, बिजली-पानी सब मुफ्त दिया है। वे तुम्हें पढ़ाएंगे अपनी किताबें लेकर जाओ।’
और मैं पहुंच गई उस खुले मैदान में। जहां थे वे घर और तमाम लोग बाहर ही थे। धोबी की कामचलाऊ अपनी मेज थी। वह अचकन और शेरवानी पर तह जमा रहा था। माली ढेरों लताओं के झाड़ से लौकी, कद्दू वगैरह निकाल रहे थे। शायद वे शाम के खाने की तैयारी में जुटे थे। चमेली के झाड़ के पास चैकीदार खर्राटे ले रहे थे। रसोइया लहसून छील रहा था। मिस्टर और मिसेज इन के बारे में कुछ कह रहा था। पास में ही था रसोइए का किशोर बच्चा बग्गा। वह एक आवारा कुतिया के गले में चमड़े की बेल्ट बांध रहा था जिसे वह पालना चाहता था। वह इन सब तैयारियों से बेपरवाह अपनी कुतिया से ही बातचीत कर रहा था।
मुझे देखते ही इन मुड़े, अरे तुम! इस मूढ़े पर बैठो, नहीं खाट पर बैठो। इस कुतिया ने गंदा कर दिया इसे
‘अम्मी ने आपके लिए ये कबाब भेजे हैं। मैं साथ में अंग्रेजी की अपनी किताबें भी लाई हूं। क्या आप मुझे कुछ बता देंगे यदि आप मेरी मदद करें।’ मैं इसके पहले कि कुछ और बोल पाती कि कुतिया स्टेनलेस स्टील के उस डिब्बे की ओर झपटी। मेरी पकड़ से डिब्बा छूटा। वह उस पर झपटी और उसे झाडियों में ले जाकर बैठ गई। तब उसके आसपास दूसरे कुत्ते भी आ गए। लालसा में, खेलते कूदते, चाटते, एक दूसरे को पुचकारते दुलारते , गुर्राते।
मैं तब तेरह साल की रही होंगी। और मैं तब ज़्यादा नहीं समझ पाती थी कि कुत्ते आपस में प्यार कर रहे हैं, क्या खुल कर। मुझे लगता जब भी मैं ऐसे किसी खेल को देखती तो भयंकर तौर पर बेकाबू हो जाती। आखिर धोबी क्यों अपना सिर झुकाए खड़ा हुआ है। क्यों चैकीदार जागरूक नहीं है। क्यों मिसेज इन विस्मित तरीके से मिस्टर इन को देख रहीं है और वह स्टेनलेस स्टील का डिब्बा अजीब सा तुड़ा मुड़ा दिख रहा है? क्यों रसोइया कहीं खोया हुआ सा दिख रहा है, अब तो वह लहसुन भी नहीं छीन रहा है क्या वह उसे खा भी रहा है? क्यों बग्गा उछल रहा था? सब अचानक चुप से?
शायद मेरा ध्यान बटाने के लिए इन दंपति मुझे लेकर अपने कमरे में आए। बेहद हल्की रोशनी थी कमरे में। कमरे में सिर्फ एक तख्त था। टिन का एक बक्सा ही उनका डायनिंग टेबल था।
‘भोजन के पहले हम तुम्हें कुछ पढ़ा ही लेते हैं’। मिसेज इन ने शायद खुद से कहा। वे अच्छी गोल रोटियां प्लास्टिक की प्लेट में रख रही थी। न जाने क्यों वे उन्हें ‘गेंहू का केक’ कहती। साथ ही प्याज और गाजर , मूली काटती। घर में ताजा कटा सलाद जिसे सरसों का कुछ तेल भी मिला लिया जाए।’ शायद यह सलाद भी उसी बगीचे में उगाया था जो बाग के पास था जहां से सलाद उखाड़ कर धोकर सरसों के फूलों से निकले तेल लगा कर काटा जा रहा था करीने से।
टिन बाक्स पर सज रहे भोजन को देख कर मैंने तय किया कि घर लौट कर मैं कुछ और कबाब इनके लिए ले आऊं।
मैं जैसे ही खड़ी हुई। इन दंपति बहुत चकित हुए। मैंने तख्त के एक किनारे किताबें रखीं, ‘मैं अभी आई कुछ कबाब लेकर आती हूं’।
लेकिन तुम अपनी किताबें छोड़े जा रही हो। जल्दी आना हम जल्दी ही तुम्हें पढ़ाएंगे।
‘मैं दो मिनट में आई मुझे यह सब रविवार के पहले ही खत्म कर लेना है। फिर हमें लखनऊ जाना है। सोमवार को स्कूल खुल जाएगा।
गडग़ड़ाहट, बिजली की चमक, बारिश। लेकिन राह में कहीं कोई बाधा नहीं। मैं बंग्लों को बढ़ती रही।
मेरी मां दरवाजे पर ही थी, ‘तुम्हारी किताबें?’ वहीं छोड़ दी..अभी वापिस जाऊंगी। कुछ और दे दो कबाब.. वहंा कुत्ते ने ही डिब्बा झटक लिया’।
‘किताबें वहीं छोड़ दी’
‘वापस जा रही हूं न। वे मुझे अभी पढ़ाएंगे।’
‘पर! ठस बारीश में ! तुम्हें कहीं नहीं जाना है। जब तक बारिश रुक न जाए। तुम बीमार पड़ जाओगी।
एक घंटा या कुछ ज़्यादा हुआ होगा। बारिश झिर्रियों में बदल गई। भागती-दौड़ती मैं बाहरी इलाकों के उन घरों को पहुंची। मेरे मन में था कि कहीं इन बाहर तो नहीं गए होंगे। मैं हिचकिचाती सी उनके घर के बाहर दीमक लगे दरवाजे पर पहुंच गई। क्या मुझे अंदर जाना चाहिए? हां, क्यों नहीं? आखिर मेरी किताबें वहीं है।
हल्का पारदर्शी पर्दा हटा कर में अंदर धुंधले कमरे में भीतर जा सकती थी। वे लोग वहीं थे। लेकिन बैठे हुए नहीं। तख्त पर लेटे हुए बड़े ही उलझे हुए तरीके से एक दूसरे पर। मिस्टर इन का पूरा शरीर मिसेज दन के इकहरे बदन पर था। न, वह न तो चीख रही थी और न उनकी किसी बात का विरोध कर रही थी। एक-दूसरे को दुलारते हुए मिस्टर इन बड़बड़ा रहे थे, मेरी सुंदरी कुत्तिया, मेरी दुलारी।
क्या! वह उसे कुत्तिया कह रहा था। और वह खिलखिला रही थी। वहां कुछ हो रहा था, सब कुछ बड़ा अनोखा। मैं आसानी से दरवाजे से बाहर जा सकती थी। लेकिन खड़ी रही मैं। मेरे पांव मुझे लौटाने को तैयार नहीं थे। मैं बिना हिले-डुले खड़ी रही। मैंने देखा उन्होंने उसकी स्कर्ट उतार दी। उसकी फटी पुरानी ब्रा एक ओर फेंक दी। उसकी धारीदार जांधिया भी सरका दी। उनके हाथ उसके पूरे शरीर पर धूम रहे थे। उनकी उंगलियां कहीं भीतर मानों जाना चाहती हों, शायद कहीं वहीं। वह जोर से कराही।
मैं जहां की तहां खड़ी थीं जोड़ा अपने हाथ इधर-उधर एक-दूसरे के बदन पर फिरा रहा था। उसके हाथ उसकी सूखी सी छातियों पर थे। उसके हाथ उसके शरीर पर इधर-उधर घूम रहे थे। कोहनियाते हुए और एक दूसरे को चूमते-चित्कारते हुए जिससे खेल चलता रहे।
फिर कुछ शंाति सी। फिर उनकी आवाज़ आई, बस। मेरी उम्र के हिसाब- से इतना बहुत है।
मुझे पता था तुम एक नाकाम।
क्या।
क्हीं मत जाओ। मुझे थामे रहो। मुझे छोड़ो मत। इस सड़ी, वाहियात जगह में कुछ भी तो और नहीं।
ठसके बाद वह सनक सी होगई, जोर से बोलने लगी। पास ही पड़े स्कार्फ को खीचने और फाडऩे लगी। वह बैठ गया। उसने उसकी नाराजगी को संभाला। फिर अचानक उसने उसे चुमना शुरू किया। फिर वह शायद उसमें था, वह फुसफुसाया ‘देखों मैं नाकाम नही हंू।
वह हसंी और अजब तरीके से चिल्लाई। फिर उसने अपने शरीर को ठीक किया इधर-उधर पड़े अपने कपड़ों को दरवाजे की ओर उछाला। कुछ तो लगभग मेरे उन पर आ पड़े। मेरी चीख ही निकल गई।
इन काफी चकित हुए। खड़े हुए। उन्हें लगा कि कोई घुस आया है।
मिस तुम! यहां।
‘मेरी किताबें मेरी किताबें यहां थी।
कुछ बड़बड़ाते हुए।मैं भाग खड़ी हुई बंगले की तरफ, इसके पहले कि राह में कोई और बाधा आती।
घर पर फिर सुनी अम्मा की चुभती आवाज़,’क्या, अभी फिर तुम अपनी किताबें नहीं ला सकी। बहुत हो गई तुम्हारी मूर्खताएं। बैठो अब। अभी ड्राइवर आया है। उन्होंने आवाज़ दी,’मुश्ताक मियां,जो पुरानी कार तो चलाता और इधर-उधर के भी काम कर देता मसलन यही अजीब सी हालात में छूट गई मेरी किताबों को लाना। फिर अम्मा ने मेरे स्कूली बस्ते को तलाशा। उन्होंने बॉयलॉजी की मोटी किताब निकाली। कोई बर्बाद नहीं करना है समय। बहुत हो गया। बॉयोलॉजी की तुम्हारी किताब पड़ी हुई है। इन पाठों को पढ़ो। प्रजनन के बारे में पढ़ो। शुरू करो।
इस अध्याय को जोर से पढ़ा तो मगर मेरी आंखों के सामने तो वह सारा माहौल था जो बार-बार दिख रहा था।
‘कहां खो गई। वह पैराग्राफ फिर पढ़ो’
‘अभी देखा वह सब, वे कुत्ते उन अंग्रेजों को।
‘क्या’।
‘अभी देखा, दल दंपति को यह सब करते हुए।
हम उस सप्ताह के आखिर में लखनऊ नहीं जा सके। बारिश जो बहुत हुई थी। फिर बाढ़ भी आ गई। इसी बारिश में मिस्टर इन की मौत हो गई। तख्त पर ही उनकी मौत हुई। मिसेज इन भी उनसे बहुत दूर नहीं रहीं।
इस बार उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। वे भी चले गए। और वह भी।