सितंबर का आखिरी हफ्ता. सुबह के माहौल में ठंड की हल्की दस्तक है. अहमदाबाद गणेश विसर्जन के अनगिनत रंगों में डूबा हुआ है. साबरमती नदी पर बने एक पुल पर अबीर-गुलाल में लिपटे नाचते-गाते लोगों के हुजूम के बीच सरकती हुई एक स्कॉर्पियो कार सड़क के किनारे रुकती है. हमारे लिए पीछे का दरवाजा खुलता है. भीतर एक शख्स पर नजरें एक बार जमती हैं तो फिर कुछ मिनट के लिए ठहर-सी जाती हैं. महरून सलवार-कुर्ता, कंधे तक कटे और माथे पर करीने से जमे बाल, आंखों में गहरा काजल और मर्दाना से दिखने वाले होठों पर भूरे रंग की भड़कीली लिपस्टिक. चार-चार अंगूठियों के साथ-साथ मेंहदी से संवारे गए अपने हाथों को आगे बढ़ाकर जब यह शख्स हमसे गाड़ी में बैठने को कहता है तो हम एक पल के लिए ठिठक से जाते हैं. उसके खुरदुरे से दिखने वाले गालों पर उग आई बासी दाढ़ी और गर्दन पर जमी चर्बी की मोटी परतों के बीच झूलती सुनहरी चेन देखकर हमारी उत्सुकता बढ़ जाती है.
आश्चर्य के उन शुरुआती लम्हों को पार कर हम गाड़ी में बैठते हैं. बातों का सिलसिला शुरू होता है. गाड़ी में बैठते ही हमें उस शख्स का परिचय मिलता है, ‘मेरा नाम मोना है. वैसे मेरा असली नाम मोहन था पर बाद में मैंने उसे बदल कर मोना कर दिया.’ साथ ही मौजूद राजू भाई और रहीम भाई (बदला हुआ नाम) से भी हमारी पहचान होती है. तय होता है कि मोना के घर चलने से पहले हम उनकी पहचान की एक चाय की दुकान पर रुककर बात कर सकते हैं. रहीम भाई गाड़ी की स्टीयरिंग संभाले हुए हैं. इस बीच मोना के साथ बात आगे बढ़ती है, ‘आप हमारे बारे में लिखने के लिए आई हैं न? मुझे पता है, सब हमारे बारे में जानना चाहते हैं क्योंकि हम सभी हिजड़े हैं’.
सफलता के साथ अपना ब्यूटी-पार्लर चला रही मोना बताती हैं कि पूरे अहमदाबाद से औरतें उनके यहां आई-ब्रो बनवाने आती हैं
सवाल हमें चौंकाता है. थोड़ा संभलते हुए हम कहते हैं कि हम उनसे इसलिए मिलने आए हैं कि किन्नर होने के साथ जुड़े ऐतिहासिक सामाजिक बहिष्कार को सहते हुए भी उन्होंने अपनी मेहनत से जिंदगी में अपना एक मुकाम बनाया है और अपने क्षेत्र में सफलता की मिसाल कायम की है. विश्वास में लेने की कुछ कोशिशों के बाद वे बात करने के लिए तैयार हो जाते हैं. आगे की सीट पर रहीम भाई के बगल में बैठे राजू भाई भी पीछे मुड़कर बातचीत में शामिल हो जाते हैं. 46 वर्षीय राजू का असली नाम मजीद है. अपने जीवन के बीते दो दशक मंच पर एक सफल नर्तकी के तौर पर गुजर चुके राजू अब सिर्फ खास मौकों पर ही अपनी प्रस्तुति देते हैं. अपनी शोहरत के दिनों को याद करते हुए अचानक राजू की सुरमई आंखों में चमक आ जाती है. वे उत्साहित होकर बताते हैं, ‘स्टेज पर मेरा नाम ‘लैला’ हुआ करता था. मैं क्लासिकल के साथ-साथ फिल्मी गीतों, गजलों और लोकगीतों पर भी प्रस्तुति दिया करता था. एक वक्त सारे गुजरात में मेरे शोज की धूम हुआ करती थी. बाद में खास न्योतों पर मैंने बॉम्बे और राजस्थान में भी कई शो किए.’
राजू को बचपन से ही सामान्य बच्चों से अलग महसूस होता था. लेकिन इस ‘अलग’ होने के मायने उनकी शारीरिक बनावट और उस बनावट को लेकर असहज सामाजिक प्रतिक्रियाओं से बहुत गहराई से जुड़े हुए थे, यह उन्हें बहुत बाद में महसूस हुआ. अपनी शुरुआती यात्रा के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ’10 -12 साल की उम्र तक मुझे समझ में आ गया था कि मैं आदमी नहीं हूं. पूरी तरह से औरत भी नहीं हूं. मुझे बस डांस करने की इच्छा होती थी. हमेशा नाचने का ही मन करता था. मैंने यहीं की एक डांस कंपनी में काम शुरू कर दिया. शुरू में आर्टिस्टों के कपड़े लेकर उनके पीछे खड़ा रहता था. मेकअप का सामान लेकर यहां-वहां दौड़ता रहता था. हमारे ट्रूप के लोग बहुत अच्छे थे. जब उन्होंने देखा कि मेरा डांस को लेकर बहुत लगाव है तो उन्होंने मुझे भी सीखने के लिए कहा. फिर उन्हीं लोगों ने बिना पैसे लिए ही मुझे क्लासिकल सिखाया. फिल्मी गीतों और गजलों पर डांस करना भी सिखाया.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘मेरे पास तो अपनी पहली प्रस्तुति के लिए कपड़े भी नहीं थे. इन लोगों ने ही मुझेे लहंगा बनवा के दिया. गहने दिए और मेरा मेक-अप भी किया. नसीब से मेरा पहला परफार्मेंस बहुत हिट रहा. फिर क्या था, मुझे और काम मिलता गया और मैं खूब सारे डांस शो करने लगा. इस बीच मैंने रियाज करके अपनी कला को भी सुधारा. लगातार मेहनत से मेरे काम में और निखार आया और धीरे-धीरे गुजरात से बाहर के भी प्रोग्राम मिलने लगे.’
लेकिन आसान-सी दिखने वाली राजू की यह यात्रा उतनी आसान नहीं रही. राजू तीन बहनों के बाद पैदा हुए थे. उनके पिता के गुजर जाने के बाद उनकी मां ने किसी तरह उनकी दो बहनों की शादी करवाई. राजू का मानना है कि अगर आज वे जिंदा हैं तो सिर्फ अपनी मां की वजह से. वे बताते हैं, ‘मेरी तीसरी बहन पागल थी. इसलिए अपनी मां और बहन का खर्चा चलाने की जिम्मेदारी मेरे ही कंधो पर थी. सबने मुझे दुत्कारा पर मेरी मां ने हमेशा मुझे अपनाया. वे हमेशा कहती थीं कि मैं जैसा भी हूं, उसे कमा के खिलाता तो हूं. उसने मुझे कभी डांस करने से नहीं रोका, हालांकि मेरे परिवार के बाकी लोगों को बहुत बुरा लगता था.’
एक किन्नर होने के बावजूद राजू ने भीख मांगने के अपने पारंपरिक पेशे को कभी नहीं अपनाया. बल्कि अपनी मेहनत और कला के बल पर रोजी कमाई. लेकिन एक कलाकार के तौर पर अपनी सामाजिक स्वीकार्यता के बारे में पूछने पर वे कुछ देर के लिए खामोश हो जाते हैं. फिर भर्राए हुए गले से कहते हैं, ‘मैडम, 20 साल से ऊपर हो गए नाचते-नाचते, लेकिन आज भी लोग मुझे हिजड़ा ही कहते हैं, कलाकार नहीं. आज भी जब मैं सड़क पर चलता हूं तो सब कहते हैं कि देखो छक्का जा रहा है. मैंने अपने समाज के लोगों, अपने गुरुओं, सभी के नाराज होने पर भी मेहनत करके रोजी कमाने की ठानी. पूरी जिंदगी लगा दी आपकी इस दुनिया में एक जगह बनाने के लिए. खूब मेहनत भी की. रोजी तो कमा ली लेकिन प्यार और इज्जत नहीं. आपको लगता है कि हम लोग सफल किन्नरों की मिसालें हैं? यह ठीक है कि हमने अपने समाज के लोगों की तरह कभी भीख नहीं मांगी, लेकिन उससे हुआ क्या? मेरे पास आज भी न ही कोई कानूनी अधिकार है और न ही इस समाज के लोगों ने मुझे स्वीकार किया. आज एक नृत्य कलाकार के तौर पर 20 साल गुजारने के बाद भी मैं ठगा हुआ महसूस करता हूं.’
भारत में कभी किन्नरों की कोई आधिकारिक गिनती नहीं हुई है लेकिन प्रमुख सामाजिक सर्वेक्षणों के अनुसार पूरे भारत में उनकी संख्या 19 लाख के आस-पास बताई जाती है. भारत में किन्नरों के सात प्रमुख घराने हैं और हर किन्नर इनमें से किसी एक घराने का सदस्य होता है. किन्नरों की इस दुनिया की अपनी व्यवस्था और नियम होते हैं. हर घराने में कई स्तर होते हैं और घराने का मुखिया एक प्रमुख गुरु या ‘नाईक’ होता है. घराने में किसी भी नए सदस्य का आगमन इस गुरु के आशीर्वाद के बाद ही संभव होता है. ज़्यादातर किन्नरों को प्रमुख गुरु, गुरु, छोटे गुरुओं और चेलों का यह सुरक्षात्मक जाल बहुत आकर्षित करता है. किन्नरों पर लिखे अपने एक निबंध में प्रसिद्ध लेखक सलमान रुश्दी कहते हैं कि गुरुओं और चेलों का यह नेटवर्क हिजड़ा होने का मूल भाग है. ‘द हाफ़ वूमेन गॉड’ में वे लिखते हैं, ‘परिवार का यह स्वरूप ही एक हिजड़े के जीवन को अर्थ देता है. ऐसी कई महिलाएं भी हैं जिन्होंने हिजड़ा घरानों और उनकी सुरक्षात्मक संरचना से प्रभावित होकर उन्हें अपना लिया. इस समुदाय के लिए एक सच्चा हिजड़ा होने का अर्थ ही है घराने का हिस्सा बनना और अपने गुरु की सेवा करना.’ लेकिन मोना, राजू और रहीम भाई ने हिजड़ा समुदाय के इन सभी नियमों को ताक पर रखकर अपनी नई जिंदगी बनाने की पूरी कोशिश की.
राजू से बातचीत करते-करते हम इन तीनों दोस्तों की पसंदीदा चाय की दुकान पर पहुंच चुके हैं. चाय का प्याला हमारी तरफ बढ़ाते हुए मोना कहती हैं, ‘हमने बहुत पहले ही तय कर लिया था कि हम आम किन्नरों जैसा जीवन नहीं गुजारेंगे. असल में जब हम अपने समाज में गए तो वहां किन्नरों की हालत देखकर बहुत डर सा लगा. हमने देखा कि उन्हें तरह-तरह की बीमारियां हो गई हैं. वे बहुत तड़प-तड़प के अपनी जिंदगियां गुजार रहे थे. सारी उम्र भीख मांगते रहे लेकिन गरीबी और भुखमरी कभी नहीं गई. तभी हमने सोचा कि हम कुछ भी करेंगे लेकिन इस तरह नहीं मरेंगे. राजू को डांस करना आता था तो उसने इसे अपना पेशा बनाया, रहीम ने एक ठेले से शुरुआत की और आज शहर में अपना होटल चलाता है. देखिए, यह गाड़ी भी उसी की है. और मुझे सजने-संवरने का शौक था तो मैंने अपना ब्यूटी पार्लर खोल लिया. हमें जो भी छोटा-मोटा काम आता था, हमने किया. मेहनत से सीखकर अपने आप को सुधारा भी. लेकिन भीख मांग कर जीने से इनकार कर दिया.’
42 वर्षीया मोना मोहन की तरह एक पारंपरिक हिंदू परिवार में पैदा हुई थी. मोहन से मोना तक की अपनी यात्रा को याद करते हुए वे कहती हैं, ‘जब मैं 8 -10 साल की थी तभी से मुझे लड़कियों की तरह सजना-संवरना बहुत पसंद था. मुझे मेंहदी लगाने का बहुत शौक था और मैं अच्छी मेंहदी लगा भी लेती थी. धीरे-धीरे आस-पास की लड़कियां भी मुझसे मेंहदी लगवाने आने लगीं. उन्हीं से सुनकर पास के ब्यूटी पार्लर वालों को भी पता चला और उन्होंने मुझे बुलाया. उन्होंने कहा कि मेरे हाथों में कला है और अगर मैं चाहूं तो काम सीख सकती हूं. बस मैंने उनके यहां काम सीखना शुरू कर दिया और फिर कुछ सालों बाद अपना ब्यूटी पार्लर खोला. आज पूरे अहमदाबाद से औरतें मेरे यहां आई-ब्रो बनवाने आती हैं. अपने काम से मैं अपना और अपनी बूढ़ी मां का खर्चा आराम से निकाल लेती हूं. और मैं खुश हूं कि मैं वही काम कर रही हूं जो मैं करना चाहती थी.’ लेकिन अपनी किन्नर पहचान के साथ इतनी सफलता हासिल करने के बाद अब वे अपने जीवन को कैसे देखती हैं? इस सवाल को सुनते ही मोना की आंखों में आंसू आ जाते हैं. वे लड़खड़ाती आवाज में कहती हैं, ‘भगवान ऐसी जिंदगी किसी को न दे. आधी जिंदगी तो यही समझने में निकल जाती है कि हम औरत हैं या मर्द. और फिर इस सवाल में उलझ जाती है कि हम इन दोनों में से कुछ क्यों नहीं हैं? और जब दस-बीस सालों की जद्दोजहद के बाद हम खुद को स्वीकार करते हैं, तो दुनिया नहीं मानती. हम कुछ भी क्यों न कर लें, हमेशा हिजड़े ही रहेंगे. मैंने हमेशा चाहा कि लोग मेरी जिंदगी को न देखकर मेरे काम को देखें, लेकिन हुआ हमेशा उल्टा. लोगों ने हमेशा मेरे हुनर को नजरअंदाज किया और सिर्फ यह याद रखा कि मैं एक हिजड़ा हूं.’
राजू और रहीम मोना को संभालते हुए उन्हें सांत्वना देते हैं और उनका उत्साह बढ़ाते हुए अपना ब्यूटी-पार्लर दिखाने के लिए कहते हैं. मोना हमें अपने पार्लर ले जाने के लिए तैयार हो जाती हैं. पुराने अहमदाबाद की एक छोटी सी बस्ती में मौजूद अपना एक कमरे का पार्लर दिखाते हुए मोना की आंखों की चमक लौट आती है. ‘चांदनी ब्यूटी पार्लर’ में कई महिलाएं उनका इंतजार कर रही है. मोना अपने ग्राहकों में व्यस्त हो जाती हैं और हम रहीम से बात करते हैं. एक ठेले पर नाश्ते की छोटी-सी लारी लगाकर अपने व्यवसाय की शुरुआत करने वाले रहीम भाई आज शहर में अपना होटल खोल चुके हैं. बातचीत की शुरुआत से पहले ही वे कहते हैं कि वे अपने किन्नर होने के बारे में बात नहीं कर सकते. वे बताते हैं,’पहले तो कोई मेरा चेहरा तक नहीं देखना चाहता था. मुझे देखकर मेरे परिवारवाले मुंह मोड़ लेते थे. लेकिन जब से मेरा होटल चल निकला, तब से सबने मुझे अपना लिया है. लेकिन उनके साथ रहने के लिए मुझे अपनी किन्नर पहचान छुपानी पड़ती है. वे कहते हैं कि घर की लड़कियों की शादी में दिक्कत होगी. पहचान के लोगों में बदनामी होगी’. एक आखिरी सवाल करते हुए हम पूछते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में आत्मनिर्भर होकर इतनी सफलता अर्जित की है, फिर भी उनके परिवारवाले और मित्र उन्हें उनकी पहचान के साथ स्वीकार क्यों नहीं करते. सवाल सुनते ही सुबह से एक सफल व्यवसायी के तौर पर मुस्कुराते हुए अपनी गाड़ी चला रहे रहीम भाई धीरे से अपनी गर्दन झुका लेते हैं. कुछ देर चुप रहने के बाद वे कहते हैं, ‘मुझे स्वीकार तो किया गया, लेकिन सिर्फ अपनी सफलता की वजह से. और शायद इसलिए स्वीकार्यता भी शायद सिर्फ मेरी सफलता को ही मिली है, मेरे किन्नर होने को नहीं’. यह पीड़ा सिर्फ राजू भाई, मोना और रहीम की ही नहीं, उन तमाम किन्नरों की भी है जिन्होंने अपनी पारंपरिक राह छोड़कर कुछ अलग करने का फैसला किया. मध्य प्रदेश के शहर सागर की पूर्व महापौर कमला बुआ को भी इसका दर्द है कि सफलता हासिल करते ही लोगों का उनके प्रति व्यवहार बदल गया. वे बताती हैं, ‘महापौर बन गई हूं तो घरवाले प्रेम करते नहीं थक रहे. हर कोई रिश्ता जोड़ रहा है. लेकिन यह कैसे भूलूं कि मेरे पैदा होने पर ममता की मूरत कही जाने वाली मां के सीने से न तो एक बूंद दूध निकला और न ही बाप के बटुए से दो रुपये. मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया गया था. मैंने अपनी मेहनत से अपना जीवन संवारा है.’
किन्नर होने के बावजूद राजू ने मांगने के अपने पारंपरिक पेशे को कभी नहीं अपनाया, बल्कि अपनी मेहनत और कला के बल पर रोज़ी कमाई
भोपाल में किन्नरों के उत्थान के लिए काम करने वाले 30 वर्षीय नरेंद्र शर्मा उर्फ मैगी से हमारी पहली मुलाकात शहर के एक रेस्तरां में होती है. सलवार-कुर्ता और काले रंग का दुपट्टा ओढ़े मैगी जब रेस्टोरेंट में दाखिल होती हैं तो माहौल में थोड़ी असहजता फैल जाती है. काजल और गहरे लाल रंग की लिपस्टिक से सजी मैगी को भी अपने अलग होने का एहसास सात साल की उम्र में ही हो गया था. वेटर की कौतूहल भरी निगाहों का सामना करते हुए मैगी आत्मविश्वास के साथ अपने लिए चाय मंगवाती हैं. बातचीत का सिलसिला शुरू करते हुए वे बताती हैं कि उन्हें अपने अलग होने का एहसास सात साल की उम्र में ही हो गया था. वे बताती हैं, ‘मेरे परिवारवालों को तो शुरू में ही पता चल गया था कि मैं किन्नर हूं, लेकिन समाज के डर से उन्होंने मेरी परवरिश लड़के की तरह ही की. अभी जहां मैं किराये पर रहती हूं वहां भी सब मुझे एक लड़के के तौर पर ही जानते हैं. मैं किन्नर तो हूं लेकिन मुझे हमेशा से पता था कि मैं अपनी मेहनत से अपनी पहचान बनाऊंगी. इसलिए मैंने पढ़ाई भी खूब की. फैशन डिजाइनिंग के साथ-साथ कंप्यूटर का भी कोर्स किया. फिर कई जगह नौकरियां भी कीं, लेकिन हर जगह मेरे किन्नर होने की वजह से लोग मुझसे कतराते. हर जगह या तो मेरा मजाक उड़ाया जाता या मुझ पर फब्तियां कसी जातीं.’
फिर मैगी ने सोचा कि दूसरों द्वारा मजाक का पात्र बनने से बेहतर है कि वे अपने समाज के लिए कुछ करें. उन्होंने एक छोटा-सा संगठन बनाकर किन्नरों को उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और अधिकारों के प्रति जागरूक करने का काम शुरू कर दिया. पिछले चार साल से वे किन्नरों के मुद्दों पर लगातार आवाज उठा रही मैगी बताती हैं कि इतनी मेहनत के बाद वे अपनी आजीविका तो कमा लेती हैं लेकिन उन्हें सम्मान नहीं मिलता. वे कहती हैं, ‘मेरे पिता मेरे किन्नर होने की वजह से हमेशा मेरी मां को डांटते थे. अब भी उनका या समाज का मेरे प्रति नजरिया बदला नहीं है. मेरे भाई आज भी मुझे छक्का कहकर बुलाते हैं. मेरे मेहनत करने या अपने पैरों पर खड़े होने से मैं सिर्फ पैसे कमा सकती हूं, प्यार और सम्मान नहीं.’
अहमदाबाद में राजू भाई, मोना और रहीम भाई से विदा लेते हुए एक ही बात जेहन में बार-बार आ रही है. हम आए तो थे ऐसे किन्नरों से मिलने जिन्होंने अपनी पारंपरिक राह को छोड़कर अपनी मेहनत से अपना मुकाम बनाया है. हम बॉलीवुड, फैशन डिजाइन और राजनीति में मौजूद चंद चर्चित किन्नर चेहरों से इतर, आम भारत के आम शहरों में पनप रही सफलता की नई कहानियों की तलाश में आए थे. हमें सफलता की ऐसी कहानियां मिलीं लेकिन हर कहानी सामाजिक स्वीकार्यता के बिंदु पर आते ही बिखर जाती.
ये कहानियां बताती हैं कि यदि अपने समाज, परिवार और तमाम बंधनों को तोड़कर किन्नर अपनी एक नई पहचान बनाने की कोशिश करते हैं तो भी समाज उन्हें स्वीकार नहीं करता. किन्नरों को सिर्फ ‘किन्नर’ बनाए रखने की सोच के आगे सफलता की इतनी मजबूत कहानियां भी टूटती ही लगती हैं. क्या यह स्थिति बदलेगी?
(बृजेश सिंह के योगदान के साथ)