बीती 26 सितंबर की उस दोपहर को बादल छाये हुए थे। बारिश का इंतज़ार था। एक तो मानसून की लुकाछिपी ऊपर से आग उगलता सूरज तिलमिलाहट पैदा कर रहे थे। शहर के टोंक रोड स्थित होटल वैरिएंट में टैक्स्ट मैसेज के ज़रिये चल रही बातचीत में साज़िशों की बेसुरी सरसराहट किसी तनावपूर्ण सियासी ड्रामे की भूमिका तैयार कर रही थी। राजस्थान के प्रभारी अजय माकन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की स्मार्टनेस पर ठहाके लगाते हुए उनकी बखिया उघेड़ रहे थे- ‘अभी तो सचिन पायलट के समर्थकों की संख्या बढ़ती जा रही है…।’ ठहाकों में सुर मिलाते हुए वहाँ मौज़ूद विधायक खिलाड़ी लाल बैरवा बल्लियाँ उछलते हुए कहते नज़र आ रहे थे- ‘वाह, माकन साहब! आपने भी ख़ूब चला तुरुप का पत्ता।’
उधर पोस्ट इंटरनेट पर नाटकीय अंदाज़ में विधायकों को मशविरा देते हुए माकन कहते नज़र आ रहे थे कि आपको सही वक़्त पर सही क़दम उठाना है। आपको मुख्यमंत्री पद के लिए सचिन पायलट की तरफ़दारी करनी है। साज़िश के तारसप्तक में झूमते हुए माकन की अदावत का यह नाटकीय नवाचार था, जो शाम होते-होते रायते की तरह फैल गया।
गहलोत को नीचा दिखाने की तीव्र कामना ने पार्टी में अशोभनीय और अंतर्कलह के हालात पैदा कर दिये। सल्तनत को सँभालने की बजाय माकन ने सुल्तान बनने की कोशिश में हुक्मराना तरीक़ा अपनाया नतीजतन बात बिगड़ती चली गयी। गहलोत समर्थक विधायक ग़ुस्से से अपने नाखून चबा रहे थे, और संसदीय मंत्री शान्ति धारीवाल के फोन खडख़ड़ा रहे थे। माकन को तारणहार की तरह बर्ताव करना था; लेकिन अहंकार के मद में डूबे माकन क्षुब्ध विधायकों के आक्रोश को शान्त करने के लिए किसी से मिलना तो दूर, उन्हें दरकिनार करते हुए होटल तक से बाहर नहीं निकले।
भले ही माकन की मनमानी की बदौलत तनावपूर्ण ड्रामा क्लाइमेक्स तक नहीं पहुँचा; लेकिन गहलोत समर्थकों की भीड़ सैलाब की तरह उमड़ती हुई धारीवाल के निवास पर स्थिर होने लगी। कुषाग्रबुद्धि धारीवाल जानते थे कि इस तीन-तरफ़ा चक्रव्यूह को कैसे सँभालना है? ताकि आलाकमान के प्रति दुराग्रह भी न हो, न भरोसे में कमी आये और न स्वीकार्यता में। साथ ही गहलोत की अस्मिता पर भी कोई आँच भी न आये।
धारीवाल का बेलाग कथन था कि आब्जर्वर अजय माकन अपनी निष्पक्ष भूमिका से इतर जब सचिन पायलट की हिमायत में जुटे थे, तो सभी विधायक मेरे पास पहुँचे। ज़ाहिर है उनकी बात सुनने के तीन-चार घंटे से कम कैसे लगते। विश्लेषक लक्ष्मी प्रसाद पंत का कहना है कि इस घटना ने जयपुर में कांग्रेस के दर्शनशास्त्र के सभी नैतिक अध्याय बदल दिये। राजस्थान की सियासत में क्या होने वाला है, इसके पूरे कालचक्र की स्क्रिप्ट दिल्ली में लिखी गयी थी। तय हुआ कि विधायक दल की बैठक में दो प्रमुख एजेंडे होंगे। पहला राजस्थान का नया मुख्यमंत्री आलाकमान तय करेंगी, इस पर सभी विधायकों को सहमत होना था। दूसरा, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के इस्तीफ़े की पेशकश होनी थी और अध्यक्ष पद पर नामांकन से पहले ही सचिन पायलट को नया मुख्यमंत्री बनाना था। यानी सारे विधायकों को इस स्क्रिप्ट को हँसते-हँसते स्वीकार करना था। पर ऐसा हुआ नहीं। क्यों? सबको पता है।
सियासत के पुराने महाराजा ने दिल्ली से आये आदेशों को दरहम-बरहम कर दिया और अपनी नयी स्क्रिप्ट लिख डाली। भरपूर एक्शन से भरी। क्या राजस्थान कांग्रेस के इतिहास में पहले कभी आलाकमान का ऐसा तिरस्कारपूर्ण विरोध हुआ? क्या सत्ता केंद्र्र से ऐसी चुनौती मिली? इतिहास के पास ऐसे दस्तावेज़ नहीं है, लेकिन पुरानी और नयी पीढ़ी सत्ता के लिए उलझती रही है।
वरिष्ठ पत्रकार अनंत मिश्रा की पहली अक्टूबर 2021 की भविष्यवाणी को याद करें, तो उन्होंने साफ़ कह दिया था कि पंजाब से चली कांग्रेस की बग़ावत एक्सपे्रस का अगला पड़ाव जयपुर होगा, वही हुआ भी। विश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस आलाकमान ने न तो समय पर विवाद निपटाया और न ही मात से सबक़ लिया। नतीजतन सरकार हाथों से सरक गयी। अजय माकन ने जो पंजाब और दिल्ली में जो षड्यंत्र रचा, वो ही उन्होंने जयपुर ने दोहराया। उनको गहलोत और पायलट गुट में समन्वय बनाना था। लेकिन माकन एकतरफ़ा खेल खेल गये। विधायकों के विरोध के बावजूद उन्होंने गहलोत से मिलने तक की ज़रूरत नहीं समझी।
अगर एक-दूसरे को काटने वाली दो अलहदा बातों पर भरोसा करना अक़्लमंदी की निशानी है, तो ज़ाहिर है कि अजय माकन ने बेहद अक़्लमंद रवायत पर निजी तौर पर ठप्पा लगा दिया। आख़िर क्यों कर एक के बाद एक विधायक माकन पर ग़ैर-भरोसेमंदी का इल्जाम लेकर संसदीय मंत्री शान्ति धारीवाल के पास पहुँचे? अचम्भे और शक-शुबह में मुब्तिला विधायकों की कहानियाँ अविश्वास के बियाबान से धू-धू करती नज़र आ रही थी। अगर ताज़िन्दगी मनमानी में मुब्तिला रहे माकन की जन्म कुंडली को बाँचा जाए, तो विश्वास की बर्फ़ पिघलती चली जाएगी।
सूत्र कैप्टन अमरिंदर सिंह के बयान का हवाला देते हैं कि माकन 1984 के सिख विरोधी दंगों के मुख्य आरोपी ललित माकन के भतीजे हैं, ऐसे में पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों को चुभने वाली स्क्रीनिंग कमेटी में अजय माकन को चेयरमैन बनाया गया। यह तो पंजाबियों के जख़्मों पर नमक छिडक़ने जैसा काम था। $गज़ब तो यह है कि अजय माकन ने दिल्ली विधानसभा चुनावों में पार्टी की लगातार दो शिकस्तों में अहम भूमिका निभायी। जिस शख़्स ने दिल्ली में कांग्रेस का पूरी तरह सफ़ाया कर दिया, उसे क्यों पंजाब की ज़िम्मेदारी सौंपी? विशेषज्ञ कहते हैं कि कांग्रेस आलाकमान ने आगे चलकर आत्मघात का गड्ढा खोद लिया।
मुख्यमंत्री गहलोत ने 2020 के सियासी संकट का ज़िक्र करके सचिन पायलट गुट की भाजपा के साथ मिलीभगत की नयी थ्योरी भी सामने रखी। पायलट का नाम लिये बिना सन् 2020 के संकट का ज़िक्र किया और कहा कि उस वक़्त कुछ विधायक अमित शाह और धर्मेन्द्र प्रधान के साथ बैठे थे। इसे वीडियो में शाह हँस-हँसकर कह रहे हैं कि पास आओ। मिठाई खिला रहे हैं। बाद में राज्यपाल ने तिथि निश्चित की तो हार्स ट्रेडिंग का खेल शुरू हो गया और सत्ता के इन घोड़ों की क़ीमत 10 से शुरू होकर 50 करोड़ पहुँच गयी। लेकिन गहलोत की लगाम में विश्वास का बल था। नतीजतन भाजपा को मुँह की खानी पड़ी।
प्रश्न है कि जो नेता सन् 2014 से 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव हार गया; यहाँ तक कि अपनी जमानत तक नहीं बचा सका; उसे राजस्थान का विवाद सुलझाने का अहम दायित्व क्यों सौंप दिया गया? विश्लेषकों का कहना है कि माकन तो राजस्थान में गहलोत सरकार की बुलंद इमारत को गिराने आये थे। लेकिन आख़िर उन्हें बेदर्द रुख़सती ही मिली। गहलोत के माफ़ीनामे के मुद्दे को लेकर तर्क-वितर्क का लम्बा सिलसिला भी चला। लेकिन रिसते हुए बाँध को टूटना ही था कि जिन्होंने मेरी सरकार बचायी, उनको मैं कैसे धोखा दे सकता था? इसलिए मैंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से माफ़ी माँगना ही बेहतर समझा। गहलोत ने विधायक दल की बैठक में शिरकत करने आये राजनीतिक समीक्षक मल्लिकार्जुन तक का नसीहत दे दी कि आपको पार्टी अध्यक्ष के सोच और आभामंडल को ध्यान में रखते हुए इस काम को करना था; लेकिन कहाँ कर पाए? उन्होंने वही बेबाक़ी से कहा कि नये मुख्यमंत्री का नाम आने से विधायक भडक़ गये थे।
एक राजनीतिक सूत्र के शब्दों में क़िस्सा-कुर्सी के मुद्दे पर बड़े दावों वाला कहीं बड़ा खेल खेला जा रहा था, जिसमें गहलोत को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाना था और सत्ता के नये नियम तय होने थे। इसकी भीतरी खोह में छिपी यूज एंड थ्रो की दराती छिपी हुई थी। लेकिन करामती रणकौशल में माहिर गहलोत सत्ता हथियाकर उन्हें दरकिनार करने की साज़िश को भाँप गये और बचाव कर लिया। नतीजतन पर्यवेक्षकों की जमकर फ़ज़ीहत हुई पर्यवेक्षकों के लिए अपना दामन बचाना मुश्किल हो गया, उन्हें रिपोर्ट में गहलोत के पक्ष में बाज़ी पलटनी पड़ी। रिपोर्ट में कहा गया कि जो बग़ावत हुई उसके लिए तकनीकी तौर पर गहलोत ज़िम्मेदारी नहीं थे। पूरे घटनाक्रम में गहलोत न तो खुलकर सामने आये और न ही कोई बयान दिया। पूरे घटनाक्रम में माकन की भूमिका सवालों में रही।
मल्लिकार्जुन को भी सोनिया गाँधी को फोन पर बताना पड़ा कि ‘सब कुछ माकन के मिस मैनेजमेंट की वजह से हुआ। आलाकमान को भी विवाद को बढऩे से रोकना पड़ा। आख़िर गहलोत के हक़ में दो बड़े मुद्दे थे। पहला-कांग्रेस के पास अब दो ही राज्य बचे हैं। पहला राजस्थान और दूसरा-छत्तीसगढ़। आलाकमान को पार्टी चलाने और चुनावों क प्रबंधन सँभालने के लिए गहलोत की ज़रूरत थी। गुजरात विधानसभा चुनावों का दारोमदार भी गहलोत पर ही था। अलबत्ता गहलोत के नज़दीकी राजनेताओं को नोटिस भेजना सांकेतिक कार्यवाही थी, ताकि आलाकमान का रुतबा बना रहे। पायलट न घर के रहे, न घाट के। भाजपा के निमंत्रण से उन पर सन्देह के बादल घने हो गये हैं। हालाँकि पायलट भाजपा के महासागर में बूँद बनने नहीं जा सकते; लेकिन आइंदा के लिए ताजपोशी की उम्मीदें भी तो तबाह हो गयीं।
धारीवाल का रणकौशल
गहलोत ख़ेमे के मुख्य रणनीतिकार नगरीय विकास मंत्री शान्ति धारीवाल ने दिल्ली का सियासी मौसम बदलकर गहलोत के ताज को सुरक्षित कर लिया। सूत्र कहते हैं कि पर्यवेक्षकों के दुश्चक्र ने सरकार पलटने की ऐसी कौडिय़ाँ खेलने की तैयारी कर ली थी कि लोहा दाँत के नीचे आ गया था। नतीजतन धारीवाल ने आलाकमान द्वारा भेजे गये प्रभारी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने में एक पल की भी देर नहीं लगायी। उन्होंने जिस तरह पिरामिड पर बैठे गहलोत को सुरक्षित किया, प्रदेश के राजनीतिक हलक़ों में चर्चाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। अटकलों की इस हवाबाज़ी में धारीवाल जिस तरह माकन पर हमलावर रहे। विश्लेषक इसका निहितार्थ तलाशने की माथापच्ची कर रहे हैं। उनका सवाल है कि आख़िर धारीवाल ने कौन-से जुनून की सवारी की और दुश्चक्र को पैरों तले रौंद दिया। उन्होंने अपनी साख को दाँव पर लगाकर भितरघात की बखिया उघेडक़र गहलोत सरकार को सुरक्षित कर दिया। विश्लेषकों कहते हैं कि अगर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और गहलोत सरकार के बीच खाई बढ़ती है, तो गहलोत ख़ेमा फिर आगे आ सकता है। ऐसे में धारीवाल फिर मोर्चाबंदी कर सकते हैं। गहलोत के प्रति भरोसे का एक ख़ामोश अहसास धारीवाल के चेहरे पर हर किसी को दिखायी देता है। इसलिए विधायक और मंत्री उनकी बातों को पूरी निष्ठा से तवज्जो देते हैं। अब उनका सियासी क़द कितना ऊँचा हो गया है, कहने की ज़रूरत नहीं। धारीवाल सरकार के छोटे-मोटे पहलुओं को ही नहीं, कई बार पूरे प्रतिमान को दुरुस्त कराने का काम करते हैं। कई मौक़ों पर धारीवाल ने सरकार का वित्तीय अंकगणित सुलझाने का काम भी किया है, तो लोगों के अहम् पर भी ख़ूबसूरत लफ़्ज़ों में बतर्ज छींटाकशी के छींटे भी मारे हैं।