मौज़ूदा वक़्त में सभी की निगाहें रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग और उससे होने वाले नुक़सान का अनुमान लगाने पर टिकी हुई हैं। लेकिन इसी दरमियान विश्व में जलवायु परिवर्तन के प्रति आगाह करने वाली एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट जारी हुई है। यह रिपोर्ट धरती, मानव, खेती आदि पर मँडरा रहे ख़तरों को हमारे सामने विस्तार से रखती है। जलवायु परिवर्तन पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा हाल ही में जारी छठी मूल्यांकन रिपोर्ट के दूसरे भाग में साफ़ कहा गया है कि अगर कार्बन उत्सर्जन में कटौती नहीं हुई, तो निकट भविष्य में गर्मी व उमस इंसान की सहनशीलता की सीमा को पार कर जाएगी। यह ख़तरा भारत समेत कई देशों पर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत उन स्थानों में से एक होगा, जो इन असहनीय परिस्थितियों का अनुभव करेगा। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के वर्किंग ग्रुप की इस रिपोर्ट से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन के मानकों को हासिल करना तो दूर रहा, वातावरण को नष्ट करने वाली गैसों के उत्सर्जन में 14 फ़ीसदी बढ़ोतरी होने जा रही है। कम-से-कम आधी मानवता ख़तरे की ज़द में आ चुकी है।
दरअसल इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित विज्ञान का आकलन करने वाली एक अंतरराष्ट्रीय संस्था है। आईपीसी की स्थापना संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और विश्व मौसम विज्ञानी संगठन द्वारा सन् 1988 में की गयी थी। यह पैनल जलवायु पर परिवर्तन नियमित वैज्ञानिक आकलन, इसके निहितार्थ और भविष्य में सम्भावित जोखिमों के साथ-साथ अनुकूलन तथा शमन के विकल्प भी उपलब्ध कराता है। इस पैनल में विभिन्न देशों के वैज्ञानिक शामिल होते हैं। आईपीसीसी क़रीब हर सात वर्षों में एक आकलन रिपोर्ट तैयार करता है। अब तक पाँच ऐसी मूल्यांकन आकलन रिपोर्ट जारी हो चुकी हैं। पाँचवीं मूल्यांकन रिपोर्ट 2014 में पेरिस में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के लिए तैयार की गयी थी। फरवरी, 2015 के 41वें सत्र में यह तय किया गया था कि जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के प्रभावों को शामिल करते हुए नयी आकलन रिपोर्ट 2022 में जारी की जाएगी। ग़ौरतलब है कि आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट का पहला भाग ‘रिपोर्ट ऑन द फिजिकल साइंस बेसिस’ अगस्त, 2021 में जारी किया गया।
इसी का दूसरा भाग ‘इम्पैक्ट्स, अडॉप्टेशन ऑर वल्नेरेबिलिटी’ शीर्षक से 28 फरवरी, 2022 को जारी किया गया है। इस छठी आकलन रिपोर्ट की अन्तिम व तीसरी $िकस्त भी इसी साल जारी की जाएगी। यह रिपोर्ट 67 देशों के 270 वैज्ञानिकों ने तैयार की है और 195 देशों की सरकारों ने इसे मंज़ूरी दी है। छठी आकलन रिपोर्ट के पहले भाग में भी दुनिया के देशों को आगाह किया गया था, अगले 20 सालों में वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगा। यदि वर्तमान की तरह ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जारी रहा तो 21वीं सदी के मध्य में ही वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाएगा। कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता 20 लाख वर्षों में सबसे अधिक है।
समुद्री जलस्तर में वृद्धि 3,000 वर्षों में सबसे तेज़ है। तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि भारी से भारी बारिश की घटनाओं की तीव्रता को और बढ़ा देगी। महासागरों का गर्म होना जारी रहेगा। इसी रिपोर्ट का दूसरा भाग हाल ही मे जारी हुआ है। इसके मुताबिक, प्रदूषण के लिए सबसे बड़े ज़िम्मेदार माने जाने वाले देश भी ख़ुद को तबाह करने पर तुले हुए हैं। इसमें निष्कर्ष निकाला गया है कि जलवायु परिवर्तन के नुक़सान इंसानों,जानवरों, कृषि, पौधों और पूरी परिस्थितिकी को इस क़दर प्रभावित कर रहे हैं कि उन्हें वापस बहाल करना सम्भव नहीं रह गया है। बेक़ाबू कार्बन प्रदूषण से जोखिम वाले क्षेत्रों को सबसे अधिक ख़तरा होना तय माना गया है। यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन विश्व के सभी हिस्सों को प्रभावित करता है; लेकिन सभी हिस्से समान रूप से प्रभावित नहीं होते। कहीं पर यह प्रतिकूल असर ज़्यादा, तो कहीं उससे कम पड़ता है। पर यह निश्चित है कि इससे हर कोई प्रभावित हो रहा है। इस रिपोर्ट के मुख्य लेखक पीटर अलेक्जेंडर ने कहा कि इस वजह से हम सब असुरक्षित हैं। वैज्ञानिकों ने किस महाद्वीप में जलवायु परिवर्तन का क्या असर पड़ेगा? इसका अनुमान लगाया है। हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने से चट्टान के पीछे जमा हो सकता है। यह झील के ज़रिये जब चट्टान से होकर तीव्र वेग से आगे बढ़ेगा, तो पर्वतीय समुदाय को अपनी चपेट में ले लेगा। उनकी जान जोखिम में पड़ सकती है। साथ ही मच्छरों की वजह से डेंगू और मलेरिया पूरे एशिया में फैल जाएगा।
यूरोप में बीते कई वर्षों में गर्मी बढ़ रही है। अगर महाद्वीप में ग्लोबल वार्मिंग 3 डिग्री सेल्सियस तक पहुँची, तो यहाँ हालात बहुत ख़तरनाक होंगे। गर्मी से होने वाली मौतों में बहुत वृद्धि होगी। यही नहीं बाढ़ भी अपना कहर ढायेगी। इटली के $खूबसूरत शहर वेनिस के डूबने की आशंका भी व्यक्त की गयी है। उत्तरी अमेरिका की बात करें, तो यहाँ बड़े जगंल की आग जंगलों को और जलाती रहेगी। पश्चिमी अमेरिका व कनाडा में भारी बारिश होगी। इससे बड़े पैमाने पर तबाही होने का अनुमान है। दक्षिण और मध्य अमेरिका के बाबत बताया गया है कि अमेजन के वर्षावन और इसके द्वारा समर्थित हज़ारों विविध पौधे और जानवरों के सूखे के चपेट में आने की आशंका है। जलवायु परिवर्तन की ज़द में ऑस्ट्रेलिया भी आता है। यहाँ के ग्रेट बैरियर रीफ और केल्प के जंगल भी गर्मी में झुलसेंगे। लू और गर्मी की वजह से पर्यटन राजस्व पर काफ़ी असर पड़ेगा।
विश्व का सबसे गर्म महाद्वीप अफ्रीका में गर्मी में और अधिक इज़ाफ़ा हो सकता है। इससे वहाँ के लोगों के तनाव में आने का ख़तरा बढ़ सकता है। अगर ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाती है, तो यहाँ प्रति एक लाख में कम-से-कम 15 अतिरिक्त लोग भीषण गर्मी की वजह से मारे जाएँगे। भारत को लेकर भी आईसीपीपी की यह आकलन रिपोर्ट कई स्तर पर सचेत करती है। अगर तापमान में वृद्धि जारी रहती है, तो $फसल उत्पादन में तेज़ी से कमी आएगी। जलवायु परिवर्तन और बढ़ती माँग का मतलब है कि भारत में 2050 तक क़रीब 40 फ़ीसदी लोग पानी की कमी के साथ जीएँगे, जो कि इस समय यह संख्या 33 फ़ीसदी है। भारत के कुछ हिस्सों में चावल का उत्पादन 30 और मक्का का 70 फ़ीसदी गिर सकता है। अगर उत्सर्जन में कटौती की जाती है, तो यह आँकड़ा 10 फ़ीसदी हो जाएगा। भारत में जलवायु परिवर्तन का जो असर समुद्र स्तर पर पड़ेगा, वह चौंकाने वाला है। समुद्र स्तर व नदी की बाढ़ से आर्थिक लागत दुनिया में सबसे अधिक होगी। अकेले मुम्बई में समुद्र स्तर में वृद्धि से 2050 तक प्रतिवर्ष 162 अरब डॉलर के नुक़सान की आशंका जतायी गयी है। यही नहीं, भारत दूसरे देशों में जलवायु परिवर्तन की से होने वाले परिणामों से भी प्रभावित होगा। आईपीसीसी की इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि शहर और शहरी केंद्र वैश्विक तापमान को बढ़ाने में बराबर अपनी भूमिका निभा रहे हैं।
सिटीस व सेटलमेंट अध्याय की लेखिका अंजलि प्रकाश ने लिखा है कि शहरी भारत पर अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक ख़तरा मँडरा रहा है। क्योंकि एक अनुमान है कि 2050 तक यानी अगले 28 वर्षों में शहरवासियों की आबादी क़रीब 88 करोड़ हो जाएगी, जो कि वर्ष 2020 तक क़रीब 48 करोड़ थी। रिपोर्ट में यह भी ख़ुलासा किया गया है कि आद्र्र्रता व तापमान का संयुक्त पैमाना (वेट बल्ब तापमान) 31 डिग्री तक पहुँच जाएगा, जो मानव जीवन के लिए ख़तरनाक होता है। अगर यह 35 डिग्री तक पहुँच जाए, तो बहुत घातक होता है। भारत में अभी यह 25-30 डिग्री रहता है और शायद ही कभी 31 डिग्री से अधिक होता है।
भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है और इसने 2070 तक नेट जीरो के स्तर तक पहुँचने का वादा किया है। बेशक भारत सरकार ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती वाले इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कुछ नीतियाँ बनायी हैं; लेकिन अभी इस दिशा में सरकार को बहुत अधिक काम करने की ज़रूरत है। जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक़सानों पर कभी चुनावी रैलियों में चर्चा नहीं होतीं। राजनीतिक प्रतिबद्धता का अभाव साफ़ दिखायी देता है। जलवायु परिवर्तन सरीखे गम्भीर मुद्दे पर सरकारी नीतियों व कार्यक्रमों की समीक्षा समय-समय पर बहुत ज़रूरी है।