जब कोई व्यक्ति सरकारी सेवा में जाता है, तो उसके पीछे एक बड़ी वजह यह होती है कि उसे बुढ़ापे में पेंशन मिलती रहेगी, जिससे बच्चों द्वारा उसे रोटी न देने की अवस्था में भी उसे किसी के आगे दो वक़्त की रोटी के लिए मोहताज नहीं होना पड़ेगा। लेकिन पिछले समय सरकार ने कई सरकारी विभागों की पेंशन योजना को बन्द करने का ऐलान करके उन कर्मचारियों-अधिकारियों को सकते में डाल दिया है, जो इसी आस में मेहनत-मशक़्क़त करके सरकारी नौकरी में आये थे। हालाँकि कहा जा रहा है कि इस लाभ से वही सरकारी कर्मचारी वंचित होंगे, जिनकी नियुक्ति सन् 2009 के बाद के हुई होगी।
इस मामले में हाल ही में सरकार ने कहा है कि कर्मचारी अब नेशनल पेंशन सिस्टम को छोड़कर पुरानी पेंशन स्कीम का लाभ 31 मई, 2021 तक ले सकते हैं। इसके लिए आवेदन की तारीख़ 5 मई थी, जो अब निकल चुकी है। इस प्रावधान में स्पष्ट किया गया है कि इस योजना के तहत आवेदन न करने वाले कर्मचारियों को नेशनल पेंशन सिस्टम के प्रावधानों के तहत फ़ायदा मिलता रहेगा। लेकिन जो भी कर्मचारी 01 जनवरी, 2004 से 28 अक्टूबर, 2009 के बीच में नियुक्त हुए हैं, उन्हें सीसीएस पेंशन के तहत ही पेंशन का लाभ मिल सकेगा। इसी तरह अर्धसैनिक बलों को पेंशन नहीं मिलेगी। समझ नहीं आता कि सैन्य संगठनों के लिए वन रैंक वन पेंशन की बात करने वाली सरकार अब सैनिकों की पेंशन देने में भी असमर्थ क्यों है?
सवाल है कि जब अपनी नौकरी करने के लिए या देश सेवा के लिए कोई व्यक्ति अपना पूरा जीवन लगा देता है, तो उसे पेंशन क्यों नहीं मिलनी चाहिए? जबकि इसी देश में उस व्यक्ति को भी आजीवन पेंशन मिलती है, जो केवल एक दिन के लिए भी संसद का सदस्य बन जाता है। भारत सरकार की ओर से हर ऐसे नेता को पेंशन दिये जाने की व्यवस्था है, जो एक भी बार, एक भी दिन के लिए चुनकर संसद में गया है। इसी तरह विधानसभा चुनाव जीतने वाले विधायकों के लिए पेंशन की व्यवस्था है। सर्वोच्च न्यायालय ने 16 अप्रैल, 2018 को भी एक याचिका को ख़ारिज कर दिया था। उसके बाद कुछ महीने पहले सेवानिवृत्त सांसदों को दी जाने वाली पेंशन और अन्य भत्तों के ख़िलाफ़ फिर एक याचिका को सर्वोच्च न्यायालय ने ख़ारिज कर दिया था। इसमें सांसदों को मिलने वाली पेंशन व अन्य भत्तों को ख़त्म करने की माँग की गयी थी। न्यायालय ने केंद्र सरकार के तर्क को सही ठहराया था कि पूर्व सांसदों को कार्यकाल समाप्त होने के बाद पद की गरिमा को बनाये रखने के लिए पेंशन व अन्य भत्ते दिया जाना उचित है। यानी सांसदों को पेंशन और सभी भत्ते इसी तरह मिलते रहेंगे। तो फिर उन लोगों को कम-से-कम पेंशन क्यों नहीं मिलनी चाहिए, जो 60-62 साल की उम्र तक सरकारी सेवा में रहते हैं।
संसद सदस्य वेतन, भत्ता और पेंशन अधिनियम, 1954 के अनुसार, एक पूर्व सांसद को 20,000 रुपये महीना पेंशन और पाँच साल से अधिक सेवाकाल हो, तो उसे सेवानिवृत्ति पर 1,500 रुपये अलग से हर माह दिये जाते हैं।
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और पूर्व सांसद योगी आदित्यनाथ समिति ने सांसदों की पेंशन राशि बढ़ाकर 35,000 रुपये महीने करने की सिफ़ारिश की थी। बड़ी बात यह है कि सभी सुविधाओं को भोगने वाले ये लोग पेंशन भी नहीं छोडऩा चाहते, तो उम्र भर सेवा करने वालों की पेंशन पर आँच क्यों?
एक सांसद को तब भी पेंशन मिलने लगती है, जब उसने एक दिन भी सांसदी सँभाली हो। इसमें एक अजब-ग़जब बात यह है कि सांसदों और विधायकों को दो-दो, तीन-तीन बार पेंशन लेने तक का हक़ है। मसलन कोई व्यक्ति पहले विधायक रहा हो और बाद में सांसद बना हो या पहले सांसद और बाद में विधायक बना हो, तो उसे दो-दो पेंशन मिलती हैं। इतना ही नहीं, इनके पति, पत्नी या आश्रित को भी परिवार गुज़ारा भत्ता (फेमिली पेंशन) की सुविधा है। मतलब अगर किसी सांसद या पूर्व सांसद या विधायक या मंत्री की मृत्यु हो जाती है, तो उसके पति या पत्नी या आश्रितों को आजीवन आधी पेंशन दी जाती है। इसके अलावा सभी को मुफ़्त रेल यात्रा की सुविधा दी जाती है। पूर्व सांसदों को किसी एक सहयोगी के साथ ट्रेन में द्वितीय श्रेणी एसी में मुफ़्त यात्रा की सुविधा है; जबकि अकेले यात्रा करने पर प्रथम श्रेणी एसी की सुविधा है।
इन्हीं सब बातों से आहत होकर सनातन धर्म परिषद् के संस्थापक नंदकिशोर मिश्रा ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है। उन्होंने भारत के सभी नागरिकों से यह अपील की है कि वे इस याचिका के पक्ष में खड़े हों, ताकि इन माननीयों को मिलने वाली इस सुविधा को ख़त्म किया जा सके और देश का एक बड़ा ख़र्चा बच सके। उन्होंने याचिका में कहा है कि 2018 के सुधार अधिनियम के तहत सांसदों को पेंशन नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि राजनीति कोई नौकरी या रोज़गार नहीं, बल्कि एक नि:शुल्क सेवा है। राजनीति लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत एक चुनाव है, जिसमें सेवानिवृत्ति के बाद भी किसी को फिर से उसी स्तर / पद के लिए चुना जा सकता है। उन्होंने याचिका में कहा है कि वर्तमान में उन्हें सेवा के पाँच साल पूरे न होने पर भी पेंशन मिलती है। इसमें एक और बड़ी गड़बड़ी यह है कि अगर कोई व्यक्ति पहले पार्षद रहा हो, फिर विधायक बन जाए और फिर सांसद बन जाए; तो उसे एक नहीं, बल्कि तीन-तीन पेंशनें मिलती हैं। यह देश के नागरिकों साथ बहुत बड़ा विश्वासघात है, जो तुरन्त बन्द होना चाहिए।
याचिका में यह भी माँग की गयी है कि केंद्रीय वेतन आयोग के साथ संसद सदस्यों, सांसदों का वेतन भत्ता संशोधित किया जाना चाहिए और इनको आयकर (इनकम टैक्स) के दायरे में लाया जाना चाहिए।
वर्तमान में वे स्वयं के लिए मतदान करके मनमाने ढंग से अपने वेतन व भत्ते बढ़ा लेते हैं और उस समय सभी राजनीतिक दलों के सुर एक हो जाते हैं। सांसदों को अपनी वर्तमान स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली त्यागनी चाहिए और भारतीय जन-स्वास्थ्य के समान स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में भाग लेना चाहिए। इसके अलावा किसी माननीय का इलाज विदेश में नहीं, भारत में ही होना चाहिए। अगर किसी को विदेश में करवाना हो, तो वह अपने ख़र्च से करवाए। इनको मिलने वाली अनेक छूटें, मुफ़्त घर, मुफ़्त राशन, मुफ़्त बिजली, मुफ़्त पानी, मुफ़्त फोन बिल जैसी सभी रियायतें समाप्त होनी चाहिए। हैरत यह है कि ये लोग न केवल ऐसी बहुत-सी रियायतें प्राप्त करते हैं, बल्कि नियमित रूप से इन्हें बढ़ाते भी रहते हैं। इससे देश की बड़ी पूँजी इसी में चली जाती है।
यही नहीं, याचिका में यह भी माँग की है कि अपराधी प्रवति के नेताओं को चुनाव लडऩे से रोका जाए। संदिग्ध व्यक्तियों को दण्डित रिकॉर्ड, आपराधिक आरोप, झूठे वादों और अतीत या वर्तमान को देखकर संसद से प्रतिबन्धित किया जाना चाहिए। कार्यालय में राजनेताओं के कारण होने वाले वित्तीय नुक़सान की वसूली उनके परिवारों, नामांकित व्यक्तियों और दोषियों की सम्पत्तियों से की जानी चाहिए। सांसद, विधायक भी सामान्य भारतीय लोगों पर लागू सभी क़ानूनों का समान रूप से पालन करें। नागरिकों द्वारा एलपीजी गैस सब्सिडी का कोई समर्पण नहीं होना चाहिए, जब तक सांसदों और विधायकों को उपलब्ध सब्सिडी, संसद कैंटीन में सब्सिडी वाले भोजन सहित अन्य रियायतें वापस नहीं ले ली जातीं। नंदकिशोर मिश्रा कहते हैं कि संसद में सेवा करना एक सम्मान है, लूटपाट के लिए एक आकर्षक करियर नहीं। इनकी मुफ़्त रेल और हवाई जहाज की यात्रा की सुविधा बन्द हो। आख़िर आम आदमी क्यों उठाये इनकी मौज़-मस्ती का ख़र्च?
नंदकिशोर मिश्रा कहते हैं कि यदि प्रत्येक व्यक्ति कम-से-कम 20 लोगों से सम्पर्क करता है, तो भारत में अधिकांश लोगों को यह सन्देश प्राप्त करने में केवल तीन दिन लगेंगे। क्या आपको नहीं लगता कि यह मुद्दा उठाने का सही समय है? क्योंकि अगर हम 2018 के आँकड़े देखें, तो पता चलता है कि देश में विधायकों पर हर साल क़रीब 1100 करोड़ रुपये, सांसदों पर हर साल क़रीब 30 अरब रुपये का ख़र्च होता है। इसके अलावा इनकी सुरक्षा पर करोड़ों रुपये का ख़र्च अलग होता है। वहीं एक आम नागरिक मूलभूत सुविधाओं को भी तरसता है।
हैरानी की बात यह है कि जिसकी वजह से केंद्र और राज्यों की सरकारें सवालों के घेरे में हैं कि सांसदों और विधायकों की सेवानिवृत्ति पर उन्हें या उसके परिवार को जीवन भर के लिए पेंशन का प्रावधान हो जाता है, तो किसी सरकारी कर्मचारी के लिए यह क्यों सुविधा नहीं है? बल्कि उन्हें तो चंद रुपये की अपनी वाजिब पेंशन के लिए सरकारी कार्यालयों के चक्कर काटकर जूते घिसने पड़ते हैं। अगर आज के हालात के हिसाब से देखा जाए, तो सांसदों और विधायकों की पेंशन से सम्बन्धित नियमों में अनेक कमियाँ नज़र आती हैं।
पूर्व सांसदों के लिए पेंशन की व्यवस्था सभी लोकतंत्रात्मक देशों में है। परन्तु उन्हें पेंशन उस दिन से मिलती है, जब वे उतनी आयु के हो जाते हैं, जो उस देश में शासकीय कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की आयु है। जैसे यदि फ्रांस में शासकीय कर्मचारी की सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष है, तो वहाँ के हर सांसद को 60 वर्ष का होने के बाद ही पेंशन मिलेगी।
बात पेंशन की हो या वेतन की, भारत की अर्थ-व्यवस्था को देखते हुए यह सार्वजनिक हित में नहीं है। इन नियमों में तत्काल परिवर्तन की ज़रूरत है। कम-से-कम सांसदों और विधायकों का वह अधिकार समाप्त कर देना चाहिए, जिसके चलते वे स्वयं अपने वेतन-भत्ते निर्धारित कर लेते हैं। मेरे ख़याल से विदेशों की तरह यहाँ भी पेंशन के नियमों में परिवर्तन करके पेंशन पाने की आयु-सीमा शासकीय कर्मचारी की सेवानिवृत्ति की आयु-सीमा के समान होनी चाहिए।
ग़ौरतलब है कि पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इस प्रकार की पहल की तो थी, परन्तु उन्हें समर्थन प्राप्त नहीं हुआ। वेतन और पेंशन सम्बन्धी नियमों में परिवर्तन न होने से जनप्रतिनिधियों की प्रतिष्ठा पर जो प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, वह जारी रहेगा और संसद की प्रजातांत्रिक विश्वसनीयता पर भी सवाल उठेंगे। हमारे संविधान ने संसद और विधानमंडल को सरकार की वित्तीय गतिविधियों पर पूरा नियंत्रण रखने का अधिकार दिया है। संसद और विधानमंडल की स्वीकृति के बिना सरकार एक पैसा भी ख़र्च नहीं कर सकती। परन्तु माननीयों द्वारा पेंशन के अधिकार का उपयोग स्वयं के लाभ के लिए किया जाता रहा है, जो कि एक दृष्टि से अनैतिक है।
आज ऐसा लगता है कि जनप्रतिनिधि अपने हित में सरकारी कोष का दुरुपयोग कर रहे हैं। इससे जनप्रतिनिधियों और जनता के बीच में अविश्वास की खाई दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जो स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज को क़ायम रखने में बाधक सिद्ध हो सकती है। आज समय की माँग है कि जनप्रतिनिधियों को अपने चाल-चलन से आदर्श स्थापित करना चाहिए।
(लेखक दैनिक भास्कर
के राजनीतिक सम्पादक हैं।)