बीती छह जुलाई की सुबह भारतीय सिनेमा के प्रमुख फिल्मकार मणि कौल नहीं रहे. 1960 में बने पुणे फिल्म स्कूल से निकले जिन कुछ फिल्मकारों ने अपनी अलग जगह बनाई उनमें मणि की खास जगह है. अपने गुरु ऋत्विक घटक से उन्होंने न सिर्फ सिनेमा की बारीकियां जानीं बल्कि साहित्य और संगीत को भी गहरे आत्मसात किया. वे संभवतया अकेले फिल्मकार हैं जिन्होंने हिंदी और विश्व साहित्य की कृतियों का इतना अधिक इस्तेमाल किया. नयी कहानी आंदोलन के प्रमुख कहानीकार मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ (1971) उनकी पहली कथा फिल्म थी. फिर यह सिलसिला अनवरत चलता रहा. इस कड़ी में 1971 में मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ का रूपांतरण, 1973 में विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’, 1979 में विजय तेंदुलकर के नाटक ‘घासीराम कोतवाल’, 1980 में गजानन माधव मुक्तिबोध की कहानी ‘सतह से उठता आदमी’, 1989 में फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की की कहानी ‘द मीक वन’ पर ‘नजर’, 1992 में फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की के उपन्यास ‘इडियट’ पर ‘अहमक’ और 1992 में विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास पर ‘नौकर की कमीज’ शामिल हैं. अपनी जानलेवा बीमारी से पहले वे विनोद कुमार शुक्ल के ही एक दूसरे महत्वपूर्ण उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ पर काम कर रहे थे, लेकिन बीमारी के कारण उन्होंने इसकी पटकथा लिखे जाने के बाद निर्माण शुरू नहीं किया. इन कथा फिल्मों के अलावा मणि कौल ने ‘ध्रुपद’ (1982), ‘माटी मानस’ (1984) और ‘सिद्धेश्वरी’ (1989) जैसे महत्वपूर्ण वृत्तचित्रों का भी निर्माण किया.
अगर फिल्म आपको वही सब कुछ दिखाए जो दर्शकों को ज्ञात हो तो यह नई रचना हमें किस ओर ले जाएगी
जोधपुर में जन्मे मणि को बचपन से ही फिल्मों का जबरदस्त जुनून था जो उन्हें पुणे फिल्म स्कूल तक खींच लाया. 1964 में जब उन्होंने फिल्म स्कूल में प्रवेश लिया तो संयोग से उस साल ही विख्यात फिल्मकार ऋत्विक घटक ने फिल्म स्कूल में पढ़ाना शुरू किया था. मणि कौल, कुमार शाहनी, अदूर गोपालकृष्णन, जी अरविंदन, के के महाजन, जाॅन अब्राहम जैसे शिष्यों से घटक ने एक ऐसा वृत्त बनाया जो सिनेमा में भारतीय नयी लहर का प्रतिनिधित्व कर सकता है. इन सबमें मणि सबसे अलग थे. वे भारतीय सिनेमा में चल रहे नैरेटिव फॉर्म की पुनरावृत्तियों से बिलकुल भी इत्तेफाक नहीं रखते थे. अपनी कथा फिल्मों में भी वे लगातार कथात्मकता को तोड़ते रहे. वे अक्सर कहते थे, ‘अगर फिल्म आपको वही सब कुछ दिखाए जो पहले से न सिर्फ फिल्मकार को ज्ञात हो, बल्कि दर्शकों को भी तो यह नयी रचना हमें किस ओर ले जाएगी? इसी कारण वृत्तचित्रों का नाॅन फिक्शनल फॉर्म उन्हें आकर्षित करता था. यही कारण है कि वे कथा फिल्मों के साथ उतने ही वजन के वृत्तचित्रों का भी निर्माण करते रहे जिनमंे ‘सिद्धेश्वरी’ सबसे खास है. नैरेटिव से आक्रांत भारतीय दर्शक उन्हें आसानी से सराह नहीं सके. ज्यादातर दर्शक उनकी फिल्म की तुलना मूल रचना से करते रहे और पछताते रहे, जबकि मूल रचना मणि के लिए सिर्फ एक विचार से ज्यादा कभी कुछ नहीं थी. फिल्म के अंदर भी हर एक शाॅट उनके लिए महत्व रखता था. उनके लिए कुछ भी री टेक नही था. इसी महत्व के कारण वे अपनी शूटिंग में तथाकथित खराब शॉटों का भी प्रिंट तैयार करवाते और अक्सर संपादित फिल्म में उन्हीं शॉटों को प्रयोग में भी लाते. इस संदर्भ में उदयन वाजपेयी से हुई उनकी बातचीत का एक हिस्सा गौर करने लायक है, ‘अगर देखा जाए तो मैं कहानी के खिलाफ नही हूं. जैसे आप अपने बच्चों के बारे में बात कर रहे थे. उस कहानी का रूप अलग होता है. बच्चे जो आपस में बैठे दो घंटे तक कहानी कहते रहते हैं, यहां से आ गए , वहां चले गए, कहीं नीचे घुस गया, फिर दरवाज़ा खोला. बहुत अंधेरा था. मैं चलता गया, चलता गया, चलता गया, अंत में थोड़ी रोशनी नजर आई. लाइट के पास पहुंचा तो एकदम चकाचौंध हुई. अचानक कुछ लोग कूदकर अंदर आ गए. यह एक कहानी है क्योंकि इसमें कोई अर्थ नहीं है. यह चलता चला जाएगा. अगर कोई बच्चा कह रहा ह
सिनेमा के उन नये और प्रयोगधर्मी कलाकारों और विद्यार्थियों को निश्चय ही मणि के इतनी जल्दी जाने का बहुत अफसोस होगा जिनको उनसे अभी दृश्यों और ध्वनियों की स्वतंत्र सत्ता व उनके संबंध, देश व काल के अंतर्संबंध, भारतीय संगीत और साहित्य परंपरा के बारे में बहुत कुछ जानना था.