किसी की •िान्दगी का नहीं कोई मोल
बस हर तरफ हो रही राजनीति
इंसानियत और इंसान की नहीं रही कीमत
आिखर किससे करें शिकायत?
कोई हमदर्द भी तो नहीं दिखता
इस अत्याचार भरे माहौल में,
मौन है सरकार
बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के नारे के बीच
हर बेटी है लाचार
मानो खुले हों सरेआम अस्मत लूटने के बाज़ार
जहाँ बेटियाँ गाहे-बगाहे हो जाती हैं भेडिय़ों का शिकार
हाँ, उठती है कुछ •िान्दा लोगों की आवाज़
पर कौन सुनेगा मुर्दों की बस्तियों में
बहरी राजनीतिक गलियों में
पर हर माँ सोचने पर मजबूर है
क्या करे, कैसे बचाए?
अपनी लाडली की इ•ज़त
क्या नहीं है घिनौनी मानसिकता का कोई इलाज
आिखर क्यों नहीं सुनाया जाता
दङ्क्षरदों को सरेआम मौत की सज़ा का फरमान
मानव जाति की उत्पत्ति के साथ ही महिलाओं ने मानवाधिकारों में अहम भूमिका निभायी है। माँ, बेटी, बहन, पत्नी के रूप में महिला अपनी भूमिका बखूबी अदा करती है, फिर भी उसे वो तवज्जो नहीं दी जाती है, जिसकी वो हकदार है। कहावत सही है कि किसी-न-किसी ने भगवान को नहीं देखा है; लेकिन मानते सभी हैं। भगवान के रूप में माँ बेटे को जन्म देती है, जो महिला को बहुत बड़ा दर्जा (दिव्य रूप) प्रदान करता है। तमाम तरह की भूमिकाएँ अदा करने के बावजूद उसे हिंसा, उत्पीडऩ, शोषण, भेदभाव झेलने पड़ते हैं। पितृसत्तात्मक समाज में उसे हीन दृष्टि से ही देखा जाता है। हालाँकि, 18वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के बाद एकल परिवारों की बढ़ोतरी के साथ ही दुनिया-भर में महिला सशक्तीकरण की ज़रूरत महसूस की गयी। इसके परिणामस्वरूप भारत में भी पिछली दो शताब्दियों के दौरान महिला केंद्रित 39 कानून बनाये गये, ताकि महिलाएँ आज़ादी, गरिमा और व्यक्तिगत सम्मान के साथ जीवन बिता सकें साथ ही पुरुषों के समान हक भी उनको मिलें।
भारतीय संविधान में कई ऐसे कानूनों का प्रावधान किया गया है कि जिसके तहत महिला और पुरुष के बीच किसी भी तरह का भेदभाव न हो साथ ही मानवीय गतिविधियों में उन्हें समान अवसर प्रदान किए जाएँ। फिर भी महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य और धार्मिक अनुष्ठानों जैसी अन्य गतिविधियों समेत सार्वजनिक प्रशासन के सभी क्षेत्रों में भेदभाव किया जाता है। 1947 में आज़ादी के तत्काल बाद भारत सरकार ने महिलाओं और बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक कृयाण विभाग की स्थापना की। बाद में इसे पूर्ण सामाजिक कृयाण विभाग बनाया गया, जो आगे चलकर महिला और बाल विकास मंत्रालय बना। 1993 में, राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की गई। इसका मकसद देश की महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित किये जाने से बचाना साथ ही ज़रूरी कानूनी मदद मुहैया कराना है। इस सबके बावजूद महिलाओं के िखलाफ कई तरह की हिंसा और अपराध बढ़ते गये। दुनिया में महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार के रूप में देश को जाना जाने लगा।
फिर भी लोकतंत्र में कानून के मुताबिक, महिलाएँ आगे बढ़ीं और उन्होंने साबित किया कि वे पुरुषों से कम नहीं हैं और उन पर प्रतिबंध, नियंत्रण या तानाशाही नहीं चलने वाली है। इसका •िाक्र कानून और संविधान में स्पष्ट रूप से किया गया है। हालाँकि समाज में पितृसत्तात्मक प्रभुत्व अब भी कायम है। सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के नज़रिये से देखें तो बेटी, बहन, पत्नी, बहू के रूप में उनकी अलग-अलग भूमिकाएँ व दिक्कते हैं। भारत को पारम्परिक रूप से एक मनुवादी देश माना जाता है, जहाँ महिला को नीचा दिखाने के साथ ही भोग की वस्तु समझा जाता था। वर्तमान एनडीए सरकार मनुस्मृति के विचारों से प्रभावित है, कहना गलत नहीं होगा। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि केंद्र की एनडीए सरकार ने बड़े धूमधाम से ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान शुरू किया। इस तरह के प्रशंसनीय कार्यक्रम के लिए आवंटित राशि का दो-तिहाई हिस्सा प्रधानमंत्री के प्रचार पर खर्च कर दिया गया। सरकार की ओर से महिलासशक्तीकरण की ओर आगे बढऩे का ऐसा कदम सोचने को मजबूर करता है।
यह बेहद चिन्ता का विषय है कि दिसंबर, 2012 में मेडिकल छात्रा के साथ हैवानियत के बाद 2013 में दुष्कर्म मामलों में सख्त कानून लागू होने के बावजूद महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार और हिंसा की घटनाएँ कम होने के बजाय तीन गुना बढ़ गयी हैं। कानून में खामियों के चलते अपराधी छूट जाते हैं; क्योंकि पुलिस और सरकारी मशीनरी की असंवेदनशीलता के चलते मामले में निष्पक्ष और पारदर्शी परिणाम हासिल नहीं हो पाते। महिलाओं के उत्थान में यह भी दिक्कत है कि लोग लड़कियों के बजाय लडक़ों को प्राथमिकता देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि महिलाओं के िखलाफ अत्याचार और भेदभाव हो रहा है। फिर भी महिलाओं को जहाँ भी समान अवसर मिल रहे हैं, वे अपनी काबिलियत को साबित कर रही हैं। उन्होंने जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ी है, जहाँ भी उन्हें समान अवसर दिये गये हैं।
सरकारी आँकड़ों की बात करें तो एनडीए सरकार ने महिला सुरक्षा को लेकर 2017-18 में आवंटित बजट में 313.13 करोड़ रुपये से घटाकर 81.75 करोड़ रुपये कर दिये, जो चिंताजनक संकेत हैं। महिला सुरक्षा के लिए दिसंबर, 2012 की भयावह बलात्कार की घटना के बाद भी इस फंड का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि संसदीय रिपोर्ट में भी खुलाया किया गया है कि इस दौरान महिलाओं पर अत्याचार के मामले बढ़े हैं। महिलाओं की सुरक्षा की योजनाओं के लिए 313.30 करोड़ रुपये के आवंटन के साथ ही इमरजेंसी रिस्पांस सपोर्ट सिस्टम (ईआरएसएस) के लिए 84.40 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया। इसके अलावा महिलाओं और बच्चों के िखलाफ साइबर अपराध रोकथाम के लिए 200 करोड़ रुपये और दिल्ली पुलिस को 28.90 करोड़ रुपये महिलाओं की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करने के लिए आवंटित किये गये।
2017-18 में आठ शहरों दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, मुम्बई, बेंगलूरु, हैदराबाद, लखनऊ और अहमदाबाद में महिलाओं के लिए सुरक्षित-शहर परियोजनाओं की खातिर 2919.55 करोड़ रुपये आवंटित किये और इस धन का क्या उपयोग किया गया, उसके अभी आधिकारिक आँकड़े प्राप्त नहीं हुए हैं। इसके अलावा केंद्रीय पीडि़त मुआवज़ा कोष (सीवीसीएफ) के लिए 200 करोड़ रुपये के निर्भया फंड की व्यवस्था की गयी, जिसे महिलाओं पर तेज़ाब हमले, दुष्कर्म पीडि़ताओं, तस्करी आदि के मामले में अनुदान के तौर पर देना था, इस पर किये गये खर्च का भी कोई हिसाब नहीं है। कोई नहीं जानता कि आवंटित राशि कैसे खर्च की गयी है। संसदीय समिति की रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि निर्भया फंड को महिलाओं की वास्तविक सुरक्षा के बजाय इसके मकसद को लेकर उलझाने में ही फँसा दिया। इस तरह के आवंटन का वह मकसद में असफल हो जाता है, जिसके लिए निर्भया फंड बनाया गया था।
कट्टरवाद, अराजक राष्ट्रवाद और पौरुषवादी नेतृत्व के बढऩे से महिलाओं के अधिकारों पर खतरा बढ़ा है। फिर भी पुरुषों के प्रभुत्व वाली राजनीति के दौर में यह लैंगिक समानता की लड़ाई है। लैंगिक समानता की लड़ाई को घर में, शैक्षिक संस्थान, सरकारी प्रतिष्ठानों और कॉर्पोरेट कार्यालयों में महिलाओं और लड़कियों के िखलाफ भेदभाव को समाप्त करने के लिए पूरी दुनिया में लोगों की मानसिकता को बदलना होगा और बदल भी रही है। ऐसा पूर्ण न्याय पाने के लिए महिलाओं को लम्बा संघर्ष करना पड़ता है। महज सरकार और कानून से ही महिलाओं के िखलाफ अपराधों से नहीं निपटा जा सकता है। हाल ही में हैदराबाद की महिला पशु चिकित्सक के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद निर्मम हत्या के बाद सरकारों की ओर से आयी प्रतिक्रियाओं से इसके निपटने में उनकी संवेदनहीनता को समझा जा सकता है। लेकिन हम सभी को महिलाओं के िखलाफ अपराध को रोकने लिए खड़ा होना होगा और लड़ाई लडऩी होगी। यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक उनके साथ भेदभाव खत्म नहीं हो जाता। लैंगिक न्याय के लिए प्रयास करने और समाज में फैली सड़ाँध के खात्मे को हम सबकी जवाबदेही तो तय करनी होगी।