दिल्ली विधानसभा चुनाव से करीब डेढ़ महीने पहले अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सिंगापुर में एक लीडरशिप इवेंट को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘मैं बिल्कुल आश्वस्त हूँ कि यदि दो साल के लिए इस दुनिया के हर देश की कमान महिलाओं को सौंप दी जाए, तो आप हर महत्त्वपूर्ण निर्णय पर उनक असर देखेंगे।’ ओबामा ने यह भी कहा कि दुनिया में अधिकतर समस्याएँ सत्ता में अहम पदों पर बैठे पुराने लोगों के कारण पैदा होती हैैं, खासकर पुरुषों के कारण; जो कुर्सी से चिपके रहते हैं। ओबामा का मानना है कि दुनिया के हर देश, राज्य की कमान महिला को सौंपने से लोगों का रहन-सहन सुधरेगा और बेहतर नतीजे सामने आएँगे। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली का मंत्रिमंडल तो 100 फीसदी पुरुष प्रधान है।
हाल ही में दिल्ली में सम्पन्न विधानसभा चुनाव में 8 महिलाओं को सफलता मिली और 62 पुरुषों के हिस्से में जीत आयी। 70 सीटों वाली इस विधानसभा के लिए इस बार 672 उम्मीदवार मैदान में थे, इसमें महिला उम्मीदवारों की संख्या 79 थी। आप पार्टी ने 9 महिलाओं को टिकट दिया था, जिसमें से 8 जीत गयीं। दिल्ली की सातवीं विधानसभा में भाजपा के 8 विधायक हैं, सभी पुरुष। कांग्रेस के एक भी विधायक को सफलता नहीं मिली। अहम तथ्य यह है कि आप को जिताने में महिला मतदाताओं की भूमिका पुरुषों से ज़्यादा है, लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में मुख्यमंत्री समेत सातो मंत्री पुरुष है। महिला व पुरुष मतदान में महज़ 0.07 फीसदी का फासला है, आठ महिला विधायक विधानसभा में हैं। महिला मतदाता ने मतदान में विशेष उत्साह दिखाया लेकिन मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व ज़ीरो।
महिला शून्य मंत्रिमंडल के सवाल पर दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का कहना है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का मानना है कि दिल्ली की जनता ने सरकार के कामों पर भरोसा जताया है, लिहाज़ा मंत्रिमंडल में फेरबदल करने का कोई औचित्य नहीं नज़र आता। जहाँ तक महिला सशक्तीकरण का सवाल है, वह आँकड़ों में नहीं, बल्कि आपकी सोच, नीतियों व प्रयासों से झलकता है।
दिल्ली के उप मुख्यमंत्री के इस कथन से यही संदेश निकलता है कि उनकी पार्टी के लिए सत्ता में महिलाओं की भागीदारी कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। मंत्रिमंडल में लैंगिक विविधता के दूरगामी फायदों से उन्हें कोई खास सरोकार नहीं है। जबकि कई अध्ययन इस ओर इशारा करते हैं कि संसद / विधानसभा में महिलाओं की संख्या बढऩे व मंत्रिमंडल में महिलाओं के प्रतिनिधित्व से नीतिगत फैसलों में महिला पहलुओं को भी ध्यान में रखा जाता है। बहरहाल, 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में महिलाओं ने कई रिकॉर्ड बनाये, जो इस बात का संकेत है कि यहाँ की महिलाओं के लिए लोकतंत्र काफी महत्त्वपूर्ण है। दिल्ली में 1.47 करोड़ मतदाता हैं, जिसमें 81.05 लाख पुरुष और 66.08 लाख महिला मतदाता हैं। 869 थर्ड जेंडर हैं।
महिला मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक बुलाने के लिए आयोग ने छोटे बच्चों के लिए क्रेच की व्यवस्था की थी। मतदान केंद्रों पर वहाँ बच्चों के लिए झूले और खेलने के लिए अन्य सुविधाएँ मौज़ूद थीं। यही नहीं, पिंक बूथों पर महिलाओं के लिए मेहंदी लगाने की व्यवस्था की गयी थी। दिल्ली में मतदान करने वाली महिलाओं का ग्राफ बराबर ऊपर की ओर जा रहा है। 2003 के विधानसभा चुनाव में पुरुष मतदान 54.89 फीसदी और महिला मतदान 51.53 फीसदी था। 2008 में पुरुष मतदान 58.34 फीसदी, तो महिला मतदान 56.62 फीसदी था। 2013 में पुरुष मतदान 66.03 फीसदी, तो महिला मतदान 65.14 फीसदी था।
2015 में पुरुष मतदान 67.64 फीसदी, तो महिला मतदान 66.50 फीसदी था। 8 फरवरी 2020 को कुल मतदान 62.59 फीसदी था। इसमें पुरुष मतदान 62.62 फीसदी, तो महिला मतदान 62.55 फीसदी था। इस तरह पुरुष व महिला के मत फीसदी में अन्तर महज़ 0.07 फीसदी का है। 2015 विधानसभा चुनाव में महिला व पुरुष मतदान में अन्तर 1.14 फीसदी का था और 2020 में यह अन्तर और कम हुआ है। इस विधानसभा चुनाव में महिला पुरुष मतदान में इस मामूली से अन्तर के अलावा इस विधानसभा चुनाव में महिला मतदाताओं की मतदान में रुचि का राजनीतिक सामाजिक महत्त्व है। बेशक इस बार दिल्ली में 2015 की तुलना में 4.54 फीसदी कम मतदान हुआ है, लेकिन महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में आप को अधिक वोट डाले। लोकनीति-सीएसडीसी के सर्वे के मुताबिक, 60 फीसदी महिलाओं ने आप के पक्ष में वोट डाला, तो 49 फीसदी पुरुषों ने आप को वोट डाला। 11 फीसदी प्वांइट का अन्तर उल्लेखनीय है। इस अन्तर का मतलब आप के लिए विशेष है यानी अगर यह नहीं होता, तो आप को चुनाव में जो एकतरफा जीत मिली है, वह नहीं मिलती। जीत का फासला बहुत कम हो सकता था। इस बार 69 फीसदी महिलाओं ने वोट के लिए आप का चयन किया, तो 35 फीसदी महिलाओं ने भाजपा को चुना।
किसी भी जाति, समुदाय, आयुवर्ग की बात करें, तो यही खुलासा होता है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के अधिक वोट आप को मिले। लोकनीति 1998 से दिल्ली की विधानसभा चुनाव के नतीजों का आकलन कर रही है और आँकड़ें यही बोलते हैं कि पहली मर्तबा 2020 में ऐसा व्यापक लैंगिक फासला वोट की प्राथमिकता सम्बन्धी रुझान में देखने को मिला। यहाँ तक कि जब कांग्रेस की शीला दीक्षित भी दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी, तब भी यह रुझान देखने को नहीं मिला था। इसके पीछे की मुख्य वजह शिक्षा, स्कूली इमारतें, आम आदमी के लिए मोहल्ला क्लिीनक, फ्री बिजली-पानी-बस सेवा आदि तो बताया ही जा रहा है; इसके अलावा ठीक चुनाव से पहले जामिया मिल्लिया व जेएनयू के छात्र जिस तरह पुलिस हिंसा के शिकार हुए, उस मुद्दे ने भी महिलाओं को अपने बच्चों की सुरक्षा के प्रति अधिक सतर्क कर दिया।
इसके अलावा महिलाओं ने भाजपा के विवादित बयानों व बाँटने, नफरत फैलाने वाले प्रयासों को नापन्सद किया और काम तथा विकास की राजनीति को चुनकर अपनी मंशा से राजनेताओं को अवगत करा दिया। दिल्ली की महिला मतदाताओं ने आप पर भरोसा जताया मगर मंत्रियों में एक भी महिला चेहरा नहीं। महिला कार्यकर्ता भी इस फैसले से नाराज़ हैं, भले ही खुलकर यह नाराज़गी सामने नहीं आ रही है। लोग यह भी पूछ रहे हैं कि कालका जी सीट से जीत हासिल करने वाली आतिशी को मंत्रिमंडल में क्यों नहीं शमिल किया?
यह सवाल इसलिए भी किया जा रहा है, क्योंकि दिल्ली में सरकारी स्कूलों में शिक्षा के जिस नये प्रयोग मॉडल की अधिक चर्चा होती है, उसकी पहल करने वालों में आतिशी का भी नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इसी सवाल से जुड़ी एक चर्चा यह भी है कि दिल्ली के उप मुख्यमंत्री व शिक्षा मंत्री मनीष सिसाोदिया शिक्षा मंत्रालय छोडऩे को तैयार नहीं है। वह शिक्षा में सुधार का क्रेडिट अपने पास ही रखना चाहते हैं। अरविंद केजरीवाल जब पहली बार 2013 में दिल्ली के मुख्यमंत्री बने थे, तब उन्होंने विधायक राखी बिड़लान को महिला व विकास मंत्री बनाया था और कांग्रेस के सहयोग से बनी यह सरकार महत 49 दिन ही चली थी। 2015 में आप पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीतकर एक रिकॉर्ड बनाया।
67 विधायकों में से 6 महिलाएँ थीं। इस बार 2020 में आप को 62 सीटों पर सफलता मिली और इसमें महिलाओं की संख्या आठ है। ध्यान देने वाली बात यह है कि 2015 में आप की 6 महिला विधायक थी और तब भी किसी महिला को मंत्री नहीं बनाया गया था और 2020 में 8 महिलाएँ हैं; लेकिन मंत्रिमंडल में 100 फीसदी मर्द हैं। अरविंद केजरीवाल ने दावा किया था कि उनकी पार्टी की राजनीतिक सोच मुख्यधारा से अलग है, यह आन्दोलन से निकली पार्टी है। लेकिन सत्ता में निर्णायक पदों पर महिलाओं की भागदारी को बढ़ावा देने के मामले में वह पीछे क्यों हैं?
उनमें इतनी हिम्मत क्यों नहीं है कि वह महिलाओं को मंत्रिमंडल में शमिल करें। लगातार दूसरी बार महिलाओं को मंत्रिमंडल से बाहर रखकर उन्होंने अपनी संकुचित राजनीतिक-सामाजिक मानसिकता की ही परिचय दिया है। आप सरकार दिल्ली को प्रदूषण मुक्त, लंदन शहर बनाना चाहती है। इस दिशा में प्रयास तेज़ करेगी। मगर बिन महिला वाले मंत्रिमंडल से भी लैंगिक प्रदूषण बिगड़ता है। आप चाहे महिलाओं को लाभ पहुँचाने, उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सशक्त करने के लिए कितनी ही योजनाएँ चला लें, लेकिन मंत्रिमंडल में महिलाओं को मौका देना और बड़ी भूमिकाओं के लिए उन पर भरोसा जताना मुख्यमंत्री की ज़िम्मेदारी है। लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एक बार फिर अपनी इस ज़िम्मदारी को निभाने में असफल नज़र आये।