2013 उत्तराखंड के लिए नंदा देवी राजजात का वर्ष है. हर 12 साल बाद राज्य के चमोली जिले में होने वाली इस विश्वप्रसिद्ध यात्रा में गढ़वाल और कुमाऊं के हजारों लोग 18 दिन में 280 किमी चलकर होमकुंड तक जाते हैं. नंदा-घुंघटी पर्वत की तलहटी तक की यह यात्रा नंदा (पार्वती) को ससुराल विदा करने के लिए होती है जो लोकमान्यताओं के अनुसार पर्वतराज हिमालय की पुत्री थीं और जिनका बाद में भगवान शिव से विवाह हुआ. उत्तराखंड के लोग नंदा को अपनी बहन की तरह मानते हैं. हर बहन की तरह नंदा को भी मायके की याद आती है. वह प्रतीकात्मक रूप में मायके आती है. मायके से ससुराल यानी कैलाश के लिए नंदा की विदाई ही ‘नंदा देवी राजजात’ है. गांव-गांव से गुजरती राजजात के दौरान नंदा को भावविह्वल विदाई मिलती है.
मायके की महिलाएं और पुरुष रोते हुए अपनी बहन/बेटी की तरह उसे भी कुछ न कुछ भेंट देकर विदा करते हैं. राजजात के अंतिम गांव बाण से आगे दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में नंदा की रक्षा के लिए उनके धर्म भाई ‘लाटू देवता’ जाते हैं. मान्यता है कि ‘लाटू देवता’ बोल नहीं सकते या वे ससुरालियों के भय से कुछ बोलते ही नहीं हैं. उत्तराखंड के हर पहाड़ी जिले में राजजात जैसे कई त्योहार और मेले हैं. ये सारे त्योहार बेटियों या बहनों को मायके बुलाने का सबसे बड़ा माध्यम हैं. देश के और हिस्सों की तरह उत्तराखंड में भी लोग भावी ससुराल की कई तरह से जांच-परख करने के बाद वहां अपनी बेटी को ब्याहते हैं. फिर बेटियों को साल में कई त्योहारी मौकों पर मायके बुलाया जाता है. कठोर से कठोर ससुराल वाले भी लोक-लाज और दैवी प्रकोप की आशंका के चलते अपनी बहुओं को इन मौकों पर मायके जाने से नहीं रोकते. लेकिन पहाड़ की सैकड़ों बेटियों के लिए इन तीज-त्योहारों-मौकों-मायके का कोई मतलब ही नहीं क्योंकि इनको शादी के नाम पर हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश ओर देश के अन्य हिस्सों में बेचा जा रहा है. इसके बाद कैसे त्योहार और कौन-सा मायका.
तहलका ने ‘कन्यादान’ के बजाय पैसा लेकर की जा रही इन शादियों की हकीकत जानने की कोशिश की. हमने मायके के इलाके से बहुत दूर रहने को मजबूर इन ‘नंदाओं’ की दुर्दशा की गहराई से पड़ताल की तो पता चला कि इन्हें जीते जी नरक भोगना पड़ रहा है. कहीं उनके साथ शादी के नाम पर बलात्कार होता है तो कहीं उनसे वेश्यावृत्ति करवाई जाती है. जब उनका शरीर देह व्यापार के काम का नहीं रहता तो जानकारों के अनुसार उसका कई और अमानवीय तरीकों से पैसे कमाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. इनका सौदा करने वाले दलालों के मुताबिक पहाड़ से एक लाख में खरीदी गई लड़की उन्हें कई-कई लाख कमा कर देती है. हैरत की बात यह है कि उत्तराखंड के लगभग हर पहाड़ी जिले में फैली इस समस्या के बावजूद इस गंभीर मुद्दे पर उत्तराखंड की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में जरा भी संवेदना या हलचल नहीं. उल्टे यहां के जनप्रतिनिधि क्षेत्र की बदनामी होगी, कहकर मामले में कुछ भी कहने-सुनने से बचते हैं.
चमोली जिले में एक सुंदर-सा गांव है बूरा. कल्पेश्वरी यहीं रहती थी. उसके घर के हालात ठीक-ठाक थे. दादा और चाचा सेना में नौकरी कर चुके थे. शहरों की चकाचौंध और मैदानी इलाकों की सुविधाओं के बारे में सुन-सुन कर कल्पेश्वरी के मन में भी यह इच्छा जग रही थी कि शादी के बाद उसका पति उसे पहाड़ के गांव में न छोड़कर अपने उस शहर में ले जाए जहां वह नौकरी कर रहा हो. कल्पेश्वरी के मन में हिलोरें ले रही इच्छाओं को उसके गांव की सुपली देवी भी ताड़ रही थी. सुपली दो बार बूरा गांव की प्रधान रह चुकी थी.
इस तरह हो रही शादियों में अधिकांश लड़कियों के माता-पिता नहीं जानते कि जिस व्यक्ति के साथ उनकी बेटी की शादी हो रही है वह कौन है, किस गांव का है और उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है
14 सितंबर, 2012 को कल्पेश्वरी अचानक अपने घर से गायब हो गई. असहाय पिता ने उसे आस-पास के गांवों और रिश्तेदारी में तलाशा. लेकिन वह नहीं मिली. हारकर उसने राजस्व पुलिस में शिकायत दर्ज कर दी. लापता होने के छह दिन बाद राजस्व पुलिस ने कल्पेश्वरी को तहसील मुख्यालय विकास नगर (घाट) के पास घूनी गांव के 63 वर्षीय कुताली राम के कब्जे से बरामद किया.
कल्पेश्वरी ने जब गुमशुदगी के छह दिन की आपबीती सुनाई तो सभी को जो जो हुआ उसकी भयावहता का अंदाजा लगा. नादान कल्पेश्वरी को सुपली देवी मुजफ्फरनगर के किसी खाते-पीते किसान परिवार में शादी कराने का झांसा देकर भगा कर लाई थी. उसे भरमाया गया कि लड़का पंजाब में किसी सरकारी बैंक में काम करता है. घाट के नायब तहसीलदार (राजस्व पुलिस में पुलिस उपाधीक्षक के समकक्ष अधिकारी) भूपेंद्र सिंह बताते हैं, ‘जांच में पता चला कि कल्पेश्वरी का सौदा एक लाख रुपये में हुआ था. इसमें से दलालों ने 40 हजार रुपये पेशगी ले रखे थे. बाकी बचे हुए 60 हजार रुपये कुताली राम को हरिद्वार में कल्पेश्वरी को सौंपते ही मिलने वाले थे.’
जांच में पता चला कि कल्पेश्वरी को बेचने के काम में एक पूरा गिरोह लगा था. गिरोह का मुखिया घूनी गांव का कुताली राम उर्फ ‘भादू’ था. इस मामले में कुताली राम, उसकी बेटी शाखा देवी के अलावा पांच और आरोपित गिरफ्तार हुए. कुताली के कहने पर ही सुफली देवी, कल्पेश्वरी को उसके घर से भगा कर लाई थी. गिरोह के सदस्यों ने पांच दिन तक कल्पेश्वरी को अलग-अलग गांवों में छिपा कर रखा.
मजिस्ट्रेट के सामने धारा 164 के बयानों से पहले किए गए मेडिकल में कल्पेश्वरी के साथ बलात्कार की भी पुष्टि हुई. पूछताछ के दौरान कल्पेश्वरी ने राजस्व पुलिस को रोते हुए बताया कि उसे छिपा कर इधर-उधर भगाते समय बूढ़े कुताली राम ने उसके साथ दो बार दुष्कर्म किया. कुताली की इस दरिंदगी के बाद कल्पेश्वरी की आंखें खुल गईं. भूपेंद्र सिंह बताते हैं, ‘इसीलिए कल्पेश्वरी ने बरामदगी के बाद राजस्व पुलिस को जांच में सहयोग देते हुए गिरोह के सदस्यों को जेल भिजवाने में मदद की.’ जांच के दौरान कल्पेश्वरी की सुपली द्वारा उसके लिए प्रस्तावित लड़के से मोबाइल पर बात कराई गई. भूपेंद्र सिंह बताते हैं, ‘भाषा, लहजे और गालियों से वह आदमी निपट अनपढ़ और अपराधी लग रहा था.’ फिलहाल कल्पेश्वरी अपने गांव में सुरक्षित है.
लेकिन हर लड़की की किस्मत कल्पेश्वरी जैसी नहीं होती. घाट विकासखंड के पूर्व प्रमुख सुदर्शन कठैत बताते हैं, ‘गिरोह के सदस्य और उनके एजेंट गांवों की भोली-भाली लड़कियों और उनके परिजनों को इस हद तक बरगलाते हैं कि वे उन पर भरोसा कर अपना सब कुछ खो बैठते हैं.’ घाट के ही कनोल गांव की सरिता की कहानी इसका उदाहरण है. बेहद खूबसूरत कनोल गांव राजजात यात्रा का अंतिम पड़ाव है. सरिता को उसके गांव में सुनार का काम करने वाली दलाल सीता ने अच्छी नौकरी दिलवाने का लालच देकर पहले गांव से भगाया और फिर उसे अपने वन तस्कर भाई राजू को बेच दिया. यह तीन साल पहले की बात है. तब वह नौवीं कक्षा में पढ़ रही थी. सीता ने गांव में यह अफवाह भी फैला दी कि सरिता किसी दूसरी जाति के लड़के के साथ भाग गई है. बदनामी के डर से सरिता के पिता ने उसे खोजने के बजाय चुप्पी साध ली. अधेड़ राजू की पहले ही दो शादियां हो चुकी थीं और उसके सात बच्चे थे. तीन साल तक राजू नाबालिग सरिता का शारीरिक शोषण करता रहा.
वह हमेशा सरिता को कैद में रखता ताकि वह भाग न जाए. पिछले साल राजू का गिरोह घनसाली में बाघ की खाल के साथ पकड़ा गया. सरिता भी उसके साथ थी. वह भी जेल भेज दी गई. छह महीने जेल में रहने के बाद पिछले दिनों राजू की जमानत हो गई. दो दिन बाद उसने सरिता की भी जमानत करा दी. बाहर आने के बाद सरिता ने राजू के साथ जाने-रहने से मना कर दिया. अब सरिता को इस गिरोह से अपनी जान का खतरा है. महिला सशक्तीकरण के लिए चलाई जा रही योजना महिला समाख्या से जुड़ी रीना पंवार बताती हैं, ‘हमने सरिता के घर कई संदेश भेजे लेकिन उसके पिता उसे घर ले जाने को तैयार नहीं हैं.’ सरिता फिलहाल टिहरी में महिला समाख्या की व्यवस्था में रह रही है. तीन साल तक नरक भोगने के बाद वह फिर से अपनी हमउम्र लड़कियों के साथ हंस-खेल कर पुराने बुरे दिनों को भूलने की कोशिश कर रही है.
हाल ही में दिल्ली में हुई बलात्कार की घटना के बाद उत्तराखंड के हर शहर-कस्बे में मोमबत्तियां जलाने वालों को आज भी यह पता नहीं कि अपने राज्य की जिस लड़की का फोटो उन्होंने एक साल पहले वन तस्कर के रूप में देखा था वह एक बेकसूर नाबालिग थी. एक ऐसी बच्ची जो मानव तस्करी का शिकार बनी और जिसके साथ तीन साल तक शादी के नाम पर बलात्कार होता रहा. चमोली स्थित स्वयंसेवी संगठन ‘जनक समिति’ के सचिव सुरेंद्र भंडारी बताते हैं, ‘लड़कियों की तस्करी में लगे गिरोहों ने पिछले साल जिले की विकासनगर तहसील से 27 लड़कियां शादी के नाम पर हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में बेची हैं.’ उनकी संस्था के अध्ययन के अनुसार इनमें से कोई लड़की शादी के बाद वापस मायके नहीं आई है. कई मायके वालों को तो यह भी पता नहीं है कि उनकी लड़कियां कहां ब्याही गई हैं और अब किस हाल में हैं.
‘कड़ी पूछताछ में दलालों ने बताया कि पहले ये लड़कियां बच्चे पैदा करने की मशीन होती हैं. फिर इन्हें या तो वेश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है या इनमें से अधिकांश के साथ घर पर ही देह व्यापार कराया जाता है’
चमोली में गैरसैंण की पूर्व जिला पंचायत सदस्य गीता बिष्ट ने 2006 में आदि-बदरी के पास एक ऐसे ही गिरोह के तीन सदस्यों को तत्कालीन जिलाधिकारी अजय नब्याल की मदद से पकड़वाया था. गीता बताती हैं, ‘पकड़े जाने पर ये दलाल शादी हुई है, यह दिखला कर पुलिस को भी झांसा दे देते थे.’ इन दलालों की गाड़ी से दूल्हे का सेहरा और दुल्हन का शादी का जोड़ा भी बरामद हुआ था. इस मामले में एक दलाल गैरसैंण के गांवली गांव का मूल निवासी था. मेरठ कॉलेज में चतुर्थ श्रेणी का यह कर्मचारी भोली-भाली लड़कियों का शादी के नाम पर सौदा करता था. गीता का मानना है कि गैरसैंण विकास खंड के हर गांव की कोई न कोई लड़की शादी के नाम पर बाहर बेच दी गई है. वे बताती हैं, ‘यदि ये शादियां हैं भी तो बेमेल हैं और लड़कियां किसी भी रूप में खुश और सुरक्षित नहीं हैं.’
इस तरह हो रही शादियों में अधिकांश लड़कियों के माता-पिता नहीं जानते कि जिस व्यक्ति के साथ उनकी बेटी की शादी हो रही है वह कौन है, किस गांव का है और उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है. इन क्षेत्रों में रिश्तेदारी तो दूर इनका नाम तक भी लड़की के घरवालों को पता नहीं होता है. तहलका की तहकीकात के दौरान अधिकांश मामलों में मायके वाले यह भी नहीं बता पाए कि उनकी बेटी जिस गांव में ब्याही है वह हरियाणा में है या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में. गीता बिष्ट बताती हैं, ‘इनमें से अधिकांश लड़कियां तो पहली बार हरिद्वार या हल्द्वानी से आगे जाती हैं.’ दलाल यह भी जानते हैं कि इन अबलाओं के गरीब और असहाय परिवारों में उनके खिलाफ कुछ करने-बोलने वाला कोई नहीं है.
उत्तराखंड में इस कुप्रथा की जड़ें बहुत पीछे तक जाती हैं. इतिहासकार योगंबर सिंह बर्त्वाल ‘तुंगनाथी’ बताते हैं, ‘जौनसार-बाबर और त्यूणी-आराकोट के बीच स्थित बंगाण इलाके की लड़कियों को अपने अच्छे नैन-नक्श के लिए जाना जाता है. इतिहास में ऐसे भी उदाहरण हैं कि देश के कई रजवाड़ों सहित अपने समय के माने हुए परिवारों ने इस क्षेत्र की लड़कियों से शादी कर अपनी नस्लों को सुधारा. फिर भी ये शादियां वैध थीं, उन्हें पूरी सामाजिक मान्यता थी और इन महिलाओं का सम्मान था.’ लगभग एक सदी पहले पत्रकार विशंभर दत्त चंदोला ने गढ़वाली नामक मासिक अखबार में गढ़वाल से खरीद कर बंबई ले जाकर ब्याही या रखी महिलाओं पर विस्तार से काम किया था. उन्होंने नवंबर 1913 के अंक में ऐसी महिलाओं का एक फोटो भी प्रकाशित किया था (इस स्टोरी का आखिरी पन्ना देखें). तुंगनाथी बताते हैं, ‘उत्तरकाशी जिले के रवांई इलाके में बाजगी जाति की लड़कियां पिछली शताब्दी की शुरुआत से वेश्यावृत्ति के पेशे के लिए महानगरों की ओर जाने लगी थीं. लेकिन उनकी भी ऐसी दुर्दशा नहीं थी जैसी शादी के नाम पर बेची जा रही इन लड़कियों की है.’ वेश्यावृत्ति पेशे के लिए जाने वाली वे लड़कियां अपने गांव जाती रहती थीं. वे अपनी मर्जी की मालिक थीं और कुछ समय पेशा करने के बाद अपनी पसंद से शादी भी करती थीं. स्थानीय पत्रकार प्रेम पंचोली बताते हैं, ‘कोठों में गई इन औरतों ने ही अपने ग्राहकों के माध्यम से गरीब लड़कियों के रिश्ते मैदानी क्षेत्रों में तय करवाने शुरु किए थे.’
लगभग एक शताब्दी पहले यमुना घाटी से शुरू हुई यह कुप्रथा अब पूरे उत्तराखंड में सुरसा के मुंह की तरह पैर पसार चुकी है. पैसे के लेन-देन को मुख्य तत्व मानकर की गई इन शादियों में से 80 प्रतिशत बिखर जाती हैं. दरअसल ये शादियां केवल नाम के लिए होती हैं. इन असफल कहानियों के उदाहरण और लड़कियों के साथ हुई ज्यादतियों के किस्से पहाड़ के हर गांव-कस्बे में कुछ दिनों तक चर्चाओं में रहते हैं और फिर खो जाते हैं. पंचोली बताते हैं, ‘पहले ये लड़कियां बच्चे पैदा करने की मशीन होती हैं. फिर इन्हें या तो वेश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है या इनमें से अधिकांश के साथ घर पर ही देह व्यापार कराया जाता है.’ पंचोली कई सालों से लड़कियों की मानव तस्करी का विरोध कर रहे हैं, उन्होंने कई मामलों में लड़कियों को दलालों से बचाया भी है. वे बताते हैं, ‘शादी के नाम पर बेची गई लगभग 10 प्रतिशत लड़कियां वापस पहाड़ आ जाती हैं.’ हालांकि किसी तरह भागकर घर लौटने में सफल हो जाने वाली इन लड़कियों की जिंदगी में इससे कुछ अच्छा हो जाता हो, ऐसा नहीं है. वे सामाजिक बहिष्कार और प्रताड़ना की शिकार होती हैं.
जानकारों के मुताबिक सिर्फ 10 प्रतिशत मामलों में लड़कियों के मन मारकर समझौता करने पर उनकी शादियों को सफल माना जा सकता है. पंचोली बताते हैं, ‘इन सफल मामलों में भी लड़कियों के रिश्ते उन परिवारों में होते हैं जिनकी अपने इलाकों में सामाजिक पृष्ठभूमि इतनी खराब होती है कि उन परिवारों से उस इलाके, समाज या जाति का कोई परिवार अपनी लड़की ब्याहने को तैयार नहीं होता. या फिर ये शादियां बिल्कुल उम्र या किसी अन्य लिहाज से बेमेल होती हैं.’
पहाड़ों में महिलाओं को जीवन भर हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है. ऐसे में मैदानी क्षेत्रों में शादी करके लड़कियों को घर में केवल खाना बनाना और झाड़ू-पोंछा करना कोई काम ही नहीं लगता. लेकिन मैदानी क्षेत्रों में जिन परिवारों में ये लड़कियां ब्याहने के नाम पर बेची जाती हैं वहां उनके सामने अलग ही तरह की तरह-तरह की समस्याएं आती हैं. पंचोली बताते हैं, ‘जिन परिवारों में ये लड़कियां ब्याही जाती हैं उनका सामाजिक या आर्थिक स्तर भी उतना अच्छा नहीं होता है.’ इसलिए जिन सुख-सुविधाओं के सपनों के साथ लड़की ससुराल पहुंचती है वहां हकीकत में उसके साथ बिल्कुल उल्टा होता है. पहाड़ों में खुले वातावरण में पली-बढ़ी लड़कियां ससुराल की खापों, जातियों, पर्दे और संकीर्णताओं वाले समाज के बंधनों में फंस कर घुट-घुट कर जीती हैं. पंचोली बताते हैं, ‘जहां ये लड़कियां ब्याही जाती हैं वहां का परिवेश पहाड़ों के विपरीत होता है. ऐसे में वहां इनका जिस्मानी रिश्ते के अलावा कोई और रिश्ता नहीं होता.’ इसलिए पहाड़ के खुले समाज में पली-बढ़ी ऐसी लड़कियों को घुट-घुट कर मौत का इंतजार करना होता है.
उत्तराखंड के आठ पहाड़ी जिलों में प्रति हजार पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या अधिक है. महिलाओं की यह अतिरिक्त संख्या, खूबसूरती, गोरा रंग और कमजोर पारिवारिक पृष्ठभूमि उन्हें दलालों का आसान शिकार बनाती है
लड़कियों को ब्याहने के नाम पर बेचने वाले इन गिरोहों ने अपना जाल इस तरह फैला दिया है कि जिस लड़की पर इनकी नजर पड़ती है उसे ये किसी न किसी कुचक्र में फंसा कर ले ही जाते हैं. उत्तरकाशी जिले के कफनौल की मीना बेहद खूबसूरत थी. पति नादान और अनपढ़ था. ससुराल वालों के ताने सुनकर मीना मायके आ गई. आठ-नौ महीने वह मायके में क्या रही कि दलालों की नजर उस पर पड़ गई. गांव के प्रधान और बिजली के लाइनमैन ने 65 हजार रुपये में उसका सौदा कर दिया. बात राज्य महिला आयोग और थाने तक गई. मीना के चचेरे भाई ने दलालों के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज कराया. लेकिन दलाल कहां मानने वाले थे, उन्होंने मीना के पति को इतना प्रताड़ित किया कि उस बेचारे ने डर कर आत्महत्या कर ली. अब विधवा मीना कहीं भी शादी कर सकती थी. दलाल मीना को गहनों से लाद कर नौगांव नाम के एक कस्बे तक लाए. प्रस्तावित दूल्हा अपनी स्कॉर्पियो कार में वहीं मौजूद था. राज्य महिला समाख्या की राज्य परियोजना निदेशक, गीता गैरोला बताती हैं कि मीना के मामले में वे राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष सुशीला बडोनी के साथ उसके गांव गई थीं. वे बताती हैं, ‘साफ दिख रहा था कि वह बेची जा रही थी. लेकिन दलालों ने अपने प्रभाव से इसे शादी का रूप दे दिया था इसलिए हम इस मानव तस्करी को नहीं रोक पाए.’ पंचोली बताते हैं, ‘किसी को भी पता नहीं है कि मीना अब कहां और किस हाल में है. मीना के मां-बाप भी नहीं हैं. होते भी तो क्या कर लेते. अब यह व्यापार संगठित माफिया का रूप ले चुका है. दलालों के पास कानून के रखवालों को भरमाने के हर तरीके हैं.’
मीना जैसा ही हाल विकास नगर के पडेर गांव की 27 वर्षीया कमला का भी हुआ. कमला का भी सौदा एक स्थानीय गिरोह ने हापुड़ में किया था. खबर मिलने पर राजस्व पुलिस ने कमला को खरीद कर ले जाने वाले गिरोह को रंगे हाथों विकास नगर में पकड़ लिया. कमला का सौदा करने वालों में उसके दो रिश्ते के भाई, दो स्थानीय दलाल और चार हापुड़ निवासी थे. नायब तहसीलदार भूपेंद्र सिंह बताते हैं, ‘इस मामले के मुख्य आरोपी संजय राठी ने जमानत पर बाहर आते ही कमला से कोर्ट मैरिज कर ली और उसे हापुड़ ले गया. शादी के नाम पर कमला बिक कर हापुड़ चली गई.’
बेटियों के व्यापार के मामले कुमाऊं कमिश्नरी में भी कम नहीं हैं. नैनीताल जिले की धारी तहसील का ही उदाहरण लीजिए. यहां डालकन्या गांव के कुंवरदेव पनेरू की 14 साल की बेटी भगवानी का सौदा अप्रैल, 2011 में गांव के ही चंद्रमणि भट्ट ने मथुरा के एक 35 साल के व्यक्ति के साथ करा दिया था. डालकन्या गांव नैनीताल जिले के सबसे दूरस्थ गांवों में से एक है. नाबालिग लड़की की अनजान जगह शादी की बात जब महिला संगठनों को पता चली तो उन्होंने रिपोर्ट दर्ज करानी चाही. लेकिन रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई. बाद में जिलाधिकारी के दखल से यह शादी रुकी. जांच के दौरान पनेरू ने बताया कि चंद्रमणि ने उसे 20 हजार रुपये दे कर यह शादी तय करवाई थी. महिला समाख्या, नैनीताल की बसंती पाठक बताती हैं, ‘डालकन्या ग्राम सभा के 20 परिवारों की 35 लड़कियों को भगवानी की तरह शादी के नाम पर मथुरा, बरेली, सितारगंज, अलीगढ़, खटीमा और मुरादाबाद में बेचा गया है.’ शादी के बाद अधिकांश लड़कियां वापस नहीं आई हैं. जो वापस आती भी हैं, वे बताती हैं कि उनसे बहुत बुरा व्यवहार किया जाता है. पैसे से खरीद कर ले जाने वाले लोग इन लड़कियों के साथ बहुत अत्याचार करते हैं. बसंती पाठक कहती हैं, ‘लेकिन लड़कियों के जीवन की विडंबना यह है कि वे मायके आकर अपने मां-बाप की खुशी के लिए यह बताती हैं कि वे ससुराल में खुश हैं.’
इस मुद्दे पर तत्कालीन जिलाधिकारी नैनीताल ने डालकन्या गांव में सामूहिक बैठक रखी थी. इसमें दलालों द्वारा कराई जा रही इन शादियों की हकीकत सामने आई. गांव के ही रेवाधर पनेरू ने बताया कि उसकी दो बेटियों की शादी भी इन्हीं बिचौलियों ने छह साल पहले 30 हजार रुपये में उत्तराखंड के उधम सिंह नगर जिले के गदरपुर में कर दी थी. ससुराल में परेशान ये लड़कियां शादी के दो साल बाद वापस मायके आ गई थीं. उस दिन से ससुराल वाले इनका फोन ही नहीं उठा रहे. बसंती पाठक कहती हैं, ‘ये हाल जब अपने राज्य में शादी के नाम पर बेची गई लड़कियों के हैं तो बाहरी राज्यों में बेची गई लड़कियां किस हाल में होंगी, भगवान ही जानता है.’ जिलाधिकारी द्वारा रखवाई गई इस बैठक में पता चला कि आस-पास के गांवों की लगभग 60 लड़कियां शादी के नाम पर मैदानी क्षेत्रों में बेची गई हैं. नैनीताल के डालकन्या गांव की खरीदने-बेचने वाली शादियां कुमाऊं के हर जिले के दूरस्थ गांव में हो रही हैं.
हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में 1,000 पुरुषों की तुलना में 800 से भी कम महिलाएं हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड के आठ पहाड़ी जिलों में प्रति हजार पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या अधिक है. अल्मोड़ा जिले में तो हजार पुरुषों पर 1,142 स्त्रियां हैं. महिलाओं की यह अतिरिक्त संख्या, उनकी खूबसूरती, गोरा रंग और कमजोर परिवारिक पृष्ठभूमि उन्हें दलालों का आसान शिकार बनाती है. दलालों ने इस व्यापार के लिए दूरस्थ पहाड़ी इलाकों के राजस्व पुलिस वाले क्षेत्रों को चुना है. प्रदेश के पहाड़ी जिलों का 80 प्रतिशत भाग राजस्व पुलिस के अधीन है. लेकिन आरोप लगते हैं कि हर तरह से कमजोर राजस्व पुलिस इन मामलों को अपराध तक नहीं मानती या ले-देकर इन मामलों को निपटा देती है.
एक सदी पहले पत्रकार विशंभर दत्त चंदोला ने गढ़वाली नामक मासिक अखबार में गढ़वाल से खरीद कर बंबई ले जाकर ब्याही या रखी महिलाओं के बारे में लिखा था. नवंबर 1913 के अंक में उनकी एक तस्वीर भी छपी थी
ब्याह के नाम पर बेची गई लड़कियों की कथित ससुराल में क्या हालत है, यह जानने के लिए उत्तरकाशी जिले की बड़कोट तहसील की 22 साल की मीता की दर्दनाक कहानी काफी है. पूर्व सैनिक पिता ने उसकी शादी पास के ही गांव में की थी. शादी के कुछ ही महीने बाद हरिद्वार स्थित एक फैक्टरी में नौकरी करने गए उसके पति की दुर्घटना में मृत्यु हो गई. शादी की उम्र से पहले ही मीता विधवा हो गई. ससुरालियों ने भी मीता को परेशान करके भगा दिया. मीता के पास मायके के अलावा कोई ठिकाना नहीं था. लड़कियों की खरीद-फरोख्त में लगे दलाल गिरोहों की नजर ऐसी ही लड़कियों पर होती है. यहां मीता की दुश्मन नई टिहरी में रहने वाली उसके गांव की रिश्ते की बुआ अंबिका निकली. अंबिका ने भोली मीता को समझाना शुरू किया कि इतनी लंबी उमर है अकेले क्या करोगी. उसने मीता से कोई अच्छा लड़का देखने की बात कहते हुए उसे आश्वस्त किया कि उसने पहले भी ऐसी कई शादियां करवाई हैं.
अंबिका मीता को लेकर मेरठ गई. यहां उसने उसे दरौला के पास बंशीपुरम इलाके के पिंटू नाम के लड़के और उसके रिश्तेदारों से मिलवाकर पिंटू के साथ शादी के नाम पर छोड़ दिया. पिंटू के मां-बाप बचपन ही में मर गए थे, उसे उसके जीजा विजेंद्र ने पाला था जो आपराधिक प्रवृत्ति का दबंग आदमी था. इस शादी की हकीकत जल्द ही मीना के सामने आ गई. वह बताती है, ‘पिंटू का जीजा और उसके कई दोस्त मेरे साथ जबरदस्ती करते थे.’ जीजा के टुकड़ों पर पल कर बड़ा हुआ मजदूर और मजबूर पिंटू विरोध में कुछ नही कह पाता था. मीता के विरोध करने पर विजेंद्र उसे धमकाता था कि उसे दो लाख रुपये में अंबिका से खरीदा गया है इसलिए वे उसके साथ कुछ भी कर सकते हैं. मीता ने मायके जाने के लिए मिन्नतें कीं तो विजेंद्र ने उसे बताया कि मां और भाई से मिलने की इच्छा है तो वह उन्हें यहीं बुला ले और अब वापस पहाड़ जाने की बात भूल जाए. बाहर जाते समय विजेंद्र मीता को कमरे में ताला बंद करके रखता था ताकि वह भाग न सके.
आखिर एक दिन किसी तरह मीता वहां से भाग कर नई टिहरी पहुंची. अगले ही दिन विजेंद्र भी उसे खोजते हुए वहां पहुंच गया. मीता ने पुलिस की महिला हेल्प लाइन में रिपोर्ट लिखवाई पर कुछ नहीं हुआ. कई दिनों तक विजेंद्र 12 लोगों के साथ उसे वापस ले जाने की जिद के साथ बेखौफ टिहरी में डटा रहा और मीता अपने मायके के क्षेत्र में उसके डर से इधर-उधर भागती रही. बाद में मीता महिला समाख्या के पास गई, जहां उसे, पिंटू और उसके जीजा को काउंसलिंग के लिए बुलाया गया. महिला समाख्या, टिहरी की रिसोर्स पर्सन रीना पंवार बताती हैं, ‘मीता के आरोप सही थे. उसका बुरी तरह शारीरिक शोषण और मानसिक उत्पीड़न हो रहा था.’ महिला समाख्या ने विजेंद्र और पिंटू को आगे मीता को परेशान न करने की हिदायत दी. मीता बताती है, ‘अंबिका ने पहले भी मेरी तरह तीन परेशान लड़कियों को बेचा है.’
ऐसी ही कहानी चमोली जिले की पोखरी तहसील से सात किमी दूर के एक गांव की रीना की भी है. रीना की बहन के मुताबिक हरियाणा के पानीपत में ब्याही गई रीना को उसका नशाखोर पति पैसे के लिए दोस्तों के सामने परोसता है. कुछ समय पहले वह अपने मायके आई थी. रीना की बहन बताती है, ‘हाल ही में रीना के पति के दोस्तों ने उसके बैंक खाते में पैसे डाले और उसे फिर ले गए हैं.’ बहन को भरोसा नहीं है कि रीना की जान और इज्जत-आबरू उसकी कथित ससुराल में सुरक्षित है. रीना के पिता की भी मौत हो चुकी है और उसका कोई भाई भी नहीं है.
तहलका ने बाहर ब्याही लड़कियों के वास्तविक हालात के बारे में कई माध्यमों से गहराई से जांच-पड़ताल की और पाया कि अच्छे घरों में ब्याहने के नाम पर बेची गई अधिकांश लड़कियों से कई तरीकों की वेश्यावृत्ति कराई जाती है. नायाब तहसीलदार भूपेंद्र सिंह तो स्थितियों को और भी भयावह बताते हैं. वे कहते हैं, ‘दो मामलों में कड़ी पूछताछ में दलालों और खरीददारों ने बताया कि पहले इन लड़कियों से बच्चे पैदा कराए जाते हैं. फिर पत्नी की तरह रख कर वेश्यावृत्ति कराई जाती है या बेच दिया जाता है. जब उनका शरीर देह व्यापार के काम का नहीं रहता तो इनसे खून बिकवाया जाता है और अंत में कई बार इनके किडनी जैसे अंग भी बेचे जाते हैं.’ कड़ी पूछताछ में दलालों ने पुलिस के सामने स्वीकारा कि पहाड़ से एक लाख में खरीदी गई लड़की उन्हें कई लाख कमा कर देती है और उसके मायके वालों से किसी किस्म के विरोध और कानूनी परेशानी का भी उन्हें डर नहीं रहता है. राज्य में मानव तस्करी रोकने के लिए पुलिस क्षेत्र में एक सेल बनाया गया है. लेकिन यह बस नाम का ही है. कुमाऊं के आईजी दीपक ज्योति घिल्डियाल बताते हैं, ‘नैनीताल में मानव तस्करी सेल खुला है, अब उसका दायरा बढ़ा कर उधम सिंह नगर जिले तक कर दिया गया है.’ इस सेल के पास अभी केवल एक शिकायत रामनगर में दर्ज हुई है. घिल्डियाल बताते हैं, ‘यदि राजस्व क्षेत्र से भी इस तरह के मामले हमारे पास आते हैं तो हम उन्हें लेंगे.’
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद लड़कियों को ब्याहने के नाम पर बेचने के हजारों मामले हुए हैं. लेकिन आज तक एक भी मामला विधान सभा में नहीं उठा है. हर पर्वतीय विधायक के क्षेत्र में यह काला-व्यापार हो रहा है लेकिन उन्होंने इन मामलों का कोई संज्ञान नहीं लिया. अधिकांश जनप्रतिनिधि इलाके की बदनामी के नाम पर इन सामाजिक व्यापार-व्यवहारों को प्रचारित न करने की सलाह देते हैं. बहुत-से दलाल किसी न किसी पार्टी के ‘सम्मानित कार्यकर्ता’ भी हैं. विधायकों को डर है कि ये दबंग उनकी जीत को कुछ सौ वोटों से तो प्रभावित कर ही सकते हैं.
उत्तराखंड में हर आंदोलन की अगुवाई महिलाएं करती हैं, लेकिन बेटियों के इस कुत्सित और घृणित व्यापार के विरोध में राज्य बनने के बाद कोई आंदोलन होना तो दूर एक संगठित आवाज तक नहीं उठी. देहरादून में नित होने वाले बौद्धिक सम्मेलनों में भी कभी इस दर्द को मंचों पर साझा नहीं किया गया. शायद इसलिए कि बिक रही ये बेटियां उन गरीबों और असहाय लोगों की थीं जो किसी प्रचार माध्यम को प्रभावित नहीं करते.
राज्य आंदोलनकारी और राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष सुशीला बलूनी बताती हैं, ‘हमें राज्य के दूर-दराज के क्षेत्रों में इस तरह की बिक्री की बातें तो सुनने में मिलती हैं, लेकिन आज तक कोई लिखित शिकायत हमारे सामने नहीं आई है और न ही किसी जनप्रतिनिधि या संगठन ने इस बारे में उन्हें पत्र लिखा है.’ गीता गैरोला बताती हैं, ‘कोई भी महिला संगठन मानव तस्करी करने वाले इन सशक्त गिरोहों को मुकाबला नहीं कर सकता क्योंकि इन्हें किसी न किसी रूप से प्रशासनिक और राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है.’
शारीरिक शोषण, उत्पीड़न और बिक कर ब्याहने की पीड़ा जैसे बड़े कष्टों के अलावा अपरिचित इलाकों में बेच कर ब्याही इन बेटियों के जीवन में कई गहरी भावनात्मक पीड़ाएं भी हैं. पहाड़ में ससुराल के कठिन और अनुशासित जीवन के बीच मन को हल्का करने के लिए मायके आने के लिए अनेकों मौके और परंपराएं हैं. लोकमान्यता है कि इन मेलों या त्योहारों में यदि लड़कियों को मायके न भेजा जाए तो लड़की के मायके की नंदा देवी ससुरालियों पर कुपित हो कर कहर बरपाती हैं. इस पारंपरिक डर से कठोर से कठोर दिल वाले ससुराली भी कम से कम इन मेलों के समय अपनी बहुओं को उनके मायके भेजते ही हैं. मैदानी इलाकों में ब्याही गई इन लड़कियों के ससुरालियों को इन परंपराओं से कोई मतलब ही नहीं होता.
चमोली-रुद्रप्रयाग जिले में तुंगनाथ मंदिर से जुड़े गांवों में हर तीसरे साल नंदा देवी को गांव आने का न्यौता दिया जाता है. इस तरह के मेलों में नंदा के साथ-साथ गांव की बेटियों को भी मायके बुलाया जाता है. ऐसे ही एक गांव की बेटी थी सोनम. उसका गांव रुद्रप्रयाग जिले के अगस्त्यमुनि विकास खंड में है. सोनम के पिता गांव के लोहार थे. अपने पिता के साथ गांव भर के घरों में घूमती-हंसती-खेलती बड़ी हो रही सोनम अपने पिता के अलावा पूरे गांव की भी बेटी थी. चार साल पहले पिता के मरने के बाद मां ने 15 वर्षीया सोनम की शादी रुड़की तहसील के झबरेड़ा थाने के एक गांव में एक 45 वर्षीय किसान के साथ तय कर दी. तहलका ने किसी तरह सोनम से बात की. उसने बताया, ‘ससुराल आ कर पता चला कि पति की पहली पत्नी भी थी जो मर गई थी. पहली शादी की लड़की उम्र में मेरे ही बराबर है.’ वह आगे कहती है,‘यदि मां शादी करने से पहले मुझे हकीकत बताती तो मैं कभी इसके लिए तैयार नहीं होती.’
शादी के कुछ दिनों बाद ही सोनम को पता चल गया कि उसकी मां ने उसे 70 हजार रुपये में बेचा था. अब उसकी सास हमेशा ताने देती है कि जितने रुपयों में उसे खरीदा गया है उस हिसाब से उसे शऊर नहीं है. सोनम की एक देवरानी मुजफ्फर नगर और दूसरी शामली की है. सोनम बताती है, ‘मेरी दोनों देवरानियों के मायके वाले हर महीने उनसे मिलने आते हैं, मेरे मायके में कोई नहीं है.’ मायूस सोनम कहती है, ‘यदि कोई होता भी तो इतनी दूर और अनजाने माहौल में डर के मारे मुझसे मिलने नहीं आता.’
शादी के एक साल बाद ही सोनम की एक लड़की भी हो गई. हर लड़की की तरह सोनम को भी मायके की याद आई. मिन्नतें करने पर भी ससुराली नहीं माने. आखिर सोनम भाग कर अपने मायके आ गई. मायके में भी मां-बाप थे नहीं, सो अधिक दिन किसके पास रहती. तीन महीने बाद ताऊ-चाचा ने भी ताने देने शुरु किया तो सोनम थक-हारकर एक बार फिर मजबूर होकर मायके से खुद को खरीदने वाली ससुराल चली गई. अब वह 19 साल की है और इतनी सी उम्र में इतना कुछ भुगत लिया है. मोबाइल पर बात करते हुए रुआंसी होकर सोनम कहती है, ‘मेरे जैसा बिना मायके वाला दुर्भाग्य किसी और लड़की का न हो और बेच कर मुझे दूसरे मुल्क में ब्याहने वाली मां का भी कभी भला न हो.’ सोनम के गांव की 17 साल की कुंती को उसके पिता ने 40 साल के आदमी के हाथों गाजियाबाद बेच दिया है. उसी गांव की पांच और लड़कियों का सौदा उनके मां-बापों या दलालों ने मैदानी क्षेत्रों में किया है. सोनम के मायके के आस-पास के पांच गांवों की करीब 30-32 लड़कियों को उनके माता-पिता ने हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश या मैदानी जिलों में शादी के नाम पर बेचा है.
पहाड़ में जानवरों को खरीदने-बेचने वाले दलालों को पहले ‘गलदार’ कहते थे. गलदार इतना चालाक होता था कि यदि उसकी नजर किसी के अच्छे-खासे दूध देने वाले या स्वस्थ जानवर पर पड़ जाती थी तो उस जानवर का बिकना निश्चित था. स्थानीय पत्रकार देवेंद्र सिंह रावत कहते हैं, ‘अब मासूम लड़कियों की खरीद-फरोख्त करने वाले गलदारों ने सारे पहाड़ में जाल फैला दिया है.’ गीता बिष्ट कहती हैं, ‘देश के किसी भी भाग की तुलना में सीमाओं की रक्षा में उत्तराखंड के अधिक जवान लगे हैं. लेकिन दुश्मनों को किसी भी हाल में धराशायी करने का इतिहास रखने वाले ये वीर भाई भी दलालों से अपनी बहनों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं. और यहां के राजनेता और नौकरशाह इस मामले में ‘लाटू देवता’ की तरह मौन हैं.’
(पीड़ित लड़कियों और परिवार के सदस्यों के नाम बदले हुए हैं. अपराधियों, दलालों या आरोपितों के नाम यथावत हैं)
(महिपाल कुंवर के सहयोग के साथ)