स्त्री विमर्श की आधुनिक भगदड़ में हमने ‘बराबरी’ के नाम पर स्त्री को जिस प्रकार बराबरी के भ्रम में डालकर उसका इस्तेमाल किया है वह एक अलग ही लेख का विषय है. हम यहां वह विषय उठा भी नहीं रहे. हम यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि जब स्वास्थ्य और बीमारी की बात उठे, कम से कम तब हम ऐसे मूढ़ भ्रम उत्पन्न न करें. स्त्री का शरीर और शरीर का सिस्टम कई मायनों में पुरुषों से इतना अलग है कि सही कहा जाए तो अब भी मेडिकल साइंस इसको गहराई से नहीं जानता. स्त्री की शारीरिक, मानसिक और इंडोक्राइन बनावट में इतने पेंच होते हैं कि उसकी स्वास्थ्य समस्याएं एकदम अलग किस्म का विमर्श मांगती हैं. यदि मुझसे यह पूछा जाए कि ऐसी पांच स्वास्थ्य समस्याएं बताएं जो स्त्री को पता होनी ही चाहिए तो मैं इन पांच बीमारियों की बात करूंगा
स्त्रियों में हृदयाघात ( हार्ट अटैक )
डॉक्टरों तक को यह भ्रम है कि स्त्रियों को हार्ट अटैक नहीं होता या बहुत कम होता है. रजस्वला स्त्री में अर्थात जब तक उसकी माहवारी की उम्र होती है तब तक इस्ट्रोजन तथा अन्य हार्मोन उसे हार्ट अटैक से बचा कर रखते हैं. यह एक सिद्ध तथ्य है. अलबत्ता रजोनिवृत्ति के बाद, जो प्रायः स्त्रियों में 45 से 50 वर्ष की उम्र तक हो जाती है, औरतों को भी हार्ट अटैक होने के उतने ही खतरे होते हैं, बल्कि कई अर्थों में और भी ज्यादा. औरतों का हार्ट अटैक ज्यादा खतरनाक क्यों होता है? एक कारण तो यही है कि खुद डॉक्टर तक मानते हैं कि यदि औरत को छाती में दर्द हो रहा है तो यह हार्ट अटैक के कारण न होकर किसी दूसरी वजह से होगा. इसी चक्कर में कई बार इनकी बीमारी ही नहीं पकड़ी जाती. एक अन्य तथ्य यह है कि औरतों का हार्ट अटैक कहीं ज्यादा खराब किस्म का होता है. उनमें मृत्यु की आशंका अपेक्षाकृत ज्यादा होती है. पता भी न चले और इतना खतरनाक भी हो, यह बात डरावनी है, पर है तो. फिर स्त्रियों में दिल की रक्त नलिकाएं (कोरोनरी) संकरी हो सकती हैं तो कोरोनरी में बीमारी या रुकावट निकले भी तब भी वह एंजियोप्लास्टी या बाइपास सर्जरी के लिए फिट केस ही नहीं निकलेगा क्योंकि पतली नलियों में यह सब नहीं किया जा सकता. हां, एक और बात. यदि स्त्री को मधुमेह की बीमारी हो तो फिर रजस्वला स्त्री को भी हार्ट-अटैक की संभावना पुरुष के समकक्ष ही होती है. समझने की कुल बात यह है कि स्त्री को भी हार्ट-अटैक हो सकता है और जब होता है तो ज्यादा खराब ही होता है. इसमें बेवफा, बेदिल, पाषाण हृदय स्त्री भी शामिल है.
ऑस्टियोपोरोसिस ( हड्डियां कमजोर होना )
हड्डियां एक उम्र तक ही लंबाई तथा मोटाई ग्रहण करती हैं. युवा उम्र के बाद हड्डियां बनती भी हैं और गलती भी हैं. जहां-जहां हड्डियां दबावों के कारण छोटी-छोटी चोटें खाती हैं वहां वे बनती, रिपेयर होती रहती हैं. यह तो हुआ बनना. और गलना कैसा? वह यूं कि हड्डियां कैल्शियम का भंडार हैं. यदि रक्त में कैल्शियम कम हो तो वह हड्डी से निकलकर रक्त में जाता है. पैंतीस वर्ष की उम्र के बाद यह गलना बढ़ता है और मीनोपॉज के बाद तो बेहद तेज हो जाता है. इससे हड्डियां इतनी कमजोर हो सकती हैं (इसे ऑस्टियोपोरोसिस कहते हैं) कि कुल्हे, मेरूदंड में बिना किसी बड़ी चोट के फ्रैक्चर हो सकते हैं. कई बार तो ये फ्रैक्चर पता चलते हैं, कई बार पता ही नहीं चलते. बिना किसी बड़ी चोट के ही हड्डी टूट जाती है. कमर दर्द, पेट फूलना, कब्जियत रहना कमर की हड्डी के टूटने से भी हो सकता है. छाती के मेरूदंड में हड्डी टूटे तो सांस फूल सकती है. मेरूदंड में बहुत-सी बर्टीब्री टूट जाएं तो ऑरिज की ऊंचाई कम हो जाती है. यानी कि हड्डी टूटी है पर तकलीफ कुछ और ही हो रही है और उसी तकलीफ का इलाज चल रहा है जबकि इलाज ऑस्टियोपोरोसिस का होना था. क्या इलाज है इसका? दोपहर धूप में बैठना, दूध-दही-पनीर का सेवन, घूमना, कैल्शियम, विटामिन डी आदि कई इलाज हैं.
मीनोपॉजल सिंड्रोम ( रजानिवृति )
पैंतीस वर्ष की आयु से ही ओवरी (अंडाशय) की साइज तथा कार्यक्षमता कम होने लगती है. मीनोपॉज के चार-पांच वर्ष पूर्व ही उसके आगमन की छाया स्त्री जीवन पर पड़ने लगती है. रजोनिवृत्ति से, दो से लेकर आठ वर्ष पूर्व ही ‘पेरीमीनोपॉजल सिंड्रोम’ शुरू हो सकता है. स्त्री को अचानक ही तेज गर्मी (हॉट फ्लश), रात में तेज पसीना, योनि का सूखापन, अनियमित माहवारी, नींद की समस्याएं, डिप्रेशन, मूड का बनना-बिगड़ना, हाथ-पांव टूटना, ‘अजीब अजीब सी’ तकलीफें महसूस होना – यह बस शुरू हो जाता है. इस सबको प्रायः न तो पति महोदय कोई भाव देते हैं, न ही परिवार में कोई समझता है. मान लिया जाता है कि उम्र बढ़ने तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों के दबाव में यह सब तो होना ही है. स्त्री तो होती ही ‘कमजोर जात’ है न. कोई भी उस पर ध्यान नहीं देता. ऐसे में स्त्री स्वयं को और भी उपेक्षित महसूस करने लगती है. एक दुश्चक्रे-सा शुरू हो जाता है. फिर एक दिन माहवारी पूरी तरह से बंद हो जाती है. पूरे एक वर्ष तक जब यह बंद रहे तो इसे चिकित्सीय भाषा में ‘मीनोपॉज’ हो जाना कहते हैं. फिर मीनोपॉज में ये सारी तकलीफें और भी बढ़ सकती हैं. इन सबका इलाज है पर यहां उसे बता पाने का अवसर नहीं है. अभी तो कुल मुद्दा यह जानने, समझने का है कि मीनोपॉज के करीब आती स्त्री में बहुत-सी उपर्युक्त बातें हो सकती हैं जिन्हें हम स्त्री के ‘नखरे करने की नैसर्गिक आदत’, ‘ये आजकल हर बात पर चिड़चिड़ाने की ठाने रहती हैं.’ आदि कहकर न टालें. यह भी एक बीमारी है. किसी हद तक इसका इलाज भी है. बस समझने की बात है. इसे समझें.
स्त्रियों में रक्त की कमी ( अनीमिया )
खून की कमी अर्थात अनीमिया पुरुषों में भी होता है फिर स्त्रियों के अनीमिया में ऐसा क्या विशेष है? भारतीय स्त्रियां घरेलू कामों में ऐसी खटती रहती है कि उनको न तो अपने खाने का ही होश रहता है और न ही स्वास्थ्य का. घर में वह सबके खाने का ध्यान रखती है, स्वयं को सबसे आखिरी नंबर पर रखकर. तो न्यूट्रीशनल अनीमिया का सबसे बड़ा कारण है. थकान रहना, चिड़चिड़ापन, चक्कर-सा लगना, काम करने पर सांसे फूलना आदि अनीमिया से हो रहे हैं पर आम धारणा यह है कि यह सब तो औरतों में होता ही रहता है. नहीं, यह ठीक नहीं. यदि ऐसा होता हो तो हीमोग्लोबिन की सामान्य-सी एक रक्त जांच सहज उपलब्ध है. कराएं. यदि यह कम निकले तो डॉक्टर आपको उचित दवाइयां तथा भोजन संबंधी सलाहें देगा. यह न मान लें औरतों में हीमोग्लोबिन कम ही चलता है. ऐसा नहीं है कि वह कोई बिना पेट्रोल के चलने वाली गाड़ी नहीं है. फिर कई ऐसे अन्य कारण भी हैं जो मात्र स्त्रियों में ही होते हैं और खून की कमी कर सकते हैं. बार-बार बच्चे पैदा होना, माहवारी में बहुत दिनों तक बहुत रक्त जाना आदि बेहद आम कारण हैं. फिर गर्भाशय, गर्भाशय के मुख के कैंसर में भी कई बार अनीमिया ही प्रमुख लक्षण हो सकता है. स्त्री में यदि रक्त की कमी है तो उसकी विस्तृत जांच आवश्यक है. विशेष तौर पर डॉक्टरी चेकअप तो होना ही चाहिए.
बच्चेदानी, ओवरी तथा स्तन कैंसर
यूं तो कैंसर किसी को भी हो सकता है. आदमियों में भी और औरतों में भी. परंतु कुछ विशिष्ट कैंसरों के विषय में औरतों को इसलिए जानना आवश्यक है कि वे औरतों में ही होते हैं, और जानलेवा होते हैं, पर कुछ नियमित जांचों (स्क्रीनिंग टेस्टों) द्वारा इन्हें एकदम शुरुआत में पकड़ा भी जा सकता है. पहले पकड़ लें तो इनका पूरा इलाज हो सकता है. स्तन कैंसर एकदम शुरू में पकड़ा जा सकता है.
स्त्री को अपने स्तनों की स्वयं जांच करनी चाहिए. हर माह यह जांच नियमित रूप से करते रहना चाहिए. एक बार दोनों स्तनों को सब तरफ से दबा कर देख लें. नहाते समय आराम से इसे किया जा सकता है. कोई भी चिकित्सक आपको इसकी विधि समझा देगा. दबाकर देखें कि कहीं कोई छोटी-मोटी गांठ तो महसूस नहीं होती जो वहां पहले नहीं थी. यदि लगे तो तुरंत अपने डॉक्टर को दिखाएं. उन स्त्रियों को तो इस मामले में बेहद सतर्क रहना चाहिए जिनकी मां, नानी, मौसी आदि को कभी स्तन का कैंसर हुआ हो. इनको यह कैंसर होने की आशंका ज्यादा होती है. एक और जांच होती है, मेमोग्राफी. एक तरह का, स्तन का एक्स-रे जैसा मान लें. आम राय तो नहीं है परंतु पचास वर्ष की उम्र से ऊपर की स्त्री में इसे भी सालाना स्क्रीनिंग जांच में रखा तो गया है. वे स्त्रियां तो इसे करा ही लें जिनके ननिहाल में यह बीमारी हुई है. बच्चेदानी का कैंसर भी होता है. यह औरतों का सबसे कॉमन कैंसर है. प्राय: मीनोपॉज के बाद होता है. यदि मीनोपॉज के बाद कभी हल्की ब्लीडिंग भी हो, गंदा-सा योनि स्राव हो या बहुत ज्यादा योनि स्राव हो तो इसकी आशंका बनती है. ऐसा हो, तो जांचें लगेंगी. बायोप्सी, डी ऐंड सी आदि छोटे ऑपरेटिव तरीकों से बीमारी का पता चलता है. दुर्भाग्यवश फिलहाल इसके स्क्रीनिंग टेस्ट उपलब्ध नहीं हंै. एक जमाने में बच्चेदानी के मुख के कैंसर से सबसे ज्यादा मृत्यु होती थी. आज ऐसा नहीं है. एक टेस्ट होता है. पेप स्मीयर. आउटडोर में मिनटों में होता है. सहज-सा टेस्ट है. 20 वर्ष की आयु के बाद, जब से स्त्री सेक्स गतिविधि में संलग्न हो जाए तब से हर तीन साल में एक बार यह जांच हर स्त्री को करानी ही चाहिए. एकदम शुरुआती कैंसर सर्विक्स को यूं ही पकड़ा जा सकता है. आजकल तो इसे रोकने की वैक्सीन भी उपलब्ध है. यह माना जाता है कि यह सेक्स गतिविधि से पहुंचने वाले एचआईवी वायरस से होता है. इसी की वैक्सीन है यह. पर यह काम तभी करेगी जब नौ से 26 वर्ष की उम्र में, सेक्स गतिविधि शुरू होने से पहले दे दी जाए. महंगी वैक्सीन है. पर अपनी बेटी को जरूर लगवा दें. अपनी पेप स्मीयर की जांच किसी भी गायनेकोलोजिस्ट से करा लें. नियमित कराते रहें. यदि सहवास के बाद रक्त आए, यदि दो माहवारी के बीच भी रक्त आए, यदि मवाद जैसा पीला योनि श्राव हो, यदि लगातार पीठ दर्द बना रहे- तो यह जांच अवश्य कराएं.