हाल ही में महाराष्ट्र में भाजपा व विपक्ष के नेता देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की सरकार पर किसानों से धोखा करने का आरोप लगाया था। इस पर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने दावा किया कि उनकी सरकार किसानों से किये गये वादों को पूरा करेगी। यह मसला तो विपक्षी पार्टी भाजपा ने सदन में उठाया था; लेकिन महाराष्ट्र सरकार में भागीदार कांग्रेस पार्टी के ही मंत्री नितिन राउत ने तकरीबन उसी दौरान मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को किसानी व खेतिहर महिला मज़दूरों की बाबत एक पत्र लिखा था। विदित हो कि महाराष्ट्र में किसान, सूखा व उनकी समस्याएँ हमेशा चर्चा में रहती हैं। लेकिन नितिन राउत ने मुख्यमंत्री ठाकरे को लिखे पत्र में उनका ध्यान इस सूबे में शुगर बेल्ट यानी गन्ना खेती प्रधान इलाकों में काम करने वाली महिला मज़दूरों की स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या की ओर खींचते हुए फौरन उचित कदम उठाने का अनुरोध कर दिया।
नितिन राउत ने कहा कि गन्ना खेतों में काम करने वाली 30,000 महिलाओं ने अपने सर्जरी के ज़रिये अपने गर्भाशय निकलवा दिये हैं, ताकि वे अपने पीरियड के दौरान भी खेतों में मज़दूरी कर सकें। हालाँकि मंत्री नितिन राउत ने आँकड़ों का ज़िक्र करते समय स्रोत का उल्लेख नहीं किया पर उन्होंने मुख्यमंत्री से इस मामले की गम्भीरता के मद्देनज़र ऐसे कदम उठाने की अपील कर डाली, जो इन महिला किसान मज़दूरों की मदद करने वाले हों। वे अपनी जान जोखिम में डालकर जीविकोपार्जन करने को मजबूर न हों।
बीते साल मीडिया में रिपोर्ट छपी थी कि गन्ना खेतों में काम करने वाली महिला मज़दूर अपनी दिहाड़ी कटने के दबाव में गर्भाशय निकलवाने वाला ऑपरेशन करा रही हैं। ये महिलाएँ पीरियड के दौरान दो या तीन दिन काम करने में सहज महसूस नहीं करतीं। लिहाज़ा खेतों से गैर-हाज़िर होने पर उनकी ही नहीं, बल्कि उनके पति की भी दिहाड़ी काट ली जाती है।
गन्ना खेतों में कटाई आदि के काम के लिए ठेकेदार बाहर से मज़दूरों को ले जाते हैं और पति-पत्नी को एक ही यूनिट समझा जाता है। महिला मज़दूर पीरियड के दौरान अगर एक दिन की छुट्टी लेती है, तो उसका व उसके पति के अंदाज़न 500 रुपये कट जाते हैं। कई महिला मज़दूरों ने यह भी बताया कि कई ठेकेदार गर्भाश्य निकलवाने के लिए महिलाओं को एडवांस में भी रकम देते हैं और फिर उनकी दिहाड़ी से काट लेते हैं।
गरीब, अनपढ़ महिलाएँ भी अपने काम की उत्पादकता को बढ़ाने और दिहाड़ी कटने के भय से अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ कर लेती हैं। विदित हो कि महाराष्ट्र सूबे का एक बहुत बड़ा हिस्सा भौगोलिक दृष्टि से सूखा सम्भावित क्षेत्र है। इस सूबे में सतारा, बीड़, उस्मानाबाद, लातूर, नासिक, औरंगाबाद, शोलापुर, साँगली आदि सूखे प्रभावित इलाके हैं और यहाँ से बड़ी संख्या में मज़दूर शुगर बेल्ट में हर साल 5-6 महीने के लिए काम करने के वास्ते पलायन कर जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि अकेले बीड़ ज़िले से ही 5-6 लाख लोग पलायन करते हैं। पलायन करने वालों में महिला मज़दूरों की तादाद भी उल्लेखनीय होती है।
इनमें गर्भवती व बच्चों को दूध पिलाने वाली महिलाएँ भी शामिल होती हैं। बीड़ से मज़दूर सूबे के अन्य इलाकों व सूबे से लगी कर्नाटक की सीमा पर गन्ना खेतों में काम के लिए चले जाते हैं। हमेशा सूखाग्रस्त रहने वाले बीड़ में गरीबी बहुत है। भारत में खेतों में काम करने वाली महिला मज़दूरों की संख्या करीब 80 फीसदी है। इन खेतों में काम करना, खासकर गन्ना काटना-छीलना आसान नहीं होता। सातों दिन 16-17 घंटे काम करना होता है। खुले में ही शौच करना होता है। यही नहीं, इनके रहने की व्यवस्था भी जहाँ की जाती है, वहाँ भी शौचालय या तो होते नहीं या वहाँ पानी ही नहीं होता है।
साफ-सफाई की उचित व्यवस्था नहीं होने से ऐसे में महिलाओं के संक्रमण की चपेट में आने का खतरा अधिक रहता है और वे अक्सर इसकी चपेट में आ भी जाती हैं। फिर वे झोलाछाप डॉक्टरों के चक्कर में पड़ जाती हैं, जो उनकी हालत को बद् से बद्तर बना देते हैं। ये डॉक्टर जो संक्रमण आसानी से इलाज के द्वारा ठीक हो सकता है, उसे भी नज़रअंदाज़ कर महिलाओं को गर्भाशय निकलवाने पर ज़ोर देने लगते हैं। उनके दिमाग में यह बात बैठा दी जाती है कि आपकी सभी समस्याओं की जड़ गर्भाशय है, इसे निकलवाकर अपनी उत्पादकता को बढ़ाओ और पैसा कमाओ। हालात यह है कि इस सूबे के कई गाँवों को गर्भाशय मुक्त गाँव के नाम से जाना जाता है। महाराष्ट्र सरकार ने 2019 में माना था कि बीते तीन वर्षों में यानी 2016-19 के दरम्यान अकेले बीड़ ज़िले में ही 4605 महिलाओं ने गर्भाशय निकलवाने के लिए सर्जरी करायी। उन महिलाओं की उम्र 40 साल से कम थी और कुछ की तो महज़ 20 साल ही थी।
नागरिक संगठनों के कार्यकर्ताओं का मानना है कि सरकारी आँकड़े असली तस्वीर सामने नहीं रखते। उनका मानना है कि ऐसा कदम उठाने वाली महिलाओं की संख्या बहुत अधिक है। महिलाओं को सर्जरी कराने का इकलौता विकल्प बताने वाले मेडिकल इंडस्ट्री के लोग उन्हें इसके साइड इफेक्ट के बारे में कुछ भी नहीं बताते। अक्सर ऐसी सर्जरी कराने वाली महिलाओं को बाद में पीठ दर्द, गर्दन, घुटने दर्द की शिकायत अक्सर रहती है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी इन महिलाओं की स्थिति को दयनीय बताते हुए राज्य सरकार से भविष्य में ऐसे अत्याचारों को रोकने वाले कदम उठाने को कहा।
भारत जैसे मुल्क में जहाँ महिलाओं के प्रति लैंगिक पूर्वाग्रह अभी भी खासतौर पर गाँवों में मज़बूती से नज़र आती है, वहाँ कुछ इलाकों में महिलाओं को अपनी उत्पादकता बढ़ाने के लिए आज भी गर्भाशय निकालने के लिए विवश किया जाता है। ठेकेदारों के द्वारा उनकी गरीबी, निरक्षरता व अन्य हालात का इस तरह फायदा उठाने पर रोक लगनी चाहिए और यह सरकारी तंत्र की विफलता भी है कि वह कामकाजी महिलाओं की इस समस्या के प्रति उदासीन नज़र आता है।
दरअसल, कई इलाकों में महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान रसोई में जाने पर प्रतिबन्ध है। उन्हें कई तरह से छुआछूत का भी सामना करना पड़ता है। महिलाओं को ऐसे वक्त में पेट में मरोड़ उठने, पीठ, टाँगों में दर्द व जी मचलाने की शिकायत भी रहती है। इस दौरान मूड भी स्विंग होता है। ऐसे में मुल्क में कामकाजी महिलाओं के लिए पीरियड लीव पर भी समय-समय पर चर्चा का माहौल बनता रहता है।
पीरियड लीव की माँग करने वाली लॉबी की दलील है कि यह महिलाओं का अधिकार है। भारत के संविधान में राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्वों में राज्य को महिला कर्मचारियों के कल्याण के लिए कानून बनाने की अनुशंसा वाले प्रावधान भी हैं। अनुच्छेद-42 कहता है कि कार्यस्थल पर न्यायसंगत व मानवीय हालात सुनिश्चित करना राज्य के लक्ष्यों में आता है और इसमें प्रसूति अवकाश भी शामिल है। इस नज़रिये से पीरियड अवकाश भी इस दायरे में आ जाता है।
गौरतलब है कि अरुणाचल प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेसी सांसद निनॉन्ग एङ्क्षरग ने 2018 में मेंसुरेशन बेनिफिट बिल-2017’ सदन में पेश करने के लिए इस बिल का मसौदा तैयार किया था। इस मसौदे में पीरियड के दौरान सरकारी व निजी संस्थानों में काम करने वाली महिलाओं को दो दिन की छुट्टी देने वाले प्रावधान के साथ-साथ इस दौरान कार्यालयों में आराम करने की व्यवस्था करने को भी कहा गया था। भारत में बिहार में बेशक बाल विवाह अधिक होते हैं और वहाँ प्रजनन दर भी अधिक है। शिक्षा के स्तर पर भी सवाल उठते रहते हैं; लेकिन इस सूबे में 1992 से ही कामकाजी महिलाओं को पीरियड लीव दी जा रही है। जापान में तो यह व्यवस्था 1947 से ही है। ताइवान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया व चीन के कुछ प्रान्तों में भी कामकाजी महिलाओं के लिए ऐसे अवकाश वाले प्रावधान हैं। भारत में अगर ऐसे अवकाश वाली कोई नीति बनती है, तो क्या अनौपचारिक सगठनों में काम करने वाली महिलाओं को इसका लाभ होगा?