सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भ चिकित्सकीय समापन अधिनियम के दायरे को विस्तार देते हुए अविवाहित महिला को दी गर्भपात की अनुमति
हाल में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अविवाहित महिलाओं के गर्भपात के अधिकार पर बड़ा फ़ैसला दिया है। दरअसल न्यायालय ने मेडिकल टॅर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट यानी गर्भ चिकित्सकीय समापन अधिनियम के दायरे को विस्तार देते हुए एक अविवाहिता को 24 सप्ताह का गर्भ गिराने की अनुमति दे दी। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि महिला शादीशुदा नहीं है, केवल इस वजह से उसे गर्भपात करवाने से नहीं रोका जा सकता। इस फ़ैसले ने ऐसी अविवाहित महिलाओं को रोशनी दिखायी है, जो ऐसे हालात से गुज़रती हैं और अपनी जान जोखिम में डालकर असुरक्षित गर्भपात के तरीक़े अपनाती हैं व कई मर्तबा जान भी गँवा बैठती हैं।
ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश देते वक़्त दिल्ली एम्स के निदेशक को एमटीपी अधिनियम की धारा-3(2)(डी) के तहत एक मेडिकल बोर्ड का गठन करने का भी निर्देश दिया है। बोर्ड को यह तय करना है कि महिला की जान को बिना जोखिम में डाले गर्भपात किया जा सकता है या नहीं। अगर उसके जीवन को कोई ख़तरा नहीं होगा, तो गर्भपात कराया जा सकता है। बेशक गर्भपात कराने से पहले चिकित्सक की राय लेना अनिवार्य है; लेकिन इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़ कर दिया है कि 20-24 सप्ताह के गर्भ का गर्भपात कराने की अधिकार ग़ैर-शादीशुदा महिलाएँ को भी है।
दरअसल इस एक्ट को सही तरह से समझने की ज़रूरत है। सर्वोच्च न्यायालय ने जो विस्तार दिया है, उसकी दरकार एक लम्बे समय से थी। उपरोक्त मामला मूल रूप से मणिपुर की रहने वाली एक 25 वर्षीय महिला, जो फ़िलहाल दिल्ली में रहती है; ने दिल्ली उच्च न्यायालय से अपने 23 सप्ताह 5 दिन के गर्भ को समाप्त करने की इजाज़त माँगी थी। महिला ने न्यायालय को बताया कि वह लिव-इन-रिलेशनशिप के दौरान सहमति से बने सम्बन्ध की वजह से गर्भवती हुई। वह गर्भपात करना चाहती है; क्योंकि उसके साथी ने शादी करने से मना कर दिया है। महिला ने न्यायालय को बताया कि उसके माता-पिता किसान हैं और वह पाँच बहन-भाई में सबसे बड़ी है। आय के साधन सीमित हैं। इस हालात में वह बच्चे का पालन-पोषण करने में समर्थ नहीं है। पहले युवती दिल्ली उच्च न्यायालय गयी थी, जहाँ 15 जुलाई को न्यायालय ने गर्भपात की इजाज़त देने से मना कर दिया था।
उच्च न्यायालय ने कहा था कि सहमति से गर्भवती होने वाली अविवाहित महिला एमटीपी रूल्स-2003 के तहत 20 सप्ताह के बाद गर्भपात नहीं करा सकती। याचिकाकर्ता ने इस बात पर बल दिया कि शादी के बिना बच्चे को जन्म देने से उस पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ेगा। उस पर सामाजिक कलंक भी लगेगा। युवती की ओर से दलील दी गयी कि वह इस बच्चे को जन्म देने की मन:स्थिति में नहीं है, इसलिए ऐसे गर्भ को समाप्त करने की अनुमति दी जाए। पर दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा और न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की पीठ ने कहा कि न्यायालय संविधान के अनुच्छेद-226 के तहत अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए क़ानून के दायरे से आगे नहीं जा सकता। पीठ ने कहा कि तुम बच्चे को क्यों मार रही हो? बच्चे को गोद लेने की एक बड़ी कतार मौज़ूद है।
उच्च न्यायालय के इसी फ़ैसले के ख़िलाफ़ याचिकाकर्ता सर्वोच्च न्यायालय गयी। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायाधीष सूर्यकांत और न्यायाधीश ए.एस. बोपन्ना की पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फ़ैसले में संशोधन करते हुए कहा कि उच्च न्यायालय ने इस मामले में अनुचित प्रतिबंधात्मक नज़रिया अपनाया। दिल्ली उच्च न्यायालय का यह कहना उचित नहीं है कि वह एक ग़ैर-शादीशुदा औरत है और सहमति से गर्भ हुआ है, लिहाज़ा उसका मामला एमटीपी क़ानून के तहत नहीं आता। न्यायाधीश डी.वाई. चद्रचूड़ ने साफ़ किया कि एमटीपी एक्ट की व्याख्या को केवल शादीशुदा महिलाओं के लिए 20 सप्ताह तक के गर्भ को ख़त्म करने तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा होगा, तो ये ग़ैर-शादीशुदा महिलाओं के साथ भेदभाव होगा। क़ानून बनाते समय विधायिका की यह मंशा नहीं रही होगी कि गर्भपात क़ानून केवल विवाहित महिलाओं तक ही सीमित किया जाए। याचिकाकर्ता महिला को सिर्फ़ इसलिए गर्भपात से इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि वह अविवाहित महिला है। याचिकाकर्ता को अवाछिंत गर्भधारण की अनुमति देना क़ानून के उद्देश्य और भावना के विपरीत होगा।
ग़ौरतलब है कि देश में असुरक्षित गर्भपात के कारण मातृ मृत्यु दर के आँकड़े भी बढ़ रहे थे। ऐसे में भारत सरकार मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट-1971 लायी और इस विधेयक को लाने का उद्देश्य महिलाओं को सुरक्षित गर्भपात कराना, गर्भपात सेवाओं तक पहुँच में वृद्धि करना, महिलाओं को स्वस्थ और बेहतर जीवन प्रदान करना, असुरक्षित गर्भपात के कारण होने वाली मातृ मृत्यु दर को कम करना और गर्भपात की जटिलताओं में कमी लाना आदि है। इसके तहत 12 सप्ताह यानी तीन महीने तक के भ्रूण का गर्भपात कराने के लिए एक डॉक्टर की सलाह की ज़रूरत होती थी, और 12 से 20 सप्ताह यानी तीन माह से पाँच माह के गर्भ के मेडिकल समापन के लिए दो डॉक्टरों की ज़रूरत होती थी। गर्भ अगर 20 सप्ताह से ऊपर हुआ, तो फिर न्यायालय की इजाज़त से ही गर्भपात कराया जा सकता है। इस एमटीपी एक्ट में कई बार नये नियम भी जोड़े गये।
एमटीपी (संशोधन) विधेयक-2021 में नये नियम जोड़े गये हैं। इस विधेयक के साथ संलग्न किये गये उद्देश्यों व कारणों के विवरण में इस प्रकार कहा गया है- ‘समय बीतने और सुरक्षित गर्भपात के लिए चिकित्सा प्रोद्याोगिकी की प्रगति के साथ, विशेष रूप से कमज़ोर महिलाओं और गर्भावस्था में देर से पता चलने वाले पर्याप्त भ्रूण विसंगतियों के मामले में गर्भधारण को ख़त्म करने के लिए ऊपरी गर्भकालीन सीमा को बढ़ाने की गुंजाइश है। इसके अलावा असुरक्षित गर्भपात और इसकी जटिलताओं के कारण होने वाली मृत्यु दर और रुग्णता को कम करने के लिए क़ानूनी और सुरक्षित गर्भपात सेवा तक महिलाओं की पहुँच बढ़ाने की आवश्यकता है।’
एमटीपी (संशोधन) विधेयक-2021 के नियमों के तहत कुछ विशेष श्रेणी की महिलाओं के मेडिकल गर्भपात के लिए गर्भ की समय सीमा 20 सप्ताह से बढ़ाकर 24 सप्ताह यानी पाँच महीने से बढ़ाकर छ: महीने कर दी गयी। विशेष श्रेणी की महिलाओं में यौन उत्पीडऩ या बलात्कार या घरेलू व्यभिचार की शिकार नाबालिग़ व ऐसी महिलाएँ हैं, जिनकी वैवाहिक स्थिति गर्भावस्था के दारौन बदल गयी हों (विधवा या तलाकशुदा हों) और दिव्यांग महिलाएँ शामिल हैं। इसके साथ ही इसमें मानसिक रूप से बीमार महिलाओं; भ्रूण में ऐसी कोई विकृति या बीमारी, जिसके कारण उसकी जान को ख़तरा हो या फिर जन्म लेने के बाद उसमें मानसिक या शारीरिक विकृति होने की आशंका की स्थिति में और सरकार द्वारा घोषित मानवीय संकट ग्रस्त क्षेत्र या आपदा या आपात स्थिति में गर्भवती महिलाओं को भी शामिल किया गया है। इसमें गर्भ निरोधक की विफलता के आधार को महिलाओं और उनके साथी के लिए बढ़ा दिया गया है। एक उल्लेखनीय बदलाव इसमें जो किया गया है, वह है पति के बजाय पार्टनर शब्द का इस्तेमाल। पार्टनर शब्द ने आधुनिक युग में गर्भपात कराने वाली महिलाओं की दिक़्क़तों को कम कर दिया है।
यह बदलते समय की माँग भी है। समाज के रूढिग़त ढाँचे से आगे बढऩा और क़ानून के ज़रिये ऐसे नज़रिये का विस्तार करने से महिलाएँ सशक्त होती हैं। जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भपात के इस मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि 2021 में संशोधन के बाद मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट में धारा-3 के स्पष्टीकरण में पति के बजाय पार्टनर शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा है। भारत दावा करता है कि देश में प्रगतिशील गर्भपात क़ानून है; लेकिन सच्चाई सह भी है कि यहाँ असुरक्षित गर्भपात को मातृ मृत्यु के तीसरे प्रमुख कारण के रूप में देखा जाता है।
यही नहीं, क़रीब 80 फ़ीसदी महिलाओं को यह जानकारी नहीं कि 20 सप्ताह के भीतर गर्भ को ख़त्म करना क़ानून के दायरे में आता है। इसके अलावा 1.4 अरब की आबादी वाले इस देश में प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञों की संख्या क़रीब 70,000 है। इनमें से अधिकांश बड़े शहरों या क़स्बों में हैं। ग्रामीण इलाक़ों में कोई जाकर राज़ी नहीं है। वहाँ ऐसे डॉक्टरों की कमी के साथ-साथ ज़रूरी चिकत्सकीय सुविधाओं की भी बहुत कमी है। सरकार के समक्ष यह बहुत बड़ी चुनौती है। सर्वोच्च न्यायालय ने तो बड़ा आदेश दे दिया, पर इसके बरअक्स सरकार को भी गर्भपात की सुरक्षित सेवाओं के विस्तार के लिए गम्भीर होना होगा।