महासागरों में ऑक्सीजन घट रही है और इससे समुद्री जीवन सहित मछलियों की कई प्रजातियाँ खतरे में घिर गयी हैं। प्रकृति के लिए काम करने वाले समूह ‘आईयूसीएन’ की नयी रिपोर्ट के एक अध्ययन में यह जानकारी सामने आयी है। यह रिपोर्ट हाल ही में जारी की गयी है।
समीक्षा रिपोर्ट, ‘ओसेन्स डीऑक्सीजनेटिंग : एव्री वन्ज प्रॉब्लम’, महासागर डीऑक्सीजनेटिंग के कारणों, प्रभावों और सम्भावित समाधानों में अब तक की सबसे बड़ी समीक्षा रिपोर्ट है। इसमें शोधकर्ताओं का कहना है कि कई दशक से इस बात की जानकारी है कि समुद्र में पोषक तत्त्व कम हो रहे हैं; लेकिन अब जलवायु परिवर्तन की वजह से स्थिति लगातार खराब होती जा रही है।
रिपोर्ट से जानकारी मिलती है कि 1960 के दशक में महासागरों में 45 ऐसे स्थान थे, जहाँ ऑक्सीजन कम थी; लेकिन अब इनकी संख्या बढक़र 700 हो गयी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि ऑक्सीजन की कमी के कारण ट्यूना, माॢलन और शार्क सहित कई प्रजातियों को खतरा है। आईयूसीएन एक सदस्यता संघ है, जो सरकार और नागरिक समाज दोनों संगठनों से बना है। इसमें 1300 से अधिक सदस्य संगठन और 15 हज़ार से ज़्यादा विशेषज्ञ हैं। विविधता और विशाल विशेषज्ञता प्राकृतिक दुनिया की स्थिति और इसे सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक उपायों पर आईयूसीएन को वैश्विक अधिकार बनाती है।
यह रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक स्तर पर, वाॄमग-प्रेरित ऑक्सीजन हानि पोषक तत्त्व साइर्कि और रीसाइक्लिंग, प्रजातियों के वितरण, समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं और निवास स्थान की उपलब्धता में लगातार परिवर्तनशील है।
रिपोर्ट में शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि ऑक्सीजन की कमी के कारण ट्यूना, माॢलन और शार्क सहित कई प्रजातियों को खतरा है। लबे वक्त से माना जाता रहा है कि खेतों और कारखानों से नाइट्रोजन और फास्फोरस जैसे रसायनों के निकलने से महासागरों को खतरा रहता है और समुद्र में ऑक्सीजन का स्तर प्रभावित होता है। तटों के करीब ये अभी भी ऑक्सीजन की मात्रा घटने का प्रमुख कारक है; लेकिन हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन से खतरा बढ़ गया है।
शोध से ज़ाहिर होता है कि अधिक मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड निकलने से जब तापमान बढ़ता है, तो अधिकांश गर्मी समुद्र सोख लेता है, इसके कारण पानी गर्म होता है और ऑक्सीजन घटने लगती है। वैज्ञानिकों के अनुमान के मुताबिक, साल 1960 से 2010 के बीच महासागरों में ऑक्सीजन की मात्रा दो फीसदी घटी है। आईयूसीएन की इस रिपोर्ट के मुताबिक, समुद्र जीवाश्म ईंधन से पैदा होने वाले कार्बन उत्सर्जन के चौथाई हिस्से को सोख लेते हैं। समुद्र में ऑक्सीजन कम होने की यही गति रही तो साल 2100 में वैश्विक स्तर पर समुद्र में घुली ऑक्सीजन की मात्रा में तीन से चार फीसदी कमी आएगी। अभी ऑक्सीजन की मात्रा दो फीसदी तक गिरी है। ऑक्सीजन की कमी समुद्र की सतह से एक हज़ार मीटर की गहराई तक आएगी, जो समुद्री जैव विविधता के सबसे सम्पन्न हिस्से हैं। आईयूसीएन के कार्यवाहक निदेशक ग्रेथल एगुइलर ने कहा- ‘समुद्र में ऑक्सीजन की मात्रा में हो रही कमी को लेकर किये गये अध्ययन की समीक्षा से पहले ही समुद्र जीवों के संतुलन में अव्यवस्था पैदा हो गयी है और उन प्रजातियों के लिए खतरा है, जिन्हें अधिक ऑक्सीजन की ज़रूरत है। टूना, मर्लिन और शार्क जैसी प्रजातियाँ पहले ही खतरे में हैं और अपने बड़े आकार और अधिक ऊर्जा ज़रूरत के चलते कम ऑक्सीजन के प्रति संवेदनशील हैं।’
आईयूसीएन में समुद्री विज्ञान संरक्षण के वरिष्ठ सलाहकार डैन लैफोले ने कहा- ‘महासागरों की ऑक्सीजन कम होने से समुद्र के इकोसिस्टम पर खतरा बढ़ गया है। समुद्री पानी का तापमान बढऩे और खारेपन की वजह से यहाँ पहले से ही संकट की स्थिति है।’ उन्होंने कहा कि ऑक्सीजन की कमी वाले इलाकों को बढऩे से रोकने के लिए ग्रीनहाउस से निकलने वाली गैसों पर प्रभावी तरीके से रोक लगाने की ज़रूरत है। इसके साथ ही खेती और दूसरी जगहों से पैदा होने वाले प्रदूषण पर काबू पाना भी ज़रूरी है। महासागर ऑक्सीजन की कमी समुद्री वाॄमग और अम्लीकरण से पहले से ही समुद्री पारिस्थितिक तंत्रों को प्रभावित कर रही है। ऑक्सीजन-शून्य क्षेत्रों के चिन्ताजनक विस्तार को रोकने के लिए, हमें निर्णायक रूप से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है। अधिक मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड निकलने से जब तापमान बढ़ता है, तो अधिकांश गर्मी समुद्र सोख लेता है। इसके कारण पानी गर्म होता है और ऑक्सीजन घटने लगती है। महासागरों में ऑक्सीजन की मात्रा दो फीसदी घटी है। अगर दुनिया के देशों का उत्सर्जन पर रोक लगाने को लेकर मौज़ूदा रवैया बरकरार रहा, तो साल 2100 तक महासागरों की ऑक्सीजन तीन से चार फीसदी तक घट सकती है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में इसके बुरे असर की सम्भावना है। जैव विविधता में सबसे समृद्ध जलस्तर के ऊपरी 1,000 मीटर में बहुत नुकसान होने की आशंका है। ऑक्सीजन में कमी का ये वैश्विक औसत है और हो सकता है कि ये ज़्यादा न लगे लेकिन कुछ जगहों पर ऑक्सीजन की मात्रा में 40 फीसद तक कमी आने की आशंका ज़ाहिर की गयी है। बड़ी मछलियों को अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है। शोधकर्ताओं के अनुसार, ये जीव समुद्रों के उथले स्थान पर आ रहे हैं, जहाँ ऑक्सीजन की मात्रा अधिक है। हालाँकि, यहाँ इनके पकड़े जाने का खतरा अधिक रहता है।
इस रिपोर्ट में पाया है कि मछलियों की 6000 से ज़्यादा प्रजातियाँ गम्भीर रूप से संकट में हैं। इसमें कहा गया है कि वस्तुत: हज़ारों प्रजातियाँ हैं, जो 2030 तक विलुप्त हो सकती हैं; क्योंकि कई इसकी कगार पर हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि पृथ्वी इनके विलुप्त होने के संकट का सामना कर रही है और दुनिया भर में सरकारें उचित रूप से प्रतिक्रिया देने में विफल हो रही हैं। जानवरों को विलुप्त होने से बचाना महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि हम सीधे रूप से उनसे जुड़े हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, 2030 से पहले खत्म होने की आशंका वाली कुछ प्रजातियों में सुमात्रा राइनो जैसे प्रमुख स्तनधारी हैं। वे एक बार पूर्वी हिमालय में भूटान और पूर्वी भारत, म्यांमार, थाईलैंड, वियतनाम और चीन में पाए जाते थे। साल 1986 में, अनुमानित 800 सुमात्रा राइनो जंगल में रहते थे। साल 2008 में यह संख्या घटकर महज़ 275 रह गयी और अब इनकी संख्या 110 से भी कम हो सकती है। मछली की कई प्रजातियाँ पहले ही विलुप्त हो चुकी हैं।
भारत सरकार के प्रयास
भारत में लुप्तप्राय प्रजातियों की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार ने कुछ कदम उठाये हैं। इनमें वाइल्ड लाइफ (प्रोटेक्शन) एक्ट, 1972 के प्रावधानों के तहत शिकार और व्यावसायिक शिकार के िखलाफ कानून हैं। वाइल्ड लाइफ (प्रोटेक्शन) एक्ट 1972 में संशोधन किया गया है और इसे और सख्त बनाया गया है। अधिनियम के तहत अपराधों के लिए सज़ा बढ़ा दी गयी है। संरक्षित क्षेत्रों, अर्थात्, राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों, संरक्षण रिजर्व और सामुदायिक रिजर्व में वन्य जीवों (उनके संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के प्रावधानों के तहत पूरे देश में महत्त्वपूर्ण वन्यजीवों के आवासों को शामिल किया गया है। वन्यजीव के अवैध शिकार और इसके पदार्थों के व्यापार पर नियंत्रण के लिए कानून को मज़बूत करने के लिए वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो की स्थापना की गयी है। पर्यावरण और वन मंत्रालय वन्यजीव आवासों के एकीकृत विकास की केंद्र प्रायोजित योजना के एक घटक के रूप में गम्भीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों को बचाने के लिए कार्यक्रम शुरू करने के लिए राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता भी प्रदान करता है। वर्तमान में ऐसे रिकवरी कार्यक्रमों को लेने के लिए 16 प्रजातियों को प्राथमिकता दी गयी है, जिनमें स्नो लेपर्ड, बस्टर्ड (फ्लोरिकंस सहित), रिवर डॉल्फिन, हंगुल, नीलगिरि तहर, समुद्री कछुए, डगोंग और कोरल रीफ्स, एडिबल-नेस्ट स्विफ्टलेट्स, एशियाई जंगली भैंस, निकोबार मेगापोड, मणिपुर ब्रो-एंटीलेयर हिरण, गिद्ध, मालाबार सिवेट, महान् वन-सींग वाले गैंडे, एशियाई शेर, दलदली हिरण और जेरडन कोर्सेर शामिल हैं।