महाराष्ट्र में भारी बारिश के कारण भांडुप, विक्रोली, चेंबूर और कोकन के तलिईले गाँव में भी बड़ा भूस्खलन हुआ और सैकड़ों लोग मारे गये। कई परिवार बेसहारा हो गये। करोड़ों की सम्पत्ति का नुक़सान अलग हुआ।
सरकार कहती है कि मुम्बई में रहने वाले भूस्खलन के पीडि़त लोग हमेशा की तरह अनधिकृत घरों में रह रहे थे, इसलिए उन्हें क़ानूनी रूप से मुआवज़ा लेने का कोई अधिकार नहीं है। सरकार ने उदार भूमिका निभाते हुए मानवता की दृष्टि से मुआवज़ा दिया है। मृतक के प्रत्येक वारिस को केंद्र और राज्य सरकारें सात लाख रुपये देंगी, जिसमें पाँच लाख रुपये का अनुदान राज्य सरकार का है।
मुम्बई के चेंबूर माहुल के भारत नगर परिवार की सदस्य पल्लवी युवराज दुपारगुडे नहीं रहीं, उनके दो छोटे बच्चे हैं। उन्हें वारिस के रूप में लाखों रुपये मिलेंगे। उन अनाथ बच्चों की ज़िम्मेदारी फ़िलहाल मृत पल्लवी दुपारगुडे की ससुराल के पास है।
ऐसी घटनाओं में यह सुनिश्चित करने के लिए एक स्थायी नीति तैयार करने की आवश्यकता है कि पीडि़त बच्चों की सभी ज़िम्मेदारियाँ किसकी होंगी? कई बार बच्चे इतने छोटे होते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चलता कि उन्हें भारी-भरकम मुआवज़ा मिला है। पिछले कुछ वर्षों से पीडि़तों की संख्या हर बार बढ़ रही है। कुछ वर्ष पहले भीमाशंकर पुणे महामार्ग पर बसा पूरा-का-पूरा गाँव भूस्खलन के कारण ज़मींदोज़ हो गया। सुबह के समय पुणे की ओर आने वाले एसटी के ड्राइवर ने देखा कि हमेशा का सामान्य स्टॉप और गाँव ग़ायब हो गया था। मुम्बई के बाद कोंकण में भी अभी कई जगह मानसून के दौरान ऐसी अजीब चीज़ें हुई हैं। पहाड़ी के पास के गाँव में पहले पहाड़ी से पत्थर गिरने लगते हैं और फिर मिट्टी के टीले, जिसे कोंकण के सामान्य लोग ईश्वर का प्रकोप मानते हैं। वास्तव में यह प्रशासन की नाराज़गी है।
कहा जाता है कि माहुल में निर्माण अनधिकृत है। लेकिन अनौपचारिक और आधिकारिक का मतलब क्या है? मुम्बई में ऐसे भी काम हैं, जिन्हें करने में मध्यम वर्ग के कम पढ़े-लिखे लोगों को भी शर्म आती है। उसके लिए गाँव के लोग चाहिए, जो किसी भी काम में शर्म महसूस न करें; भले ही कम पढ़े-लिखे हों। मुम्बई के आस-पास स्थित गाँवों के लोगों के पास खेती नहीं है। पाँच एकड़ के भीतर एक छोटा जोत वाला किसान होता है। उनका परिवार बढ़ता रहता है। जतीजतन परिवार के सदस्यों की ज़रूरतें उससे पूरी नहीं होतीं और वे अधिक आय के लिए मुम्बई, दिल्ली की ओर पलायन करते हैं। जो मुम्बई में प्रवेश कर जाता है, उसे जहाँ कहीं जगह मिल जाती है, वहीं का हो जाता है। अनधिकृत कहकर इन बस्तियों को सील करना आसान है। लेकिन इन लोगों की ज़रूरत मुम्बई को है और इन लोगों को मुम्बई की। स्लम लॉर्ड या झोंपड़ी दादाओं ने झुग्गियाँ खड़ी कीं। बहुत सस्ते में। यह कहना आसान है कि इन झुग्गियों की वजह से दुर्घटनाएँ होती हैं। ठीकरा फोडऩे के लिए झोंपड़ी दादा अच्छे लगते हैं। लेकिन किसी का सार्वजनिक नाम नहीं लिया जाता। किसी पर दोहरा मापदंड नहीं है। मध्यम वर्ग कहता है कि हम कर (टैक्स) देते हैं और उसी से उनके घर बनते हैं।
केवल झुग्गीवासियों, नगर सेवकों, नेताओं, प्रशासन, पुलिस को पता है कि क़ानून स्थानीय तहसीलदारों, पुलिस निरीक्षकों, वार्ड अधिकारियों पर अनधिकृत रुकावट की ज़िम्मेदारी डालता है। लेकिन इस तरह की झोंपडिय़ों को नेताओं के आशीर्वाद से ही खड़ा किया जाता है। अतिक्रमण रोधी विभाग जब कार्रवाई के लिए तैयार होते हैं, तो यही मंडली आड़े आती है और अतिक्रमणकारी उनके कार्यालयों पर नारेबाज़ी करते हैं। यदि मामला अदालत में जाता है, तो लचर क़ानून व्यवस्था की वजह से भू-माफिया फ़ायदा उठा लेते हैं।
कोई दुर्घटना होने पर पीडि़तों को सरकार से मुआवज़ा पाने के लिए अक्सर मदद लेनी पड़ती है। क्योंकि उनके पास केवल नाम रहता है। दस्तावेज़ या तो मौज़ूद नहीं होते या पानी, बाढ़ और भूस्खलन के चलते नष्ट हो जाते हैं। परेशान होने पर वे कभी सरकार व स्थानीय प्रशासन पर बरस लेते हैं। आख़िरकार व्यवस्था को वे भी समर्पण कर देते हैं। व्यवस्था को तोडऩा आसान नहीं है, इसे तोडऩे के लिए बड़ी राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। सिर्फ़ घोषणाओं से कुछ नहीं होगा। गाँव से मुम्बई आये लोग भी चाहते हैं कि वे भी बेहतर जीवन जीएँ। इसलिए उसी अवस्था में वे घर बनाकर रहने लगते हैं। लेकिन हर वर्ष विकट बारिश और भूस्खलन उनकी सम्पत्ति, उनके जीवन को नष्ट कर देते हैं। यह स्थिती कब रुकेगी? बेहतर हो समस्या को समझकर महाराष्ट्र सरकार मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की अगुवाई में सही समाधान करे।