सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद फडणवीस और अजित पवार के इस्तीफे के दो दिन बाद 28 नवंबर को कांग्रेस और एनसीपी के सहयोग से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने शपथ ले ली।
महाराष्ट्र में तमाम उलटफेर के बीच ठाकरे परिवार से पहली बार आिखरकार शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन गये। इसमें कांग्रेस का विधानसभा अध्यक्ष होने के साथ ही उसके 13 मंत्री होंगे, जिनमें नौ कैबिनेट स्तर के बाकी चार राज्य मंत्री होंगे। सरकार मेंबाकी दोनों सहयोगी दलों यानी शिवसेना की हिस्सेदारी 16 मंत्रियों की, जबकि एनसीपी कोटे से 15 मंत्रियों की रहेगी।
26 नवंबर को संविधान दिवस पर सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ का आदेश था कि अगले दिन शाम 5 बजे तक महाराष्ट्र विधानसभा में फडणवीस सरकार बहुमत साबित करे। वह भी लाइव और गुप्त मतदान नहीं होगा। इसके महज़ कुछ घंटों बाद ही पहले उप मुख्यमंत्री अजित पवार और उसके बार मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इस्तीफा दे दिया। इससे पहले 23 नवंबर की सुबह 7:30 बजे तमाम अटकलों और कयासों के बीच रातोंरात नाटकीय ढंग से भाजपा के देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री और एनसीपी नेता अजित पवार ने उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इससे ठीक पहले शिवसेना, कांग्रेस और राकांपा ने मिलकर नयी सरकार के गठन का ऐलान किया था। राज्यपाल की मनमानी और दुर्भावनापूर्ण कार्यवाहियों और निर्णयों के िखलाफ तीनों दल सुप्रीम कोर्ट पहुँच गये थे। जस्टिस एनवी रमना, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने 25 नवंबर को फैसला सुरक्षित रख लिया था।
इसके बाद शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने 27 नवंबर की शाम को कांग्रेस और शिवसेना के साथ मिलकर महाविकास अघाड़ी के बैनर तले मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
24 नवंबर को शीर्ष अदालत ने निर्देश दिया था कि केंद्र सरकार मुख्यमंत्री फडणवीस को आमंत्रित करने का शपथ-पत्र व राज्यपाल के भेजे आमंत्रण-पत्र के साथ तलब करे। 25 नवंबर को जस्टिस एनवी रमना, अशोक भूषण और संजीव खन्ना की तीन जजों वाली बेंच ने कपिल सिब्बल और एएम सिंघवी के प्रतिनिधित्त्व वाले कांग्रेस-राकांपा-शिवसेना गठबन्धन की दलीलें सुनीं। केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत में दलीलें दीं। भाजपा और कुछ निर्दलीय विधायकों की ओर से वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी पेश हुए।
केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्त्व करने वाले सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी और वर्तमान मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के पत्रों को प्रस्तुत करते हुए अनुरोध किया कि राज्यपाल तथ्यों से अवगत थे और चुनाव परिणाम आने के बाद ऐसी स्थिति बनी थी कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। राज्यपाल ने राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने के बाद कहा था कि कोई भी राजनीतिक दल या गठबन्धन महाराष्ट्र में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और उप मुख्यमंत्री अजित पवार के पत्रों को देखा, जिनके ज़रिये सरकार के गठन के लिए दावा किया गया था। सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि पत्र में सभी 54 राकांपा विधायकों का समर्थन था। इसने महाराष्ट्र के राज्यपाल कोश्यारी के पत्र को भी स्कैन किया। कोशियारी ने पत्र के देवेंद्र फडणवीस को राज्य में सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था।
भाजपा और कुछ निर्दलीय विधायकों की ओर से पेश वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने दलील दी कि अजित पवार के पत्र ने देवेंद्र फडणवीस का समर्थन किया। किसी भी मामले में पत्र जाली नहीं थे और महाराष्ट्र के राज्यपाल ने सही तरीके से काम किया था। मुकुल रोहतगी की दलील पर सुप्रीम कोर्ट ने चुटकी ली और कहा कि अगर सब सही है, तो सदन में फडणवीस को बहुमत साबित करे।
शिवसेना की ओर से पेश कपिल सिब्बल ने सर्वोच्च अदालत को बताया कि तीनों दलों जब उद्धव ठाकरे को अपना मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया, तब ऐसा कौन-सा राष्ट्रीय आपातकाल आ गया था कि सुबह तड़के 5:27 बजे राष्ट्रपति शासन हटाना पड़ा और सुबह 8 बजे से पहले ही मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गयी। उन्होंने कहा कि इस तरह का कृत्य इतिहास के पन्नों में दर्ज किया जाएगा कि कैसे राष्ट्रपति शासन हटाकर नयी सरकार का गठन किया गया। उन्होंने कांग्रेस-एनसीपी-कांग्रेस के 154 विधायकों का समर्थन किये जाने का तर्क रखकर अगले 24 घंटे में नयी सरकार को बहुमत साबित करने की दलील रखी।
शरद पवार की राकांपा और कांग्रेस की ओर से सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील एएम सिंघवी ने महाराष्ट्र के 154 विधायकों के समर्थन का हलफनामा पेश करते हुए फडणवीस सरकार को अनैतिक और धोखाधड़ी की सरकार करार देते हुए तत्काल बहुमत साबित करने की माँग रखी। फिर भी शीर्ष अदालत ने सिंघवी को गठबन्धन का समर्थन करने वाले महाराष्ट्र के 154 विधायकों के हलफनामे के साथ नई याचिका वापस लेने के लिए कहा; क्योंकि यह भाजपा को नहीं दी गयी थी। शीर्ष अदालत ने विधानसभा में फ्लोर टेस्ट की बात कहकर महाराष्ट्र विधानसभा के पाले में गेंद डाल दी थी।
22-23 की नाटकीयता
23 नवंबर की सुबह देवेद्र फडणवीस की महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में नाटकीय ढंग से वापसी करते हुए दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। इसके लिए उन्होंने एनसीपी के अजित पवार का समर्थन लिया साथ ही उनको भी उप मुख्यमंत्री पद की राज्यपाल से बाकायदा शपथ दिलवा दी। मीडिया रिपोटों के अनुसार, अजित पवार ने चुपचाप 22 नवंबर की देर रात बैठक छोड़ दी और कथित तौर पर भाजपा में उनके वार्ताकारों के सामने आ गये और उन्हें 54 एनसीपी विधायकों के हस्ताक्षर वाला पत्र सौंप दिया।
निस्संदेह भाजपा की महाराष्ट्र इकाई के सूत्रों ने तब दावा किया था कि हस्ताक्षरों वाले पत्र में फडणवीस के नेतृत्त्व वाली सरकार को समर्थन देने का अधिकार एनसीपी विधानमंडल दल के नेता से मिला। इसलिए व्यक्तिगत रूप से अलग से समर्थन-पत्र माँगने की कोई आवश्यकता नहीं थी। बहरहाल कई विशेषज्ञों ने फडणवीस सरकार के •यादा दिन टिकने पर सन्देह ही जताया, खासकर तब जब 23 नवंबर की सुबह कुछ एनसीपी विधायक ही अजित पवार के साथ राजभवन पहुँचे, जिनको बाद में एनसीपी ने गुमराह करने की बात कही। बाद में अजित के साथ शामिल इन्हीं विधयकों में से तीन विधायकों ने शरद पवार के नेतृत्त्व में प्रदर्शन किया और प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी हिस्सा लिया। महाराष्ट्र में जब शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस मुख्यमंत्री के तौर पर उद्धव ठाकरे का नाम फाइनल किया था, तब उसके 11वें घंटे में ही तख्तापलट कर भाजपा ने अपनी सरकार बनवा ली।
पिछले कुछ दिनों में तीनों गठबन्धन सहयोगियों के शिविरों में व्यस्त राजनीतिक गतिविधियों की सुगबुगाहट हुई है, जिसमें भाजपा देखो और प्रतीक्षा करो की स्थिति में थी। पर अब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद गठबन्धन सरकार की स्थापना के लिए विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद उद्धव ठाकरे का मार्ग साफ हो गया। इस तरीके से एक महीने से चल रहा उथल-पुथल अपनी परिणति को पहुँचा।
दशकों से भाजपा की सहयोगी रही शिवसेना और लम्बे समय से सहयोगी रहे एनसीपी और कांग्रेस के अलग-अलग वैचारिक दलों का एक साथ आना कई राजनीतिक पंडितों के लिए नये मौके प्रदान करने वाला है। विधानसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा के साथ लडऩे के बाद दोनों के बीच इस बात पर नाराज़गी बढ़ गयी कि दोनों का मुख्यमंत्री ढाई-ढाई का साल रहेगा। इसको शिवसेना ने नाक का सवाल बना लिया और इससे दूरी तब और बढ़ गयी, जब भाजपा ने शिवसेना को कोई भाव नहीं दिया। इसके बाद एनसीपी ने मौका देख फौरन शिवसेना को अपने पाले में कर लिया। इसमें कांग्रेस को भी जोड़ लिया; क्योंकि बिना कांग्रेस के सरकार का बनना सम्भव नहीं था।
भाजपा-शिवसेना का अलग होना
दिलचस्प है कि शिवसेना और भाजपा ने अक्टूबर, 2019 में महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में गठबन्धन सहयोगियों के रूप में चुनाव लड़ा था और संयुक्त रूप से 288 सीटों वाली विधानसभा में 161 सीटों पर जीत हासिल की थी। यानी सरकार बनाने में किसी भी तरह की दिक्कत नहीं थी। फिर भी शिवसेना के मुख्यमंत्री को लेकर ढाई-ढाई साल की माँग को भाजपा के अस्वीकार करने के बाद दोनों के बीच गतिरोध बढ़ गया। इससे पहले दोनों दलों के बीच तीखी बयानबाज़ी के बावजूद भाजपा ने 105 सीटें जीतीं और एक सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आयी। भाजपा के साथ मिलकर लड़ी शिवसेना ने 56 सीटें जीतीं, इसलिए अकेले किसी भी पार्टी के पास सरकार बनाने का विकल्प नहीं था।
अगली सरकार के गठन में हर पार्टी अब किसी दूसरी बड़ी पार्टी पर निर्भर हो गयी। शिवसेना ने भाजपा से मुख्यमंत्री पद हासिल करने का साहसिक निर्णय लिया, जिसमें कहा गया कि सत्ता में साझेदारी के लिए 50-50 के फार्मूले को आपसी सहमति चुनाव से पहले ही दी गयी थी। हालाँकि भाजपा का यह आग्रह कि उसका कार्यकाल पूर्ण कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री होगा और शिवसेना-भाजपा के बीच कोई समझौता नहीं किया। इसके बाद शिवसेना और भाजपा के बीच 1990 में बना तीन दशक पुराना गठबन्धन टूट गया। 1990 के बाद से महाराष्ट्र की राजनीति ने विधानसभा और लोकसभा चुनाव साथ-साथ लडऩे के साथ ही हिन्दुत्व की राजनीति के तौर पर विपक्ष के तौर पर उभरे। तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस के लिए एक मज़बूत विपक्ष के रूप में उभरा। करीब दो-ढाई दशक तक शिवसेना और भाजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा और दोनों में अच्छी बनी, हालाँकि कुछ मामलों में एक-दूसरे के िखलाफ बयानबाज़ी भी चलती रही। बावजूद इसके दोनों साझेदार रहे। यहाँ तक कि भाजपा ने लोकसभा में काफी बेहतर प्रदर्शन करने के बाद विधानसभा में शिवसेना के साथ बराबर की हिस्सेदारी दी। 2014 में शिवसेना-भाजपा में दूरी तब बनी जब मई, 2014 में लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मोदी और शाह के नेतृत्त्व में शानदार जीत दर्ज की थी। इसके बाद दोनों ने विधानसभा चुनाव अलग लडऩे का फैसला किया। हालाँकि अपनी सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या में जुटने में नाकाम रहने पर भाजपा ने शिवसेना के समर्थन से सरकार बनायी। मई, 2019 में लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर भाजपा ने शिवसेना के साथ गठबंधन किया। 2014-2019 की अवधि के दौरान दोनों दलों के बीच दूरियाँ बढ़ी थीं; जबकि शिवसेना ने राज ठाकरे की विदाई के साथ एक विभाजन पहले देखा था, जिसने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) गठन किया। यह अलग बात है कि वह कुछ खास नहीं कर सके और परम्परागत वोट उद्धव ठाकरे के साथ ही रहा।
हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा के दबदबे वाले प्रदर्शन और अपनी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद अपनी सरकार बनाने में कामयाब न होने पर शिवसेना अलग हो गयी। अपनी शर्तों को निर्धारित करने के लिए शिवसेना ने एनसीपी और कांग्रेस का सहारा लिया। फिर भी हाल ही में आये बदलावों को देखते हुए दोनों के बीच की खाई और बढ़ा दी, जिससे दोनों के बीच िफलहाल रास्ता बन्द कर दिया।
कांग्रेस+एनसीपी+शिवसेना गठबन्धन
हफ्ते-भर से अधिक समय तक चली बातचीत के बाद कांग्रेस और एनसीपी ने शिवसेना के साथ गठबन्धन बनाकर नयी सरकार बनायी। इसमें तय किया गया कि शिवसेना का मुख्यमंत्री पूरे पाँच साल तक रहेगा। इसके अलावा एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय किया गया, जिसमें मंत्री पद और अन्य विभागों के बँटवारे पर आम सहमति बनायी गयी। इसके अलावा अन्य समितियाँ भी बनायी गयीं, जो वैचारिक मतभेदों के मामलों को अलग से दूर करने में मदद देेंगी।
विशेषज्ञों का मानना है कि तीनों के बीच हुए गठबन्धन में सत्ता के लिए आगे राह आसान नहीं रहने वाली है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, गठबन्धन पार्टियों के बीच मंत्रियों का बँटवारा 16-15-12 के अनुपात में होगा। इसमें यह भी स्पष्ट कर दिया गया था कि मुख्यमंत्री शिवसेना का रहेगा। इन रिपोर्टों में कहा गया कि शिवसेना के लिए 16 मंत्री, एनसीपी के 15 और कांग्रेस के 12 मंत्री की बात कही गयी। इसके अलावा गठबन्धन में बहुजन विकास अघाड़ी, समाजवादी पार्टी, सीपीआई-एम और किसानों से जुड़ी पार्टी को भी इस गठबन्धन में शामिल किये जाने की बात कही गयी।
आगे क्या?
गठबन्धन सरकार के गठन के बाद अब नई तरह की चुनौतियों का सामना करना होगा। इसमें मंत्री पदों को लेकर बँटवारे पर भी असर हो सकता है जैसा कि पहले देश में जनता पार्टी की सरकार (1977-79) के समय देखने को मिला था। महाराष्ट्र की राजनीति में आगे भी कई उलटफेर देखने को मिलेंगे। महाराष्ट्र की सियासत में हुए उलटफेर के नतीजे आने वाले कई चुनाव में नज़र आएँगे। इसके साथ ही उद्धव ठाकरे के लिए मुख्यमंत्री पद की कुर्सी किसी काँटों से कम ताज वाली नहीं रहने वाली है।