सभी जानते हैं कि पंजाब ने एक से बढक़र एक शासक भारत को दिये हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि तकरीबन सभी सिख शासकों ने दुश्मनों के दाँत खट्टे किये। इन शासकों में कई ने बड़ी-बड़ी कुर्बानियाँ भी दी हैं, जिसका मोल हम भारतीय नहीं चुका सकते। लेकिन इनमें अधिकतर शासक ऐसे थे, जिनकी ललकार से भी दुश्मन काँपते थे। ऐसे ही एक सिख शासक रहे हैं महाराजा रणजीत सिंह। महाराजा रणजीत सिंह इकलौते ऐसे पहले सिख शासक थे, जिन्होंने पंजाब को पख्तूनख्वा से कश्मीर तक विस्तार दिया। इससे भी बड़ी बात यह है कि 500 साल के इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह सर्वश्रेष्ठ शासक सिद्ध हुए हैं। हाल ही में अमेरिकन यूनिवॢसटी ऑफ अलबामा ने एक सर्वे में इसकी पुष्टि की है।
यूनिवॢसटी की सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि उनकी कार्य शैली, रण-कौशल, प्रजा के हित में बनायी गयी नीतियाँ, सेना का नवीनीकरण और संरक्षात्मक सुधार के तौर-तरीके, आर्थिक और व्यापारिक नीतियाँ सिद्ध करती हैं कि महाराजा रणजीत सिंह सर्वश्रेष्ठ शासक थे। सूत्रों की मानें तो अमेरिकन यूनिवॢसटी ऑफ अलबामा ने पहले 10 प्रमुख शासकों का अध्ययन किया, जिसमें महाराजा रणजीत सिंह को इन शासकों में सर्वश्रेष्ठ पाया गया। इसके बाद यूनिवॢसटी ने पाँच प्रमुख शासनकाल को लेकर उन पर सूक्ष्मता से अध्ययन किया, जिसमें महाराजा रणजीत सिंह का शासन काल पहले स्थान पर आया है। अध्ययन में हैरान करने वाली यह बात भी सामने आयी है कि महाराजा रणजीत सिंह पढ़े-लिखे नहीं थे, मगर शिक्षा और कला को बहुत सम्मान तथा प्रोत्साहन देते थे।
अध्ययन की रिपोर्ट बताती है कि महाराजा रणजीत सिंह ने पंजाब प्रान्त पर पूरे 40 साल (1801-1839 तक) तक शासन किया था। अपने राज्य को उन्होंने इतना शक्तिशाली बना दिया था कि उनके शासनकाल में किसी भी आक्रमणकारी ने उनके साम्राज्य की ओर आँख उठाकर देखने तक की हिम्मत नहीं की। 59 साल की उम्र में 27 जून, 1839 में महाराजा रणजीत सिंह का निधन हो गया। विदित हो कि पिछले साल 27 जून को महाराजा रणजीत सिंह की 180वीं पुण्यतिथि के अवसर पर पाकिस्तान के लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह समाधि और सिख गुरु अर्जुन देव जी के गुरुद्वारे डेरा साहिब के निकट उनकी आठ फीट ऊँची प्रतिमा का उद्घाटन किया गया था। यह मूर्ति लाहौर क़िले में माई जिंदियन हवेली के बाहर एक खुली जगह में स्थापित है। इस प्रतिमा को तैयार करने में आठ महीने का समय लगा था, जिसे म्यूजियम के डायरेक्टर फकीर सैफुद्दीन की निगरानी में बनाया गया था। इस प्रतिमा को बनाने और स्थापित करने खर्चा ब्रिटेन स्थित एक सिख संगठन ने उठाया था।
बता दें कि महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर, 1780 को पंजाब, जो कि अब पाकिस्तान में है; में हुआ था। 1798 में महाराजा रणजीत सिंह ने महज 17 साल की उम्र में जमन शाह दुर्रानी को धूल चटाकर पंजाब पर अपना कब्ज़ा जमा लिया। इस तरह 21 साल की उम्र में रणजीत सिंह पंजाब के महाराजा बन गये थे।
यूनिवॢसटी का अध्ययन बताता है कि महाराजा रणजीत सिंह की एक आँख की रोशनी बचपन में चेचक की बीमारी के कारण चली गयी थी। कहा जाता है कि जब वे महाराजा बने, तो कहते थे कि भगवान ने उन्हें एक आँख इसलिए दी है, ताकि वे हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, अमीर और गरीब सभी को एक बराबर देख सकें। इतना ही नहीं, महाराजा रणजीत सिंह ने अलग-अलग धर्मों में 20 शादियाँ की थीं। उनकी पत्नियाँ सिख, हिन्दू और मुस्लिम धर्म से थीं। कहा जाता है कि वे अपनी पत्नी महारानी जिंदियन, जिनका नाम जींद कौर था, को अत्यधिक प्रेम करते थे।
मूर्ति के अनावरण में गये थे भारतीय सिख
विदित हो कि महाराजा रणजीत सिंह की मूर्ति के अनावरण के लिए 463 भारतीय सिख पाकिस्तान गये थे। इसके लिए पाकिस्तान ने बाकायदा सभी 463 भारतीय सिख श्रद्धालुओं का वीजा जारी किया था। इस दौरान पाकिस्तान के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री ने ट्वीट करके महाराजा रणजीत सिंह की महानता, उनके जुझारूपन और उनके मज़बूत तथा समृद्ध शासन का ज़िक्र किया था।
खालसा सेना की थी गठित
महाराजा रणजीत सिंह ने खालसा सेना का गठन किया था। यह बात उनके वंशज डॉ. जसविंदर सिंह तथा एडवोकेट संदीप सिंह बताते हैं। उन्होंने बताया है कि महाराजा को भारत में वह महत्त्व नहीं मिल सका जो उन्हें मिलना चाहिए; लेकिन उन्होंने इस बात पर संतोष ज़ाहिर किया है कि सारी दुनिया उनके कुशल शासक होने का लोहा तो मान ही रही है, बल्कि उनके शासनकाल को भी श्रेष्ठ मानती है। महाराजा के वंशज बताते हैं कि महाराजा रणजीत सिंह ने देश के पश्चिमी छोर से दुश्मनों को न केवल रोका था, बल्कि उन्हें शिकस्त देकर सिख साम्राज्य की स्थापना भी की थी। वंशजों का कहना है कि महाराजा सच्चे देश भक्त, जनता के हितैषी, बहादुर और न्यायप्रिय थे।
वहीं यूनिवॢसटी के अध्ययन में पाया गया है कि महाराजा रणजीत सिंह ऐसे शासक थे, जिन्होंने पेशावर, पख्तूनख्वा और कश्मीर तक अपने शासन का विस्तार किया। अध्ययन की रिपोर्ट कहती है कि महाराजा रणजीत सिंह ने न केवल अपने राज्य पंजाब का विस्तार किया, बल्कि उस दौर में आपस में लडऩे वाले राजा-रजवाड़ों को भी एक किया। यही वजह थी कि उनका शासन समृद्ध और संगठित बना।
किसी को नहीं दिया मृत्युदण्ड
महाराजा के वंशज जसविंदर सिंह बताते हैं कि महाराजा ने ऐसी कानून व्यवस्था स्थापित की थी, जिससे अपराध न हों और किसी को भी अपने शासनकाल में मृत्युदण्ड नहीं दिया। वे एक धर्मनिरपेक्ष शासक थे और इसी नीति पर समस्त जनता को एक ही दृष्टि से देखते थे। उनके लिए सिख और दूसरे धर्मों के लोग एक बराबर थे और यही वजह थी कि वे किसी के साथ अन्याय न तो खुद करते थे और न ही किसी को करने देते थे।
नहीं लगने दिया जजिया
यूनिवॢसटी के अध्ययन में यह बात सामने आयी है कि महाराजा रणजीत सिंह ने हिंदुओं और सिखों से वसूले जाने वाला जजिया कर (टैक्स) नहीं लगने दिया था। इतना ही नहीं वे गरीबों की मदद करने में कभी हिचकते नहीं थे। न ही धर्म के आधार पर किसी से पक्षपात करते थे। अध्ययन की रिपोर्ट यह भी बताती है कि महाराजा रणजीत सिंह ने कभी किसी भी दूसरे धर्म के लोगों को सिख धर्म अपनाने के लिए बाध्य नहीं किया और न ही किसी धर्म के लोगों को कम समझा।
दानी शासक
अध्ययन की रिपोर्ट बताती है कि महाराजा रणजीत सिंह अत्यधिक दयालु तथा दानी प्रवृत्ति के शासक थे। उन्होंने अमृतसर के हरिमंदिर साहिब गुरुद्वारे में संगमरमर लगवाकर उसे सोने से मँढ़वाया। आज इस गुरुद्वारे के हम सब स्वर्ण मंदिर के नाम से जानते हैं।
टाइटल पर होने लगा है विवाद
महाराजा रणजीत सिंह के नाम के टाइटल पर अब विवाद भी होने लगा है। उनके नाम के आगे ‘संधावालिया’ शब्द जुडऩे से यह विवाद शुरू हुआ है। बता दें कि उनके नाम के आगे संधावालिया शब्द का इस्तेमाल न्यूयॉर्क के एक न्यूज पोर्टल ने इस्तेमाल किया था। इस पर सिख श्रद्धालुओं की ओर से इस पोर्टल को कानूनी समन भेजा गया। इस समन के बाद पोर्टल ने सिखों से माफी माँग ली थी। लेकिन इससे भी बड़ी बात तो यह है कि अब महाराजा रणजीत सिंह के वंशज ही टाइटल को लेकर एकमत नहीं हैं। पिछले साल महाराजा रणजीत सिंह की 7वीं पीढ़ी के वंशज कँवर सुखदेव सिंह संधावालिया ने इंग्लैड के चर्च मुखी जस्टिन वैलबी को ज्ञापन देकर माँग की थी कि एंड्यूज एंड सेंट पैट्रिक चर्च में दफ्न महाराजा दलीप सिंह की अस्थियों को वतन लाने की इजाजत दी जाए। बता दें कि चर्च प्रमुख उस समय भारत दौरे पर आये थे।
इस माँग पत्र में कँवर सुखदेव सिंह संधावालिया ने महाराजा रणजीत सिंह के नाम के आगे संधावालिया जोड़ा था तथा न्यूयार्क के न्यूज पोर्टल डेली सिख अपडेट ने महाराजा का यही टाइटल प्रकाशित कर दिया था। इसके बाद महाराजा के ही 7वींं और छठवीं पीढ़ी के वंशजों एडवोकेट संदीप सिंह तथा डॉ. जसविंदर सिंह ने पोर्टल को लीगल नोटिस भेजा था और पोर्टल ने इस बारे में जानकारी न होने का हवाला देते हुए माफी माँग ली थी। लेकिन अब महाराजा रणजीत सिंह के टाइटल का मामला उनके ही वंशजों में झगड़े की जड़ बनने लगा है। वहीं पादरी को मांग पत्र देने वाले महाराजा की7वींं पीढ़ी के वंशज कँवर सुखदेव सिंह संधावालिया का कहना है कि वह अपने कथन पर स्टैंड करते हैं और उन्होंने जो कुछ लिखा है वह इतिहास के आधार पर लिखा है। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि महाराजा संधावालिया थे और जो लोग अपने आपको महाराजा का वारिस बताते हैं, वो वास्तव में महाराजा रणजीत सिंह के असली वारिस नहीं हैं।
काफी समय से रहा है विवाद
वैसे तो महाराजा रणजीत सिंह के टाइटल को लेकर चल रहा यह विवाद आज का नहीं है। देश-विदेश में रहने वाले उनके अनेक वंशज महाराजा का टाइटल अपने-अपने हिसाब से लगा रहे हैं और सत्यापित करने की कोशिश में लगे हैं। महाराजा के वंशजों का यह विवाद कई बार उठा है और फिर अपने आप ही शान्त भी हुआ है। लेकिन इस विवाद का प्रभाव महाराजा रणजीत सिंह के हक में उठाये जाने वाले उन ज़रूरी मुद्दों पर पड़ा है, जो उनके सभी वंशजों को मिलकर उठाने चाहिए। इस मुद्दों में सबसे बड़ा मुद्दा है इंग्लैंड में पड़ा कोह-ए-नूर हीरा, जिसकी वतन वापसी होनी चाहिए। दूसरा अहम मुद्दा है, महाराजा दलीप सिंह की अस्थियों का वापस लाकर सिख रीति-रिवाज के अनुसार उनका संस्कार करना।
महाराजा रणजीत सिंह के गुण
महाराज रणजीत सिंह महा सिंह और राज कौर के पुत्र थे। वे महज़ 10 साल की बाल्यावस्था से ही घुड़सवारी, तलवारबाज़ी एवं अन्य शस्त्र चलाने में पारम्गत हो चुके थे। उनका युद्ध-कौशल देखते ही बनता था। इस उम्र में वे अपने पिता के साथ सैनिक अभियानों में बड़ी रुचि से भाग लेते थे। कोई भी औपचारिक शिक्षा न मिलने के बावजूद उनमें एक कुशल शासक के गुण बचपन से ही झलकते थे। महाराजा रणजीत सिंह पर मात्र 13 साल की आयु में प्राण घातक हमला किया गया था। इस हमले का कारण उनका योद्धा होना था, इसी कौशल के दम पर उन्होंने हमलावर हशमत खाँ ही मौत के घाट उतार दिया। महाराजा रणजीत सिंह को बचपन से ही बहुत दु:ख झेलने पड़े, पर उन्होंने सभी दु:खों को पार करते हुए एक बड़े साम्राज्य की स्थापना की। महतबा कौर से उनका 16 साल की अवस्था में विवाह हुआ। महाराजा रणजीत सिंह युद्ध जीतने के बाद अपने शत्रु को जागीर दे दिया करते थे, ताकि वह अपना जीवनयापन कर सके। उनकी यह दयालुता जग प्रसिद्ध थी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और विचारक हैं।)