2012 ने देश को खेलों से जुड़ी ऐसी कहानी दी है जो हमेशा सबके जहन में बसी रहेगी. लंदन में भारत ने अब तक का सबसे अच्छा ओलंपिक प्रदर्शन किया. यह ओलंपिक भारतीय खेलों के नवोदय का वाहक हो सकता है. इन खेलों में मिले कुल छह पदकों की चमक ने उस रोशनी को तेजतर कर दिया जो पिछले तीन-चार साल से हमें भारतीय खेलों की तरफ से आती दिख रही थी. पिछले ओलंपिक में भारत ने पहली बार तीन पदक जीते थे. इससे पहले के ओलंपिक खेलों में भारत को कभी-कभार एक पदक और अधिकतर बिना पदक के ही संतोष करना पड़ता था. 2008 के खेलों में तस्वीर पहली बार बदलती हुई दिखी. सिर्फ पदकों के आधार पर नहीं, भारतीय खिलाड़ियों के तेवर और आत्मविश्वास के आधार पर भी. उसके बाद साल 2010 ने भारतीय कामयाबी को एक नया आयाम दिया. इस साल भारत ने कॉमनवेल्थ खेलों में कुल 101 और एशियाई खेलों में कुल 65 पदक जीते जिनमें क्रमश: 38 और 14 स्वर्ण पदक थे. ये किसी जादू जैसा था जो पूरे देश के सर चढ़कर बोल रहा था, और 2012 ओलंपिक में जब भारतीय खिलाड़ी लगातार पदकों की तरफ बढ़ रहे थे तब यह जादू अपने पूरे शबाब पर पहुंच गया. पहली बार खेलों के जादू का मतलब क्रिकेट का जादू नहीं था.
बीजिंग ओलंपिक की सफलता के आत्मविश्वास के चलते इस साल भारत से उम्मीदें पहले से बढ़ी हुई थीं. भारत ने कुल तिरासी खिलाड़ियों के साथ तेरह खेलों में शिरकत की जिनमें कुश्ती, बॉक्सिंग, निशानेबाजी, बैडमिंटन और तीरंदाजी में संभावनाएं प्रबल थीं. भारत के पदक जीतने वाले सभी खिलाड़ी- गगन नारंग, विजय कुमार, साइना नेहवाल, मैरीकॉम, योगेश्वर दत्त और सुशील कुमार अपने साथ पहले ही पदकों की उम्मीद का भारी बोझ लेकर लंदन गए थे. सुखद है कि उन्होने यह कर दिखाया. पहली बार भारत की तरफ से दो महिलाओं ने पदक जीते. सुशील कुमार ने भी कमाल किया. लगातार दो ओलंपिक में मेडल जीतने वाले वे देश के पहले खिलाड़ी बने. सेमीफाइनल में उन्हें पूर्व विश्व चैंपियन कजाक पहलवान के खिलाफ आखिरी राउंड में तीन अंकों से पिछड़ने के बाद जीतते देखना एक अद्भुत अनुभव था. इस वक्त कुश्ती ने क्रिकेट के रोमांच को मीलों पीछे छोड़ दिया था. याद रखना होगा कि इसी खेल में भारत की तरफ से पचपन किलोग्राम वर्ग में सिर्फ 18 साल की उम्र के बिल्कुल नए पहलवान अमित कुमार ने अद्भुत खेल दिखाते हुए प्री. क्वार्टर फाइनल में ईरान के विश्ववरीय पहलवान को हरा दिया था. वे क्वार्टर फाइनल भी जीत ही जाते अगर रेफरी और टाइमिंग ने उनका साथ दिया होता. इसके बाद योगेश्वर दत्त ने भी रेपचेस राउंड में सिर्फ पचास मिनट के अंदर लगातार तीन बाउट जीतकर कांस्य पदक हासिल कर लिया. सुखद यह भी था कि कुश्ती जिससे अभिजात्य शहरी वर्ग में गांव और मिट्टी का देसी खेल मानकर किनाराकशी की जाती है, उसी खेल में सुशील कुमार की फाइनल बाउट देखते हुए शहरी वर्ग की सांसंे अटकी हुई थीं. बदलाव की ये शुरुआत ही ओलंपिक 2012 का हासिल है. जरूरत इस बात की है कि यह जारी रहे.
[box]हालांकि कई उम्मीदें ऐसी भी रहीं जिनका अंत निराशा के अंधेरों में हुआ. पिछली बार सोना जीतने वाले अभिनव बिंद्रा इस साल खाली हाथ रहे.[/box]
इसी तरह तीरंदाजी में विश्व नंबर एक दीपिका से बहुत सी उम्मीदें थीं जो पूरी नहीं हो सकीं. विजेंदर समेत पुरुष मुक्केबाजों से भी निराशा ही हाथ लगी. टेनिस में ओलंपिक से ठीक पहले खिलाड़ियों और एसोसिएशन के बीच जो नाटक हुआ उसने पदक की उम्मीदों पर कुठाराघात कर डाला लेकिन इन सबके बीच जो निराशा सबसे गहरी और कभी न मिटाई जा सकने वाली रही वह हमें राष्ट्रीय खेल हॉकी में मिली. जिस खेल में कभी हमने 1928 से लेकर 1956 तक लगातार स्वर्ण पदक जीते थे, उस खेल में इस बार सारे मैच हारकर आखिरी स्थान पर रहे. पूर्व ओलंपियन अशोक ध्यानचंद निराश स्वर में कहते हैं, ‘बीजिंग ओलंपिक के लिए क्वालीफाई ही न कर पाने के बाद इस बार सबको उम्मीद थी कि टीम बेहतर करेगी, पिछले कुछ समय में टीम के अच्छे प्रदर्शन से उम्मीद भी थी लेकिन टीम शुरू से ही कमजोर खेली और आक्रामकता की इसी कमी के चलते हॉकी से हमें लंदन ओलंपिक का सबसे कड़वा अनुभव मिला.’ हॉकी टीम के बुरे प्रदर्शन पर टीम के कप्तान भरत क्षेत्री अपनी निराशा को छिपा नहीं पाए और उन्होंने कहा, ‘हम यहां खेलने लायक ही नहीं थे!’ भविष्य में भारतीय टीम फिर से ओलंपिक में खेलने और जीतने लायक बन सके इसके लिए बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है.
हॉकी से मिली गहरी निराशा को ओलंपिक में मिले छह पदक तो कुछ कम करते ही हैं साथ ही पदकों तक न पहुंच पाने के बावजूद कुछ बातें आगे के लिए सुनहरी उम्मीदें जगाती हैं. कुश्ती, निशानेबाजी, और बॉक्सिंग के खेल में हमारे पास दुनिया के सबसे कद्दावर खिलाड़ी हैं. ऐसा ही तीरंदाजी में भी है भले ही ओलंपिक में चूक हो गई हो. इन सारे खेलों में हमारे पास कई-कई खिलाड़ी हैं जो अपने खेल में विश्व रैंकिंग में सर्वश्रेष्ठ पांच में शुमार हैं. इसके अलावा एथलेटिक्स जिसमें कि सबसे ज्यादा पदक होते हैं, उसमें भी भारतीयों ने अपना प्रदर्शन सुधारा है. कॉमनवेल्थ और एशियाड में भारत ने एथलेटिक्स के बूते ही ऐतिहासिक कामयाबी हासिल की थी और इस ओलंपिक में भी डिस्कस थ्रो में फाइनल खेलने वाले विकास गौड़ा, कृष्णा पूनिया, शॉटपुट में ओम प्रकाश करहाना, पैदल चाल में के. इरफान, बसंत बहादुर राणा, हर्डल्स में सिद्धार्थ थिंगालय, हाई जंप में साहना कुमारी, स्टेपल चेज में सुधा सिंह आदि ने राष्ट्रीय रिकार्ड बेहतर करते हुए आगे के लिए उम्मीदों को नए पंख दिए.
कहने वाले कह सकते हैं कि एक सौ बीस करोड़ के देश में सिर्फ छह पदक पर इतराने से पहले हमें चीन के पदकों की संख्या देख लेनी चाहिए. दरअसल ऐसा करने वाले चीन और भारत के बीच के बुनियादी अंतर को नहीं समझ पाते. खेल पत्रकार हेमंत सिंह तहलका से बातचीत में इसे रेखांकित करते हैं, ‘चीन में जिस अमानवीय, अत्याचारी और तानाशाही तरीकों से छोटे-छोटे बच्चों को पदक लाने की तैयारियों में झोक दिया जाता है, भारत जैसे लोकतांत्रिक और रिवायती देश में उस कीमत पर पदक का पक्षधर शायद ही कोई हो. चीन में जो खेल-संस्कृति आज से लगभग तीस साल पहले विकसित हो गई भारत में उसका बीजवपन सिर्फ तीन-चार साल पहले हुआ है, जिसको पुष्पित-पल्लवित होते देखने के लिए हमें अभी थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा. लंदन ओलंपिक में इसका अंकुर फूटता दिखाई दिया है.’ बिल्कुल सही है कि जिस देश में ‘खेलोगे, कूदोगे, बनोगे खराब’ जैसी कहावत होश संभालते ही दिमाग में बिठा दी जाती है वहां खेल संस्कृति जैसे शब्द की बात करना भी बेमानी कही जाएगी. पिछले तीस साल में अगर कोई खेल संस्कृति विकसित भी हुई है तो उसका बेशतर हिस्सा एक ही खेल, क्रिकेट के हिस्से गया है. भारत में क्रिकेट और बाकी खेलों के बीच भेदभाव को लेकर अंतहीन बहस की जा सकती है, जिसमें न पड़ते हुए यहां सिर्फ इतना लिख देना ठीक रहेगा कि विश्व के 200 से ज्यादा देशों के बीच होने वाले भीषण मुकाबले में पहले क्वालीफाई करने और फिर पदक लाने वाले खिलाड़ियों और विश्व के मात्र दस-बारह देशों के बीच होने वाले मुकाबले में स्वत: क्वालीफाई होकर विश्वकप लाने वाले खिलाड़ियों में स्वाभाविक वरीयता किसे मिलनी चाहिए.
1952 में जब ओलंपिक में शिरकत करने के लिए हेलसिंकी जाने को पहलवान केडी जाधव ने बंबई के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरार जी देसाई से सिर्फ चार हजार रूपये मांगे थे तब उन्होंने कुश्ती के लिए पैसा देने से मना कर दिया था. इसके बाद जाधव अपने निजी प्रयासों से हेलसिंकी गए और ओलंपिक में देश को पहला व्यक्तिगत पदक दिलाया. अपनी पूरी जिंदगी जाधव को कुश्ती पहलवानों की उपेक्षा का दर्द रहा. लंदन ओलंपिक में कुश्ती में लगातार दूसरी बार ओलंपिक पदक जीतकर जब सुशील कुमार देश के सबसे कामयाब खिलाड़ी बने और सरकार सहित पूरे देश ने उन्हें पलकों पर रख लिया, तब सुशील दरअसल केडी जाधव को भी उनके हिस्से का सम्मान दिला रहे थे. इसी तरह देश के लिए मेरीकॉम का ओलंपिक पदक दिल्ली के उन सभी शोहदों के मुंह पर एक तमाचा था जिनकी तंगनजरी पूर्वोत्तर की लड़कियों को सिर्फ ‘चिंकी’ के बतौर देखती है. लंदन ओलंपिक भारतीय खेलों के लिए एक युग की शुरुआत हो सकते हैं बशर्ते सिर्फ दो चीज़ों का ध्यान रखा जाए- खेल को ‘खेल’ न समझा जाए और सिर्फ क्रिकेट को खेल न समझा जाए!