मसखरी का अंत

किशोर कुमार। फिल्मफेयर, १९६०

कुछ महीने पहले काम से थोड़ी फुरसत लेकर मैं कश्मीर गया. बहुत पहले मैंने अपनी पत्नी और खुद से भी वादा किया था कि मैं कश्मीर जाऊंगा. मुझे खुशी है कि आखिरकार मैंने वह वादा निभाया. खुशी इसलिए भी है कि बर्फ से ढकी चोटियों, गहरी घाटियों और इस जगह की शांति ने मुझ पर अनोखा असर किया. अचानक ही मुझे अहसास हुआ कि मैं कौन था और क्या हो गया हूं. मैंने यह भी देखा कि मैं कहां बढ़ा जा रहा हूं. मैंने कई चीजें साफ-साफ अनुभव कीं. इसने मुझे हिलाकर रख दिया.

पर इससे पहले कि मैं आगे बढ़ूं, यह जरूरी है कि थोड़ा पीछे लौटा जाए और जो बात मैं कह रहा हूं उसकी पृष्ठभूमि समझी जाए.

यह एक नौजवान की कहानी है. एक ऐसे संजीदा नौजवान की जिसे एक जोकर बना दिया गया. वह कहानी सुनाने का वक्त आ गया है. इसलिए क्योंकि अब वह नौजवान उस पड़ाव पर पहुंच गया है जहां उसकी यह मसखरी खत्म होनी चाहिए.

यह किशोर कुमार की कहानी है. मेरी कहानी.

एक आदर्शवादी लड़का जल्द ही एक मगरूर और दूसरों में दोष ढूंढ़ने वाला नौजवान बन गया. परंपराओं के लिए अब मेरे मन में सम्मान नहीं था. मैं हर चीज का मजाक उड़ाने लगा था. कुल मिलाकर कहूं तो मैं बहुत तेजी से वह किशोर कुमार बन रहा था जिसे आप सब जानते हैं

सालों पहले जब मैंने फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा था तो मैं एक दुबला-पतला गंभीर नौजवान था. मुझमें अच्छा काम करने का जुनून था. मैं गाता था. मेरे आदर्श केएल सहगल और खेमचंद प्रकाश थे. ऐसे नाम जिनकी गूंज तब तक रहेगी जब तक फिल्म इंडस्ट्री का वजूद रहेगा. मैं हमेशा इन दोनों हस्तियों को अपने लिए मिसाल के तौर पर देखता.

एक प्लेबैक सिंगर के तौर पर मेरी शुरुआती कोशिशें खासी कामयाब रहीं थी. खेमचंद प्रकाश के साथ मैंने जो गाने गाए वे गंभीर और सहज थे. इनमें कोई जटिलता नहीं थी. खेमचंद प्रकाश को मैं एक ऐसा नौजवान लगता था जो एक दिन बहुत अच्छा गाने लगेगा. उनका सोचना गलत नहीं था.

यहीं मेरी डोर ‘दूरदृष्टि’ वाले कुछ लोगों के हाथ में आ गई. उन्होंने फैसला किया कि इस नौजवान को कुछ सलीका सिखाना चाहिए. उन्हें लगता था कि मैं खुद को एक ऐसी शैली में ढाल रहा हूं जो जल्द ही किसी काम की नहीं रहेगी. उसी तरह जैसे कल का अखबार आज के लिए बेकार की चीज हो जाता है. उन्हें लगा कि कि मुझे आने वाले कल के हिसाब से ढलना चाहिए.

उनमें से एक ने मुझे सलाह दी, ‘ऐसे मत गाओ. यह कुछ ज्यादा ही सादा है. इसमें थोड़ा मसाला डालो. कुछ बूम चिक टाइप चीज करो. इसमें जैज और यॉडलिंग डालो.’

दूसरे ने कहा, ‘प्लेबैक सिंगिग में कोई भविष्य नहीं है. एक्टिंग में आ जाओ. पैसा इसी में है.’

तो सलाहें आती गईं और मैं उन पर अमल करता गया. खुद को बदलने में मुझे ज्यादा वक्त नहीं लगा. गंभीर और आदर्शवादी लड़का जल्द ही एक मगरूर और दूसरों में दोष ढूंढने वाला नौजवान बन गया. परंपराओं के लिए अब मेरे मन में सम्मान नहीं था. मैं हर चीज का मजाक उड़ाने लगा था. कुल मिलाकर कहें तो मैं बहुत तेजी से वह किशोर कुमार बन रहा था जिसे आप सब जानते हैं.

उस दिन को मैं जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगा जब मैं अपने गुरु खेमचंद प्रकाश पर हंसा था. मैंने उनसे कहा था, ‘इन गंभीर चीजों को भूल जाइए खेमराज जी. अब ये नहीं चलेंगी. अब लोग जैज चाहते हैं. उन्हें यॉडलिंग अच्छी लगती है.’

यॉडलिंग के लिए मैंने उनके सामने एक नमूना भी पेश किया था. वे बहुत नाराज हुए. उन्होंने मुझे न सिर्फ खूब फटकारा बल्कि चेताया भी कि मैं एक दिन पछताऊंगा.

आज समझ में आया है कि वे सही थे. लेकिन तब मुझे इसमें कोई शक नहीं था कि वे गलत हैं. हालात ने भी तो मेरा साथ दिया था. इसलिए मैंने गानों में यॉडलिंग और जैज के प्रयोग किए. गाने भी हिट रहे.

प्रयोग का यह भूत सिर्फ गाने तक ही नहीं रहा. अभिनेता के तौर पर भी मैंने इसे दोहराया. अब तक मैं सामान्य तरीके से ही अभिनय करता आ रहा था. मुझे वह दिन याद है जब एक जाने-माने निर्माता-निर्देशक ने एक दिन सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए कहा था, ‘तुम जो कर रहे थे वह 25 साल पुरानी चीज है. अब जब तुम्हें बात समझ में आ गई है तो मैं तुम्हें कुछ बनाकर ही रहूंगा.’

मेरे दिमाग में ये रहस्यमयी शब्द गूंज रहे थे. शूटिंग के दिन जब मैंने अपने डायलॉग बोले तो निर्देशक साहब बोले, ‘ऐसे नहीं बच्चे. इसमें कुछ स्पेशल डालो.’

मैं एक ऐसा बंदर बन गया जिसे भारी मेहनताना मिलता था. मैं भी पैसा कमा रहा था और मेरे प्रोड्यूसर भी. मेरी फिल्में हिट हो रही थीं और जनता खुश थी

शॉट फिर से हुआ. निर्देशक साहब अब भी संतुष्ट नहीं थे. सारा दिन रीटेक में ही चला गया. हर बार मैं पहले से ज्यादा घबरा जाता. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर यह शख्स मुझसे डायलॉग कैसे बुलवाना चाहता है.

जब दिन खत्म हुआ तो मेरी हालत देखकर सेट पर मौजूद एक कर्मचारी ने मेरे पास आकर कहा, ‘उनके दिमाग में चार्ली चैप्लिन घूम रहा है. डायलॉग उसी स्टाइल में बोलो.’

किस्मत से मैंने चार्ली चैप्लिन की कई फिल्में देखी हुई थीं. अगले दिन जब शूटिंग शुरू हुई तो मैंने उसी अंदाज में अपने डायलॉग बोल दिए.

‘बहुत अच्छे’, निर्देशक साहब चिल्लाए और मुझे गले लगाते हुए बोले, ‘मेरा सपना पूरा हो गया है.’

फिर तो एक के बाद एक फिल्में मेरे पास आती गईं और मैं अपनी कॉमेडी भूमिकाओं को जोश से निभाता गया. फॉर्मूला यही था कि मुझे बेवकूफाना से बेवकूफाना हरकतें करनी होती थीं. कूदना-फांदना, धड़ाम से गिरना, चेहरे बनाना और कुल मिलाकर कहें तो एक बंदर की तरह बर्ताव करना. मुझे यकीन था कि जनता भी यही चाहती है. मेरी फिल्में हों या गीत, लगातार हिट हो रहे थे. मुझे लगता था कि आलोचक कौन होते हैं यह कहने वाले कि अभिनय की मेरी शैली खराब है. आखिर मैं तो वही कर रहा हूं जो जनता चाहती है.

समय के साथ मुझे और भी लोग मिलते गए जो इस शैली को समर्पित थे. उनमें मेरे साथी भी थे और निर्माता-निर्देशक भी. इस तरह मैं एक ऐसा बंदर बन गया जिसे भारी मेहनताना मिलता था. मैं भी पैसा कमा रहा था और मेरे प्रोड्यूसर भी. मेरी फिल्में हिट हो रही थीं और जनता खुश थी. इससे ज्यादा किसी को क्या चाहिए?

एक फिल्म का उदाहरण याद आ रहा है. इस फिल्म में कुछ ऐसे दृश्य थे जिनमें मेरा किरदार अपने बड़े भाई को गालियां दे रहा है. उसे जलील कुत्ते जैसे शब्द कह रहा है. मुझे लगा कि जनता निश्चित तौर पर इसे पसंद नहीं करेगी. छोटा भाई अपने बड़े भाई को गालियां दे, यह भला किसे अच्छा लगेगा. मैंने निर्देशक से यह बात कही. उसका कहना था, ‘चिंता मत करो किशोर. तुम जो भी करोगे जनता उसे स्वीकार कर लेगी.’

और जब फिल्म के प्रीमियर के दौरान ये दृश्य स्क्रीन पर आए तो दर्शकों ने तालियां बजाईं.

मुझे पक्का यकीन हो गया था कि एक्टिंग का मेरा यह स्टाइल सही है, इसलिए मैं इसमें पूरी तरह से डूब गया. वह ऐसा वक्त था जब मैं कहा करता था कि पैसा ही सब कुछ है.

फिर एक दिन मैंने अपनी ही फिल्म लांच की. इसका नाम था चलती का नाम गाड़ी. अपने सही होने पर मुझे इतना यकीन था कि जब संगीतकार एसडी बर्मन ने इसके लिए बनाई हुई कुछ मौलिक धुनें मुझे सुनाईं तो मैंने उन्हें हड़का दिया. मैंने कहा, ‘क्या आपको लगता है जनता यह सुनना चाहती है? कृपा करके आप किसी म्यूजिक स्टोर में जाएं और कुछ रॉक एंड रोल रिकॉर्ड्स खरीदें. लेकिन

ध्यान रखें कि ऐसे रिकॉर्डस न खरीद लीजिएगा जो दूसरे संगीतकार भी खरीद रहे हों.’

इसके बाद एक बड़ी अजब चीज हुई. इस फिल्म में मैं एक गायक का किरदार निभा रहा था. मेरे एक गीत के लिए संगीतकार ने कहा कि इसे मेरी नहीं बल्कि किसी प्लेबैक सिंगर की आवाज में रिकॉर्ड किया जाएगा. मैंने एतराज किया तो जवाब आया कि यह शास्त्रीय गीत है और मैं शास्त्रीय गीत नहीं गा सकता. यह बात उस शख्स के लिए कही जा रही थी जिसने अपना करियर ही शास्त्रीय गीतों से शुरू किया था. सफलता और घमंड से बनी मेरी दुनिया की बुनियाद पर यह पहली चोट थी.

फिर मेरी फिल्म बंदी आई. ईमानदारी से कहूं तो इसे लेकर मैं सशंकित था क्योंकि इसके दूसरे हिस्से में मुझे एक बूढे़ व्यक्ति की भूमिका अदा करनी थी. यह एक गंभीर भूमिका थी. मुझे लगा कि जनता को यह पसंद नहीं आएगी. इसलिए इसकी भरपाई के चक्कर में मैंने फिल्म के पहले हिस्से में अपनी चिरपरिचित एक्टिंग की अति कर दी. लेकिन मुझे हैरानी हुई जब पहले हिस्से की आलोचना और दूसरे हिस्से की तारीफ हुई.

हो सकता है कि मैं असफल हो जाऊं और मुझे इंडस्ट्री छोड़नी पड़े. पर मुझे इस बात के लिए तो याद किया जाएगा कि मैंने कुछ अच्छा करने की कोशिश की

इसके बाद आंखें खोलने वाली एक और घटना हुई. मेरी एक फिल्म आई थी आशा. यह इस सिद्धांत के साथ बनाई गई थी कि जितनी अति उतना अच्छा. इसमें वह सब कुछ था जो जनता चाहती थी. रिलीज होने के बाद यह उम्मीदों पर बमुश्किल आधी ही खरी उतर पाई. इसके बाद एक आलोचक ने लिखा कि अगर मैं इसी रास्ते पर चलता रहा तो मेरे लिए अपना दायरा बढ़ाना और दूसरी तरह की भूमिकाएं करना मुश्किल होगा. मुझे लगा कि उसकी बात सही है.

फिर कश्मीर में मैंने खुद को अपने असली रूप में देखा. मुझे लगा कि मैं एक बेमतलब मसखरा हूं. ऐसा आदमी जिसे बस मसखरी के लायक ही समझा जाता है. मुझे लगा कि मैं पैसे के पीछे भागने वाला एक ऐसा इंसान हूं जिसने इस यकीन में अपना स्तर सबसे नीचे कर दिया है कि उसकी फिल्में लोगों द्वारा सराही जाती हैं. मुझे अहसास हुआ कि मैं एक ऐसा कलाकार हूं जिसने इतना काम सिर पर ले लिया है कि वह लगभग पागल हो गया है. वह मानसिक रूप से अशांत रहता है. चिंता करता रहता है. उसे नींद नहीं आती.

मैं उस असीम मूर्खता के बारे में सचेत हो गया था जो मैं और मुझसे जुड़े लोग फिल्म निर्माण के नाम पर रच रहे थे. मुझे महसूस हुआ कि समकालीन फिल्म संगीत एक तमाशा बन कर रह गया है. मुझे यह  अहसास हुआ कि मैं ही नहीं मेरे बड़े भाई अशोक कुमार भी उस नाव पर सवार हैं. उन्हें ऐसी फिल्में दी जा रही हैं जो उनकी महान प्रतिभा के साथ न्याय नहीं करतीं.

मुझे एक किस्सा और याद आता है. मैं एक म्यूजिक स्टोर में था. सेल्समैन ने मुझे बताया कि आजकल विदेशी जब पूछते हैं कि इंडियन रिकॉर्ड्स में क्या नई चीज आई है तो उसे समझ में नहीं आता कि वह क्या करे. उसका कहना था, ‘मैं उन्हें क्या दिखाऊं? नए के नाम पर या तो मशहूर उस्तादों की कुछ रिकॉर्डिंग्स हैं या फिर केएल सहगल के गानों के रिकॉर्ड. मैं उन्हें फिल्म संगीत वाले रिकॉर्ड कैसे दिखाऊं? उन्हें तो झटका लग जाएगा.’

इसलिए जब मैं अपनी छुट्टी से लौटा तो तब तक मैं फैसला कर चुका था. मैंने सोच लिया था कि अगर अब मुझे ऐसी भूमिकाओं के प्रस्ताव आते हैं तो मैं सीधे उन्हें ठुकरा दूंगा.

बांबे वापस आने के बाद जल्द ही दो फिल्मकारों ने यह कहते हुए मुझसे संपर्क किया कि वे मुझे अपनी फिल्म में लेना चाहते हैं. वे सुबह-सुबह मेरे घर आए. मेरा सेक्रेटरी भी घर पर था. मेरी पत्नी पोर्च में एक सब्जीवाले से सब्जियां खरीद रही थीं. इन निर्देशकों ने बात मेरी तारीफ से शुरू की. उनका कहना था कि मैं एक जीनियस हूं और उनके पास मेरे लिए एक भूमिका है. उनमें से एक ने कहा, ‘आप सिचुएशन सुनिए. आप हीरोइन के बेडरूम में घुसते हैं. आपको पता है किस तरह? हा हा हा…आप एक साड़ी पहनकर कमरे में घुसते हैं. है न शानदार? इसके बाद आपको पता है क्या करना है?’

मैंने उनको बीच में रोकते हुए कहा, ‘एक मिनट. मैं आपको बताता हूं कि मैं क्या करूंगा.’

वे कुछ समझते इसके पहले मैंने छलांग लगाई और दो कलाबाजियां खाते हुए पोर्च में पहुंच गया. दोनों लोग चकरा गए. मैंने अपने सेक्रेटरी से कहा कि आगे वह उन दोनों से बात कर ले. फिर मैं बिना कुछ कहे भीतर चला गया. थोड़ी देर बाद जब मैं बाहर आया तो दोनों लोग जा चुके थे.

मैंने सेक्रेटरी से पूछा, ‘क्या हुआ?’

‘उन्हें लगा कि आप पागल हो गए हैं. वे बहाना बनाकर निकल गए.’, सेक्रेटरी ने कहा.

मुद्दा यह है कि मेरे लिए बेकार की चीज के पीछे भागने की यह अंधी और गलत दौड़ छोड़ने का वक्त आ गया है. मैं अब सीधा चलना चाहता हूं. अगर कॉमेडी है तो वह गूढ़ होनी चाहिए. संगीत

वास्तव में भारतीय होना चाहिए. फिल्मों का कोई मतलब होना चाहिए.

मैं खुद एक फिल्म बनाना चाहता हूं. मैं इस पर जल्द ही काम शुरू करूंगा. मैं खुद इसे निर्देशित करूंगा और इसमें संगीत भी दूंगा. यह मेरी उन फिल्मों से बिल्कुल अलग होगी जिनके दर्शक आदी हो चुके हैं. मुझे पता है कि मेरे कई दोस्त और शुभचिंतक यह सुनते ही मेरी तरफ दौड़ेंगे और सलाह देंगे कि मैं ऐसी बेवकूफी न करूं. वे मुझे मनाने की कोशिश करेंगे कि मैं वही करता रहूं जो मैं अब तक सफलतापूर्वक करता आ रहा हूंं. पूरी कोशिश करूंगा कि उनकी बात न सुनूं.

अगर फिल्म चल जाती है तो बहुत अच्छा. अगर नहीं चली तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता. एक फिल्म फ्लॉप हो सकती है, दूसरी भी और फिर तीसरी-चौथी भी. हो सकता है मैं अपना सारा पैसा गंवा दूं. वह पैसा जिसकी कभी मैंने इतनी पूजा की है. हो सकता है कि मैं असफल हो जाऊं और मुझे इंडस्ट्री छोड़नी पड़े. पर कम से कम मुझे इस बात के लिए तो याद किया जाएगा कि मैंने कुछ अच्छा करने की कोशिश की. लोग शायद कहेंगे कि ‘बेचारा किशोर कुमार, जोकर बनकर अच्छा-खासा चल रहा था. फिर उसने कुछ अलग और अच्छा करने की कोशिश की. देखो क्या हाल हो गया उसका.’

भले ही ऐसा हो जाए मगर मुझे लगता है कि मेरे लिए यह भी अच्छा होगा.