उत्तर प्रदेश में छह मार्च को मतगणना के साथ शुरू हुई जनादेश की सुनामी ने मायावती को तो सत्ता से बाहर जाने का रास्ता दिखा ही दिया मगर इसने राज्य में सत्ता के केंद्र रहे सचिवालय (पंचम तल) के तिलिस्म को भी भरभरा कर ध्वस्त कर दिया है. पूरे पांच साल तक पंचम तल उत्तर प्रदेश पर निरंकुश राज करता रहा है. अब उम्मीद की जानी चाहिए कि इसका तानाशाह चरित्र समाजवाद की बौछार में धुल कर साफ हो जाए.
उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार को किस तरह का जनादेश मिलने जा रहा है इसकी आहट तो करीब दो महीने पहले तब ही मिल गई थी जब पंचम तल में मौजूद मायावती के सारे सिपहसालारों ने उत्तर प्रदेश से दिल्ली जाने के लिए राज्य सरकार की स्वीकृति हासिल कर ली थी. चूहे जिस तरह जहाज डूबने से पहले भाग खड़े होते हैं उसी तरह उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार के डूबते भविष्य की सुगबुगाहट लगते ही पंचम तल में भी भगदड़ शुरू हो गई थी.
मायावती का पिछला कार्यकाल कई कारणों से याद किया जाएगा और उनमें से एक बड़ा कारण पंचम तल भी होगा. उत्तर प्रदेश में सचिवालय एनेक्सी के नाम से पहचाने जाने वाले सचिवालय में पांचवें तल पर मुख्यमंत्री के दफ्तर में मायावती अपने पिछले कार्यकाल में मुश्किल से तीन-चार बार ही पहुंची थीं. इस पूरे दौर में प्रमुख रूप से कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह ही एक तरह से सरकार और मुख्यमंत्री के प्रतिनिधि के तौर पर काम करते रहे. मुख्यमंत्री की कोर टीम के कई अन्य अधिकारी भी पंचम तल के बादशाह बन कर सरकार का काम-काज चलाते रहे. सारी शक्तियां इन्हीं लोगों के हाथों में थीं.
इस दौर में पंचम तल की स्थिति ऐसी थी कि बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के विधायकों और माया सरकार के मंत्रियों को भी शशांक शेखर सिंह से मुलाकात करने के लिए इंतजार करना पड़ता था. पंचम तल के अधिकारी जो चाहते थे वही होता रहा. न विधायकों की बात सुनी जाती थी, न ही मंत्रियों की और आम आदमी के लिए तो पंचम तल तक पहुंचने की बात सोचना भी गुनाह जैसा था.
पंचम तल में शशांक शेखर सिंह की तूती इस कदर बोलती थी कि उत्तर प्रदेश के तमाम वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी भी उनके सामने नतमस्तक रहते थे. आईएएस न होते हुए भी उन्होंने उत्तर प्रदेश की सबसे ताकतवर नौकरशाही को अपने सामने बौना बना कर रखा हुआ था. हालांकि खुद उनकी नियुक्ति हमेशा विवादों में रही, लेकिन उनका इतना खौफ था कि उत्तर प्रदेश आईएएस एसोसिएशन भी उनके खिलाफ कोई कानूनी लड़ाई लड़ने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाई. उनके खिलाफ जो जनहित याचिकाएं दर्ज की गई थीं वे या तो बगैर किसी सुनवाई के या बीच में ही वापस ले ली गईं. ये याचिकाएं कानूनी दांव-पेंचों में ही फंसी रह गईं. इन्हें किसी अंजाम तक नहीं पहुंचाया गया.
बीएसपी विधायकों को भी उनसे हमेशा ढेरों शिकायतें रहीं, लेकिन फिर भी मायावती के ‘सबसे खास’ बने रहने की वजह से उनके अधिकार को कोई चुनौती नहीं मिल सकी. करीब चार साल तक उत्तर प्रदेश में अपना राज चलाने के बाद जब उन्हें माया सरकार की नैया डूबती नजर आने लगी तो उन्होंने नई सरकार आने से पहले ही स्वेच्छा से समय पूर्व सेवानिवृत्ति ले ली. यानी नई सरकार के आते ही उन पर कोई गाज न गिरे उससे पहले ही वे पंचम तल से दबे पांव रुख्सत हो गए. मायावती की कृपा से एक बार सेवा का विस्तार पा चुके शशांक को 31 मार्च, 2012 को रिटायर होना था, लेकिन उन्होंने अपनी फजीहत की आशंका से नौ मार्च को ही चुपचाप पंचम तल से विदाई ले ली.
उम्मीद है कि अखिलेश ‘चेहरा पसंद’ नीति को खत्म करके सरकार के कार्य और योजनाओं के लिए समर्पित अधिकारियों को तैनात करने की नीति को अमल में लाना पसंद करेंगे
इस कवायद में वे अकेले नहीं हैं. पंचम तल से पहले ही खिसक जाने की कोशिश करने वालों में मायावती के खास दुर्गाशंकर मिश्र, रवींद्र सिंह और मुख्य सचिव अनूप मिश्र को भी केंद्र सरकार की सेवा में प्रतिनियुक्ति के लिए राज्य सरकार की हरी झंडी मिल चुकी है और इन अधिकारियों का केंद्र में जाना तय है. एक और चर्चित अधिकारी फतेह बहादुर भी इसी लाइन में हैं, यानी पंचम तल का पाप अब खुद-ब-खुद साफ होने लगा है.
लेकिन समाजवादी पार्टी और अखिलेश की चुनौतियों का सिलसिला भी यहीं से शुरू होता है. मनपसंद अधिकारियों को चुनने की आजादी तो उनके पास है मगर जैसा उन्होंने खुद कहा है कि प्रशासन में ईमानदार अधिकारियों को तरजीह दी जाएगी तो उन्हें अपनी टीम बनाने में बहुत सावधानी रखनी होगी. उनके पिता के मुख्यमंत्री रहते हुए पिछले कार्यकाल में उनके कुछ चहेते अधिकारियों ने समाजवादी पार्टी सरकार के लिए मुश्किलें पैदा की थीं. यह माना जा रहा है कि अखिलेश इन सब विवादों से बचने का प्रयास करेंगे.
दरअसल उत्तर प्रदेश का हालिया समय देखा जाए तो हम पाते हैं कि यहां नौकरशाही सरकार की मशीनरी होने की बजाय पार्टी की मशीनरी के तौर पर काम करने लगी है. इस कारण हर बार सत्ता बदलते ही अधिकारियों के चेहरे बदल जाते हैं. पुराने चेहरों को कहीं किनारे कर दिया जाता है और उनकी जगह पार्टी या सरकार की सुविधा से काम करने वाले अधिकारियों की तैनाती हो जाती है. लेकिन अब यह उम्मीद की जा रही है कि अखिलेश इस ‘चेहरा पसंद’ नीति को खत्म करके सरकार के कार्य और योजनाओं के लिए समर्पित अधिकारियों को तैनात करने की नीति को अमल में लाना पसंद करेंगे.
यह तय है कि उत्तर प्रदेश की जनता ने जो भरोसा उनमें दिखाया है उसे कायम रखने के अखिलेश के सारे प्रयासों की सफलता में नौकरशाही की सबसे अहम भूमिका होगी. नए निजाम में न सिर्फ पंचम तल का चेहरा बदलेगा बल्कि नौकरशाही की कार्य संस्कृति में भी व्यापक स्तर पर बदलाव आने की उम्मीद की जा रही है.
अखिलेश की सबसे बड़ी समस्या उत्तर प्रदेश में गुंडाराज की वापसी की आशंका है. उन्होंने अब तक लगातार यही कहा है कि गुंडागर्दी किसी भी हालत में सहन नहीं की जाएगी. चाहे कोई व्यक्ति पार्टी में कितने भी महत्वपूर्ण पदों पर क्यों न हो अगर वह गुंडागर्दी करेगा तो उसके खिलाफ कानून के मुताबिक ही कार्रवाई होगी. पार्टी के लोगों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे इस तरह का कोई काम न करें और न ही होने दें. यहां यह भी गौरतलब है कि राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई होने पर उन्हें येन केन प्रकारेण छुड़ा लेने के राजनीतिक प्रयास भी शुरू हो जाते हैं. नई सरकार में ऐसा नहीं होगा यह यकीन तो किया जा सकता है लेकिन अपराध नियंत्रण के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस की क्षमताएं हमेशा से ही सवालों के घेरे में रही हैं.
राज्य में पुलिस का मनोबल तो कमजोर है ही, संख्या और संसाधनों की भी उसके पास भारी कमी है. उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में पुलिस के ढांचे में आमूल चूल परिवर्तन के बिना किसी भी सरकार के लिए अपराध पर नियंत्रण करना संभव नहीं है. वे कहते हैं, ‘चूंकि अखिलेश युवा हैं, उनकी सोच में दूरदर्शिता दिखती है, इसलिए हमें उम्मीद है कि उनके नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में पुलिस सुधार शुरू हो जाएंगे और प्रदेश की पुलिस सरकार तथा जनता दोनों की ही अपेक्षाओं पर खरी उतरने के काबिल बन जाएगी.’
उत्तर प्रदेश में अखिलेश की उम्मीदों की साइकिल लंबे समय तक दौड़ती रहे, इसके लिए प्रदेश की नौकरशाही और पुलिस दोनों की चाल, चेहरा और चरित्र बदलना जरूरी है. फिलहाल प्रदेश की जनता इन्हीं उम्मीदों के सपनों में जी रही है.