गुजरात के चुनावों ने भारत की मयार्दाहीन होती चुनावी राजनीति का चेहरा ही दिखाया है। अगर कांग्रेस के फिर से प्रभावी होने और राहुल गांधी के एक भरोसेमंद तथा मजबूत विपक्षी नेता के रूप में उभरने जैसे नतीजों को छोड़ दिया जाए तो गुजरात के चुनाव और इससे आए परिणाम भारतीय राजनीति को लेकर कोई भरोसा नहीं देते। यह जाहिर करता है कि देश को चलाने वाले ज्यादा उच्श्रृंखल तथा गैर-जिम्मेदार हरकतों और असामान्य आचरण के बाद भी अपनी लोकप्रियता बनाए रख सकते हैं। इसने उस भारतीय समाज के लगातार पतनशील होते जाने की सच्चाई ही पुष्टि करता है जिसे सहिष्णु तथा प्रगतिशील बनाने में महात्मा गांधी ने अपनी जान दी। गुजरात के चुनाव परिणाम यही बताते हैं कि राजनीति और समाज की यह गिरावट शहरी मध्यवर्ग के व्यवहार में ज्यादा दिखाई देती है। उसने भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के विभाजनकारी और लगभग खुले हिंदुत्व का जमकर समर्थन किया है। चुनाव परिणाम बताते हैं कि शहरी क्षेत्रों में भाजपा का वोट प्रतिशत काफी ज्यादा है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि गुजरात का समाज धार्मिक आधारों पर बंटा हुआ है और भाजपा के लंबे शासन काल में यह विभाजन करीब-करीब संस्थाबद्ध हो चुका है। मुसलमानों की हालत परिया जैसी है और इतिहास और संस्कृति के पक्षपाती चित्रण ने हिंदुओं को कठ्ठर बन दिया है। इस मायने में गुजरात बाकी राज्यों से एकदम अलग है। उसकी तुलना देश के बाकी राज्यों सेे नहीं हो सकती है। वही एक ऐसा राज्य है जहां शहरों में मुसलिम आबादी अलग इलाकों में रहती है और इन इलाकों का शहर की मुख्यधारा में शाण्द ही कोई भूमिका है।
सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस तथा राहुल गांधी ने समाज तथा राजनीति पर भाजपा के संगठित हमले का मुकाबला किया है? इसका जबाब नहीं में आएगा। कांग्रेस लंबे समय से उनके सामने हथियार डाले रही है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने राज्य का नेतृत्व शंकर सिंह वाघेला जैसे आदमी को दे रखा था जो आरएसएस तथा भारतीय जनसंघ के दर्शन को आत्मसात कर राजनीति में आगे बढ़े थे। ऐसे व्यक्ति से किसी हिंदुत्व-विरोधी दर्शन को आगे बढ़ाने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। इस बार भी राहुल गांधी का मंदिर-मंदिर भटकना और अपने को जनेऊधारी हिंदु बताना वाघेला वाली राजनीति को ही आगे बढ़ाने जैसा है। इसकी जड़ें इंदिरा गांधी के नरम हिंदुत्व से की जा सकती है उन्होंने आपातकाल के बाद सत्ता मे अपनी वापसी के बाद अपनाया था। यह न तो कांगं्रेस की गांधीवादी परंपरा से मेल खाता है और न ही नेहरू की परंपरा से। गांधी भारत तथा दुनिया की दूसरी आध्यात्मिक परंपराओं का सहारा लेकर एक देशी सेकुलरिज्म का निर्माण कर रहे थे जिसका लक्ष्य इस गुलाम देश की मुक्त और गरीब तथा वंचित जनता को उसके मानवीय हक दिलाना था। गांधी ने भिन्न आस्थाओ के कारण समाज में होने वाले विभाजन को मिटाने का तरीका ढ़ूंढ़ लिया था। इसलिए उन्हें मंदिर या मूर्ति के स्थूल प्रतीकों की जरूरत नहीं थी। आधुनिक विचार वाले नेहरू राज्य की सत्ता के सेकुलर बनाए रखने के पश्चिमी विचार का ईमानदारी से पालन करते थे। इसमें राज्य की संस्थाओं के मजहबी होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। राहुल गांधी को गुजरात मे अपनाया तरीका दोनों तरीकों को छोड़ता नजर आता है। राहुल इस मामले में फिसल गए और यह फिसलन कांग्रेस को भाजपा के सही विकल्प के रूप में उभरने में बाधा पैदा करेगा।
इस फिसलन के बावजूद राहुल ने गुजरात के चुनाव अभियान में मौजूदा राजनीति में एक नई दृष्टि डालने की कोशिश की और उसे पटरी पर लाने की कोशिश की। वामपंथी पार्टियों को छोड़ कर सभी पार्टियों ने देश में चल रही आर्थिक नीतियों का विरोध करना लगभग छोड़ ही दिया था। कांग्रेस तो इन नीतियों को जन्म देने वाली ही है। लेकिन राहुल ने इन पर जमकर हमले किए। कारपोरेट समर्थक अर्थव्यवस्था पर राहुल का यह हमला कांग्रेस की नीतियों में परिवर्तन का संकेत देता है बशर्ते उसे कांग्रेस के वैचारिक और सैद्धांतिक विमर्श का मुख्य हिस्सा बनाया जाए। गुजरात में राहुल के ओर से शुरू हुए विमर्श को आगे बढ़ाने का मतलब है कि कांगेस अपनी मनमोहन-चिदंबरम वाली वैचारिकता से बाहर आएगी। राहुल गांधी इसे कितना कर पाते हैं यह एक अलग मसला है। लेकिन यह साफ हो गया कि कांग्रेस यह मानने लगी है कि उदारवादी आर्थिक नीतियों का विरोध ही उसे जनता के करीब ला सकता है। गुजरात के चुनावों की यह बड़ी उपलब्धि है।
भाजपा तथा आरएसएस ने गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला में प्रचारित कर रखा है और मोदी ने उसे विकास का माडल देने वाले राज्य के रूप में प्रचारित किया। दोनों के नतीजे पिछले दिनो साफ उभर कर आए हैं। एक ने एक बड़ी आबादी, मुसलमानों को देश की राजनीति से बाहर कर दिया है और दूसरे ने किसानों, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को ही नहीं बल्कि छोटे और मझोले उद्योग चलाने वालों को भी हाशिए पर ला दिया है। गुजरात में पटेल इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। अर्थ और राजनीति में ताकतवर रहीं जातियां जैसे जाट, मराठा, पटेल आदि आज सड़कों पर हैं। राहुल गांधी ने उदारवादी आर्थिक नीतियों पर हमलों के जरिए तथा किसानों तथा पटेल समेत बाकी जातियों का पक्ष लेकर नई राजनीति के संकेत दिए। यह निश्चित तौर पर विदेशी पूंजी के नेतृत्व में चलने वाली अर्थव्यवस्था के विरोध में खड़ी होने वाली राजनीति है। लेकिन इसे गुजरात की जनता ने किस हद तक स्वीकारा यह देखने लायक है। भाजपा ने शहरों में जिस तरह वोट बटोरे हैं उससे जाहिर हो जाता है कि राहुल की इस राजनीति को उन्होंने पूरी तरह खारिज कर दिया है। लेकिन गांवों में कांग्रेस को जैसा समर्थन मिला है वह यही बतलाता है कि देश में उम्मीद की किरण वहीं से निकल सकती है। क्या कांग्रेस और राहुल इस जोखिम भरी राजनीति पर चल सकते हैं जिसमें नेतृत्व गांव के गरीब और वंचित समाज का हो? इसके लिए कांग्रेस को अपने फिर से अन्वेषित करना होगा। ऐसा करने के कोई संकेत कांग्रेस ने अभी तक नहीं दिए हैं।
गुजरात के चुनावों से एक और बात सामने लाई है वह है। यह देश की राजनीति के विविधतावादी स्वरूप का लोप। राज्य में भाजपा ने कांग्रेस विरोधी विपक्ष को काफी पहले निगल लिया था। कांगेस भी भाजपा-विरोधी अपने पार्टियों और संगठनों को अपने अनेक रूपों में उपस्थित रहने में कोई मदद नहीं की। इसे हम एनसीपी जैसी किसी पार्टी के साथ समझौता नहीं करने और आदिवासी नेता छोटुभाई वसावा के साथ सिर्फ आधा-अधूरा समझौता करने में देख सकते हैं। वसावा को मदद देकर कांग्रेस आदिवासी क्षेत्रों में भाजपा को बखूबी रोक सकती थी। इसके अलावा, छोटी-पार्टियों का नहीं होना केंद्रीयतावादी राजनीति को ही आगे बढ़ाता है जो भाजपा के लिए लाभ की बात है।
राजनीति के इकहरे होने का एक और नमूना गुजरात में दिखाई दिया। देश को परेशान करने वाली स्थितियों और विमर्श को जन्म देने वाले इस राज्य में उनकी चर्चा नहीं हो पाई। इनमें मानवीय सूचकांकों का कम होना, अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों का उल्लंघन जैसे सवाल महत्वपूर्ण थे। मानवीय सूचकांकों पर राज्य की गिरती हालत की थोड़ी चर्चा तो राहुल ने की। लेकिन मानवधिकारों के उल्लंघन तथा अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर उन्होंने खामोशी अख्तियार कर ली। यह नरम हिंदुत्व के सामने आत्मसमर्पण की रणानीति का ही नतीजा था। स्पष्ट है कि समाज में इसे स्वीकार किए जाने की कम संभावना को देखकर ही कांग्रेस ने यह रूख अख्तियार किया। सच पूछा जाए तो देश की बड़ी और पुरानी पार्टी का इस मामले में बचाव की मुद्रा में होना एक अशुभ संकेत है।
गुजरात ने सत्ता परिवर्तन के कुछ संकेत तो दिए हैं लेकिन भारतीय समाज और राजनीति के पीछे खिसकते जाने की स्थिति को ही दर्शाया है। यह पहली बार हुआ कि कोई प्रधानमंत्री अपनी क्षेत्रीय अस्मिता के आधार पर वोट मांग रहा हो और उसे उभारने की हर संभव कोशिश कर रहा हो।
इस सबसे बुरा पक्ष तो यह रहा कि चुनाव आयोग की संस्था ने अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो दी और ने चुनाव में सुधार के सारे पिछले प्रयासों पर पानी फेर दिया। दोनों ही प्रतिद्वंद्वी दलों से यह उम्मीद नहीं थी कि वे चुनाव को बेहतर बनाने के लिए कुछ करते, लेकिन मीडिया तथा चुनाव आयोग से यह उम्मीद तो थी ही कि वे ऐसा करने के प्रयास करेंगे। मीडिया तो भाजपा के प्रचार अभियान का हिस्सा ही रही और उसने प्रकारांतर से राम मंदिर, लवजिहाद, तीन तलाक से लेकर हाफिज सईद को सामने रखकर कठ्ठर हिंदुत्व को केंद्र में रखने का भरपूर प्रयास किया। सुप्रीम कोर्ट ने भी रामजन्मभूमि विवाद की सुनवाई शुरू कर यही दिखाया कि उसे देश में चल रही राजनीति से हो रहे नुकसान की कोई परवाह नहीं है। चुनाव आयोग ने सरकार को आचार संहिता के उल्लंघन का पूरा मौका दिया। यह सिर्फ मजहबी राजनीति को आगे बढ़ाने वाले बयानों की अनदेखी में ही नजर नहीं आया, बल्कि ऐन चुनावों के बीच जीएसटी में सुषार की घोषणा में भी नजर आता है।
चुनवा आयोग ने बाढ राहत में बाधा के नाम पर चुनाव की तिथियें की घोषणा हिमाचल प्रदेश के साथ नहीं की और राज्य तथा केंद्र सरकार को गुजरात में नई-नई घोषणाओं और शिलान्यास तथा उद्घाटन को भरपूर मौका दिया। उसका पक्षपात तो तभी जाहिर हो गया जब उसने चुनाव प्रचार खत्म होने के बाद राहुल गांधी को तो नोटिस दे दिया, लेकिन मोदी और भजपा के ऐसे कार्यों पर चुप्पी साधे रहा। पराकाष्ठा तो तब हुई जब ऐन मतदान के दिन प्रधानमंत्री ने रोड शो कर लिया। मीडिया की जिम्मेदारी इन सवालों को उठाने की थी लेकिन उसने इसे उसे उठाने के बदले सत्ता पक्ष के प्रवक्ता के रूप में काम किया। गुजरात में चुनाव खर्च को लेकर न तो मीडिया ने कोई सवाल किया और न ही चुनाव आयोग ने। ईवीएम पर उठ रहे संदेहों को दूर करने के बदले आयोग ने अपना पुराना रूटीन तरीका अपनाया। लोकतंत्र में लोगों को भरोसा बनाए रखने के लिए इस सवाल का उत्तर आवश्यक है। हम भले ही कांग्रेस के पुनजीर्वित होने की संभावनाओं में कुछ सकारात्मकता जरूर है, लेकिन अपनी संपूर्णता में इस चुनाव ने लोकतंत्र के आगे बढऩे का कोई रास्ता नहीं दिखाया है।