अन्ना हजारे और सरकार के बीच जो टकराव चल रहा है उससे एक स्वाभाविक-सा सवाल उठता है कि आखिर देश की जनता और देश की सरकार के बीच इतनी बड़ी खाई क्यों पैदा हो गई है. क्यों यह माना जा रहा है कि सरकार एक ऐसी दुश्मन है जिसे काबू करना जरूरी है?
इसका छोटा-सा जवाब यह है कि 15 लोकसभा चुनावों और 300 से भी ज्यादा विधानसभा चुनावों के बाद भी लोकतंत्र सही मायने में भारत के लोगों का सशक्तीकरण नहीं कर पाया है. इसकी बजाय इसने एक ऐसा शासक वर्ग पैदा किया है जिसकी प्रवृत्ति आम लोगों का खून चूसने वाली रही है. अन्ना के आंदोलन को इन्हीं आम लोगों से ताकत मिल रही है जो कह रहे हैं कि बस बहुत हो चुका, अब और नहीं सह सकते.
लोकतंत्र से असंतोष कोई नई बात नहीं है. नेहरू का दौर सशक्तीकरण का दौर था. सरकार ईमानदार थी. उसने गरीबी खत्म करने के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाईं. लोगों में उम्मीद जगी. लेकिन यह उम्मीद लंबे समय तक कायम नहीं रह पाई. 1967 में जब आम चुनाव हुआ तो पहली बार मोहभंग के लक्षण साफ-साफ दिखे. कई राज्यों में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा.
1980 के दशक में इस असंतोष ने व्यापक रूप धारण कर लिया. मतदाता सत्तासीन पार्टी को इस निरंतरता से खारिज करने लगे कि सत्ता विरोधी लहर जैसा जुमला चलन में आ गया. हालांकि यह जुमला ऐसा ही था जैसे आप लक्षण को ही बीमारी समझ लें. फिर जल्द ही लोगों को यह भी समझ में आ गया कि सरकारें बदलने से उनकी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आने वाला. धीरे-धीरे कुछ सरोकारी नागरिकों को महसूस होने लगा कि बदलाव के लिए उन्हें संसद के बाहर से दबाव की रणनीति बनानी होगी. जिसे हम आज सिविल सोसायटी कह रहे हैं वह आंदोलनकारी वर्ग इसी समय वजूद में आया.
अन्ना कह चुके हैं कि उनका अगला लक्ष्य चुनावी सुधार होगा. इससे उनका आशय मतदाताओं को अपने चुने हुए प्रतिनिधि वापस बुलाने का अधिकार देना है. लेकिन न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाने की मांग की तरह उनकी यह मांग भी असल सुधार की राह का रोड़ा साबित हो सकती है. इससे इस पूरे आंदोलन के एक बनिस्बत छोटे उद्देश्य के लिए खप जाने का खतरा है. दरअसल मजबूत से मजबूत लोकपाल से भी नौकरशाही में भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता. चीन को ही देखिए. जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने से भ्रष्टाचार या सदन में अपराधियों के आने पर अंकुश नहीं लगने वाला.
कांग्रेस सरकार ने कॉरपोरेट चंदे पर रोक लगा दी ताकि मजबूत होते विपक्ष की हालत जल बिन मछली जैसी हो जाए
दरअसल भ्रष्टाचार और अपराध जैसी जो बुराइयां भारतीय व्यवस्था में गहरे तक घुस गई हैं वे तभी खत्म की जा सकती हैं जब हम उनकी जड़ों के बारे में पूरी तरह से जान लें. इनका मूल 1950 में लागू हुए भारतीय संविधान की दो गहरी खामियों में तलाशा जा सकता है. पहली तो यह कि संविधान में इसकी कोई व्यवस्था नहीं है कि लोकतंत्र को चलाने का खर्च कहां से आएगा यानी जनप्रतिनिधि के सदन तक पहुंचने की पूरी प्रक्रिया में लगने वाला पैसा. दूसरी खामी यह थी कि संविधान में वे प्रावधान भी नहीं रखे गए जिनसे एक सदी तक जनता को अपना गुलाम समझने की घुट्टी पीती रही नौकरशाही को यह समझ में आता कि वह असल में जनता की सेवक है.
पहली खामी की वजह थी बिना सोचे-समझे ब्रिटिश परंपरा का अनुकरण. संविधान सभा के सदस्य भूल गए कि ब्रिटेन में एक निर्वाचन क्षेत्र का आकार औसतन 375 वर्ग किमी होता है जिसमें आज करीब औसतन 60,000 मतदाता होते हैं. जबकि भारत में यह आंकड़ा करीब 6,000 वर्ग किमी और 12 लाख वोटरों का है. ब्रिटेन में सांसद का कोई भी उम्मीदवार सुबह कार में बैठकर दो-तीन कस्बे या गांव घूमकर रात को घर वापस आ सकता है. मगर भारत में उसके किसी समकक्ष के लिए उसका निर्वाचन क्षेत्र कभी-कभी तो 1,000 से भी ज्यादा गांवों से मिलकर बनता है. हजार-बारह सौ पोलिंग बूथों पर किसी भी गंभीर उम्मीदवार को चुनाव के दिन कम से कम 8,000 लोग रखने होंगे. इस पर आने वाला खर्च स्वाभाविक है कि बहुत ज्यादा होता है. संविधान सभा यह क्यों नहीं समझ पाई कि निर्वाचन क्षेत्र के आकार में इतने विशाल फर्क के चलते ब्रिटेन के मॉडल को हूबहू भारत में लागू करना बिल्कुल संभव नहीं है, यह सोचकर हैरानी होती है.
लेकिन अगर संविधान सभा से यह बात नजरअंदाज हो गई थी तो इसे बाद में एक संवैधानिक संशोधन के जरिए ठीक किया जा सकता था. लेकिन बाद में इंदिरा गांधी देश को उलटी दिशा में ले गईं. उन्होंने राजनीतिक पार्टियों के लिए धन के उस अकेले वैध स्रोत को बंद कर दिया जो इस दौरान उभरा था. यह स्रोत था कॉरपोरेट कंपनियों द्वारा दिया जाने वाला चंदा. और यह तब हुआ जब कम्युनिस्टों के अलावा सभी दल इस पैसे पर निर्भर होने लगे थे.
इंदिरा गांधी ने यह फैसला 1967 के आम चुनावों के कुछ ही हफ्ते बाद लिया. जैसा कि जिक्र हो चुका है इन आम चुनावों में कांग्रेस को पहली बार अहसास हुआ था कि उसके पांवों के नीचे से जमीन सरक रही है. न सिर्फ लोकसभा में उसकी सीटों का आंकड़ा 353 से गिरकर 282 तक आ गया था बल्कि पहली बार यह छह बड़े राज्यों में भी अपनी सत्ता खो बैठी थी. कांग्रेस सरकार ने पहले तो राजनीतिक पार्टियों को दिए जाने वाले चंदे पर आयकर में मिलने वाली छूट खत्म की और फिर इस चंदे पर पूरी तरह से रोक ही लगा दी. ऐसा करते हुए इंदिरा गांधी ने जानबूझकर इसका कोई विकल्प नहीं रखा कि चंदे के रूप में पैसा नहीं आएगा तो राजनीतिक दलों का खर्च कैसे चलेगा.
इस फैसले के पीछे कांग्रेस का तर्क था कि नीतियां बनाने में कॉरपोरेट घरानों की दखलअंदाजी बढ़ रही है और ऐसा उनके प्रभाव को घटाने के लिए किया गया. मगर सच यह है कि यह काम 1956 में बना औद्योगिक नीति प्रस्ताव पहले ही कर चुका था. यानी कॉरपोरेट फंडिंग बंद करने का सीधा मकसद यह था कि विपक्ष का दम घुट जाए. 1967 में सी राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ ने मिलकर चुनाव लड़ा था और यह गठबंधन तीन राज्यों में कांग्रेस के लिए बड़ा खतरा बनकर उभरा था. मध्य प्रदेश में जनसंघ ने 296 में से 78 सीटें जीती थीं. गुजरात में स्वतंत्र पार्टी ने 168 में से 66 सीटें जीती थीं और राजस्थान में 72 सीटें जीतकर उसने कांग्रेस को पीछे धकेल दिया था.
जाहिर है कांग्रेस चिंतित थी. उसे लग रहा था कि आगे ये पार्टियां कई और छोटी पार्टियों और निर्दलीयों को अपनी तरफ खींच सकती हैं. उस वक्त ऐसा लगने लगा था कि एक की बजाय दो पार्टियों या गठबंधन के विकल्प वाली राजनीतिक व्यवस्था का जन्म होने वाला है. कांग्रेस को यह बात हजम नहीं हो रही थी. इसलिए उसने कॉरपोरेट चंदे पर रोक वाला कानून बना दिया ताकि विपक्ष की हालत जल बिन मछली जैसी हो जाए. चूंकि पार्टी खुद सत्ता में थी इसलिए वह तो इस कानून का बिना डर उल्लंघन कर सकती थी. इस रोक का मतलब था चुनाव लड़ने के लिए ईमानदारी और पारदर्शिता से मिलने वाले वित्तीय स्रोत का खत्म होना. इस अवसरवादी फैसले से राजनीतिक दलों के लिए ईमानदार रहकर अपनी गाड़ी खींचना असंभव हो गया. यहीं से राजनीति की नदी में अपराध और काले धन का कीचड़ घुलना शुरू हुआ. लगभग आधी सदी बाद इस कीचड़ ने नदी को नाले में तब्दील कर दिया है.
इस फैसले का पहला घातक असर तो यह हुआ कि इसने भारतीय राजनीति में मध्यमार्गी विपक्ष की संभावना को खत्म कर दिया और उन शक्तियों को मजबूत किया जो विचारधारा के लिहाज से अतिवादी थीं. बाजारवाद की समर्थक स्वतंत्र पार्टी को जब नए कानून के चलते कॉरपोरेट घरानों से मिलने वाला चंदा बंद हो गया तो इसके ज्यादातर सदस्य जनसंघ में शामिल हो गए. समाजवाद में यकीन रखने वाली प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का तेजी से क्षरण हुआ. फिर इन दोनों का विलय हो गया. इसके बाद 1977 में इन्होंने जनता पार्टी से हाथ मिलाया और आखिर में पूरी तरह गायब हो गईं. उनके जाने से पैदा हुई खाली जगह को जाति और क्षेत्रवादी राजनीति करने वाली उन पार्टियों ने कब्जा लिया जिन्हें हम आज के राजनीतिक परिदृश्य में देखते हैं. जनसंघ और दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां इस दौर में बचे रहने में सफल रहीं. 1970 के दशक का आखिर आते-आते यह सपना धराशाई हो चुका था कि एक दिन भारत में ब्रिटेन जैसी द्विध्रुवीय राजनीतिक व्यवस्था आ जाएगी.
केंद्रीय नेतृत्व के कमजोर होने की वजह से देशहित में कठिन फैसले लेने की राष्ट्रीय नेताओं की क्षमता घटी
इसका दूसरा और ज्यादा गंभीर नतीजा यह हुआ कि पार्टियों के भीतर का लोकतंत्र खत्म हो गया. कंपनियों से मिलने वाले चंदे पर रोक के बाद कांग्रेस के लिए भी पैसे जुटाना मुश्किल हो गया था. दरअसल इसके मैनेजरों ने चुनावी चंदा जुटाने के लिए एक नई वैकल्पिक व्यवस्था बनाई थी. जहां पहले चंदा कुछ लोगों द्वारा बड़ी राशि के रूप में आता था वहां अब बड़ी संख्या में बिखरे लोग हो गए जो चंदे के रूप में छोटी-छोटी राशियां देते थे. चूंकि हर बार एक ऐसी नई व्यवस्था बनाना बनाने वालों को झंझट का काम लगता था, इसलिए बनिस्बत छोटे दानदाताओं से बना यह नेटवर्क स्थायी रूप से जम गया. लेकिन उसे भी इसके बदले में कुछ फायदा चाहिए था. तो धीरे-धीरे ऐसा होने लगा कि यह नेटवर्क पार्टी और खास तौर से अपने क्षेत्र से चुने जाने वाले पार्टी उम्मीदवार से यह फायदा लेने लगा. आपसी लेन-देन की राजनीति की जड़ यही है.
ऐसे नेटवर्क का नुकसान यह होता है कि सत्ता का दायरा एक वर्ग विशेष तक सीमित हो जाता है. इसलिए क्योंकि ऊंचे संपर्कों तक पहुंच के जरिए नेटवर्क को चलाने वाले तत्व यह सुनिश्चित करते हैं कि जिस उम्मीदवार से उन्हें फायदा हो रहा है उसका कोई प्रतिद्वंद्वी न पनपने पाए. यानी राजनीति में बदलाव लाने की इच्छा रखने वाले नए लोगों के लिए इस तंत्र में घुसना बहुत मुश्किल होता है, कम से कम तब तक जब तक वे खुद इसका हिस्सा बनने को तैयार नहीं हो जाते. साफ है कि भारतीय लोकतंत्र जितना परिपक्व होता गया है उतना ही यह सुनिश्चित हुआ है कि एक दायरे से बाहर के नए लोग राजनीति में न आ सकें. नजर दौड़ाने पर आप पाएंगे कि भारतीय राजनीति में नेताओं की एक दूसरी पीढ़ी ने अपनी कुर्सी विरासत में हासिल की है. पश्चिमी लोकतंत्रों में जब संसद, नेशनल असेंबली या फिर कांग्रेस के किसी बुजुर्ग सदस्य का निधन होता है तो राजनीतिक दल हमेशा उसका उत्तराधिकारी इस आधार पर चुनता है कि अपने निर्वाचन क्षेत्र में उसका वजन कितना है. भारत में इसका उल्टा है. यहां किसी बुजुर्ग नेता का निधन होते ही उसके नेटवर्क को चलाने वाले (जो तब तक पार्टी में शामिल हो चुके होते हैं) यह सुनिश्चित करने के लिए तुरंत दिल्ली की दौड़ लगाते हैं कि खाली हुई सीट पर किसी योग्य उम्मीदवार को नहीं बल्कि दिवंगत नेता की पत्नी, बेटे या बेटी को स्थापित किया जाए. भावनाओं को छोड़ दें तो ऐसा इसीलिए किया जाता है कि नेटवर्क में कोई बदलाव न हो. चर्चित लेखक पैट्रिक फ्रेंज ने 2009 की लोकसभा का एक अध्ययन किया था जो बताता है कि इसमें 156 यानी 28.5 फीसदी सांसद ऐसे थे जिन्हें यह कुर्सी अपने पारिवारिक संपर्कों की वजह से मिली थी. इनमें से 78 सांसद कांग्रेस के थे. अध्ययन के मुताबिक 50 या इससे कम उम्र के सांसदों में से आधे ऐसे थे जिन्हें उस सीट पर चुनाव लड़ने के लिए इस वजह से चुना गया था कि वे राजनेताओं की संतान हैं. सबसे कम उम्र के 38 सांसदों में 33 और 35 से कम उम्र के कांग्रेस के हर सांसद को टिकट मुख्य रूप से इसीलिए मिला था क्योंकि वह एक खास परिवार में पैदा हुआ.
इस तसवीर की भयावहता को फ्रेंच ने कुछ इस तरह व्यक्त किया, ‘अगर आपका संबंध किसी स्थापित सत्ताधारी परिवार से नहीं है तो आपके लिए राष्ट्रीय राजनीति में आगे बढ़ने के अवसर तब तक न के बराबर हैं जब तक आप भाजपा या माकपा जैसी विचारधारा आधारित पार्टी में शामिल नहीं होते.’
इसका तीसरा परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस सहित सभी पार्टियों का राष्ट्रीय नेतृत्व कमजोर पड़ा. जब चंदा वैध रूप से लिया जाता था तो आम तौर पर इसके जरिए आने वाली रकम या तो सीधे पार्टी अध्यक्ष के पास आती थी या फिर कोषाध्यक्ष के पास. इससे यह सुनिश्चित होता था कि आर्थिक ताकत उस नेता के हाथ में रहे जिसे लोग जानते हों और जिसे इस चंदे के संग्रह और खर्च के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता हो. लेकिन जब चंदे के लिए गोपनीय रूप से काम होने लगा तो आर्थिक ताकत उन गुमनाम लोगों के हाथ में चली गई जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं थे. पैसा जुटाने वाले ऐसे लोगों पर केंद्रीय नेतृत्व का नियंत्रण भी हटता गया और उनकी नकेल प्रदेश के नेताओं के हाथ में चली गई. समय के साथ पैसा जुटाने वाले इन लोगों या कहें तो फंडरेजरों की मांगें बढ़ती गईं. नतीजा यह हुआ कि उम्मीदवारों के चयन और नीतियों के निर्धारण के मामले में चुने हुए नेताओं का असर घटता गया. इस बदलाव की सबसे पहली शिकार बनीं इंदिरा गांधी. जानकारों ने इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल के दिनों में सत्ता को अपने आसपास केंद्रित करने की जमकर आलोचना की थी, लेकिन हकीकत में तो यह एक सुरक्षात्मक कदम था. क्योंकि इंदिरा गांधी को यह अहसास हो गया था कि पार्टी पर उनकी कमान ढीली पड़ती जा रही है. 70 के दशक के मध्य इंदिरा गांधी के हाथ से कई कांग्रेसी मुख्यमंत्री निकल गए. इनमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वीपी नाइक शामिल थे. वैसे तो दोनों ही, लेकिन खास तौर पर बहुगुणा बड़े योग्य प्रशासक थे. उन्होंने उत्तर प्रदेश को लंबे अंतराल के बाद सक्षम प्रशासन दिया था. इंदिरा गांधी ने उनका समर्थन करना इसलिए छोड़ा क्योंकि वे केंद्र के निर्देश नहीं मान रहे थे. 1975 से 1977 के दौरान इंदिरा गांधी ने कांग्रेस शासित राज्यों में 15 बार मुख्यमंत्री बदले. यह उन्होंने 21 महीने के आपातकाल के दौरान किया. यह वह दौर था जब माना जाता था कि इंदिरा गांधी ताकत के मामले में शिखर पर थीं. इससे पता चलता है कि पार्टी के आंतरिक बदलावों की वजह से केंद्रीय नेतृत्व किस कदर कमजोर हो रहा था.
कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व के कमजोर होने की वजह से देशहित में कठिन फैसले लेने की राष्ट्रीय नेताओं की क्षमता घटी. 1967 में इंदिरा गांधी ने असम के ताकतवर मुख्यमंत्री बीपी चलिहा के प्रतिरोध की परवाह नहीं करते हुए असम को बांटकर अलग राज्य मेघालय बना दिया था. वही इंदिरा 16 साल बाद पंजाब कांग्रेस को नियंत्रित करने में नाकाम रहीं जिसके नतीजे में खलिस्तान की मांग पर विद्रोह फूटा. कांग्रेस की पंजाब इकाई जरनैल सिंह भिंडरावाला को बढ़ाने के लिए ही जिम्मेदार नहीं थी. इंदिरा गांधी और संत लोंगोंवाल के बीच 1983 में हुई तीन बैठकों के बावजूद लंबे समय से लटकी चार मांगों पर सहमति नहीं बन पाई तो इसके पीछे भी उसका ही हाथ था. अगर ऐसा हो जाता तो अलगाववादी आंदोलन खत्म हो जाता. लेकिन राज्य के नेताओं को लगता था कि अगर मांगंे मान ली गईं तो अकाली चुनाव में इसका फायदा उठा सकते हैं. इंदिरा उन्हें मनाने में नाकाम रहीं. इस नाकामी की कीमत देश ने 10 साल की हिंसा और 61,000 लोगों की मौत के साथ चुकाई. जो लोग मरे उनमें से दो तिहाई सिख थे.
कॉरपोरेट फंडिंग बंद होने का चौथा परिणाम यह हुआ कि राजनीति में अपराधियों का प्रवेश होने लगा. मौजूदा संसद के 29 फीसदी सदस्यों पर हत्या, बलात्कार, अपहरण और डकैती जैसे संगीन अपराधों में शामिल होने का आरोप है. बिहार विधानसभा में ऐसे लोगों की संख्या 44 फीसदी है और पश्चिम बंगाल विधानसभा में 35.1 फीसदी.
इस पूरी प्रक्रिया का सबसे बुरा नतीजा इस धारणा के रूप में सामने आया कि व्यवस्था तो बिकने के लिए खड़ी है
आपसी फायदे की राजनीति के इस तंत्र को और मजबूत करने और बाहरी लोगों के लिए व्यवस्था तक पहुंचने का रास्ता रोकने के लिए आखिरी कदम यह उठाया गया कि सांसदों और विधायकों को क्रमशः सांसद विकास निधि और विधायक विकास निधि के तहत विकास कार्यों पर पैसा खर्च करने के लिए एक कोष दे दिया गया. इसके इस्तेमाल का फैसला सांसदों और विधायकों के विवेक पर छोड़ दिया गया. कागजी तौर पर तो इस योजना में कई ऐसे उपाय किए गए हैं जिससे कि पैसे का दुरुपयोग न हो. लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखें तो कोई भी ऐसा निगरानी तंत्र नहीं है जिससे यह पता चल सके कि कितना पैसा विकास कार्यों पर खर्च हुआ और कितना सांसद व विधायक की जेब में वापस चला गया. इस योजना ने निर्वाचन क्षेत्रों को जमींदारी वाले इलाकों में तब्दील कर दिया है. लेकिन जब 2जी विवाद के बीच में सांसदों के कोष को सालाना दो करोड़ से बढ़ाकर पांच करोड़ रुपये और विधायकों के कोष को एक करोड़ से बढ़ाकर दो करोड़ रुपये करने का फैसला किया गया तो किसी ने भी इस पर कुछ नहीं बोला.
अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
कॉरपोरेट फंडिंग के खत्म होने का सबसे भयावह नतीजा यह हुआ कि इसने राज्य व्यवस्था को भक्षक के रूप में ला खड़ा किया. यह काम चार चरणों में हुआ. जब कंपनी डोनेशन को प्रतिबंधित किया गया तो उसके बाद कांग्रेस के लिए पैसे जुटाने वालों के लिए भी यह समस्या खड़ी हो गई कि चुनाव लड़ने के लिए पैसे कहां से लाएं. इसलिए 1971 के लोकसभा चुनावों और 1972 के विधानसभा चुनाव में ये लोग उन्हीं कंपनियों और कारोबारी संगठनों के पास गए जिनसे पहले वे कर छूट वाले चेक लेते थे. अब उनसे नकद पैसे की मांग की गई. ज्यादातर कारोबारियों ने न चाहते हुए भी इस मांग को मान लिया. इस प्रतिबंध ने चुनाव के लिए पैसे जुटाने का काम बेहद मुश्किल बना दिया और जो खालीपन पैदा हुआ उसे छोटे या मंझोले कारोबारियों, दुकानदारों, साहूकारों, अमीर किसानों आदि ने भरा.
लेकिन इसके बदले में छोटे कारोबारियों को कारोबार फैलाना था और अमीर किसानों को सब्सिडी चाहिए थी. पहले वर्ग ने इंदिरा गांधी को वह कारण दिया जिसका तर्क देकर उन्होंने 1970 से 1973 के बीच बड़े कारोबारियों पर समाजवादी नियंत्रण का दूसरा दौर चलाया. उधर किसानों को फायदा समर्थन मूल्य के रूप में मिला. इससे राजनीतिक ताकत रखने वाला एक छोटा-सा मध्य वर्ग वजूद में आया. इसकी वजह से न सिर्फ जीडीपी दर और गिरी बल्कि 1991 तक अर्थव्यवस्था लाइसेंस राज में रही.
आपातकाल के बाद 1977 के चुनावों में कांग्रेस की हार ने पार्टी में केंद्रीय स्तर पर तो माली हालत बिगाड़ दी थी लेकिन आधे से ज्यादा इसके राज्यों पर इसका कोई असर नहीं हुआ था. इसका परिणाम यह हुआ कि जब 1980 में कांग्रेस वापस सत्ता में आई तो राज्य व्यवस्था के भक्षक बनने के दूसरे चरण की शुरुआत हुई. सत्ता में लौटते ही इंदिरा गांधी की पहली प्राथमिकता पार्टी की आर्थिक स्थिति को सुधारना और केंद्रीय नेतृत्व को फिर से महत्वपूर्ण बनाना बन गई. विदेशी ठेकों खास तौर पर इन्फ्रास्ट्रक्चर और रक्षा से संबंधित ठेकों के बदले कमीशन लेने के काम को संस्थागत रूप देकर कांग्रेस ने इस लक्ष्य को हासिल भी कर लिया.
ठेके के बदले पैसे के इस संस्थागत खेल का भंडाफोड़ तब हुआ जब स्वीडन के एक अखबार ने 1987 में बोफोर्स कांड उजागर किया. अखबार के मुताबिक 1.3 अरब डॉलर के इस ठेके में कुल रकम का 17 फीसदी हिस्सा तीन स्तर पर रिश्वत के तौर पर दिया गया. इस कांड ने देश में भूचाल ला दिया था.
कमीशन के इस खेल में सिर्फ पैसे की बर्बादी ही नहीं होती. सौदेबाजी में समय लगने की वजह से न सिर्फ किसी ऑर्डर की लागत बढ़ती है बल्कि कीमती वक्त भी बर्बाद होता है. रक्षा क्षेत्र के ठेकों में घूसखोरी की वजह से देश के लिए हमेशा खतरा बना रहता है. इस कुप्रथा का एक नतीजा यह भी हुआ है कि रूटीन खरीदारी का काम भी रक्षा मंत्रालय के असैन्य अधिकारियों के हाथों में केंद्रित होता चला गया. आज सेना के बड़े अधिकारी खुलेआम कहते हैं कि उनकी मांगों को पूरा करने में कम से कम तीन साल का वक्त लगता है. रिश्वत के इस संस्थागत स्वरूप का नतीजा यह भी हुआ कि ज्यादातर मौकों पर ठेके उन्हें नहीं मिले जिनकी योग्यता सबसे ज्यादा थी.
इस पूरी गड़बड़ी का सबसे बुरा नतीजा यह हुआ कि व्यवस्था को बिकाऊ मान लिया गया क्योंकि रिश्वत लेकर किसी को ठेका देते ही सत्ता प्रतिष्ठान एक ऐसा पक्ष बन गया जिसे उस हर काम में शामिल होना है जिससे घूस देने वाले की लागत निकले. इसके साथ ही व्यवस्था जनता की नजरों से गिरने लगी.
फिर यहीं से कई बुराइयां व्यवस्था में घर करती चली गईं. पहले से तय किए गए ठेकेदार को ठेका दिलाने के लिए कई तरह के अनैतिक काम किए जाने लगे. सरकारी विभागों को यह लगने लगा कि स्वतंत्र कंसल्टेंट की मौजूदगी की वजह से ठेके देने में अनियमितता करने पर जोखिम बना रहेगा. इसलिए इन विभागों ने योजनाओं को तैयार करने और क्रियान्वयन में इन कंसल्टेंट की सेवा लेने की बजाय यह काम खुद ही करना शुरू कर दिया. इससे न सिर्फ भ्रष्टाचार को रोक सकने वाली आखिरी व्यवस्था खत्म हो गई बल्कि इसने भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का ही काम किया.
राज्य सरकारों ने इसका फायदा लेते हुए प्रतिस्पर्धा बनाए रखने के नाम पर बड़ी परियोजनाओं को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटा और अलग-अलग ठेके देने शुरू कर दिए. इसका नतीजा यह हुआ कि मंत्री और अधिकारी उन छोटी कंपनियों को ठेका देने लगे जिनके पास न तो पूंजी आधार था और जिनका काम करने का कोई अनुभव भी नहीं था. लेकिन इन कंपनियों के पास एक चीज यह थी कि ये ठेके के बदले संबंधित मंत्री या अधिकारी को कुछ भी देने को तैयार थे. इससे परियोजनाओं की लागत बढ़ी, गुणवत्ता घटी और काम लटकने लगा. इसका सबसे अच्छा उदाहरण है मुंबई, दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई को जोड़ने और देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए 1999 में उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा शुरू की गई स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना. इस परियोजना को 2004 में पूरा होना था लेकिन 2011 तक इसका आधा काम भी नहीं हो पाया है.
तीन दशक से अधिक समय से घूस के पैसे का इस्तेमाल पार्टियों को चलाने के लिए हो रहा है. तब से रिश्वत की प्रवृत्ति देश के हर कोने में और सरकार के हर स्तर पर फैल चुकी है. आज शायद ही कोई छोटा से छोटा ठेका बगैर रिश्वत लिए दिया जा रहा हो. समय के साथ नई दिल्ली के सचिवालय से लेकर प्रखंड स्तर पर काम करने वाले अधिकारी ने यह जान लिया कि वही काम वे अपने लिए कानून से कहीं अधिक बेखौफ होकर कर सकते हैं जिस काम की अपेक्षा उनके राजनीतिक आका उनसे अपनी पार्टी के लिए करते हैं.
व्यवस्था को भक्षक की भूमिका में लाने का तीसरा चरण 1991 में आर्थिक उदारीकरण के साथ शुरू हुआ. कंपनी डोनेशन पर से आखिरकार 2003 में पाबंदी हटा दी गई. लेकिन तब तक पैसे की जरूरत इतनी बढ़ गई थी जितना देने के लिए कारोबारी तैयार नहीं थे. इंदिरा राजारमन के मुताबिक 2009-10 में बड़े और छोटे उद्योगपतियों ने मिलाकर सिर्फ 130 करोड़ रुपये का चंदा राजनीतिक पार्टियों को दिया. इस दौरान उद्योगपतियों ने फैसलों को प्रभावित करने के नए रास्ते ईजाद किए. इनमें निर्णय लेने वालों को सीधे ही खरीद लेना शामिल है. यही वजह है कि 90 के दशक और नई सदी के पहले दशक में कई घोटाले सामने आए.
और चौथा चरण तब शुरू हुआ जब यह तय हो गया कि केंद्र में अब गठबंधन सरकार ही बनेगी. 1996 से लेकर अब तक केंद्र में बनी पांच सरकारों में राष्ट्रीय पार्टियों (भाजपा और कांग्रेस) ने रक्षा, गृह और विदेश जैसे ताकतवर विभाग तो अपने पास रखे लेकिन पैसे वाले कई विभाग क्षेत्रीय सहयोगी दलों के खाते में चले गए. 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की जड़ में यही है, लेकिन यह घोटाला तो उस मौजूदा कार्यप्रणाली का चरम है जिसके जरिए आज हर काम हो रहा है.
टीम अन्ना अगर यह सोचती है कि लोकपाल इस भ्रष्ट व्यवस्था पर हल्की चोट पहुंचाने के अलावा और कुछ कर सकेगा तो वह सपनों की दुनिया में जी रही है. तब तक कुछ नहीं बदलेगा जब तक राजनीतिक दलों को उस भार से मुक्त नहीं किया जाए जिसके लिए वे कानून तोड़ने को मजबूर हैं. बदलाव के लिए राजनीतिक दलों को फिर से ईमानदार होने का अवसर देना होगा. ऐसा करने का एकमात्र रास्ता यही है कि मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के चुनावी खर्चे सरकार उठाना शुरू करे. इसके लिए चुनाव आयोग को और मजबूत बनाने की जरूरत होगी. आयोग में ताकतवर ऑडिटिंग विभाग जोड़ना होगा और राजनीतिक दलों को मान्यता देने की प्रक्रिया को कठोर और पारदर्शी बनाना होगा. दूसरे सुधार इसी बुनियाद पर
आगे बढ़ेंगे.
ऐसा किए बगैर सभी दूसरी कोशिशें नाकामी में ही तब्दील होंगी.