जून के महीने मे लखनऊ में हुई भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का हासिल पूछने पर पार्टी की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष कलराज मिश्र ने कहा था, ‘वह आपको प्रदेश भाजपा में दो-तीन महीने में पूरी तरह दिख जाएगा.’ यही समय-सीमा उन्होंने विधानसभा चुनावों के सभी टिकट घोषित होने के संदर्भ में भी दी थी. तब से अब तक दो-तीन महीने गुजर चुके हैं, लेकिन (अगर ‘पार्टीगत ताम-झाम’ में हुई वृद्धि को छोड़ दें तो) उत्तर प्रदेश भाजपा की गहराई में बदलाव नजर नहीं आता. जबकि बदलाव की जरूरत के मद्देनजर ही इस बीच दो अहम घटनाएं हुईं. पहले उमा भारती की पार्टी में उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी के साथ वापसी (जिन्हें असल में कार्यकारिणी की बैठक के दौरान ही पार्टी में शामिल होना था, लेकिन बाबा रामदेव पर सरकारी हमले के चलते ऐसा नहीं हो सका) और अब लंबे समय से राजनीतिक वनवास काट रहे पार्टी के संघनिष्ठ कार्यकर्ता संजय जोशी भी उत्तर प्रदेश की बड़ी जिम्मेदारी के साथ पार्टी में फिर से आ गए हैं.
संजय जोशी को तो बड़े नेताओं को काबू करने का जिम्मा दिया गया है भला उन्हें सहजता से कैसे हजम किया जा सकता है
संजय जोशी की वापसी से भारतीय जनता पार्टी और खुद जोशी दोनों को बड़ी उम्मीदें हैं. राजनीतिक परिदृश्य से अचानक गायब होने से पहले तक जोशी भारतीय जनता पार्टी के अंदर सांगठनिक तौर पर सबसे ताकतवर माने जाने वाले राष्ट्रीय महामंत्री, संगठन के पद पर रह चुके थे. यह पद पार्टी के अंदर संघ का पूर्णकालिक प्रचारक ही संभालता है और इस पर आसीन व्यक्ति एक तरह से भारतीय जनता पार्टी के अंदर संघ के प्रतिनिधि के रूप में काम करता है. इसी के माध्यम से संघ भाजपा की नब्ज थामे रहता है. छह-सात साल पहले तक संजय जोशी संघ और भाजपा दोनों के शीर्ष नेतृत्व के बेहद करीबी थे. उनकी ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मोदी समेत भाजपा के कई अन्य बड़े नेताओं से सीधे टकराव के बावजूद पार्टी और संघ अंतत: उन्हीं के साथ खड़ा होता था लेकिन फिर एक विवादास्पद सीडी मीडिया में आई और सब कुछ बदल गया. सीडी में संजय जोशी किसी महिला के साथ आपत्तिजनक मुद्रा में दिख रहे थे. संजय कहते रहे कि सीडी फर्जी है लेकिन संघ और भाजपा ने उनसे पल्ला झाड़ते हुए उन्हें नेपथ्य में जाने पर मजबूर कर दिया. कुछ समय बाद जांच से यह साबित हो गया कि सीडी हकीकत में फर्जी थी. इसके बाद संजय की पार्टी में जल्द वापसी को लेकर कयास लगने लगे. सूत्रों की मानें तो कई बड़े नेताओं का अहं इस वापसी के आड़े आ गया और सही मौके का संजय जोशी का इंतजार लंबा होता गया. आखिरकार उनकी वापसी तब हुई है जब पार्टी को उनकी सबसे ज्यादा जरूरत दिखाई दे रही है.
संजय जोशी को उत्तर प्रदेश में संगठन को संभालने की जिम्मेदारी दी गई है. उत्तर प्रदेश भाजपा को थोड़ा-बहुत जानने वाला व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि यह जिम्मेदारी कितनी चुनौती भरी है. समस्या यह है कि प्रदेश में हाई प्रोफाइल चेहरों से भरे हुए भाजपा के संगठन में अहं के टकराव को रोक पाना पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व यहां तक कि संघ के लिए भी अभी तक नामुमकिन ही रहा है. संजय जोशी को इसी एकमात्र ध्येय की प्राप्ति के लिए लगाया गया है. जोशी खामोशी से काम पर लगे हैं. बार-बार कोशिश करने पर भी वे मीडिया से कोई बात नहीं करते. यही रुख वापसी के तुरंत बाद उमा भारती का भी था. हालांकि उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता हृदयनारायण दीक्षित कहते हैं, ‘जोशी संगठन का काम देखने के माहिर हैं. राष्ट्रीय स्तर पर वे बड़ी जिम्मेदारी निभा चुके हैं, इसलिए उत्तर प्रदेश में भी उन्हें पार्टी के नेताओं से सहयोग मिलेगा और इसमें ऐसी कोई कठिन चुनौती नहीं होगी.’ जबकि जोशी के लिए राहें इतनी आसान नहीं हैं. उत्तर प्रदेश में संगठन इतना बिगड़ैल है कि पार्टी के संभाले नहीं संभल रहा. यहां तक कि राज्य के संगठनों में समन्वय बनाने और उस पर संघ का नियंत्रण रखने के लिए भी जो प्रदेश महामंत्री, संगठन होता है वह भी यहां गुटबाजी में फंस चुका है. वह पद यहां राकेश जैन के पास है. चूंकि राकेश जैन के होते हुए भी स्थिति नहीं सुलझ रही, इसलिए संघ के लिए भी चिंता बढ़ गई है.
संघ से जुड़े दुष्यंत तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘राकेश जैन से पहले नागेंद्रनाथ उत्तर प्रदेश में महामंत्री संगठन की जिम्मेदारी 10 सालों से देख रहे थे. उससे पहले उन्होंने इसी तरह की जिम्मेदारी विद्यार्थी परिषद और संघ में भी निभाई थी. इसलिए प्रदेश भाजपा के ज्यादातर शीर्ष नेता उनके समकालीन थे और उनका सम्मान करते थे. इस पद पर उनका एक रौब था. राकेश जैन का आभामंडल उतना बड़ा नहीं है कि वे इतने बड़े नेताओं पर सीधा नियंत्रण रख सकें. मूल समस्या यही है. इसीलिए अब संजय जोशी को स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए भेजा गया है.’ साफ है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव सिर पर होने के बावजूद हालत न सुधरने की चिंता संघ को भी परेशान कर रही है और संजय जोशी की उत्तर प्रदेश में नियुक्ति के पीछे उसकी बड़ी भूमिका है.
चूंकि जोशी अभी-अभी आए हैं, इसलिए उनके काम का मूल्यांकन इतनी जल्दी नहीं हो सकता, लेकिन एक बात तो तय है कि जिस तरह उमा भारती की उत्तर प्रदेश में तैनाती यहां के बड़े नेताओं को रास नहीं आई उसी तरह संजय जोशी का आना भी उन्हें अखर रहा है. उमा की वापसी का समारोह प्रदेश भाजपा कार्यालय में ही हुआ था, लेकिन लखनऊ में होने के बावजूद उनके स्वागत में कोई बड़ा नेता नहीं पहुंचा था. वहां सिर्फ मंझोले कद के नेताओं, विधायकों और कार्यकर्ताओं का ही हुजूम था. इसी तरह संजय जोशी की वापसी को लेकर भी कोई बड़ा नेता कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा. यहां एक और बात गौरतलब है कि उमा भारती को तो सिर्फ प्रमुख प्रचारक बनाया गया था लेकिन फिर भी चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष कलराज मिश्र को यह बात अखर गई थी. विनय कटियार, ओमप्रकाश सिंह आदि नेताओं को पिछड़ा फैक्टर के चलते उमा पसंद नहीं आई थी, लालजी टंडन की ‘बाहर वालों’ से दिक्कत जगजाहिर है. अब संजय जोशी को वास्तव में बड़े नेताओं को काबू करने की जिम्मेदारी दी गई है. ऐसे में भला उन्हें सहजता से कैसे हजम किया जा सकता है.
तमाम कोशिशों के बावजूद पार्टी अभी तक प्रत्याशियों की पहली सूची भी जारी नहीं कर पाई है. राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद पांच-छह जुलाई को झांसी में प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक तय थी जिसमें टिकट वितरण को लेकर अहम फैसले होने थे. लेकिन अपनों को सेट कराने की जुगत, खेमेबाजी और अहं के टकराव के चलते कुछ फाइनल ही नहीं हो पाया और अंत समय में यह बैठक टाल दी गई. उसके बाद से आज दो महीने बीत जाने के बाद भी प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक का दिन तय नहीं हुआ है. बड़े नेताओं के अहं को संतुष्ट करने के लिए और सबको समायोजित करने के लिए पार्टी संविधान को ताक पर रखकर पदाधिकारी नियुक्त किए जा रहे हैं. मसलन प्रदेश मंत्रियों की संख्या 10 की जगह 18 तक पहुंच गई है क्योंकि लालजी टंडन, रमापति राम त्रिपाठी समेत कई वरिष्ठ नेताओं के पुत्रों को इसमें समायोजित किया गया है.
गुटबाजी का एक पहलू यह भी है कि जिस तरह बड़े नेता एक-दूसरे के नेतृत्व को नहीं स्वीकार कर रहे उसी तरह नेता पुत्र भी आपस में 36 का आंकड़ा रखते है. संजय जोशी को सबसे बड़ी मेहनत इनसे एकसाथ काम लेने पर करनी होगी क्योंकि राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बार-बार भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे पर बोलने और केंद्रीय नेतृत्व के अन्ना के आंदोलन को भुनाने के बावजूद उत्तर प्रदेश की भाजपा प्रदेश में इन मुद्दों पर कोई खास माहौल नहीं बना पाई. जनलोकपाल को लेकर अन्ना के आंदोलन का केंद्र में भाजपा समर्थन कर रही थी लेकिन उत्तर प्रदेश में उसके नेताओं का एक भी बयान राज्यों में लोकायुक्त के पक्ष में नहीं आया.
पार्टी की निष्क्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर ही नहीं भाजपा अपने लोगों की मुश्किलों पर भी कुछ नहीं बोली. चार सितंबर को लखनऊ विश्वविद्यालय में यूथ अगेंस्ट करप्शन (जो भ्रष्टाचार के खिलाफ संघ का अभियान है) की एक सभा मालवीय सभागार में होनी थी. इसके लिए प्रशासन से अनुमति भी मिल चुकी थी और तैयारियां भी पूरी हो चुकी थीं. लेकिन सभा से एक रात पहले विश्वविद्यालय प्रशासन ने बिना किसी सूचना के यूथ अगेंस्ट करप्शन को सभागार देने से मना कर दिया. अभियान के पदाधिकारी जब मुख्य वक्ता राम माधव के साथ वहां पहुंचे तब उन्होंने कार्यक्रम स्थल पर भारी पुलिस बल और पुलिस अधिकारियों को देखा. पूछने पर पता चला कि कार्यक्रम को अनुमति नहीं मिली. इस पर राम माधव और दूसरे वक्ताओं ने सभागार के बाहर ही खुले आसमान के नीचे भाषण दिया. यह मामला लगातार तूल पकड़ता गया लेकिन भाजपा सोती रही.
यूथ अगेंस्ट करप्शन के उत्तर प्रदेश के संयोजक राकेश त्रिपाठी, जो विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे हैं, इस मामले पर उत्तर प्रदेश भाजपा से बहुत नाराज है. राकेश कहते है, ‘आपके अपने संगठन के अभियान के लिए प्रशासन ने आखिरी वक्त में अनुमति निरस्त कर दी. राम माधव जी जो संघ और भाजपा दोनों में वरिष्ठ स्थान रखते हैं वे अधिकारियों से भिड़ते रहे और बाद में खुले आसमान के नीचे युवाओं के बीच भाषण तक दिया लेकिन उत्तर प्रदेश भाजपा का कोई बड़ा नेता झांकने तक नहीं आया.’ भाजपा उम्मीद करेगी कि संजय जोशी के आगमन का जमीनी असर जल्द ही दिखने लगे.