यह बात पक्की है क्योंकि बिना पॉलिटिकल एजेंडा के कोई मसला इतना बड़ा नहीं बन जाता कि राज्य की राजनीति में उथल-पुथल मचा दे। और यह मसला रिजर्वेशन का आज का नहीं है बल्कि वर्षों पुराना है तब से जब से महाराष्ट्र बना है 1960से। विशेषकर 2000 से इस मामले ने तेजी पकड़ी है और वह भी इसलिए कि मराठाओं को लगने लगा कि उनकी मांगों को अनदेखा किया जा रहा है। मराठों को इस बात का अंदाजा होने लगा कि उनके लिए रिजर्वेशन की कोई गुंजाइश नहीं बची है उनके अंदर का असंतोष संघर्ष का रूप लेने लगा था।
दरअसल मराठों में बढ़ते असंतोष की वजह रिजर्वेशन के प्रति सरकारों के गैर जिम्मेदाराना रवैए के साथ-साथ महाराष्ट्र की सोशियो इकोनॉमिक्स का भी बड़ा असर रहा, जो तेजी से बदलती जा रही थी।इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि मराठों के पास जमीन बहुत थी। गरीब से गरीब मराठा के पास भी अच्छी खासी जमीन थी। विशेषकर पश्चिम में महाराष्ट्र के मराठा जो गन्ने की खेती करते थे उनकी कमाई अच्छी थी, उनके पास पैसा था और उनके हालात अच्छे थे। इसलिए कोई भी रिजर्वेशन के पीछे नहीं दौड़ रहा था और न ही सरकारी नौकरियों को पाने के लिए परेशान था। लेकिन जैसे-जैसे परिवार बढ़ता गया जमीनों का बटवारा होने लगा वैसे वैसे जमीनें कम पडऩे लगी। जिसके पास 100 एकड़ जमीन थी उनके पास 1 एकड़ जमीन भी नहीं बची। प्रोडक्शन कम होता चला गया आर्थिक रूप से मराठा कमजोर होते चले गए। वे लोग ह्रक्चष्टओबीसी समाज को अपना प्रतिस्पर्धी मानने लगे थे
जमीन ओबीसी के पास भी थी। लेकिन उन के मामले में हुआ यह कि उनके बच्चों ने खेती के साथ-साथ सरकारी नौकरी भी की। दो बच्चे खेती-बाड़ी कर रहे थे तो दो बच्चे रिजर्वेशन कोटे के तहत मिली सरकारी नौकरी भी। उनकी आर्थिक स्थिति दोनों ही मोर्चे पर, खेती-बाड़ी और नौकरी में मजबूत होती चली गई। मराठा ओबीसी से ज्यादा गरीब होते चले गए जो आज एक सच है।
अब आम लोगों की यह राय है कि मराठा गरीब नहीं है। उनकी राजनीति और सहकारिता क्षेत्र में गहरी पैठ है हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन सच यह है भी है कि जो मराठा राजनीति में सक्रिय हैं और जिनका दखल सहकारिता क्षेत्र में है और जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं संबल हैं उनकी संख्या 5-6, फ़ीसदी ही है। शेष 27-28 फ़ीसदी मराठाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। राजनीतिक घरानों को, सहकारिता क्षेत्र में दखल रखने वालों को और अमीर मराठाओं को रिजर्वेशन की वाकई जरूरत नहीं है लेकिन उन गरीब मराठों का क्या जो वक्त और मौसम की मार सहते हुए दाने दाने को तरस रहे हैं,आत्महत्या कर रहे हैं। देखा जाए आर्थिक रूप से वह एक पिछड़े वर्ग की जिंदगी गुजारने में मजबूर हैं और इस समस्या की असली जड़ भी यही है्।
आंदोलन अभी ही क्यों? और दांव-पेंच
दरअसल आंदोलन की एक वजह महाराष्ट्र के चीफ मिनिस्टर देवेंद्र फडणवीस का ब्राह्मण होना भी है। रिजर्वेशन का रोना आज का रोना नहीं है। लेकिन जैसे ही बीजेपी सत्ता में आई और देवेंद्र फडणवीस चीफ मिनिस्टर बने वैसे ही मराठों की लॉबी उनके खिलाफ सक्रिय हो गई। उनके कर्ताधर्ता बने शरद पवार। वैसे ब्राह्मण चीफ मिनिस्टर तो मनोहर जोशी भी थे लेकिन जोशी शिवसेना के थे। शिवसेना के प्रति शरद पवार का एक सॉफ्ट कॉर्नर रहा है लेकिन इस दफा ब्राह्मण चीफ मिनिस्टर और सत्ता पर काबिज बीजेपी। यह दोहरा झटका शरद पवार नहीं सह सके। उन्हें यह बात खटकने लगी। उनकी कोशिश रही कि यह समीकरण किसी भी हालात में बदलें और मराठा मूक मोर्चा उन्हीं की उपज थी।
दूसरी ओर देवेंद्र फडणवीस एक श्रूड और कनिंग पॉलिटिशियन हैं। उन्हें इस बात का पता था कि कोर्ट किसी भी हालात में 50 फीसदी से अधिक रिजर्वेशन स्वीकार नहीं करेगी इसलिए उन्होंने 16 फीसदी रिजर्वेशन पर हां कर दी यह जानते हुए कि कोर्ट में मामला लटक जाएगा। बात पिछले साल की है 16त्न मराठों को और 5त्न मुस्लिमों को जोड़ घटा कर देखें तो यह 50 फ़ीसदी से अधिक बैठता है जैसा कि पूर्वानुमान था कोर्ट ने इसे सस्पेंड कर दिया। चीफ मिनिस्टर ने हाथ खड़े कर दिए फडणवीस ने कहा कि उन्होंने उनकी मांग को तो स्वीकार कर ली है लेकिन मामला कोर्ट के अधीन है तो वह क्या कर सकते हैं। लेकिन इस बात को कैसे भुलाया जा सकता है कि पिछले 1 साल के भीतर चीफ मिनिस्टर फडणवीस ने अपनी सरकार की ओर से रिजर्वेशन के मामले में कोई पहल नहीं की। वह मजे से टाइमपास करते रहे जो वह चाहते भी थे। उन की रणनीति भी यही थी कि के गेंद कोर्ट के पाले में डालकर चुपचाप तमाशा देखते रहें।
शरद पवार इस बात से इस बात को अच्छी तरह से समझ रहे थे उन्होंने मौका देखा और अपना दांव चल दिया। पवार ने कुछ लोगों को भड़काया। मराठा आरक्षण की मांग को फिर से धारदार बनाने के लिए उन्होंने मूक मोर्चा यानी मौन मोर्चा यानी शांतिपूर्ण अहिंसात्मक मोर्चे को अपना हथियार बनाया। यह एक तरीका था फडऩवीस और उनकी सरकार पर दबाव डालने का। वह अपनी रणनीति में कामयाब भी रहे अनुशासित ढंग से 54 मूक मोर्चे निकाले गए। शांतिपूर्वक, मांग बिना एक शब्द बोले,बिना हिंसा किए, अनुशासित लाखों लोग सड़क पर उतरे। महाराष्ट्र भर में हुए इन मोर्चों के दौरान किसी को भी लेशमात्र परेशानी नहीं हुई। मीडिया ने इस तरह के मोर्चे को अद्भुत बताया दुनियाभर में वाहवाही हुई। मराठों के आरक्षण की इस तरीके से मांग को लोगों ने सकारात्मक तौर पर लिया। मराठों को समाज के सभी वर्गों से सहानुभूति मिली।
अब मराठों को मिल रही सहानुभूति से सरकार को अपनी रणनीति लडख़ड़ाती हुई नजर आई। ऐसा कहा जा रहा है कि मराठा मोर्चा को असफल करने के लिए फडऩवीस के रणनीतिकारों ने मोर्चा में बाहरी तत्वों को घुसा दिया। नतीजा बिल्कुल वही निकला जो वह चाहते थे। मराठों के प्रति लोगों की सहानुभूति सद्भावना खत्म हो गई। बाहरी तत्वों ने मराठों के शांतिपूर्ण मोर्चे की भद्द पीट कर रख दी। मोर्चा हिंसक हो गया। आगजनी हुई,तोडफ़ोड़ हुई,आम लोगों को परेशानियां हुई।लोगों की मिल रही सहानुभूति खत्म हो गई।सोशल क्लाइमेट मराठा रिजर्वेशन के खिलाफ हो गया
अब आगे क्या होगा…?
यदि चीफ मिनिस्टर देवेंद्र फडणवीस किसी भी तरीके से मराठों को रिजर्वेशन दे देते हैं, क्योंकि कोर्ट अपनी सीमाओं में बंधा है और वहां से ऐसा होना नामुमकिन है, तो महाराष्ट्र में गदर मच जाएगी। अराजकता फैल जाएगी। दंगे हो जाएंगे। यह दंगे धार्मिक नहीं बल्कि जातीय दंगे होंगे। एक तरफ मराठा और दूसरी तरफ ओबीसी क्योंकि ओबीसी समाज कभी नहीं चाहेगा कि उन्हें प्राप्त रिजर्वेशन का एक बड़ा हिस्सा किसी दूसरे के पास चला जाए। इस मामले में ओबीसी का साथ दलित देंगे। महाराष्ट्र जातीय नफरत और दंगों के कगार पर खड़ा है। यह ज्वालामुखी कभी भी फट सकती है। जातीय मतभेद और नफरत सिर्फ किसी जगह विशेष पर नहीं होगा यह दिमाग में समा जाएगा। सड़कों पर, दफ्तरों में, गलियों में, पुलिसकर्मियों में, आम सामाजिक समुदाय में दिमागी तौर पर फैले इस नफरत को संभालना मुश्किल हो जाएगा। दिवाली के बाद ऐसी स्थितियां उभर सकती हैं।
मास्टर माइंड
इससे पहले दलित और ब्राह्मण दलितों और ब्राह्मणों के बीच संघर्ष हो चुका है। पुणे के भीमा कोरेगांव के मामले में दलित और ब्राह्मण आमने सामने थे। चूंकि ब्राह्मण पलटवार करने में संयमित रहे, जिसके चलते मामला शांत हो गया। हिंसक होने का नतीजा दलितों को भुगतना पड़ा। अब मामला मराठों और ओबीसी का होगा। जहां पर दलित ओबीसी का साथ देंगे। ऐसी स्थिति में चुप कोई नहीं बैठेगा। दोनों ही तरफ से वार और पलटवार होगा।
राज्य में तनावपूर्ण वातावरण होगा तो इसके जिम्मेदार होंगे शरद पवार। पहले उन्होंने दलितों को भड़काया भीमा कोरेगांव दंगा हुआ। किसानों को भड़काकर सड़कों पर उतारा। दुग्ध उत्पादकों को भड़काया अशांति फैलाई। अब मराठों को भड़का दिया। शरद पवार महाराष्ट्र की राजनीति को तनावपूर्ण बनाना चाहते हैं। केओस बनाए रखना चाहते हैं। वह अस्थिरता और अविश्वास फैलाना चाह रहे हैं। अनसरटेनिटी अनस्टेबिलिटी वह वातावरण तब तक चाहते हैं जब तक चीफ मिनिस्टर देवेंद्र फडणवीस हैं।
बीजेपी उनके इस प्लान की हवा निकाल सकती थी यदि वह किसी गैर ब्राह्मण को महाराष्ट्र का चीफ मिनिस्टर बना देती। रावसाहेब दानवे,चंद्रकांत पाटील विनोद तावडे और पंकजा मुंडे (आदि ऐसे कई नाम हैं जिनको चीफ मिनिस्टर बनाए जाने के बाद मराठा कार्ड की कोई अहमियत नहीं रह जाती! बीजेपी वैसे भी ब्राह्मण वादियों की पार्टी मानी जाती रही है और उस पर एक ब्राह्मण का चीफ मिनिस्टर होना, मराठा कार्ड खेलने वालों के लिए सुनहरे मौके से कम क्या है।