ख़ुद को राष्ट्रीय परिदृश्य के लिए तैयार कर रहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी साल 2024 के लोकसभा चुनाव को लक्ष्य में रखकर बहुत तेज़ी से भाजपा का राष्ट्रीय विकल्प बनने की तैयारी में जुट गयी हैं। बहुत दिलचस्प बात है कि इस सीढ़ी पर पहुँचने के लिए उन्होंने देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस के आधार और नेताओं को अपनी ताक़त बनाने का रास्ता अपनाया है। राज्यों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) कांग्रेस के नेताओं को बड़ी तेज़ी से तोड़ रही है और राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस नेता, ख़ासकर जी-23 ग्रुप के वरिष्ठ नेता अब खुलकर नेतृत्व के ख़िलाफ़ बोलने लगे हैं। बहुत-से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि कांग्रेस के बिना भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन फिर भी ममता अपनी राह तेज़ी से बढ़ती दिख रही हैं।
कुछ हफ़्ते पहले तक ममता बनर्जी दिल्ली यात्रा में हर हालत में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से मिलती थीं। लेकिन अब स्थितियाँ बदली दिख रही हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि अभी तक टीएमसी को भाजपा के ख़िलाफ़ मोर्चे का महत्त्वपूर्ण हिस्सा कहने वाली कांग्रेस खुले रूप से टीएमसी की निंदा कर रही है और टीएमसी कांग्रेस की। टीएमसी ने तो पिछले दिनों ढेरों विपक्षी नेताओं को तोडक़र अपने साथ मिलाया है। समझा जा सकता है कि ममता की नज़र कांग्रेस पर है और यही कारण है कि हाल के कई वर्षों में पहली बार उन्होंने गाँधी परिवार पर अप्रत्यक्ष निशाना साधा है।
नहीं भूलना चाहिए कि ममता कांग्रेस संस्कृति से उपजी नेता हैं। वह कांग्रेस के तौर-तरीक़ों से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं। ममता राष्ट्रीय स्तर पर अपनी क्षमताओं को जानती हैं। उन्हें मालूम है कि वह फ़िलहाल अपने बूते देश भर में कुछ ज़्यादा करने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसी कोशिश वह सात-आठ साल पहले भी कर चुकी हैं; जब उन्होंने चंडीगढ़, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल और दूसरे राज्यों में टीएमसी के विस्तार के लिए बड़े पैमाने पर पहल की थी। लिहाज़ा कांग्रेस के लोगों को तोडक़र वह राज्यों में अपनी ज़मीन तैयार करने की वैसी ही कोशिश कर रही हैं; जैसे असम, अरुणाचल और दूसरी जगह भाजपा ने की थी।
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि भाजपा के बाद सिर्फ़ कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है, जिसका राष्ट्रव्यापी जनाधार है। ममता कांग्रेस के बराबर का जनाधार नहीं रखतीं। लेकिन इसके बावजूद देश में संघर्ष करने वाली महिला नेता के रूप में उनकी अपनी छवि है। उन्हें जुझारू नेता माना जाता है; ख़ासकर इस बार पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के बाद उनकी छवि निखरी है। हालाँकि राष्ट्रीय नेता बनने के लिए सिर्फ़ इससे काम नहीं चलेगा। हाल में कांग्रेस से पिछले महीनों में बाहर हुए अशोक तँवर, कीर्ति आज़ाद, गोवा के फ्लेरियो जैसे नेता ममता की पार्टी में शामिल जरूर हुए हैं; लेकिन यह ऐसे नेता नहीं जो ममता की पार्टी की अपने-अपने राज्यों में अपने बूते ज़मीन खड़ी कर सकें।
ऐसे में निश्चित ही ममता के सामने एक कठिन चुनौती तो है ही। हाँ, उनके सलाहकार यह मान रहे हैं कि कांग्रेस में राहुल गाँधी के नेतृत्व के प्रति विद्रोह जैसी स्थिति बनती है, तो वहाँ से नेता टीएमसी में ही आएँगे। हाल में 25 नवंबर को मेघालय में टीएमसी ने कांग्रेस को तब बड़ा झटका दिया था, जब उसने उसके 17 में से 12 विधायक तोड़ लिये थे। इससे पहले अगस्त में सुष्मिता देव भी कांग्रेस को छोडक़र टीएमसी में चली गयी थीं। ऐसे में साफ़ है कि टीएमसी और कांग्रेस के रिश्ते आगे ख़राब होंगे।
ममता बनर्जी से हाल में जब देश के सबसे बड़े उद्योगपति अडानी मिले थे, देश भर में इसकी चर्चा हुई थी। इसे राजनीतिक रूप से भी काफ़ी महत्त्व दिया गया था। राजनीतिक गलियारों में यह भी चर्चा रही कि ममता से अडानी का मिलना भविष्य के राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य की तरफ़ इशारा करता है। मीडिया ने भी इस मुलाक़ात को काफ़ी तरजीह दी। टीएमसी ने भी इसे काफ़ी प्रचारित किया। बहुत-से लोग यह मानते हैं कि ममता की इस रणनीति के पीछे राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर का दिमाग़ है। दिलचस्प यही है कि प्रशांत कुछ समय पहले तक कांग्रेस में जाने को लेकर चर्चा में थे। अब उन पर कांग्रेस को नुक़सान पहुँचाकर ममता की मदद करने का आरोप है। ममता बनर्जी का लक्ष्य साफ़ है- राष्ट्रीय राजनीति में उभरकर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचना।
ममता देश के काफ़ी दलों के बड़े नेताओं के क़रीब हैं। विपक्ष में भाजपा के कट्टर विरोधी राजनीतिक दल मोदी और भाजपा के ख़िलाफ़ एक सशक्त चेहरा लाना चाहते हैं। निश्चित ही भाजपा विरोध में ममता बनर्जी किसी भी रूप में राहुल गाँधी से कमतर नहीं हैं। राहुल गाँधी की ही तरह वह भी मुखर मोदी विरोधी मानी जाती हैं। हालाँकि दिल्ली की राजनीति में सर्वोच्च स्तर पर पहुँचने की इस कोशिश को बहुत-से लोग ममता के एक मरीचिका के पीछे भागने जैसा मानते हैं और उनका मानना है कि कांग्रेस काफ़ी कमज़ोर दिखने के बावजूद अभी भी देश भर में भाजपा के बाद देश की सबसे ज़्यादा पसन्द की जाने वाली पार्टी है।
हालाँकि कुछ अन्य जानकार कहते हैं कि कांग्रेस हाल के वर्षों में कमज़ोर होने के बाद फ़िलहाल उसमें सुधार के लक्षण नहीं दिख रहे। उसके पास स्थायी अध्यक्ष तक नहीं। इन राजनीतिक जानकारों के मुताबिक, राहुल गाँधी अभी भी अध्यक्ष का पद सँभालने के लिए तैयार नहीं। लिहाज़ा ममता बनर्जी के राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित होने की बहुत सम्भावनाएँ हैं। लगातार तीसरी बार बंगाल चुनाव जीतने के बाद ममता को लग रहा है कि उनके प्रधानमंत्री बनने का वक़्त आ रहा है। लिहाज़ा वह राज्य की राजनीति करने के बावजूद अब दिल्ली पर भी नज़रें टिका रही हैं।
याद रहे इसी साल जुलाई में ममता जब दिल्ली आयी थीं, तो सोनिया गाँधी से मिली थीं। यह माना जाता है कि उन्होंने भविष्य की केंद्रीय राजनीति पर चर्चा की थी। हालाँकि आज की स्थिति यह है कि भाजपा से लड़ाई के साथ-साथ उन्होंने कांग्रेस से लडऩा शुरू कर दिया है। ममता बहुत सोच-समझकर अपने क़दम बढ़ा रही हैं। बहुत-ही चतुराई से ममता ने कांग्रेस को निशाने पर रखा है। वह कांग्रेस के लोगों को तोडक़र यह सन्देश देना चाहती हैं कि टीएमसी और ख़ुद वह (ममता) भाजपा के विकल्प के सबसे बड़े दावेदार हैं।
इस प्रयास में सबसे ज़्यादा सावधानी ममता दिखा रही हैं, वो यह है कि वह क्षेत्रीय दलों को बिल्कुल नहीं छेड़ रहीं। इसका सीधा संकेत है कि वह इन क्षेत्रीय दलों को अपने मोर्चे का सहयोगी बनाना चाहती हैं। निश्चित ही यह रणनीति कारगर साबित हो सकती है; क्योंकि कई राज्यों में इन क्षेत्रीय दलों की सरकारें हैं। ऐसे में यदि ममता साल 2024 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय विकल्प के लिए लड़ती हैं, तो यह क्षेत्रीय दल उनके लिए बहुत बड़ी ताक़त बन सकते हैं। ख़ासकर यह इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इन क्षेत्रीय दलों के ज़्यादातर नेता राज्य की राजनीति से बाहर नहीं जाना चाहते।
हालाँकि इन विपक्षी दलों में शिव सेना जैसे महत्त्वपूर्ण दल ने टीएमसी (ममता) के साथ जाने की बजाय कांग्रेस को प्राथमिकता दी और ममता के साथ जाने से इन्कार कर दिया है। शिवसेना के नेता संजय राउत ने जिस तरह कांग्रेस नेता प्रियंका गाँधी से इसी महीने मुलाक़ात की है, उसके बाद यह माना जा रहा है कि उनकी पार्टी कांग्रेस (यूपीए) के साथ जाने की तैयारी में है। यदि ऐसा होता है, तो महाराष्ट्र में ममता के लिए शरद पवार की एनसीपी ही सहयोगी के रूप में बचेगी।
पवार और ममता पहले से राजनीतिक रूप से नज़दीक रहे हैं। पवार इस साल के शुरू में स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ आने से पहले ममता के लगातार सम्पर्क में रहे थे और उनकी भेंट भी हुई थी। इस सिलसिले में ग़ैर-कांग्रेसी तीसरे मोर्चे को लेकर भी गुफ़्तुगू होती रही है। दरअसल बहुत-से राजनीतिक विश्लेषक जब यह कहते हैं कि बिना कांग्रेस के भाजपा को सत्ता से बाहर करने की कल्पना नहीं की जा सकती, तब विपक्ष में ही ममता जैसे नेताओं का मानना है कि कांग्रेस अब कमज़ोर हो चुकी है और उसके राष्ट्रीय विकल्प की सख़्त ज़रूरत है।
ममता और उनके समर्थक मानते हैं कि टीएमसी और वह (ममता) बख़ूबी यह भूमिका निभाने की क्षमता रखते हैं। हाल के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में टीएमसी ने ममता बनर्जी के नेतृत्व में जिस तरह भाजपा को बड़ी पटखनी दी थी। उसके बाद ममता बनर्जी के प्रति विपक्ष के कुछ दलों की यह राय बनी है कि बतौर नेता वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देने की क्षमता रखती हैं। हालाँकि उनकी पार्टी का कांग्रेस जैसा देशव्यापी जनाधार अभी नहीं है, जो जीत के आड़े आ सकता है।
इसके अलावा एक और तथ्य है। वह यह कि देश की जनता आमतौर पर तीसरे मोर्चे को चुनावों में उतना विश्वसनीय नहीं मानती रही है, जितना कांग्रेस को, जिसने हाल के तमाम वर्षों में बहुमत न होने के बावजूद देश को स्थायी सरकारें दी हैं और बेहतर काम किये हैं। ममता के नेतृत्व में यदि कोई तीसरा मोर्चा बनता है, तो उसे अपनी विश्वसनीयता चुनाव से पहले ही साबित करनी होगी। उसे यह भरोसा भी जनता को दिलाना होगा कि यह मोर्चा महज़ महत्त्वाकांक्षी नेताओं का टोला नहीं। याद रखिये सन् 1977 में जब जनता पार्टी में सर्वसम्मति से मोरारजी देसाई जैसा क़द्दावर नेता प्रधानमंत्री बना था, तब भी कुछ महीने बाद ही उसमें खटपट शुरू हो गयी थी। इसके बाद जब भी ग़ैर-कांग्रेसी विपक्ष की सरकारें बनीं, तब-तब अधबीच ही गिर गयीं। इससे तीसरे मोर्चे के पास जनता के बीच निश्चित ही विश्वसनीयता का संकट रहा है। हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि ममता बेहद जुझारू नेता हैं; लेकिन विश्वसनीयता की जनता को गारंटी तो उन्हें देनी ही पड़ेगी।
ममता शरद पवार का साथ चाहती हैं। सत्ता में आने की सूरत में पवार को वह राष्ट्रपति बना सकती हैं। हालाँकि यदि पवार की राजनीति पर नज़र दौड़ाएँ, तो वह पलटने वाले नेता रहे हैं। सोनिया गाँधी का मुखर विरोध करते हुए जब शरद पवार सन् 1999 में कांग्रेस से बाहर चले गये थे, तो किसी ने सोचा तक नहीं था कि वह कुछ ही समय बाद उसी कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए में शामिल हो जाएँगे, जिसका नेतृत्व सोनिया गाँधी करती हैं। उसके बाद सन् 2019 में उनका शिवसेना के साथ जाना भी कई को आश्चर्य में डाल गया था। लेकिन इसके बावजूद शरद पवार की देश की राजनीती में पैठ, अन्य विपक्षी दलों के नेताओं पर पकड़ और राजनीतिक जोड़-तोड़ में महारत उन्हें एक मज़बूत नेता बना देती है।
देश की जनता ने सन् 1989 से 2014 तक 25 साल केंद्र में गठबन्धन की राजनीति का प्रयोग किया था और उसके बाद इससे मुँह मोड़ लिया। विपक्षी एकता का प्रयोग तब तक चला, जब तक सत्ता की सबसे बड़ी दावेदार पार्टी कांग्रेस रही। ऐसे में भाजपा यदि अगले चुनाव तक विश्वसनीयता खोती है, तो कांग्रेस निश्चित ही जनता के दिमाग़ में रहेगी; क्योंकि राज्यों में भी आज की तारीख़ में जहाँ भाजपा और कांग्रेस आमने-सामने हैं, जनता ने तीसरे मोर्चे की जगह इन दोनों में से ही किसी एक को विकल्प के रूप में चुना है। इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, छत्तीसगढ़ ख़ासतौर पर हैं। यह ठीक है कि ममता कमज़ोर हुई पड़ी कांग्रेस के ख़िलाफ़ क्षेत्रीय दलों को अपने साथ लाने की कोशिश कर सकती हैं; लेकिन उसे तो उन्हें भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट करना है। बहुत-से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि कांग्रेस के नेताओं के टूटने के बावजूद वही देश की दूसरी बड़ी पार्टी बनी रहेगी; क्योंकि उसके पास कमोवेश सभी राज्यों में नेताओं की कमी नहीं है। दूसरे कांग्रेस को जनता मतदान गाँधी परिवार के नाम पर भी करती है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। ऐसे में कांग्रेस का बड़ा कार्यकर्ता वर्ग, जो ज़मीन पर सक्रिय रहता है; गाँधी परिवार के साथ ही जाना चाहेगा।
हाल के महीनों में ममता की पार्टी में विभिन्न राज्यों के नेता शामिल हुए हैं। पश्चिम बंगाल में तीसरी बार जीतने के बाद ही ममता की निगाहें राष्ट्रीय राजनीति पर गयी हैं। क्षेत्रीय दल, जिनमें ख़ुद ममता की टीएमसी भी शामिल है; किसी भी सूरत में नहीं चाहते कि कांग्रेस पुनर्जीवित हो। यह दल जानते हैं कि कांग्रेस की मज़बूती उनकी ही क़ीमत पर होगी और यदि ऐसा होता है, तो उनके सामने अस्तित्व के संकट की नौबत तक आ सकती है। लिहाज़ा विपक्षी गठबन्धन के लिए उनकी प्राथमिकता कांग्रेस की जगह टीएमसी हो सकती है। हालाँकि इनमें से बहुत लोग यह मानते हैं कि कांग्रेस के सहयोग के बिना भाजपा को हराना लगभग असम्भव होगा।
निशाने पर कांग्रेस
ममता बनर्जी के खेल से भाजपा उतनी परेशान नहीं, जितनी कांग्रेस है। कारण यह कि वह कांग्रेस की जगह लेना चाह रही हैं। एक के बाद एक दूसरे राज्यों के कांग्रेस के नेता टीएमसी में लगातार शामिल हो रहे हैं। इससे कांग्रेस की परेशानी बढ़ गयी है। टीएमसी ने मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा समेत कांग्रेस के 12 विधायकों को पार्टी में शामिल करके कांग्रेस को बड़ा झटका दिया। टीएमसी आज त्रिपुरा और मेघालय जैसे राज्यों में कांग्रेस की जगह मुख्य विपक्षी दल बनने की स्थिति में है। हाल में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कीर्ति आजाद और हरियाणा के पूर्व कांग्रेस नेता अशोक तँवर, जिन्हें राहुल गाँधी का कभी बहुत करीबी माना जाता था; भी टीएमसी का दामन थाम चुके हैं। जदयू के पूर्व सांसद पवन वर्मा भी टीएमसी में जा चुके हैं। बिहार के ही यशवंत सिन्हा पहले ही टीएमसी में शामिल हो चुके हैं। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश जैसे देश के सबसे बड़े राज्य के अलावा तमिलनाड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, बिहार, केरल, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में टीएमसी का आज की तारीख कोई नामलेवा नहीं।
यह माना जाता है कि इन नेताओं की ज्यादा दिलचस्पी राज्य सभा का सदस्य बनने की है। अकेले पश्चिम बंगाल से राज्यसभा की 16 सीटें हैं। हाल में टीएमसी ने गोवा में कांग्रेस छोडक़र आये लुईजिन्हो फलेरियो को बंगाल से राज्य सभा का उम्मीदवार बना दिया था। इस तरह टीएमसी को राज्यों में ऐसे नेता मिल रहे हैं, जिनमें पार्टी जीरो है। जनाधार बढ़ाने के लिए इससे सीधा और सस्ता रास्ता और क्या हो सकता है? यहाँ टीएमसी एक चतुराई यह भी कर रही है कि उसका ध्यान ऐसे राज्यों पर ज्यादा है, जहाँ भाजपा और कांग्रेस की सीधी भिड़ंत है। इसका मतलब यह है कि कांग्रेस की कमजोरी को टीएमसी अपनी ताकत बनाना चाहती है। टीएमसी को लग रहा कि कांग्रेस के उपेक्षित नेता उसके पाले में आ सकते हैं।
टीएमसी का उद्घोष
हाल में जब ममता बनर्जी ने विधानसभा का उपचुनाव जीता था, टीएमसी के कार्यकर्ताओं ने कहा कि ममता बनर्जी को देश अब प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है। टीएमसी ने बा$कायदा आधिकारिक रूप से बयान दिया कि ‘न तो कांग्रेस और न ही राहुल गाँधी नरेंद्र मोदी का विकल्प हैं, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी भाजपा विरोधी दलों का सबसे विश्वसनीय और इकलौता चेहरा होंगी।’ खुद ममता बनर्जी ने उपचुनाव में जीत के बाद कहा था- ‘भवानीपुर में 47 फ़ीसदी ग़ैर-बंगाली मतदाता हैं। मुझे सभी के मत मिले। यहाँ गुजराती, मारवाड़ी, बिहारी और उडय़िा भाषी लोग रहते हैं।’
ज़ाहिर है यह कहने के पीछे ममता का आशय राष्ट्रीय छवि का सन्देश देने का रहा होगा। तृणमूल के प्रवक्ता सांसद सुखेंदुशेखर रॉय का कहना है- ‘राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी गठबन्धन को लेकर सबसे पहले ममता बनर्जी ने आवाज़ उठायी है। कांग्रेस चुप रह सकती है, पर हम नहीं। क्योंकि तृणमूल एक राजनीतिक दल है; एनजीओ नहीं।’
ममता की जीत पर समाजवादी अखिलेश यादव से लेकर शरद पवार, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन, झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से लेकर कांग्रेस नेताओं- कमलनाथ और आनंद शर्मा तक ने बधाई दी। फ़िलहाल देश में कांग्रेस नेता राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री मोदी के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा सक्रिय नेता माना जाता है। वह कमोवेश हर मुद्दे पर मोदी पर टिप्पणी करते हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि राहुल गाँधी को आज विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा माना जाता है। लेकिन उनके पार्टी अध्यक्ष का पद न सँभालने पर सत्ता पक्ष (भाजपा) ही नहीं, विपक्ष के नेता भी सवाल उठाते हैं। यहाँ तक कि कांग्रेस नेता भी चाहते हैं कि राहुल गाँधी ज़िम्मेदारी की चुनौती स्वीकार करें। ऐसे में ममता के रणनीतिकारों को लगता है कि इस ख़ाली जगह को भरने के लिए ममता ही श्रेष्ठ विकल्प हैं। टीएमसी भाजपा के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के समानांतर भाजपा मुक्त भारत का नारा लगा चुकी है। हालाँकि उसका ज़्यादा प्रयास ख़ुद को विपक्ष के क्षेत्रीय क्षत्रपों में एक नेता के रूप में स्थापित करना है। वैसे ममता टीएमसी को राष्ट्रीय दल के रूप में देखने की कल्पना करती हैं। राजनीतिक जानकर मानते हैं कि दक्षिण भारत में टीएमसी के लिए ज़्यादा सम्भावनाएँ नहीं हैं। लिहाज़ा टीएमसी का ध्यान उत्तर भारत पर है। आम आदमी पार्टी और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ममता फ़िलहाल साथ रखे हैं। लेकिन दोनों के राजनीतिक हित कई राज्यों में टकराते हैं। पंजाब में ज़रूर टीएमसी आम आदमी पार्टी को समर्थन दे सकती है।