इधर देश, दुनिया में फैली कोरोना महामारी के भारत में दस्तक देने से चिन्ता में डूबा था, उधर मध्य प्रदेश में सरकार गिराने-बनाने का खेल चल रहा था। खेल चला और सरकार गिरी भी, और बनी भी। करीब 15 महीने बाद जनादेश से बनी सरकार की जगह अचानक एक नयी सरकार बन गयी। तीन बार मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान फिर सत्ता के सिंहासन पर विराजमान हो गये और कमलनाथ सरकार की विदाई हो गयी।
शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री बनने के अगले दिन 112 विधायकों के समर्थन से बहुमत भी साबित कर दिया। कुल 107 विधायकों वाली भाजपा में समाजवादी पार्टी, बसपा और निर्दलीय मिलाकर पाँच अतिरिक्त विधायक भी पहुँच गये। यह सारा खेल कमलनाथ सरकार गिराने तक सीमित नहीं था, बल्कि राज्यसभा चुनाव भी बाकायदा नज़र में रखे गये थे। ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा ने ऐसे समय में साधा, जब राज्यसभा के चुनाव भी थे। यह कहा जाता है कि सिंधिया को खुद को राज्यसभा टिकट को लेकर आशंका थी या उन्हें लगता था कि कमलनाथ उन्हें दिग्विजय सिंह के बाद दूसरी प्राथमिकता वाली सीट पर चुनाव लड़वाएँगे। लेकिन इससे भी क्या होता। कांग्रेस के पास दो सीटें आसानी से जीतने लायक विधायक थे। सिंधिया राज्य सभा में जाते ही। कमलनाथ तो तीसरी सीट के लिए भी भाजपा विधायकों से समर्थन की बात कह रहे थे। लेकिन सिंधिया को जाना था, सो वह गये ही। अब वह भाजपा में हैं। पार्टी उन्हें राज्य सभा का टिकट दे चुकी है। जीत भी जाएँगे। लेकिन क्या भाजपा के मध्य प्रदेश के नेता उन्हें इतनी आसानी से स्वीकार कर लेंगे? यही बड़ा सवाल है।
लोकतंत्र के खतरे की घंटी
मध्य प्रदेश में राजनीति का यह ड्रामा देश के लोकतंत्र के लिए खतरे की एक और घंटी है। कथित बागी 22 विधायकों को जिस तरह भाजपा रातोंरात हवाई जहाज़ में उड़ाकर भोपाल से बेंगलूरु ले गयी, उससे ज़ाहिर होता है कि भाजपा ने यह सारा काम बहुत सोच-विचार करके किया। कमलनाथ ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को एक पत्र लिखकर बाकायदा पूरी तफ्सील से बताया कि कैसे उनके (कांग्रेस) विधायकों को बेंगलूरु ले जाया गया। लेकिन इससे होना क्या है? शिवराज ने सरकार तो बना ली, लेकिन उनका आने वाला रास्ता इतना आसान नहीं है। उनके सामने बहुत-सी चुनौतियाँ रहेंगी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि 22 कांग्रेस विधायकों के बागी हो जाने के बाद दिये इस्तीफों से खाली हुई सीटों पर अब उन्हें उपचुनाव का सामना करना होगा। दो सीटें पहले से ही खाली हैं। लिहाज़ा 24 सीटों पर उपचुनाव होना है। यह उपचुनाव अगले छ: महीने में करवाने ज़रूरी हैं। कांग्रेस से गये 22 विधायकों को सिंधिया का समर्थक बताया जाता है और उन सभी को अब उपचुनाव में उतरना होगा। यह शिवराज सिंह के लिए ही नहीं, बल्कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए भी बड़ी चुनौती होगी। महज़ 15 महीने पहले विधानसभा चुनाव में लोगों ने शिवराज सिंह को ही नकारकर कांग्रेस को सत्ता सौंपी थी। कमलनाथ मुख्यमंत्री बने थे। हालाँकि, सिंधिया भी इस पद के दावेदार थे।
शिवराज के सामने चुनौती
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के सामने अब दोहरी चुनौती है। पहले से भाजपा में बैठे उनके विरोधियों की कतार में एक और ताकतवर नेता- ज्योतिरादित्य सिंधिया भी आ खड़े हुए हैं। लिहाज़ा सरकार चलाने के लिए उन्हें एक से ज़्यादा विरोधी गुटों को साधना होगा। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के अलावा कैलाश विजयवर्गीय, नरोत्तम मिश्रा, प्रभात झा, राकेश सिंह, राजेंद्र शुक्ल और गोपाल भार्गव जैसे दिग्गज नेता उनके सामने हैं। अब सिंधिया एक अलग ध्रुव के रूप में आ जुड़े हैं। इसके साथ ही उपचुनावों की चुनौती का भी उन्हें मुकाबला करना होगा।
उपचुनावों पर रहेगी नज़र
भाजपा के लिए 24 सीटों के उपचुनाव बहुत अहम रहेंगे। सिंधिया को अपने सभी लोगों को टिकट दिलवाना होगा, ऐसे में भाजपा के जो लोग आज तक उनके इलाकों में पार्टी के लिए काम करते रहे, उनका क्या होगा? यदि टिकट न मिलने से वे बागी हो गये तो भाजपा क्या करेगी? कांग्रेस इन उपचुनावों में पूरी ताकत झोंकेगी। भाजपा में थोड़ी सी भी गड़बड़ हुई तो शिवराज को लेने-के-देने पड़ जाएँगे। भाजपा को कमसे कम 10 सीटें जितनी पड़ेंगी। नहीं तो सरकार के लिए ही खतरा पैदा हो सकता है।