विस्थापन व्यक्ति के जीवन के जड़ को न सिर्फ़ काट देता है, बल्कि उसका सब कुछ छीन लेता है। विस्थापन के दर्द और उससे होने वाली हानि की कल्पना सिर्फ़ वहीं कर सकता है, जिसने अपना घर, अपना ठिकाना खो दिया हो। भारत में आज़ादी के समय से ही बड़ी संख्या में विस्थापन और पलायन शुरू हुई और आज तक अनवरत जारी है। भारत में लोकतांत्रिक होने का दावा करने वाली सभी सरकारों ने साल दर साल लोगों को विस्थापन के ज़ख़्म देती रही हैं।
इंटरनेशनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर द्वारा सन् 2008 से सन् 2019 तक के डाटा के आधार पर जारी किये गये आँकड़े पर ग़ौर करें, तो भारत में हर साल लगभग 36 लाख लोग विस्थापित होते हैं, जो विश्व में सबसे ज़्यादा है। प्राकृतिक रूप से समृद्ध मध्य प्रदेश में भी हर साल लोगों को लगातार विस्थापन का ज़ख़्म मिल रहा है। सन् 1980 में शुरू हुई नर्मदा घाटी परियोजना के तहत बनने वाले लगभग 29 बड़े बाँध परियोजनाओं से विस्थापित लाखों लोगों का ज़ख़्म अभी तक भरा नहीं है; लेकिन मध्य प्रदेश सरकार फिर बाँध और सिंचाई परियोजनाओं द्वारा लाखों लोगों को विस्थापित करने एवं कई हज़ार एकड़ सिंचित भूमि तथा वन भूमि डुबोने की तैयारी में है। फरवरी-मार्च बजट सत्र में मध्य प्रदेश सरकार ने बताया कि प्रदेश में 475 सिंचाई एवं बाँध परियोजनाओं पर कार्यवाही चल रही है, जिसमें नर्मदा कछार में 24500 करोड़ रुपये ख़र्च होंगे, जबकि 44,600 करोड़ रुपये से अधिक लागत की केन-बेतवा लिंक परियोजना के प्रथम चरण में बाँध, लिंक नहर तथा पॉवर हाउस का निर्माण कार्य इस वर्ष से प्रारम्भ करने का लक्ष्य है।
सरकार का दावा है कि उक्त बाँध और सिंचाई परियोजनाओं से 28 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई क्षमता विकसित होगी; लेकिन इन परियोजनाओं से विस्थापित होने वाले लोगों और नष्ट होने वाले जंगलों और डूबने वाले सिंचित भूमि का स्पष्ट आँकड़ा सरकार द्वारा नहीं दिया जा रहा है। यदि केन-बेतवा लिंक परियोजना की बात करें, तो सरकारी आँकड़ों में बताया गया है कि इस परियोजना में 12,000 लोगों को विस्थापित किया जाएगा, जबकि यह वास्तविक संख्या अधिक है। वनक्षेत्र में पडऩे वाले कई गाँवों के लोगों को इसमें शामिल नहीं किया गया है। वन अधिकार के दावों का निपटारा नहीं किया गया है। विस्थापित होने वाले कई गाँवों के लोगों को अभी तक भी नहीं बताया गया है कि इस परियोजना में उनके गाँव, घर, खेत डूबने वाले हैं और अभी तक पुनर्वास नहीं किया गया है। जो गाँव डूबने वाले हैं उन्हें कहाँ बसाया जाएगा, मुआवज़ा कितना मिलेगा, पुनर्वास, विस्थापन पर अभी तक लोगों की मंशा अनुसार सहमति नहीं बन पायी है। ग्रामसभा की परमीशन नहीं ली गयी है।
आदिवासियों के अधिकारों के लिए लडऩे वाले छतरपुर ज़िले के सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. अरुण यादव कहते हैं कि ‘इस परियोजना के सम्बन्ध जानकारी देने के लिए प्रभावित गाँवों में एक भी ग्राम सभा का आयोजन नहीं किया गया। साथ ही आदिवासी क्षेत्रों में लोगों के अशिक्षित होने का लाभ उठाया जा रहा है। विस्थापन के नाम पर गाँव का विकास रुक गया। गाँव में बिजली नहीं है, न निकलने का रास्ता, न स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधा। लोगों की यही माँग रही कि विस्थापन से पहले उन्हें बताया जाए कि उन्हें कितना मुआवज़ा मिलेगा, वह कहाँ विस्थापित हो रहें हैं; ताकि वह विकास की कल्पना कर सकें।’
केन-बेतवा लिंक परियोजना में हज़ारों-लाखों पेड़ों के कटान हो रहा है। बड़ी संख्या में जंगलों को नष्ट किया जा रहा है। ऐसे में पर्यावरण के लिए काम करने वाली संस्थाएँ भी चिंतित हैं। पेड़ों के कटान से बदलती जलवायु का सबसे ज़्यादा असर पर्यावरण पर हो रहा है। प्राकृतिक चीज़ों के अंधाधुन इस्तेमाल और पेड़ों के अवैध कटान ने पर्यावरण को न सिर्फ़ गहरे संकट में डाल दिया है, बल्कि इससे उत्पन्न स्थिति के कारण ही अभी असमय बारिश, ओले, आँधी-तूफ़ान से किसानों की फ़सलें बर्बाद हो रही हैं।
पत्रकार सत्येंद्र सिकरवार का मानना है कि ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना से पन्ना-छतरपुर ज़िले की ख़ूबसूरती ख़त्म हो जाएगी। केन एक ऐसी नदी है, जिसमें जंगलों-पहाड़ों से पानी आता है। जब केन का पानी बेतवा नदीं में जाएगा, तो केन नदी सूख जाएगी और पानी की जगह धूल उड़ेगा। लोगों को जंगलों से मिलने वाली सुख-सुविधाएँ ख़त्म हो जाएँगी, सिंचाई की ज़मीन व बिजली का सपना अधूरा रह जाएगा।’ केन-बेतवा लिंक परियोजना की तरह ही हरदा-बैतूल-होशंगाबाद ज़िले की मोरंड-गंजाल नदी सिंचाई परियोजना और छिंदवाड़ा ज़िले की सिंचाई कॉम्प्लेक्स परियोजना में भी बड़ी संख्या में आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा है और जंगलों को नष्ट किया जा रहा है। वनग्रामों में निवासरत कई आदिवासियों-जंगलनिवासियों के वनाधिकार के दावे मान्य नहीं किये गये हैं और उन्हें इस परियोजना में पुनर्वास के फ़ायदे भी नहीं दिये जा रहे हैं।
जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) संगठन के लिए काम करने वाले बंटी उईके का कहना है कि ‘हरदा, बैतूल और होशंगाबाद में नर्मदा नदी की सहायक नदियों गंजाल एवं मोरंड नदी पर जो सिंचाई परियोजना प्रस्तावित है, इसके सम्बन्ध में प्रभावित होने वाले हज़ारों लोगों से कोई अनुमति नहीं ली गयी है। इस परियोजना में लोगों के घर, ज़मीन, खेत के साथ ही बड़े स्तर पर जंगल भी डूब जाएँगे। ग्रामवासियों ने इस परियोजना को अभी तक अनुमति नहीं दी है। इस परियोजना में जो जंगल डूबने वाले हैं, उनमें अभी तक सामुदायिक वन अधिकार के दावों का निपटारा नहीं किया गया है। इस परियोजना से प्रभावित गाँव के लोगों ने इस परियोजना को लगातार आंदोलनों, विरोध प्रदर्शन एवं आवेदन पत्रों द्वारा नामंज़ूर कर रहे हैं, अत: ग्रामीणों की कब्र पर इस परियोजना का शिलान्यास नहीं किया जाना चाहिए।’ मोरंड-गंजाल सिंचाई परियोजना में वनांचल का का$फी बड़ा एरिया आता है। इसमें क़ीमती सागौन के पेड़ भी लगे हैं। इस परियोजना से तीन ज़िलों- हरदा, होशंगाबाद और बैतूल के लगभग 2371 हेक्टेयर में फैले जंगलों का डूब में आना तय है। इस परियोजना में तीनों ज़िलों के 23 गाँवों के लोग प्रभावित होंगे।
वहीं छिंदवाड़ा ज़िले में सिंचाई कॉम्पलेक्स परियोजना के तहत संगम बाँध-1, संगम बाँध-2, जामघाट बाँध, पलासपानी बाँध, रामघाट बैराज एवं जोगिनी बैराज प्रस्तावित हैं। इस परियोजना से कोहटमाल, कोहट रैयत, बीजागोरा, तिकाड़ी, पीपलगाँव, बोरगाँव, भंवारी, संगम दीप, मेहलारी बाकुल, मेहलारी वनग्राम, बडग़ोना वनग्राम, अड़वार, हिवरा वासुदेव, आंजनी, इकलबिहरी, दुधा, राजोराकला, मोहखेड़ समेत दर्ज़नों गाँव प्रभावित होने वाले हैं। ये सभी गाँव संविधान की पाँचवीं अनुसूची के अंतर्गत आते हैं, जिन्हें संविधान में पावर दी गयी है कि इन गाँवों में किसी भी परियोजना को ग्रामीणों की अनुमति के बगैर प्रस्तावित नहीं किया जा सकता हैं। फिर भी नियमों का उल्लंघन कर इस परियोजना को अंजाम दिया जा रहा है।
छिंदवाड़ा ज़िले के जयस अध्यक्ष महेंद्र परतेती का मानना है कि ‘प्रभावित होने वाले दर्ज़नों गाँव के लोगों के जीवन को अंधकारमय होने से बचाया जाना चाहिए। संगम बाँध परियोजना से आदिवासियों की पैतृक भूमि डूब में चली जाएगी, संविधान की पाँचवीं अनुसूची के तहत जो उन्हें अधिकार और सुरक्षा मिले हैं, वह सब कुछ ख़त्म हो जाएगा। उनकी पहचान संस्कृति, परंपरागत व्यवस्था गम्भीर रूप से प्रभावित होगी। अत: संगम बाँध परियोजना को निरस्त किया जाना चाहिए।’ नीमच ज़िले के सिंगोली क्षेत्र में बांणदा बाँध परियोजना से 1000 से ज़्यादा आदिवासी परिवारों के जीवन पर ख़तरा मंडराने लगा है। बाँध परियोजना में आनेवाले जिस भूमि पर आदिवासी कई दशकों से खेती कर रहे हैं, उन भूमियों का उन्हें पट्टा नहीं दिया गया है, और उस भूमि का कोई मुआवज़ा भी नहीं दिया जा रहा है। कई आदिवासी परिवारों की निजी भूमि, घर, खेत बाँध परियोजना में जा रही है। पुश्तैनी कृषि भूमि, गोचर भूमि, धार्मिक स्थल, खेल मैदान सार्वजनिक हेतु भूमि भी बाणदा बाँध परियोजना में जा रही है। जिससे आदिवासी इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं। हालोन बाँध से मंडला एवं बालाघाट ज़िले के अधिकतर विस्थापित परिवार आज भी पुनर्वास का इंतज़ार कर रहे हैं।
पन्ना ज़िले में रूंझ मध्यम सिंचाई परियोजना के प्रभावित गाँवों, जिनमें से 90 प्रतिशत आदिवासी हैं की शिकायत है कि बाँध निर्माण कार्य का 60 प्रतिशत पूरा हो जाने के बावजूद भी उन्हें मुआवज़ा नहीं दिया गया है। पिछले पाँच वर्षों से प्रभावित लोग मुआवज़े का इंतज़ार कर रहे हैं। पिछले पाँच साल से अधिकारी टालमटोल कर रहे हैं। लोगों का कहना है कि बाँध लगभग पूरा हो गया है, जल्द ही हमारे घर जलमग्न हो जाएँगे। हमारे पास घर या ज़मीन या आजीविका कमाने का कोई स्रोत नहीं है, हम कहाँ जाएँ। धारा-144 लगाकर लोगों को विरोध प्रदर्शन करने से रोका जा रहा है। पावर फाइनेंस कॉर्पोरेशन, दिल्ली और नर्मदा बेसिन प्रोजेक्ट्स कम्पनी लिमिटेड के बीच हुए अनुबंध के बाद 99 गाँवों के लगभग 55,000 लोगों पर विस्थापन का ख़तरा बढ़ गया है। इनमें लगभग 50 गाँव आदिवासियों के हैं, जहाँ लगभग 30,000 आदिवासी रह रहे हैं। लॉकडाउन का फ़ायदा उठाकर इस परियोजना का अनुबंध किया गया था, ताकि विरोध न हो।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि मध्य प्रदेश सरकार अब तक नर्मदा घाटी परियोजना के लगभग एक लाख परिवारों का तो ठीक से पुनर्वास कर नहीं पायी है, बरगी बाँध से 162 गाँवों के विस्थापितों को 30 साल बाद भी व्यवस्थित नहीं कर पायी, ऐसे में विभिन्न नये बाँध और सिंचाई परियोजनाओं में लगभग एक लाख से अधिक लोगों को विस्थापित कर कैसे उनका पुनर्वास होगा।
प्रदेश में विभिन्न बाँध परियोजनाओं एवं सिंचाई परियोजनाओं एवं इसके तहत बनने वाले छोटे-बड़े बाँधों को प्रस्तावित करने से पूर्व इन परियोजनाओं के तहत प्रभावित होने वाले लोगों से सहमति नहीं ली जाती है, जिससे प्रदेश की एक बड़ी आबादी विस्थापन का दंश झेल रही है, सही पुनर्वास नहीं होने एवं बसने के लिए सरकार द्वारा ज़मीन उपलब्ध नहीं कराये जाने के कारण हज़ारों का परिवारों का अस्तित्व समाप्त हो गया, वे दर-दर की ठोकर खाने, शहरों की स्लम बस्तियों में रहकर निम्नतर जीवन जीने को बाध्य हो रहे हैं। ऐसे में सरकार की
मंशा पर सवाल उठता है कि क्या हज़ारों परिवारों की कब्र पर इन परियोजनाओं को अंजाम दिया जाना चाहिए?