यह तो सर्वविदित है कि पाकिस्तानी सत्ता का केंद्र सेना मुख्यालय यानी जनरल हेड क्वार्टर (जीएचक्यू) रावलपिंडी है। लेकिन पाकिस्तान में क्रिकेटर से राजनेता बने प्रधानमंत्री इमरान खान ने चीन के बैनर तले तुर्की, ईरान और मलेशिया के साथ नये गठबन्धन को मज़बूत करने के लिए अपने घनिष्ठ मित्र सऊदी अरब से रिश्ते खत्म करने का फैसला किया है।
दोनों देशों के बीच खटास आने के बाद सऊदी अरब ने पाकिस्तान के साथ लम्बे समय के लिए कर्ज़ कर तौर पर माँग के हिसाब से पेट्रोल देने के कुछ बिलियन डॉलर के करार को पिछले दिनों खत्म कर दिया। इससे दोनों सहयोगियों के बीच रिश्तों की खाई बढ़ गयी।
पाकिस्तान को लगता रहा है कि वह परमाणु सम्पन्न देश है और क्षेत्र में इस्लामी सरकार का प्रतिनिधित्व करता है; इसलिए अरब दुनिया को उसकी ज़्यादा ज़रूरत है। आश्चर्यजनक यह भी है कि दोनों देशों के बीच मज़बूत रक्षा और वित्तीय रिश्ते रहे हैं। पाकिस्तानी सेना की एक ब्रिगेड सऊदी अरब की राजधानी रियाद में तैनात है। इसने अरबों को आधुनिक युद्ध के लिए प्रशिक्षण तक दिया है।
पाकिस्तान के बारे में ऐसा माना जाता है कि स्थापित विदेश नीति में बदलाव के लिए जीएचक्यू फैसला करता है और इसमें चीन का असर न हो, ऐसा सम्भव नहीं है। इससे पहले इस तरह का असर अमेरिकी-अरब एजेंडे के हिसाब से होता था। देश में प्रधानमंत्री एक कठपुतली की तरह है, असल में विदेश नीति बदलने का निर्णय तो सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा ही करते हैं। देश के अधिकांश राजनेताओं को भ्रष्ट लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टाचार के आरोपों में फँसा दिया गया। इस तरह बाजवा देश के एकमात्र शासक हैं। वह पाकिस्तान को अंतत: चीनी प्रभाव की ओर ले जा रहे हैं; खासकर जब कोविड-19 को लेकर अमेरिका और चीन एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। चीन को इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी घेरा जा रहा है।
लंदन में पाकिस्तानियों द्वारा संचालित एक लोकतंत्र समर्थक चैनल ने तो इमरान खान को बेशर्म, बेगैरत और गद्दार जैसे शब्दों से सम्बोधित किया। उन्होंने खान के परिवार में भ्रष्टाचार के इतिहास की भी पड़ताल की। इसमें बताया गया कि उनके पिता को तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो के शासन-काल में घूस लेने के जुर्म में सरकारी नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। इसके अलावा अपने देश से बाहर रहने वाले अधिकांश पाकिस्तानी गृह युद्ध के लिए अपनी सेना को ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं, जिससे पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर एक अलग देश बांग्लादेश बना। वह तो यहाँ तक कहते हैं कि बाजवा और उनके कठपुतली खान, अंतत: बलूचिस्तान को चीन को सौंप सकते हैं।
अमेरिका ने भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ इन देशों के हालात को लेकर गहराई में जाने का दावा करके लगातार दबाव बनाया और वह जीएचक्यू को आश्वस्त करने में कामयाब रहा कि चीन की तुलना में अमेरिका उसके लिए ज़्यादा विश्वसनीय सहयोगी और संरक्षक है। उसे अब पश्चिमी देशों या अरब की ओर देखने की ज़रूरत नहीं है। इस बीच चीन ने भी सऊदी अरब का भारी-भरकम कर्ज़ भुगतान करने के लिए पाकिस्तान को भारी वित्तीय मदद दी है। ईरान-चीन के बीच समझौता होने के साथ शायद पाकिस्तान की ईंधन की ज़रूरत की भरपाई बिना किसी दिक्कत के पूरी हो सकती है। इससे उसकी सऊदी अरब पर निर्भरता की आवश्यकता नहीं होगी।
इससे पहले मध्य-पूर्व में सत्ता समीकरणों में बदलाव की शुरुआत तब हुई थी, जब सितंबर 2019 में सऊदी के अरामको के अबकैद और खराइस में तेल के कुओं पर ड्रोन से हमले किये गये थे। ऐसा माना जाता है कि ये हमले ईरान की ओर से कराये गये। हालाँकि यमन के हूती विद्रोहियों ने हमले किये जाने का दावा किया था। सऊदी अधिकारियों ने बताया था कि इस हमले में ईरानी मिसाइलों और बमों का इस्तेमाल किया गया था।
पाकिस्तान अब तुर्की और मलेशिया के साथ नये गठजोड़ करने की कोशिश कर रहा है। इससे पहले उसने यमन, इराक और लीबिया के क्षेत्र में विवादों पर तटस्थ रहने की नीति अपनायी थी।
जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तान की नीति का समर्थन करने से इस्लामिक देशों के संगठन (ओआईसी) के इन्कार किये जाने के बाद अरब दुनिया से उसकी निराशा बढ़ गयी। सेना के अपने आकलन में चीन के साथ क्षेत्र में पाकिस्तान की बड़ी और मुखर भूमिका का अहसास हुआ। इससे यह भी पता चलता है कि जीएचक्यू ने देश में मूक आवाज़ों को नज़रअंदाज़ करने का भी फैसला किया है। नज़म सेठी जैसे राजनीतिक मामलों के जानकारों ने आगाह किया था कि ऐसा कदम पाकिस्तान के लिए आत्मघाती होगा, यदि वह चीन के साथ गठबन्धन के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे अपने विश्वसनीय सहयोगियों को छोड़ता है। उनका आकलन था कि संयुक्त राज्य अमेरिका की वित्तीय और सैन्य शक्ति का मिलान करने में चीन को एक और दशक लगेगा।
अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकारों का मानना है कि पाकिस्तान को सऊदी अरब जैसे विश्वसनीय मित्र के साथ अपने सम्बन्धों को सुधारना होगा। हालाँकि उनमें से एक वर्ग इस बात से आश्वस्त है कि विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी की नाराज़गी सऊदी के लिए कर्ज़ वापसी की आवेगी प्रतिक्रिया नहीं थी; खासकर तब, जब देश गहरे वित्तीय संकट से जूझ रहा हो। यह भी बताया जा रहा है कि चीन को छोडक़र, पाकिस्तान के नये सहयोगी, मलेशिया और तुर्की देश की ज़रूरतों के लिए बहुत ज़्यादा वित्तीय सहायता देने की स्थिति में नहीं हैं। इसका मतलब है कि हमें सऊदी अरब के साथ अपने सम्बन्धों को लेकर पुनर्विचार करना होगा। यह भी सवाल किया जा रहा है कि पाकिस्तान को सऊदी अरब से नाराज़गी क्यों होनी चाहिए? जब चीन सऊदी अरब के साथ-साथ ईरान से भी अपने अच्छे सम्बन्ध बनाये हुए है। इस बीच चीन की रणनीति यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से पहले इस क्षेत्र में वह अपने नये गठबन्धनों को और मज़बूत बना ले। पश्चिमी देशों से इतर चीन इस बात के लिए उत्सुक है कि पाकिस्तान इस क्षेत्र में उसकी नीतियों को अपनाये।
कुल मिलाकर कह सकते हैं कि जीएचक्यू ने चीन की उस राय को गम्भीरता से लिया है; जिसमें कहा गया है कि चुनावों के बाद अमेरिका और चीन के बीच चल रहे व्यापारिक टकराव को खत्म करने के लिए नया दौर शुरू होगा, जिससे उनके व्यापारिक रिश्ते और मज़बूत होंगे।
(गोपाल मिश्रा नई दिल्ली स्थित स्वतंत्र स्तंभकार हैं।)