मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी सार्वजनिक सभाओं में बड़े ही अंदाज से भाषा का रंग दिखाते हैं। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने 2016 में शिडयूल कास्ट और शिडयूल ट्राइब के सरकारी कर्मचारियों को आरक्षण के आधार पर तरक्की देने में रोक लगाई थी।
इसके बाद इस समुदाय के सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की एक बैठक में बोलते हुए उन्होंने उन्हें भरोसा दिया कि हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद आरक्षण जारी रहेगा। चौहान ने खुली चुनौती दी ‘कोई माई का लाल आरक्षण खत्म नहीं कर सकता’।
इस सप्ताह मध्यप्रदेश के ज़्यादातर हिस्सों में अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति कानून में संशोधन पर बंद रहा। चौहान के पुराने निर्वाचन क्षेत्र विदिशा में आंदोलनकारियों ने टी-शर्ट पहन रखी थी जिस पर लिखा था ‘हम है माई का लाल’। काले रंग की टीशर्ट पर लिखी यह इबादत हर तरह मुख्यमंत्री के ही खिलाफ जाती थी। यह टीशर्ट राज्य के कई हिस्सों में पहने हुए आंदोलनकारी देखे गए। उधर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति कानून पर आंदोलन तेज होता गया।
भाजपा-कांग्रेस दोनों ही चिंता में
लेकिन इससे सिर्फ चौहान ही नहीं चिंतित हुए बल्कि पूरे राज्य में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति कानून पर चले ‘बंद’ आंदोलन की कामयाबी से सत्ता पार्टी भाजपा और विपक्षी कांग्रेस को सांप सूघ गया है। इन दोनों पार्टियों ने संशोधन को समर्थन दिया था। राज्य विधानसभा चुनाव दो महीने बाद ही होने हैं। राजनीतिक पार्टियां अब इस गुणा-भाग में पड़ गई हैं कि कैसे इस नई हालत से निपटा जाए। क्योंकि यह तो जंगल में आग की तरह फैल रही है और यह उनके वोटों पर भी असर डालेगी।
यह बंद भाजपा और कांगे्रस के नेताओं के खिलाफ लगभग एक पखवाड़े तक चले राज्य की सड़कों- गली स्तर के आंदोलन के समापन पर आयोजित था। रतलाम, मंदसौर, नीमच, खरगेस और ग्वालियर में घरों पर पोस्टर लगे थे जिन पर लिखा था कि घरों के मालिक ऊँची जातियों के हैं, इसलिए किसी भी नेता को जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कानून का समर्थक है उसे उनसे वोट नहीं मांगने चाहिए।
गलियों में विरोध
आंदोलनकारियों ने भाजपा के सांसद प्रभात झा और रूस्तम सिंह का मुरैना में काले झंडे दिखा कर स्वागत किया। कांगे्रस नेताओं में ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को भी राज्य के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन झेलना पड़ा। नौकरशाह से सांसद बने भागीरथ प्रसाद को भी भिंड में ऐसे ही प्रदर्शन से निपटना पड़ा। आंदोलनकारी केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के घर में घुस गए उन्हें उन्होंने चूडिय़ां भेंट की। आक्रामक भीड़ को भांपते हुए अशोक नगर के अनुसूचित जाति के विधायक गोपीलाल जाटव को एक बयान जारी करना पड़ा कि वे आंदोलनकारियों की मांग के पक्ष मे हैं।
मंदसौर से सांसद सुधीर गुप्त अपने इलाके में खासा विरोध झेल रहे हैं। भाजपा सांसद प्रहलाद पटेल और रिति पाठक को भी काले झंडों और नारों का सामना करना पड़ा। आंदोलनकारी खास तौर पर राजनीतिक बैठकों को निशाना बना रहे हैं। ग्वालियर में उन्होंने उस सभा को तितर-बितर करने की कोशिश की जिसमें भाजपा के महासचिव विनय सहस्त्रबुद्धे थे। प्रदर्शनकारियों ने एमजे अकबर और थावर चंद गहलोत का भी घेराव किया। यह पूरी स्थिति इतनी विस्फोटक थी कि कई राजनीतिज्ञ तो अपने इलाकों में जाने से ही घबड़ा रहे हैं।
चेहरा विहीन नेतृत्व
प्रशासन अलग चिंता में है। आरक्षण विरोधी आंदोलन में कहीं कोई चेहरे नहीं नजऱ आते। यह नेता विहीन आंदोलन है जिसे ऐसे संगठन चला रहे हैं जो राजनीतिक प्रणाली से अलग- थलग हैं। एक भीड़ जिसमें दो दर्जन लोग दिखते हैं और लगता है कि वे अराजक प्रवृति के लोग हैं। उन्होंने छह सितंबर को बंद का आहवान किया। ये लोग बहुत खिसियाए और डरे हुए थे कि बंद कामयाब होगा या नहीं। कारण बगैर नेतृत्व वाली भीड़ को नियंत्रण कर पाना आसान नहीं होता।
मध्यप्रदेश में आरक्षण विरोधी आंदोलन की कामयाबी की सबसे बड़ी वजह यह है कि इसके पीछे सक्रिय भूमिका रही है सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के संगठन की जिसमें जनरल, ओबीसी और अल्पसंख्यक श्रेणी के लोग भी हैं। इसे एसएपीएके नाम से जाना जाता है।
यह संगठन तब बना था जब सरकार ने मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के उस फैसले को मानने से इंकार कर दिया था जब मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने फैसला दिया था कि तरक्कियों में आरक्षण आधार नहीं होगा। यह एक प्रतिक्रिया थी उन सरकारी संगठनों की जो जाति के आधार पर बने थे। मसलन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों का संगठन एजीएकेएस और एपीएकेएस जो ओबीसी जातियों का था।
बीएसपीके पूर्ववर्ती संगठन डीएस 4 ने भी अपनी शुरूआत सरकारी कर्मचारियों के संगठन बतौर की थी। एसएपीएकेएस ने अब अपनी राजनीतिक शाखा बना ली है और चुनाव आयोग के पास आवेदन कर दिया है। यह मध्यप्रदेश मेें 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगा। यदि यह न भी जीते तो भी यह उन क्षेत्रों में परेशानी खड़ी कर देगा जहां प्रत्याशी पांच हजार से कम वोट से जीतेंगे।
ऊँची जाति की डेमोग्राफी
ऊँची जातियों का राज्य में अलग-अलग जगह प्रभुत्व है। मसलन बहुत कम लोग ही यह जानते होंगे कि विंध्य प्रदेश में भारत के सबसे ज़्यादा ब्राहमण यानी चौदह फीसद हैं। यह जाति आधारित जनगणना हैं जो 1931 में कराई गई थी। इसके अनुसार- मध्य भारत में राजपूत सिर्फ नौ फीसद हैं- राजस्थान से भी ज़्यादा । सागर में कोई नहीं जीत सकता यदि जैनियों का समर्थन न हो।
ऊँची जातियों के मत में विभाजन का सबसे ज़्यादा असर भाजपा पर पड़ेगा बनिस्बत कांग्रेस के, क्योंकि यह पार्टी भोपाल में भी है और नई दिल्ली में भी। भाजपा को यह बर्दाशत करना होगा। इसे अलग अलग महसूस करना होगा, क्योंकि यह ऊँची जातियों के मतों पर इसकी पकड़ ढीली हो जाएगी।
कांगे्रस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘यह विकास जो दिख रहा है उसका नुकसान भाजपा और कांग्रेस दोनों को होगा। नुकसान की यह दर अस्सी फीसद भी हो सकती है। इस अंदेशे से कांग्रेस में कुछ राहत सी है।’