धारणाएं बनने में, खास तौर पर जब वे नकारात्मक और महिलाओं से जुड़ी हों, ज्यादा वक्त नहीं लगता. आज से दो दशक पहले जब मध्य प्रदेश में पंचायती राज के चुनाव में महिलाओं को एक तिहाई हिस्सेदारी दी गई तब कई तरह की बातें कही गई थीं. इनमें से ज्यादातर का लब्बोलुआब था कि यह महिलाओं को आरक्षण देने के नाम पर अप्रत्यक्ष रूप से पंचायतों पर पुरुषों का कब्जा बरकरार रखने की ही कोशिश है. उसी समय यह बताने के लिए कि महिलाएं राजनीति नहीं कर सकतीं ‘सरपंच पति’ जैसे जुमले गढ़े गए. इस बीच पंचायतों में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण भी दे दिया गया. ऐसे में इस धारणा की पड़ताल जरूरी है कि क्या सच में ग्रामीण स्तर पर महिलाओं के बीच से नेतृत्व उभारने की कोशिश कहीं पहुंची है?
मप्र में पंचायत का चुनाव हुए दो साल से भी अधिक का वक्त गुजर चुका है. मगर पंचायत चुनाव के आंकड़े एक जगह नहीं मिलने से राजनीति में महिलाओं की वजनदारी का पता नहीं चल पाता है. लिहाजा यह जानने के लिए तहलका ने पंचायती राज विभाग और चुनाव आयोग से मिले आंकड़ों को इकट्ठा करके जब छानबीन शुरू की तो कई चौंकानेवाले नतीजे सामने आए. सबसे पहला और सुखद निष्कर्ष तो यही मिला कि सालों से पंचायती राज में नेतृत्व की एक प्रभावशाली कड़ी बनी रही इन महिला सरपंचों और पंचों ने सियासत के कई पुरुषों व प्रतीकों को बदल दिया है. कई जगहों पर वे नेता बनने की परिभाषा और भाषा भी बदल रही हैं. यदि 1993 से लेकर अब तक की उनकी इस राजनीतिक यात्रा में जाएं तो उन्होंने इस बीच दो बड़ी पारियां खेली हैं. एक तो मप्र की इन महिलाओं ने सामान्य सीटों पर भी खासी संख्या में मर्दों को पटकनी देकर उनके भीतर से राजनीतिक श्रेष्ठता का भ्रम तोड़ा है.
उनकी दूसरी बड़ी उपलब्धि यह रही कि आरक्षित सीटों पर भी चुनाव दर चुनाव महिला उम्मीदवारों की संख्या बढ़ती रही. कम उम्र और अलग-अलग क्षेत्रों की महिलाएं मैदान में उतरीं, सामान्य महिला सीटों पर दलित या आदिवासी महिला सरपंच बनीं, उनमें से कई दूसरी और तीसरी बार जीतीं और उनमें भी कई जनपद सदस्य और जिला अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचीं. इससे जहां काफी हद तक सूबे का सियासी परिदृश्य बदला, काम-काज के तौर-तरीके भी बदले और कई जगह वे आम लोगों को यह एहसास दिलाने में कामयाब रहीं कि उनका नेतृत्व मर्दों से बेहतर हो सकता है.
गौर करने लायक तथ्य यह है कि राजनीति की पहली सीढ़ी कहे जाने वाले पंचायती चुनाव में कुल 3 लाख 96 हजार जन प्रतिनिधि चुने गए और जिनमें से 2 लाख 5 हजार महिलाएं हैं. इनमें भी आधे से अधिक महिलाएं या तो आदिवासी तबके की हैं या दलित और पिछड़े वर्ग की. मप्र में एक सरपंच 1,695 लोगों का प्रतिनिधित्व करता है और इस लिहाज से यहां की करीब 12 हजार महिला सरपंच पौने तीन करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं. इसका प्रभाव पंचायत के ऊपरी स्तर पर पड़ा है और पचास जिला पंचायत अध्यक्षों में से 30 यानी 60 फीसदी महिलाएं हैं. लेकिन इससे भी अधिक सुखद बात यह है कि यहां छह हजार से अधिक महिला जनप्रतिनिधि ऐसी हैं जिन्होंने सामान्य सीट पर मर्दों को मात दी. यह हाल तब है जब सामान्य सीट को पुरुष आरक्षित सीट बताकर गलत तरीके से महिलाओं को चुनाव लड़ने से रोकने की कोशिश की जाती है.
वहीं महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों के आंकड़े गवाह हैं कि चुनाव में महिला भागीदारिता का ग्राफ तेजी से बढ़ा है. यह सच है कि प्रदेश में जब पंचायती राज कायम हुआ था तब प्रभावशाली लोगों को महिला आरक्षण से काफी खुशी हुई. उन्होंने अपने घर या अपने खेतों में काम करने वाले मजदूर के घर की महिला को आगे करके न केवल राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी की बल्कि उनके नाम पर विकास का पैसा भी हड़पा. हालांकि एक तबका मानता है कि ऐसी बात केवल महिलाओं पर ही नहीं बल्कि उन मर्दों पर भी लागू होती हैं जिनके पद का फायदा कोई दूसरा उठाता है.
बावजूद इसके राज्य की महिलाओं में घूंघट खोलने की राजनीति का चलन बढ़ा है और चुनाव आयोग के कागजात देखें तो पहले सरपंच के चुनाव में महिला आरक्षित सीट पर महिला उम्मीदवार ढूंढ़े से नहीं मिलती थीं और 2010 के चुनाव में सरपंच के एक पद के लिए औसतन दस महिलाएं मैदान में उतरीं. तहलका ने दस जिलों की 1,760 महिला जनप्रतिनिधियों की पड़ताल की तो पाया कि इनमें से आठ सौ से अधिक महिलाओं की उम्र 35 साल से कम है. इनमें गैर आदिवासी इलाके के निजी स्कूलों और अस्पतालों में नौकरी करने वाली कई महिलाएं भी हैं. वहीं इस चुनाव में विदिशा की हिनौतिया और नरसिंहपुर की मड़ेसुर ऐसी पंचायतें हैं जिनमें सभी पदों के लिए महिलाओं को सर्वसम्मति से चुना गया है.
आम तौर पर महिला पंच-सरपंचों को यह कहकर खारिज कर दिया जाता है कि उन्हें राजनीति का तजुर्बा नहीं होता. लेकिन जो जमीनी हकीकत से वाकिफ हैं वे जानते हैं कि राजनीति में महिलाओं का काम करना कितना मुश्किल है. मप्र के बुंदेलखंड और बघेलखंड जैसे महिला हिंसा के लिए बदनाम इलाकों में पंचायती राज के बाद खास तौर से महिला सरपंचों पर जानलेवा हमलों और यौन हिंसा की वारदातों में इजाफा हुआ है. बीते कुछ सालों की वारदातों पर नजर दौड़ाएं तो बुंदेलखंड के छतरपुर जिले की महोई कला पंचायत की दलित महिला सरपंच ने जब विकास के लिए आया पैसा दबंगों को देने से मना किया तो उन्हें निर्वस्त्र कर गांव में दौड़ाया और पीटा गया. इसी तरह, शिवपुरी जिले की सिनावल कला की दलित महिला सरपंच के साथ कई दबंगों ने सामूहिक बलात्कार किया.
[box]जहां दलित या आदिवासी महिलाएं सरपंच बनीं, उन्होंने चुनावी राजनीति समझते हुए क्षेत्र की मतदाता सूची में अपने वर्ग के मतदाताओं के नाम जुड़वाए[/box]
वहीं टीकमगढ़ के पीपराबिलारी की सरपंच गुदीया बाई को दलित होने के चलते स्वतंत्रता दिवस के मौके पर झंडा नहीं फहराने दिया गया. हालांकि ऐसा ही सलूक होशांगाबाद की जिला पंचायत अध्यक्ष उमा आरसे के साथ भी हुआ लेकिन उन्होंने गणतंत्र दिवस पर झंडा फहरा ही दिया. वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर के मुताबिक, ‘ऐसे माहौल में सरकार को चाहिए कि वह विपरीत स्थितियों में काम करने वाली इन जनप्रतिनिधियों के लिए सहयोग और सुरक्षा का एक ढांचा बनाए.’
जाहिर है ऐसी चुनौतियों के बीच यदि कोई वंचित तबके की महिला कामयाब होती है तो उसके नेतृत्व की कीमत का कोई मुकाबला नहीं किया जा सकता. उदाहरण के लिए सागर जिले की पथरिया की दलित फूल बाई सामान्य महिला सीट पर दो सवर्ण महिला उम्मीदवारों को हराकर सरपंच बनीं और उसके बाद उन्होंने न केवल पुलिस के भ्रष्टाचार का एक मामला उजागर किया बल्कि पुलिस से पैसा और अनाज भी वापस लिया. इसी तरह विदिशा जिले के गंजबासौदा की दलित सरपंच नब्बी बाई ने दबंगों से पंचायत की जमीन खाली कराई और वहां दाह संस्कार का बंदोबस्त किया. इसी कड़ी में इन महिला पंच-सरपंचों ने अपने संगठन बनाकर कई सामूहिक लड़ाइयां भी लड़ीं और कानूनों को बदलवाने के साथ ही उन्होंने व्यवस्था को दुरुस्त बनाया. जैसे कि 2010 के चुनाव में महिलाओं के लिए आधा आरक्षण तय करने के बाद बड़े पैमाने पर उन पर हिंसा की आशंका जताई गई थी. ऐसे में महिला जनप्रतिनिधियों के सामूहिक दबाव के चलते राज्य सरकार ने 24 घंटे की ऐसी हेल्पलाइन सेवा शुरू की जिसमें चुनाव के दौरान कोई भी महिला शिकायत कर सकती थी.
इसी तरह, पंचायती राज का एक नियम यह था कि जिनके दो से अधिक बच्चे हैं वे पंचायत का चुनाव नहीं लड़ सकते. इसका सबसे बुरा असर महिलाओं पर ही पड़ा. कई महिलाओं के गर्भपात कराए जाने से उनके शरीर पर इसके दुष्प्रभाव पड़े. साथ ही इस नियम के चलते कई महिलाओं के लिए आरक्षण का कोई मतलब नहीं रह गया. लिहाजा महिला जनप्रतिनिधियों ने जब विरोध किया तो बीते चुनाव में सरकार को यह नियम हटाना पड़ा. जानकारों की राय में मप्र सरकार इन महिला सरपंचों को इसलिए अनदेखा नहीं कर सकती है कि गांव में रहने वाली 70 फीसदी आबादी की दुख और तकलीफों से वे रोज ही दो-चार हो रही हैं. लिहाजा सियासी समीकरणों के चलते राज्य सरकार की नजर में इनकी अहमियत बढ़ गई है.
घर से लेकर सरकारी दफ्तरों की अड़चनों के बीच यदि इन नई सरपंचों ने अपनी मंजिल तय की है तो इसलिए कि इस दौरान उन्हें चुनाव जीतना ही नहीं बल्कि अपनी तरह से पंचायत चलाना भी आ गया. राज्य सरकार में पंचायत एवं सामाजिक न्याय की प्रमुख शासन सचिव अरुणा शर्मा को इन महिला पंच-सरपंचों में जो खास बात नजर आती है वह है पर्यावरण और विकास के प्रति उनका नजरिया. शर्मा के मुताबिक, ‘स्वच्छता के बिना विकास अधूरा है और जिन पंचायतों में सफाई दिखाई देती है वहां पारदर्शिता भी दिखाई देती है.’ तहलका ने जब कई पंचायतों का मुआयना किया तो पाया कि पुरुष सरपंचों ने जहां निर्माण कार्यों को वरीयता दी है वहीं महिला पंच-सरपंचों ने मानवीय मुद्दों को अपने विकास का एजेंडा बनाया है. आम तौर पर शराबबंदी, बालिका शिक्षा, पानी, वृद्धावस्था पेंशन और राशन वितरण पर महिलाओं का अधिक ध्यान होता है और यही वजह है कि उन्होंने ऐसे कामों को सलीके से करते हुए यह साबित किया है कि वे किसी से कम नहीं. इस पूरी जद्दोजहद में जहां महिलाओं के भीतर मौजूद गुणों के चलते उनमें एक नई तरह का नेतृत्व उभरा है वहीं जिस शैली में उन्होंने वंचितों के विकास की राजनीति की है उससे एक नया रुझान भी आया है.
[box]महिला सरपंच बताती हैं कि वे सरकारी कर्मचारियों से बात करती हैं तो अकेली नहीं बल्कि औरतों के समूह के साथ जाती हैं ताकि सामने वाला उन्हें कमजोर न समझे[/box]
सतना जिले में मिरौवा पंचायत की सरपंच मुन्नी साकेत बताती हैं, ‘पंचायत में ऊंची जाति के लोगों का कब्जा होने के चलते हम लोगों की बात ही नहीं सुनी जाती थी. एक बार मेरा राशन कार्ड बनाने से मना कर दिया गया तब मैंने सरपंच बनने के बारे में सोचा. फिर जब चुनाव की तैयारी की तो पता चला मेरे साथ बहुत लोग हैं. सो आखिर मैं जीत ही गई.’ मुन्नी साकेत का नेतृत्व इसलिए अहम है कि जिस व्यवस्था में एक दलित महिला का राजनीति में प्रवेश वर्जित है वहां उनके वर्ग के लोगों ने उनके संघर्षों को सफलता दिलाई. यदि मुन्नी साकेत जैसी महिलाएं बदल रही हैं तो इसलिए कि उन्होंने चुनाव की मुहिम में भागीदारी से लेकर जीत की माला पहनने तक यह जान लिया है कि उनमें कुछ है जो उनके लोगों ने उन्हें चुना है. सरपंच बनने के बाद मुन्नी साकेत ने मतदाता सूची में कई दलित मतदाताओं के नाम जुड़वाकर अपने चुनावी क्षेत्र को और मजबूत बनाया है. वहीं पंच से सरपंच की कुर्सी तक पहुंचने वाली रीवा जिले की मउहरा पंचायत की कुसुमकली को वोटों का खेल समझ में आ गया है. वे बताती हैं कि किस तरह से जब इस पंचायत में 16 पंचों में से 9 महिलाएं जीतीं तो उन्होंने आपस में तय करके एक महिला को ही उपसरपंच बनाया.
सीधी जिले में पोस्ता पंचायत की आदिवासी महिला श्याम बाई का मामला दिलचस्प इसलिए है कि उन्हें जैसे ही पता चला कि पंचायत चुनाव की घोषणा हो चुकी है उन्होंने अपनी बकरियां बेचीं और प्रचार के पर्चे बंटवा दिए. उन्होंने तीन ट्रैक्ट्ररों से सैकड़ों लोगों को लेकर सरपंच पद के लिए अपना नामांकन दाखिल किया. इससे पूरे क्षेत्र में चुनावी माहौल गर्माया और श्याम बाई ने इस सामान्य महिला आरक्षित सीट पर भारी बहुमत से जीत हासिल की. पंचायत के चुनाव को लेकर श्यामबाई जैसी आदिवासी महिलाओं का जोश महिला नेतृत्व के नजरिये से एक शुभ संकेत है. वहीं रीवा जिले में देवगांव कला की सरपंच बेटी चौधरी ने रोजाना आठ घंटे पंचायत कार्यालय खोलकर जहां लोगों के सामने अपनी सहज हाजिरी दर्ज कराई है वहीं ग्राम सभा में सभी वंचित वर्गों की सुनवाई सबसे पहले करने की परंपरा शुरू की और राजनीतिक पकड़ बनाई. बेटी चौधरी की रणनीति बताती है कि वे हाशिये की राजनीति करके वापस लौटना चाहती हैं. यही नहीं जिस तरीके से झाबुआ जिले के बीस वार्डों वाली सारंगी पंचायत में आदिवासी महिला फुंदीबाई बीते डेढ़ दशक में तीन चुनाव लड़कर दो बार सरपंच बनीं और जिस शान से मंडला जिले की खापा पंचायत की सरपंच शिवकली बाई ने चौथी बार पंचायत का चुनाव जीतीं और जिला पंचायत सदस्य बनीं उसने जता दिया कि बात चाहे विकास के नारे की हो या सियासत में नाम कमाने की, वंचित तबके की महिलाएं किसी भी मामले में कमजोर नहीं हैं.
दरअसल इस तबके की महिलाएं काम-काज के चलते खेत-खलिहान से लेकर हाट-बाजारों तक खुली घूमती हैं और उनके सामने घूंघट, पर्दा या चारदीवारी नहीं है. ऐसी स्थिति में मौका मिलने के बाद जब सवर्णों द्वारा उन्हें जितना दबाया जा रहा है वे उतनी ही मुखर होकर उभर रही हैं. तहलका ने ऐसी कई महिला सरपंचों से बात की तो उन्होंने बताया कि जब वे दबंगों या सरकारी कर्मचारी से बात करती हैं तो अकेली नहीं बल्कि औरतों के समूह के साथ जाती हैं. इससे जहां सबको यह पता लगता है कि वे अकेली नहीं हैं वहीं उनके आसपास भी सुरक्षा का घेरा बना रहता है. वहीं कुछ महिला सरपंचों ने बताया कि वे ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए अपने साथ महिला पंचों और सरपंचों को जोड़कर एक निकाय की तरह काम करती हैं. जाहिर है यदि पंचायत राजनीति की बुनियाद है तो मप्र में महिलाएं पंचायत का चेहरा-मोहरा बन रही हैं. और नेतृत्व की लगाम जैसे-जैसे मर्दों से महिलाओं के हाथों में आ रही है वैसे-वैसे यहां नेतृत्व के मायने बदल रहे हैं. खुशी की बात यह है कि इस बदलाव की कड़ी में मर्दों का अहम ही नहीं टूट रहा है बल्कि कई जगहों पर वे उदार भी बन रहे हैं.
भले ही प्रेमचंद की मशहूर कहानी ‘पंच परमेश्वर’ के जरिए हमारी आंखों के सामने न्याय की बेदी पर अलगू चौधरी के रूप में एक पुरुष ही विराजता है. किंतु मप्र में पंचायत की इस आदर्श अवधारणा की पीठ पर आधे से अधिक महिलाओं के सवार होने के साथ ही तस्वीर बदलती हुई नजर आ रही है.