मज़दूर-सुरक्षा को मिले प्राथमिकता

भारत में रेड कारपेट से नीचे पाँव न रखने वाले आम लोगों की ज़िन्दगी कितनी सस्ती समझते हैं, यह बात किसी से भी छिपी नहीं है। उत्तराखण्ड की सिल्क्यारा सुरंग में फँसे 41 मज़दूरों को 400 घंटों की मेहनत के बाद निकाल लिया गया; यह एक बड़ी उपलब्धि रही कि सभी मज़दूर सुरक्षित बाहर आ गये। लेकिन उनके जीवन में जो ज़िन्दगी और मौत का ये समय था, उस दुर्दशा का एहसास कारपेट पर चलने वाले कभी नहीं कर सकेंगे।

दीपावली के दिन 12 नवंबर के दिन जब पूरा देश त्योहार मनाने के लिए जागा था, तब सुबह 5.30 बजे सिल्क्यारा सुरंग ढहने से इसमें 41 मज़दूर इसमें फँस गये थे। अब सिर्फ़ अपने फ़ायदे के लिए काम करने वाले सभी टीवी चैनल और अख़बार मज़दूरों के सुरक्षित आने को लेकर सबसे आगे बढ़-बढक़र इस ख़बर को भुना रहे हैं। लेकिन जब मज़दूर सुरंग में फँसे हुए थे, तब प्रधानमंत्री मोदी के फाइटर प्लेन में घूमने को पूरे दिन दिखाने और दिन-रात नकारात्मक ख़बरें चलाने वाले टीवी चैनल, छोटी-छोटी बेकार की खबरों पर दिन-रात चीखने वाले एंकर भी इस मामले को गम्भीरता से दिखाने से परहेज़ करते रहे। विपक्षी पार्टियों ने भी मोदी सरकार से इस पर सवाल नहीं पूछे। मज़दूरों के घर वाले परेशान रहे; लेकिन किसी ने उन्हें सांत्वना नहीं दी और न ही यह पूछा कि उनकी माली हालत क्या है?

हालाँकि ऐसा नहीं है कि मज़दूरों को बाहर निकालने की कोशिश नहीं हुई; लेकिन ये कोशिश तब शुरू की गयी थी, जब मज़दूरों के परिवार वालों और स्थानीय लोगों ने सुरंग में फँसे मज़दूरों को बाहर निकालने में प्रशासनिक लापरवाही देख हंगामा शुरू किया था। सुरंग की काफ़ी खुदाई के बाद सुरंग का आख़िरी 10-12 मीटर का हिस्सा काटना मुश्किल हो गया था, जिसे लेकर यह तय नहीं हो पा रहा था कि मज़दूरों को कब निकाला जा सकेगा। मज़दूरों को निकालने के लिए पाइप बिछाया गया, जिसे आख़िरी 10-12 मीटर में बिछाना बहुत मुश्किल हो गया था।

हालाँकि शुरू में इससे मज़दूरों को बाहर निकालना आसान नहीं लग रहा था; लेकिन सुरंग तक एक और सुरंग बनाने वाले मज़दूरों और इंजीनियर्स ने हार नहीं मानी। सुरंग में फँसे मज़दूर ज़िन्दा रहें, इसके लिए उन तक खाना-पानी पहुँचाया जाता रहा। सुरंग में मज़दूरों की हालत पर लगातार निगरानी भी होती रही। सुरंग में से मलबे को हटाने के लिए अमेरिकी निर्मित ऑगर ड्रिल मशीन का इस्तेमाल किया गया; लेकिन वही बीच में ख़राब हुई। आख़िर में मज़दूरों को हाथ वाली मशीनों से सुरंग का स्टील वाला हिस्सा काटना पड़ा। मैन्युअल ड्रिलिंग के काम में भारतीय सेना की कोर ऑफ इंजीनियर्स के मद्रास सैपर्स के जवान और प्रशिक्षित मज़दूर लगाये गये थे। बचाव कार्य में स्थानीय पुलिस, प्रशासन, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, आईटीबीपी, आरडीसीएल, ओएनजीसी, बीआरओ, एनएचएआई, भारतीय वायु सेना, भारतीय सेना, टेहरी जल विद्युत विकास निगम और सुरंग निर्माण के कई एक्सपर्ट जुटे रहे। मज़दूरों को बाहर निकालने आगे के हिस्से को काटकर मलबे में हाथ से ड्रिलिंग करनी मुश्किल हुई और हाथ से ही पाइप डालने पड़े, तो सुरंग के ऊपर से भी वर्टिकल ड्रिलिंग के लिए पहाड़ की चोटी में एक ड्रिल मशीन लगायी गयी। प्रशासनिक रिपोट्र्स के मुताबिक, ऊपर से क़रीब 86 मीटर पहाड़ काटना था। नीचे से हो रही कटाई पूरी होने तक ऊपर से भी क़रीब आधे से ज़्यादा कटाई की जा चुकी थी। नीचे से जो सुरंग काटी गयी है, उसमें आख़िरी 10-11 मीटर मज़बूत हिस्से की कटाई करना क़रीब 100 मीटर पहाड़ काटने के बराबर मुश्किल था। क्योंकि एक तो पहाड़ी क्षेत्र ऊपर से मौसम की मार ने मज़दूरों को सही-सलामत बाहर निकालने के काम को मुश्किल बना दिया था। इसके अलावा सुरंग के भीतर मिट्टी काफ़ी गीली और पथरीली थी। इसमें कटाई के दौरान पत्थर भी खिसकते रहे। ऊपर से मौसम बिगडऩे लगा था। सुरंग के निर्माण के दौरान लगाये गये मोटे-मोटे सरियों को भी काटना आसान नहीं था। सिल्क्यारा, बडक़ोट उत्तरकाशी के इलाक़ों में वैसे ही भारी बारिश और ज़्यादातर समय बर्फ़बारी होती है। बारिश होने से वहाँ की पहाड़ी मिट्टी धँसने लगती है। ऊपर से इस पहाड़ में सुरंग बना दी गयी है, जिसमें मज़दूर फँसे थे।

इस सुरंग से भी मज़दूरों को निकालने के लिए एक और सुरंग बनाने का काम काफ़ी जोखिम भरा और तनावपूर्ण था। उत्तराखण्ड सरकार और केंद्र सरकार ने इस बड़े अभियान की निगरानी रखी। उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी मौक़े का जायज़ा लेते रहे और उत्तरकाशी में एक अस्थायी कैम्प में मुख्यमंत्री दफ़्तर के लोग कार्यवाही सफल होने तक जुटे रहे। प्रधानमंत्री कार्यालय से भी बचाव कार्य की निगरानी होती रही।

एक बार तो सुरंग में फँसे मज़दूरों के परिवार वालों के सब्र का बाँध टूटने लगा था। क्योंकि बचाव दल द्वारा हर दिन मज़दूरों को सुरक्षित बाहर ले आने की नयी-नयी तारीख़ें दी जा रही थीं। मज़दूरों के बाहर आने का इंतज़ार लगातार बढऩे से मज़दूरों के परिजनों की साँसें अटकी थीं। हालाँकि दूर से मज़दूरों के परिवार के लोग और स्थानीय लोग मज़दूरों को निकालने की कोशिशों को देख रहे थे। सभी लोग भगवान से प्रार्थना करते रहे और सरकार से विनती कि वो अपने काम को सुरक्षित तरीक़े से जल्द-से-जल्द करे। ऐसे कई ख़तरों, दहशत और आशंकाओं के बीच 27 नवंबर को देर रात तक सभी 41 मज़दूरों को बाहर निकाल लिया गया। इस ख़बर के आते ही लोगों में ख़ुशी की एक लहर दौड़ गयी। टनल में आठ राज्यों के मज़दूर फँसे थे इनमें से झारखण्ड के 15, उत्तर प्रदेश के आठ, बिहार के पाँच, ओडिशा के पाँच, पश्चिम बंगाल के तीन, उत्तराखण्ड के दो, असम के दो मज़दूर हैं और हिमाचल प्रदेश का एक मज़दूर है।

इस दौरान सरकार पर लापरवाही के आरोप भी लगे। सुरंग काटने में लगे बचाव दलों पर भी आरोप लगे कि जिसके दिमाग़ में जहाँ से आ रहा है, वहाँ से गड्ढे खोद रहा है। क्योंकि दो मीटर की कटाई रहने तक सुरंग के अंदर की स्थिति किसी को नहीं मालूम थी कि स्थिति असल में क्या है? मज़दूरों के परिवार के लोग आश्वासनों पर विश्वास किये बैठे रहे।

जब तक मज़दूरों के बाहर सुरक्षित निकलने की सही और पक्की ख़बर नहीं मिली, तब तक कई सवाल उठे। जैसे कि वर्टिकल ड्रिलिंग देरी से क्यों शुरू की गयी? बचाव कार्य के लिए सही प्लानिंग क्यों नहीं हो सकी? क्या बचाव कार्य बिना सोचे-समझे शुरू किया गया? बचाव कार्य की रणनीति में बार-बार बदलाव क्यों किये जा रहे हैं? ड्रिल मशीनों के ख़राब हुए पाट्र्स को बदलने के लिए बचाव दलों को घंटों का इंतज़ार क्यों करना पड़ रहा है? विश्व गुरु छवि वाली सरकार बचाव कार्य के लिए विदेशी विशेषज्ञों और विदेशी मशीनों पर निर्भर क्यों है? बचाव कार्य में लगी टीमें हर दिन अलग-अलग डेडलाइन क्यों दे रहे हैं? मज़दूरों के परिवार को स्थिति के बारे में ठीक से जानकारी क्यों नहीं दी जा रही है? आदि-आदि।

भारत में पहले भी ऐसे कई सुरंग हादसे हो चुके हैं, जिनमें मज़दूरों की जान जा चुकी है। लेकिन सिल्क्यारा सुरंग मामले में अच्छी ख़बर यह रही कि सभी 41 मज़दूर सुरक्षित बाहर निकाल लिये गये। यह अब तक का सबसे लंबा और कठिन बचाव कार्य था, जिसमें लम्बे समय की कड़ी मेहनत के बाद सफलता मिली। लेकिन सवाल ये हैं कि सरकार की पहाड़ों पर इस प्रकार की गतिविधियों से क्या पहाड़ों की बनावट और प्राकृतिक सुंदरता में परिवर्तन नहीं आ रहा है? आज पहाड़ों पर सुरंगें और बाँध बनाने से पहाड़ों पर न सिर्फ़ मानव और वन्य जीवन ख़तरे में पड़ चुका बल्कि पहाड़ों के खिसकने, दरकने का ख़तरा भी बढ़ चुका है। जोशीमठ की घटना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। पहाड़ों पर किये जा रहे अध्ययनों से पता चलता है कि पहाड़ों पर भूस्खलन और अन्य आपदाएँ लगातार बढ़ रही हैँ। इसलिए पहाड़ों को नुक़सान पहुँचाने वाली परियोजनाओं से सरकारों को बचना चाहिए। साथ ही मज़दूर विकास की कड़ी का वो वर्ग हैं, जिनके कन्धों पर विकास की नींव पड़ती है। सरकारों को उनके जीवन का मोल समझते हुए उनकी सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए।