मज़दूर त्रस्त, सरकार मस्त!

सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासी मज़दूरों के अपने घरों को लौटने के बारे में 28 मई को एक विस्तृत अंतरिम आदेश पारित किया, जिससे इन प्रवासियों के सुरक्षित गंतव्य तक पहुँचने के लिए आशा की एक किरण जगी है। हालाँकि बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि शीर्ष अदालत के दिशा-निर्देश के मुद्दे किस हद तक केंद्र और राज्य सरकारी अनुपालन करती हैं। यह मामला 5 जून को फिर सुप्रीम कोर्ट के सामने आया और इसमें सर्वोच्च अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों से कहा कि प्रवासी मज़दूरों को अगले 15 दिन में अपने-अपने घर पहुँचा दिया जाए और राज्य मज़दूरों को रोज़गार भी दें।

25 मार्च को तालाबन्दी की घोषणा के बाद से देश में सडक़ों के किनारे तड़पते हुए और थके हुए प्रवासियों के हृदय-विदारक दृश्य देखे जा रहे हैं; जो अपने रोज़गार के लिए कभी घर से बाहर निकल गये थे और अब अपने मूल स्थानों तक पहुँचने के लिए पैदल यात्रा पर निकलने के लिए मजबूर हो रहे हैं। बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित इन प्रवासियों की दयनीय दुर्दशा को समझे बिना लॉकडाउन के बार-बार के विस्तार ने इन प्रवासियों के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़ा और अपने मूल स्थानों को लौटने के लिए मजबूर कर दिया। भारतीय अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ माने जाने वाले इन प्रवासी श्रमिकों को उनके योगदान के अनुरूप उचित सम्मान नहीं दिया जाता है। उस पर लॉकडाउन के अनियोजित कार्यान्वयन और गलत नीतियों के परिणामस्वरूप मानव निर्मित इस प्रतिकूलता के समय में, जब इन श्रमिकों ने अपने गंतव्य तक पहुँचने के लिए देश से थोड़ी सहायता माँगी, तो पूरा देश उन्हें भोजन, आश्रय और जाने के साधन प्रदान करने में विफल रहा।

प्रवासियों की दुर्दशा

कोरोना वायरस महामारी के मद्देनज़र 25 मार्च को जब महज़ चार घंटे के नोटिस के साथ लॉकडाउन लागू करने का ऐलान किया गया, उस समय भारत में लाखों अंतर्राज्यीय प्रवासी मज़दूर किसी भी सूरत में इसके लिए तैयार नहीं थे; जिससे उनके सामने संकट आ खड़ा हुआ। अप्रैल के मध्य में जब लॉकडाउन का विस्तार करने का ऐलान हुआ, तब इनमें से ज़्यादातर श्रमिकों ने फैसला किया कि वहाँ भूखे या कोरोना वायरस से मरने से अच्छा है कि किसी नौकरी और मज़दूरी और सार्वजनिक परिवहन के अभाव में वे समूहों में सैकड़ों मील दूर अपने घरों को लौट जाएँ। इन श्रमिकों को उनके गंतव्य तक ले जाने के लिए मई की शुरुआत में रेल या सडक़ मार्ग से परिवहन की कुछ व्यवस्थाएँ शुरू कर दी गयी थीं; फिर भी इन लोगों ने पैदल ही घरों को लौटना जारी रखा। इस बीच 28 मई को इस मामले पर स्वत: संज्ञान लेते हुए एक अंतरिम आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि इन प्रवासियों के लिए परिवहन व्यवस्था की जाए। एक अनुमान के अनुसार, भारत में करीब चार करोड़ प्रवासी श्रमिक हैं। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें, तो भारत में 138.8 करोड़ की वर्तमान आबादी में से कुछ 53.8 करोड़ असंगठित श्रमिक हैं और यह संख्या कृषि, खनन और सेवा क्षेत्रों में भी शामिल है। तुगलकी अंदाज़ और बिना योजना के फैसलों से जिस तरह इन प्रवासी श्रमिकों को बिना उनकी किसी गलती के गम्भीर संकट में डाल दिया गया, उसे केंद्र और राज्यों के बीच एक टकराव को जन्म दे दिया; जिसमें राज्य केंद्र को दोषी ठहरा रहे हैं और केंद्र राज्यों के सिर पर ठीकरा फोड़ रहा है।

अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिकों पर केंद्र और राज्यों के झगड़े के बीच कुछ विशेषज्ञों ने इस सम्बन्ध में संवैधानिक प्रावधानों पर ध्यान आकर्षित किया है। विशेषज्ञों के अनुसार, अनुच्छेद-217 में संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत सूची-1 के साथ साफतौर पर आइटम-

81 का उल्लेख करता है, जिसका अर्थ है- ‘अंतर्राज्यीय प्रवास और अंतर्राज्यीय क्वारंटीन’ केंद्र के तहत की शक्ति है। विशेषज्ञ बताते हैं कि लिहाज़ा सामान्य रूप से स्थिति से निपटने के लिए केंद्र सरकार अकेले ज़िम्मेदार होती है, और अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक निश्चित रूप से उसकी शक्ति और ज़िम्मेदारी का हिस्सा होते हैं। निस्संदेह राज्यों की शक्तियों और ज़िम्मेदारियों की सूची में अंतर्राज्यीय प्रवासियों का उल्लेख नहीं है। बहरहाल यह उन्हें पूरी तरह से नज़र अंदाज़ नहीं करता है। क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों ऐसे श्रमिकों और आने-जाने वालों के प्राप्तकर्ता हैं।

शक्तियों की समवर्ती सूची पर ध्यान आकर्षित करते हुए, जिस पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं और प्रशासन कर सकते हैं; कुछ विशेषज्ञों ने कहा है कि इस सूची में कुछ प्रासंगिक प्रविष्टियाँ हैं। जैसे कि आइटम-22, जिसमें ट्रेड यूनियनों, औद्योगिक और श्रमिक विवादों का उल्लेख है; जबकि आइटम-24 श्रम के कल्याण और सम्बद्ध मुद्दों का हवाला देता है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि इन प्रावधानों से बड़े पैमाने पर संगठित श्रमजीवी असंगठित श्रमिक लाभान्वित हुए हैं, जो पहले इससे वंचित रह जाते थे। शायद ही, यहाँ तक कि गृह मंत्रालय के कोविड-19 की स्थिति से निपटने के लिए आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 की धारा-6 (2)(द्ब) के तहत जारी किये गये आदेश में भी, सबसे ज़्यादा परेशान तबके और भूखे बेरोज़गार श्रमिकों की प्रमुख समस्याओं को नज़रअंदाज़ किया गया। यहाँ तक कि कथित थाली बजाओ और बत्ती बुझाओ जैसी कोरोना वॉरियर्स के प्रति आभार की अभिव्यक्ति के बावजूद वास्तविक योद्धाओं (प्रवासी मज़दूरों) को भुला दिया गया।

आॢथक पैकेज का झुनझुना

बहुप्रचारित आॢथक पैकेज में 20 लाख करोड़ रुपये शामिल हैं और इसे भारत की जीडीपी का 10 फीसदी बताया गया है, मुख्य रूप से कॉरपोरेट्स, एमएसएमई, बैंकों, वित्तीय संस्थानों की सहायता के लिए राहत और पुनर्वास का वादा करती है और इसका एक बहुत छोटा हिस्सा है, जो सबसे बुरी तरह प्रभावित असंगठित प्रवासी श्रमिकों के लिए है। यह 20 लाख करोड़ रुपये के आॢथक पैकेज का सिर्फ 0.175 फीसदी था, जिसे हाल ही में 0.155 फीसदी कर दिया गया है। प्रवासी श्रमिकों और छोटे किसानों के लिए आॢथक पैकेज के मद्देनज़र नकदी हस्तांतरण जैसे अधिक प्रत्यक्ष दृष्टिकोण पर लम्बे समय तक ऋण केंद्रित प्रस्तावों का पक्ष लेने वाले, पर्यवेक्षकों ने इसे ‘ऋण मेला’ कहा है, जो लॉकडाउन से सर्वाधिक प्रभावित आबादी के वर्गों को तत्काल राहत नहीं देता है। दूसरी िकश्त में घोषित 3.16 लाख करोड़ का आॢथक पैकेज नौ अलग-अलग चरणों का एक अजब मिश्रण है। प्रवासी श्रमिकों और शहरी गरीबों के लिए तीन, छोटे व्यापारियों और विक्रेताओं के लिए दो, किसानों के लिए दो, भारत के मध्यम वर्ग के लिए एक और एक रोज़गार कार्यक्रम, जिसमें वनीकरण के लिए अनिवार्य निधि का दोहन शामिल है। इसमें हज़ारों करोड़ रुपये जमा हुए हैं; लेकिन उसका उपयोग ही नहीं हुआ। हालाँकि अर्थशास्त्रियों और बाज़ार विश्लेषकों का कहना है कि इस वित्तीय वर्ष के लिए केंद्र का वास्तविक नकद परिव्यय बहुत कम होगा और यह 5,000 करोड़ रुपये से 14,750 करोड़ रुपये के बीच हो सकता है। वित्तीय विशेषज्ञ इन छोटे उपायों के प्रभावों या परिणामों के बारे में संदेह करते हैं। उनका मानना है कि यह पैकेज शायद ही लक्षित समूहों को त्वरित और आसान लाभ दे पाएँगे।

सत्ता में भाजपा के छ: साल

29 मई को भाजपा ने मोदी सरकार के छ: साल पूरे होने का कार्यक्रम अपनी अभूतपूर्व उपलब्धियों पर एक दृश्य-श्रव्य क्लिप जारी करके मनाया। दुर्भाग्य से यह उस घटना के कुछ ही घंटे के बाद हुआ, जिसमें 24 प्रवासी कामगारों की जान चली गयी। यह घटना बताती है कि मज़दूरों ने कितनी कठिन परिस्थितियाँ झेली हैं। भाजपा  के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ‘मोदी सरकार के छ: साल बेमिसाल’ शीर्षक से जारी किया गया जश्न का वीडियो सरकार के कोविड-19 संकट से निपटने या प्रवासी मज़दूरों को राहत का कोई ज़िक्र नहीं करता है, और केवल मोदी सरकार की पुरानी योजनाओं का ढिंढोरा पीटता है।

भाजपा की तरफ से इस तरह के एक महत्त्वपूर्ण मोड़, जब देश महामारी और इसके नतीजतन गम्भीर मानवीय संकट से निपटने के लिए कड़ी मेहनत कर रहा है; पर जश्न मनाने वाला वीडियो जारी करना हास्यास्पद ही कहा जाएगा। ऐसा मार्मिक दृश्य, जो  देश ने विभाजन के बाद कभी नहीं देखा; जिसने सोशल मीडिया पर भाजपा और केंद्र सरकार की आलोचना का रास्ता खोला है। एक ट्विटर उपयोगकर्ता ने टिप्पणी की- ‘अविश्वसनीय,  लोग मक्खियों की तरह मर रहे हैं और भाजपा का हैंडल अपनी छ: साल की सालगिरह का जश्न मना रहा है। शर्मनाक, बिलकुल बहरे और सत्ता के नशे में चूर।’ कई अन्य लोगों ने भी महसूस किया कि देश में कोविड-19 की संख्या इतनी ज़्यादा और चीन से भी ज़्यादा हो जाने के बीच वर्षगाँठ मनाना क्रूर है और सडक़ों पर पैदल चल रहे लाखों बेरोज़गार प्रवासी मज़दूरों और सडक़ों पर जान गँवाने वाले लोगों का मज़ाक उड़ाने जैसा है। इसे देखकर सदियों पुरानी कहावत याद आती है, जिसमें कहा गया था- ‘रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था।’

भविष्य का रास्ता

प्रवासी श्रमिकों के मानवीय संकट ने पर्याप्त कानून, वित्तीय संसाधनों और बिना पक्षपात के दृष्टिकोण के दीर्घकालिक नीति उपायों पर काम करने की आवश्यकता महसूस करवायी है, ताकि इस तरह की त्रासदी की पुनरावृत्ति न हो। इन श्रमिकों को आॢथक योद्धाओं के रूप में सम्मानित किया जाना चाहिए। कुछ विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि केंद्र सरकार को एक कानून के साथ सामने आना चाहिए, जो प्रत्येक प्रवासी कामगार की काम के साथ पहचान करे और इसमें वे लोग भी शामिल हों, जो मौसमी या पार्ट टाइम श्रमिक हैं। इन श्रमिकों को गरिमा के साथ जीने में सक्षम बनाने के लिए समय-समय पर तत्काल नकद राहत प्रदान करने की आवश्यकता होती है और डिजिटल युग में यह असम्भव नहीं है। बशर्ते सरकार ऐसा करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाये; ताकि वर्तमान असफलता की पुनरावृत्ति को रोका जा सके।

(लेखक न्यूज 24 के कार्यकारी सम्पादक हैं और यह उनके निजी विचार हैं।)