ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी को कम करने के लिए यूपीए सरकार की प्रमुख कार्यक्रम- महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा), जो मोदी 2.0 सरकार के पहले बजट में ही कटौती किये जाने से धन की कमी की वजह से हाँफ रही थी; अब लॉकडाउन में मानो उसे पंख मिल गये हैं। वास्तव में यह उन प्रवासी कामगारों की मदद करने के लिए दो जून की रोटी के लिए बेहद अहम है, जो सम्मान के साथ काम करके पैसा कमाना चाहते हैं। वे कोविड-19 के खौफ के चलते फिलहाल अपने मूल निवास की ओर लौटने को मजबूर हुए हैं और उनको तत्काल काम की भी तलाश है। 2019-20 के दौरान मनरेगा के लिए कुल 60,000 करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे, जो कि 2018-19 के पिछले वर्ष में योजना के लिए निर्धारित 61,084 करोड़ रुपये से भी कम थे।
कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने कहा मनरेगा जैसी क्रान्तिकारी पहल इसलिए की थी; क्योंकि गरीब से गरीब व्यक्ति को भी काम के बदले पैसे की गारंटी मिलती है। इससे वह भूखा न रह सके साथ ही अपने आपको सक्षम बनाये। यह तर्कसंगत है। क्योंकि यह उन लोगों के हाथों में सीधे बैंक खाते में पैसा पहुँचता है।
यह विचार आसान था। ग्रामीण भारत में किसी भी नागरिक को अब काम माँगने का कानूनी अधिकार था और सरकार द्वारा प्रदान की गयी न्यूनतम मज़दूरी के साथ एक साल में 100 दिनों के काम की गारंटी प्रदान की गयी। यह ज़मीनी स्तर पर भी बहुत जल्दी कारगर साबित हुआ। माँग के आधार पर काम का अधिकार कार्यक्रम, अपने पैमाने और वास्तुकला में अभूतपूर्व साबित हुआ, जिससे गरीबी उन्मूलन में भी मदद मिली। मनरेगा के लागू होने 15 वर्षों में लाखों लोग भूख और बदतर होती, ज़िन्दगी से अपने आपको बचाने में कामयाब रहे।
कोविड-19 महामारी और इससे होने वाली तकलीफ ने सरकार को पूरे घेरे में ला दिया है। अभूतपूर्व कठिनाई और पहले से ही मंदी के दौर से गुज़र रही सरकार, यूपीए के प्रमुख ग्रामीण राहत कार्यक्रम पर वापस आने के लिए मजबूर हुई। मुँह से बोलने से ज़्यादा काम की अहमियत कहीं ज़्यादा होती है और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की हाल ही में और इस कार्यक्रम के समग्र आवंटन में एक लाख करोड़ रुपये से अधिक की वृद्धि की तुलना में स्पष्ट रूप से ज़्यादा कुछ नहीं कहा गया है।
मई, 2020 में 2.19 करोड़ परिवारों ने मनरेगा अधिनियम के माध्यम से काम करने की माँग की, जो आठ वर्षों में किसी भी महीने के लिए सबसे ज़्यादा है। शहरों में लॉकडाउन के चलते या कामकाज ठप हो जाने से बेरोज़गार हुए श्रमिक बड़ी तादाद में शहरों और कस्बों से अपने गाँवों में लौटे हैं। ऐसे में रोज़गार से वंचित, असुरक्षित भविष्य का सामना करते हुए करोड़ों लोगों के सामने बड़े पैमाने पर मानवीय संकट खड़ा हो गया है। मनरेगा की अहमियत को कभी कम करके नहीं आँका गया, बल्कि संकट के इस दौर में अब यह कहीं ज़्यादा प्रभावी लग रही है।
2019-20 के बजट में मनरेगा के लिए बजटीय आवंटन में कमी की गयी थी। एक साल पहले यह 2018-19 में इसका बजट 61,084 करोड़ हो गया था; जो 2014-15 में 34,000 करोड़ था। 2014-15 को छोडक़र निरंतर इसके लिए बजट आवंटन में इज़ाफा किया गया था। बजट और शासन की जवाबदेही के गैर-लाभकारी केंद्र के अनुसार, मुद्रास्फीति के लिए समायोजित किये जाने पर आवंटन वास्तव में कम कर दिये गये।
इसमें कुछ शक पैदा होता है कि केंद्र मनरेगा योजना के लिए धन खर्च नहीं हो पा रहा था; क्योंकि जनवरी 2020 तक आवंटित धन का 96 फीसदी से अधिक पहले ही राज्यों द्वारा खर्च किया जा चुका था। पाँच साल में पहली बार मनरेगा के लिए कम बजट आवंटित किया गया था, जो पिछले साल के वास्तविक खर्च के बराबर था। बजट 2019-20 में, मनरेगा को पिछले वर्ष के दौरान 61,084 करोड़ के मुकाबले 60,000 करोड़ रुपये ही आवंटित किये गये थे।
मनरेगा के लागू होने के बाद से वास्तविक व्यय सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए इस योजना के लिए अनुमोदित बजटीय आवंटन से अधिक रहा है। उदाहरण के लिए 2011-12 में सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए बजट आवंटन 31,000 करोड़ रुपये था। लेकिन वास्तविक व्यय 37,072.82 करोड़ था। इसी तरह 2012-13 के लिए आवंटन 30,387.00 करोड़ था। लेकिन खर्च 39,778.29 करोड़ था। 2013-14 के दौरान इस योजना को 33,000 करोड़ रुपये आवंटित किये गये थे। लेकिन खर्च 38,511.10 करोड़ रुपये था।
2014-15 के लिए आवंटन 33,000 करोड़ पर स्थिर रहा, जबकि बाद में खर्च 36,025.04 करोड़ दर्ज किया गया। 2016-17 में इस योजना के लिए बजट को 48,220.26 करोड़ तक बढ़ाया गया था, जबकि वास्तविक व्यय 57,946.72 करोड़ हुआ। 2017-18 में एक साल बाद आवंटन घटकर 48,000 करोड़ हो गया। 2018-19 में बजट आवंटन को बढ़ाकर 61,084 करोड़ (संशोधित अनुमान) किया गया था। व्यय विवरण अभी तक इन वर्षों के लिए उपलब्ध नहीं है। लेकिन यह तथ्य कि अधिकांश धनराशि पहले ही समाप्त हो चुकी है, यह दर्शाता है कि फंड की कमी ने योजना को कठिन रूप से प्रभावित किया है।
बजट और शासन की जवाबदेही के गैर-लाभकारी केंद्र के अनुसार, मुद्रास्फीति के लिए समायोजित किये जाने पर आवंटन पर वास्तव में गिरावट आयी थी। यदि बजट प्रावधान रोज़गार की माँग को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, तो सरकार को अधिक धन आवंटित करना होगा। क्योंकि यह एक माँग-संचालित और विधायी कार्यक्रम है। 2018-19 के दौरान 267.96 करोड़ रोज़गार पैदा किये।
ग्रामीण विकास मंत्रालय के लिए समग्र आवंटन में पिछले वर्ष की तुलना में 5,200 करोड़ की वृद्धि हुई है। पिछले वित्तीय वर्ष के लिए कुल आवंटन 1,17,647 करोड़ था, जो कि अंतरिम बजट में प्रस्तावित था। 2018-19 के बजट में यह 1,12,404 करोड़ था। लेकिन तथ्य यह है कि मंत्रालय के लिए आवंटन बजट हर साल वृद्धि हो रही है। पर कुल बजट में इसका हिस्सा 2019-20 में घटकर 4.4 फीसदी हो गया है, जो 2018-19 में 4.7 फीसदी था।
ऐसा कहा जाता है कि कई बार आँकड़े कहानी को नहीं बताते हैं। सरकार ने दावा किया था कि मनरेगा के लिए 61,084 करोड़ रुपये का आवंटन अब तक का सबसे ज़्यादा बजट प्रावधान था। प्रेस सूचना ब्यूरो की एक विज्ञप्ति में दावा किया गया था कि भारत सरकार ने मनरेगा को संशोधित अनुमानों के स्तर पर अतिरिक्त 6,084 करोड़ रुपये आवंटित किये थे। इसने दावा किया था कि यह 2018-19 में योजना को कुल आवंटन 61,084 करोड़ तक पहुँचाता है, जिससे यह अब तक का सबसे अधिक आवंटन है। सरकारी सुधारों के ज़रिये स्थायी आजीविका के लिए मज़दूरी, आय और टिकाऊ सम्पत्ति के ज़रिये गरीबों और ज़रूरतमंदों का जीवन बेहतर सुनिश्चित करने पर ज़ोर दिया गया है।
मनरेगा मंत्रालय का एक प्रमुख कार्यक्रम है, जो गरीबी जैसी सामाजिक विषमताओं को दूर करने के साथ ही स्थायी और दीर्घकालिक विकास के लिए आधार पेश करती है। वास्तव में मनरेगा ग्रामीण भारत को अधिक उत्पादक, न्यायसंगत और समाज से जुड़ाव के रूप परिवर्तनकारी साबित हो रही है। इसने पिछले तीन वर्षों में में सालाना लगभग 235 करोड़ व्यक्ति दिवस प्रदान किये हैं। इस वर्ष यह स्थायी आजीविका के लिए रोज़गार का टिकाऊ ज़रिया साबित हो सकता है, जो पिछले चार साल में सबसे ज़्यादा खर्च करने का रिकॉर्ड दर्ज किया जाएगा।
सरकार ने दावा किया कि पिछले चार वर्षों में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने गरीबों के लिए स्थायी आजीविका के लिए मनरेगा के संसधान को बदल दिया है। काम के बाद 15 दिनों के भीतर भुगतान का सृजन जहाँ 2014 में केवल 26.85 फीसदी था और उस साल वर्ष बमुश्किल 29.44 लाख सम्पत्तियाँ पूरी हुई थीं। राज्यों के साथ साझेदारी में इन अंतरालों को पाटने के लिए एक व्यवस्थित राष्ट्रव्यापी अभ्यास शुरू किया गया था।
आम बजट में मनरेगा के लिए आवंटन का बढऩा इस कार्यक्रम में लोगों की बढ़ती आस्था का स्पष्ट प्रमाण है। चूँकि टिकाऊ परिसम्पत्तियों के निर्माण को बेहद अहम माना जाता है, इसलिए 60:40 के अनुपात को ग्राम पंचायत स्तर पर अनिवार्य किया गया था; जिसके कारण गैर-उत्पादक परिसम्पत्ति का निर्माण केवल इसलिए हो रहा था। क्योंकि उस ग्राम में अकुशल मज़दूरी पर 60 फीसदी खर्च किया जाना था और पंचायत के हिस्से में 40 फीसदी। पहला बड़ा सुधार ज़िला पंचायत स्तर पर 60:40 के बजाय ज़िला स्तर पर अनुमति देना था, इसके बाद ग्राम पंचायत स्तर पर। इस सुधार के बावजूद समग्र व्यय पर अकुशल मज़दूरी पर व्यय का अनुपात 65 फीसदी से अधिक है। इसने आय पैदा करने वाली टिकाऊ सम्पत्तियों पर ज़ोर दिया है। इसमें लचीलेपन को केवल उन परिसम्पत्तियों को लेने की अनुमति देता है, जो उत्पादक हैं।
प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन (एनआरएम) पर 60 फीसदी से अधिक संसाधन खर्च होते हैं। एनआरएम का काम फसलों की खेती और उपज दोनों के क्षेत्र में सुधार करके किसानों की उच्च आय सुनिश्चित करना है। इसे भूमि की उत्पादकता में सुधार और पानी की उपलब्धता के ज़रिये सम्भव बनाया जा सकता है। एनआरएम के तहत किये गये प्रमुख कार्यों में चेक डैम, तालाब, पारम्परिक जल निकायों का नवीकरण, भूमि विकास, तटबंध, फील्ड बड्स, फील्ड चैनल, पौधरोपण, खाइयाँ आदि शामिल हैं। पिछले 4 वर्र्षोंं के दौरान इस तरह के कामों को शामिल करके 143 लाख हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया गया। बड़े पैमाने पर जल संरक्षण, नदी का कालाकल्प और सिंचाई के कामों को मनरेगा के तहत पूरा किया गया है।
पिछले चार वर्षों में इस पर भी ज़ोर दिया गया कि टिकाऊ समुदाय और व्यक्तिगत लाभार्थी अपनी सम्पत्ति बना सकें। इसके लिए बकरियों के बाड़े, गौशालाएँ, 90-95 दिनों के काम, कुओं, खेत तालाबों, गोबर की खाद के लिए गड्ढे, पानी सोखने वाले गड्ढे आदि जैसी व्यक्तिगत लाभकारी योजनाएँ बड़ी संख्या में पिछले 4 वर्षों में हुई हैंै। इनसे वंचितों को वैकल्पिक स्थायी आजीविका तक पहुँच बनाने में मदद मिली है। इसी तरह आँगनबाड़ी केंद्रों (एडब्ल्यूसी) का निर्माण टिकाऊ सामुदायिक सम्पत्ति के निर्माण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण प्रयास रहा है। एडब्ल्यूसी में पाँच साल के कम उम्र के बच्चों की देखभाल और विकास के लिए एक केंद्र के रूप में कार्य करता है, जहाँ काम करने वाली माताएँ अपने बच्चों को काम की तलाश में छोड़ सकती हैं। लगभग 1,11,000 आँगनवाड़ी केंद्रों का निर्माण किया जा रहा है। सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट के कामों को भी बड़े पैमाने पर किया गया है; जो स्वच्छ गाँवों, उच्च आय और गरीबों के लिए अधिक विविध आजीविका के लिए अग्रणी है। यह सब ग्राम पंचायत स्तर के बजाय ज़िला स्तर पर 60:40 की अनुमति से सम्भव हो रहा है। अकुशल मज़दूरी के प्रति प्रतिबद्धता, टिकाऊ सम्पत्तियों पर ज़ोर देने के बावजूद कम नहीं हुई है, जो आय सृजन और आजीविका में विविधता आयी है।
प्रत्येक वर्ष व्यक्ति दिनों के हिसाब से मज़दूरों का आकलन होता है। 2015-16 से लेकर 2018-19 तक काम की माँग पिछले तीन वर्षों में औसतन 235 करोड़ व्यक्ति दिन के साथ सबसे ज़्यादा रही और यह इस साल पिछले सारे रिकॉर्ड टूटने वाले हैं। ये आँकड़े 2009-10 को छोडक़र लगभग हर साल बेहतर तुलना के साबित होते हैं; क्योंकि गम्भीर सूखे का साल था। महिला एसएचजी के साथ मनरेगा का जुड़ाव, दीन दयाल अंत्योदय योजना-राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (डीएवाई-एनआरएलएम) की गतिविधियाँ भी गरीब घरों की आय की पूरक हैं। मनरेगा श्रमिकों के लिए कौशल विकास के अवसर प्रमाणित ग्रामीण राजमिस्त्री, तकनीशियन या दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना (डीडीयू-जीकेवाई) और ग्रामीण स्व रोज़गार प्रशिक्षण संस्थान (आरएसईटीआई) के अन्य कौशल कार्यक्रमों से गरीबी से लडऩे में मदद मिलेगी।
गरीबी से बाहर आने के लिए आय के कई स्रोतों के साथ आजीविका की विविधताओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है। डीएवाई-एनआरएलएम के तहत महिला स्व-सहायता समूहों के आन्दोलन का विस्तार तीन करोड़ से लेकर लगभग छ: करोड़ सदस्यों तक हो चुका है। इस अवधि के दौरान रोज़गार टिकाऊ सम्पत्ति और स्थायी आजीविका देने के लिए मनरेगा में कई सुधार किये गये। मसलन 15 दिनों के भीतर भुगतान 2014-15 में जहाँ 26 फीसदी था, वह वर्तमान में बढक़र 91 फीसदी हो गया है; जो सुधार को दर्शाता है। इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ नई दिल्ली द्वारा 2018 में मनरेगा के प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन हस्तक्षेप का राष्ट्रीय मूल्यांकन,, एनआरएम कार्यों के कारण आय, लाभ, उत्पादकता, जल तालिका और चारे की उपलब्धता का अध्ययन किया गया। इस मूल्यांकन में 99.5 फीसदी सम्पत्ति बहुत अच्छी या अच्छी या फिर संतोषजनक पायी गयी, जो शासन सुधारों की सफलता के लिए एक मिसाल है।
ऐसा माना जाता है कि इससे व्यक्तियों की आय बढ़ती है। लेकिन बजट आवंटन की तुलना में अधिक व्यय को देखते हुए, कम-से-कम 15 राज्यों में वर्तमान में संतुलन नकारात्मक है। सबसे ज़्यादा नकारात्मक संतुलन राजस्थान में 620 करोड़ रुपये का है। इसके बाद उत्तर प्रदेश का नकारात्मक संतुलन 323 करोड़ रुपये है। महत्त्वाकांक्षी मनरेगा ने ग्रामीण मज़दूरी और आय को बढ़ाया है और ग्रामीण बुनियादी ढाँचे को भी बनाया है और देश की ग्रामीण आबादी को बेहद ज़रूरी रोज़गार प्रदान किये हैं। हालाँकि यह ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को एक प्रोत्साहन प्रदान करने में असमर्थ रहा है, क्योंकि धन आवंटन ने बढ़ती मुद्रास्फीति और बढ़ती माँग के साथ तालमेल नहीं रखा है। क्योंकि श्रम प्रवासन में कमी आयी है, जिसके परिणामस्वरूप गारंटीकृत रोज़गार प्रदान करने के लिए अधिक धनराशि चाहिए।
अब इसकी ज़रूरत फिर महसूस की जा रही है कि मनरेगा एक बार फिर प्रवासी मज़दूरों के लिए एक नयी जीवन रेखा साबित होने जा रही है। क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार ने इस योजना के तहत प्रतिदिन 50 लाख रोज़गार सृजित करने की परियोजना बनायी है। लॉकडाउन के दौरान नौकरियों के नुकसान के कारण उत्तर प्रदेश में प्रवासियों के बड़े पैमाने पर आवाजाही हुई है, जिससे कई राज्य प्रभावित हुए हैं। साथ ही बेरोज़गारों को काम मुहैया कराना उनकी ज़िम्मेदारी बन गयी है।
अकेले उत्तर प्रदेश में मनरेगा के मौज़ूदा कामगारों में 26.3 लाख से लेकर 50 लाख तक की वृद्धि का अनुमान है। हालाँकि इस कथित बीमार योजना ने बीएसपी, एसपी और अब भाजपा के शासन में विभिन्न ग्रामीण विकास परियोजनाओं के लिए आवंटित सार्वजनिक धनराशि को आवंटित करने के लिए बड़े घोटाले और नौकरशाहों की भागीदारी व मिलीभगत से गड़बड़झाले के कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। यहाँ तक कि उच्च न्यायालय ने सीबीआई जाँच की निगरानी भी वर्तमान शासन द्वारा भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस की नीति के बावजूद नौकरशाही के कामकाज में खास बदलाव नहीं देखने को मिला है।
उत्तर प्रदेश में महाराष्ट्र, गुज़रात और पंजाब जैसे समृद्ध राज्यों से अपने मूल गाँवों में प्रवासी श्रमिकों का बड़ी संख्या में आने से आॢथक बदलाव देखने को मिलेंगे। सरकार इस तथ्य से अच्छी तरह से अवगत है कि उसे औद्योगिक, ढाँचागत, रियल एस्टेट और कृषि क्षेत्रों में भारी नुकसान के मामले में आमद का असली खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। प्रवासी श्रमिक उत्पादन, अवसंरचना और औद्योगिक विकास के लिए इन राज्यों की जीवन रेखा का उपयोग करते हैं, जो संकट की वर्तमान स्थिति में बिना भोजन और पैसे के अब अपने अस्तित्व के लिए बेहद कठिन दौर से गुज़रने वाले हैं।
थोड़ा संदेह है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट अनुमान के ऊपर मनरेगा जैसी योजना के लिए 40,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त धनराशि की घोषणा की है। लॉकडाउन के तुरन्त बाद केंद्र सरकार ने पहले ही वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए केंद्रीय सहायता अनुदान की पहली किश्त के रूप में चालू वित्त वर्ष के लिए 1538.29 करोड़ रुपये का भुगतान जारी कर दिया था। हाल ही में घोषित अतिरिक्त विशेष पैकेज के तहत राज्य को पहले के आवंटन की तुलना में लगभग 5800 करोड़ रुपये प्राप्त करने का अनुमान है। राज्य सरकार ने सीधे बैंक हस्तांतरण के माध्यम से मनरेगा योजनाओं के लाभार्थियों के लम्बित वेतन को देने के लिए 225.39 करोड़ रुपये हस्तांतरित किये।
मोदी सरकार द्वारा घोषित वर्तमान आॢथक उपायों में तत्काल मौद्रिक योजना भी शामिल होनी चाहिए, ताकि कम-से-कम प्रवासियों को अपने हाथों में क्रय शक्ति प्राप्त हो, जो माँग पैदा करेगी और अंतत: आपूर्ति को बढ़ावा देगी। इससे अर्थ-व्यवस्था को गति मिलेगी। यह सलाह पूर्व आईएएस नरेंद्र नाथ वर्मा ने दी है, जिनके पास ग्रामीण विकास और एमएसएमई क्षेत्रों के क्षेत्र में बड़ा अनुभव है।
वर्मा एकीकृत औद्योगिक विकास के केंद्र के रूप में नोएडा औद्योगिक क्षेत्र के निर्माण के समय गर्भधारण की योजना और भूमि के अधिग्रहण में सहायक के तौर पर काम कर चुके हैं। 2011 की जनगणना के रिकॉर्ड बताते हैं कि उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश सहित हिन्दी हार्टलैंड राज्य भारत के कुल अंतर्राज्यीय प्रवासियों के 50 फीसदी का योगदान करते हैं। बिहार के साथ ही यूपी 37 फीसदी के साथ प्रवासियों का सबसे बड़ा स्रोत है। इसलिए विशेषज्ञों को लगता है कि हताश प्रवासी मज़दूरों को अचानक अब अचानक फिर से वहाँ लौटने का साहस नहीं करना चाहिए था। हालाँकि अचानक लॉकडाउन के कारण उन्हें कोई और रास्ता नहीं मिला। अब ऐसे परिदृश्य में मनरेगा तुरुप का पत्ता साबित हो सकती है।