बिहार के मगध क्षेत्र में इंसेफलाइटिस पिछले तीन महीने से अमूमन हर रोज एक बच्चे की जान ले रहा है. जो बच्चे बच जा रहे हैं उन्हें बाकी जिंदगी अपंगताओं के साथ गुजारनी होगी. लेकिन इलाके के जनप्रतिनिधि, शासन-प्रशासन और कथित समाजसेवी संस्थाएं आंखें मूंदे बैठे हैं. निराला की रिपोर्ट,फोटो:विकास कुमार
पिंकी की उम्र आठ-नौ साल होगी. गया-पटना रोड पर स्थित रसलपुर गांव की रहने वाली है. उसके सामने जाते ही उसकी हालत देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. अचानक पहुंचे दो-तीन अजनबियों को देख वह अपने छोटे भाई की गोद में उससे चिपक जाती है. रोने लगती है. उसकी मां बताती है कि कुछ माह पहले तक पिंकी भी अपनी सहेलियों के साथ स्कूल जाती थी. खेलती थी. घर के काम में भी थोड़ा-बहुत हाथ बंटाती थी. अपने छोटे भाई पर रोब भी जमा लेती थी. कुछ माह पहले तक अपनी बड़ी बहन का प्यार-दुलार पाने वाला यही छोटा भाई अब अपनी बड़ी बहन को गोद में चिपकाए रहता है. पिता या बुजुर्ग अभिभावक की तरह ममता, स्नेह, प्यार बरसाता है. पिंकी बोलने में अक्षम हो गई है. उसके पैरों में इतनी भी जान नहीं कि क्षण भर भी खड़ी रह सके. इसी मजबूरी में वह अपनी माई के व्यस्त रहने पर छोटे भाई की गोद पर उम्मीद भरी निगाहें टकटका देती है.
तीन माह पूर्व बिहार के मगध क्षेत्र में शुरू हुए जापानी इंसेफलाइटिस की पहली शिकार पिंकी ही हुई थी. गया के अनुग्रह नारायण मेडिकल कॉलेज ऐंड हॉस्पिटल में इलाज के बाद किसी तरह उसकी जान तो बच गई लेकिन बची जिंदगी वह अपाहिजों की तरह गुजारने को अभिशप्त है. पिंकी ठीक हो जाएगी, इसका जिम्मा अब गांव के एक झोलाछाप डॉक्टर पर है.
यह इलाका पिछले तीन माह से मुरदहिया घाटी में बदला हुआ है. इस दौरान अलग-अलग जिले से करीब 392 बच्चे गया के मेडिकल कॉलेज पहुंचे. इनमें 85 अकाल ही काल के गाल में समा गए. जो बचकर वापस लौटे हैं उनमें से अधिकांश की हालत पिंकी के जैसी या उससे भी बुरी है.
पिंकी के घर से निकलकर हम सोनी के घर पहुंचते हैं. 12 साल की सोनी भी इंसेफलाइटिस से जंग जीतकर अपने घर आ गई है, लेकिन उसके मस्तिष्क ने करीब-करीब उसका साथ छोड़ दिया है. वह चलने-फिरने में तो सक्षम है, लेकिन अस्पताल से आने के बाद से एक सेकंड के लिए भी सो नहीं सकी है. उसे घर आए कई दिन हो चुके हैं. अब वह रात के अंधेरे में जोर-जोर से रोती रहती है या दिन के उजाले में मानसिक विक्षिप्तों की तरह लोगों की नजरों से बचने की कोशिश करती है. गया मेडिकल कॉलेज में भर्ती संजीत भी इंसेफलाइटिस से बच गया है पर आठ साल के इस बच्चे का एक पांव पोलियोग्रस्त पैर जैसा पतला हो गया है.
पिंकी, सोनी और संजीत की तरह कई बच्चे इंसेफलाइटिस से पार पा लेने के बाद अब बाकी की जिंदगी ऐसी ही शारीरिक व मानसिक अपंगता के साथ गुजारेंगे. अस्पताल से जो बच्चों के शवों के साथ घर लौटे उनकी पीड़ा तो अथाह रही ही होगी, लेकिन जो जिंदगी बचाने के बाद अपने बच्चे को घर ले आए हैं उनमें से कुछ तो भविष्य की मुश्किलों और चुनौतियों से घबराकर अपने बच्चे के मर जाने तक की कामना करने लगे हैं.
गया में दूसरे मौकों पर सैकड़ों समाजसेवी संस्थाएं दिख जाएंगी, लेकिन इस मानवीय त्रासदी में वे गायब हैं
तीन महीने बाद गया मेडिकल कॉलेज में इंसेफलाइटिस के मरीजों के आने का सिलसिला तो थम रहा है, लेकिन मौत की परछाईं दूसरे रूप में रंग दिखा रही है. अब सेरेब्रल मलेरिया (दिमागी बुखार) बच्चों की जान ले रहा है. इस बीमारी से अब बच्चे पतंगे की तरह फड़फड़ा कर मर रहे हैं. इससे अब तक करीब दो दर्जन बच्चों की मौत की सूचना है.अब बिहार में इंसेफलाइटिस से मौत हो जाना कोई नई बात नहीं. कुछ माह पहले मुजफ्फरपुर का इलाका इसकी चपेट में था. वहां भी मौत का ग्राफ कुछ इसी तरह तेजी से बढ़ा था. वहां भी मरने वाले अधिकांश बच्चे दलित, महादलित, अति पिछड़े वर्ग से थे. मगध क्षेत्र में भी कमोबेश उसी श्रेणी वाले ज्यादा हैं.
इस इलाके में बच्चों की हुई मौत को कानूनी और तकनीकी शब्दावलियों के जरिए ‘मौत’ ही माना जाएगा, लेकिन मानवीय आधार पर या फिर मानवाधिकार की भाषा में इसे ‘हत्या’ भी कहा जा सकता है. मगध मेडिकल कॉलेज के शिशु रोग विभाग के अध्यक्ष डॉ एके रवि तहलका से बातचीत में खुद कहते हैं कि अस्पताल के कुल पांच आईसीयू में से जो एक किसी तरह चालू है, यदि उसका वेंटिलेटर ही ठीक होता तो कम से कम 12-14 बच्चों की जान बच सकती थी. लेकिन तकनीकी और कागजी पेंचों के चलते वेंटिलेटर ठीक नहीं कराया जा सका. कई बार आग्रही आवेदन के बावजूद वेंटिलेटर में एक मामूली-सी ट्यूब नहीं डाली जा सकी. चौंकाने वाली बात यह है कि स्वास्थ्य मंत्री के निर्देश के बावजूद अस्पताल के प्रबंधन का रवैया इस मामले में बड़ा ढुलमुल रहा. अस्पताल के अधीक्षक कहते हैं कि वेंटिलेटर चलाने के लिए प्रशिक्षित लोगों की कमी है और वे इसके लिए ट्रेनिंग दे रहे हैं. काश, यह काम अगर समय पर होता तो कुछ बच्चों की जिंदगी बच गई होती.
बिहार में खरीफ की फसल कटने का समय एक बड़ी आबादी के लिए साल भर की रोजी-रोटी जुटाने का जरिया होता है. इस महीने में कमाई का यह जरिया छोड़ गरीब मजदूर अपने बच्चों को बचाने के लिए अस्पताल पहुंचते रहे, डेरा डालते रहे, लाशों के संग या जिंदा बची लाशनुमा जिंदगियों को लेकर लौटते रहे.डॉ एके रवि गंभीर छवि रखने वाले चिकित्सक हैं. मेडिकल कॉलेज के शिशु रोग विभाग के अध्यक्ष हैं. जब वे खुद कह रहे हैं कि वेंटिलेटर ठीक नहीं कराने की वजह से दर्जन भर से ज्यादा बच्चे मरे तो इसे सामान्य मौत क्यों माना जाए? क्यों नहीं इसे एक किस्म की हत्या माना जाए!
इस इलाके में बच्चों की मौतों का आंकड़ा जिस समय अपना शिखर छू रहा था उस दौरान राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सेवा यात्रा पर निकलने की तैयारी और उसके बाद यात्रा पर थे. नीतीश की यात्रा का उद्देश्य बड़ा है, पहले से तय है, इसलिए इस ‘छोटे’ उद्देश्य के लिए खुद गया पहुंचना उन्हें उचित नहीं लगा होगा. हां, स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चौबे जरूर दो बार गया पहुंचे. उनके गया पहुंचने का क्या फायदा हुआ, यह अभी कोई नहीं बता सकता. हालांकि उनका कहना था कि सरकार इस मामले को गंभीरता से ले रही है इसीलिए वे गया आए हैं. चौबे का कहना था, ‘शीघ्र ही सरकार व्यापक तौर पर पांच करोड़ बच्चों को टीकाकरण का फायदा पहुंचाएगी और इस बार बीमारी से जो बच्चे विकलांग हो गए हैं उनके पुनर्वास का भी इंतजाम होगा. पूरे प्रदेश में इंसेफलाइटिस का टीका पांच करोड़ बच्चों को लगेगा.’
यह भविष्य की योजना है. फिलहाल गया क्षेत्र में टीकाकरण का आंकड़ा यह है कि 13 लाख बच्चों में से यहां सिर्फ 1,18,809 बच्चों को ही टीका दिया जा सका है. जब मंत्री कह रहे हैं और सरकार गंभीर है तो संभव है कि विकलांग हुए बच्चों का पुनर्वास भी हो जाए लेकिन आने वाले दिनों में यह संकट और बढ़ेगा. डॉ रवि कहते हैं, ‘जिन्हें एक बार इंसेफलाइटिस हो गया, उन बच्चों को जीवन भर कई किस्म की विकलांगता के साथ ही जिंदगी गुजारनी होगी. और जो इस वायरस की चपेट में एक बार आ गए वे अगर इंसेफलाइटिस से बचेंगे भी तो 25-30 अलग किस्म की बीमारियों से उन्हें जूझना होगा. इन बीमारियों में सेरेब्रल मलेरिया, टीबी, पोलियो, चेचक आदि हैं.’
घटना की व्यापकता को देख कर प्रधानमंत्री कार्यालय की टीम भी गया पहुंची. गया में डॉक्टरों की केंद्रीय टीम भी पहुंची, लेकिन वे नहीं पहुंचे जिन्हें सबसे पहले पहुंचना चाहिए था. अपने इलाके की मौत की खोज-खबर लेने में मगध क्षेत्र के जनप्रतिनिधि नीतीश से भी ज्यादा व्यस्त निकले. गया जिले के अंतर्गत आने वाली दस विधानसभा सीटों में से फिलहाल नौ पर एनडीए का कब्जा है. इन नौ में दो मंत्री हैं- प्रेम कुमार और जीतन राम मांझी. प्रेम कुमार गया के विधायक हैं और शहरी विकास मंत्री है. जीतनराम मांझी अनुसूचित जाति के मामलों को देखते हैं. बिहार विधानसभा अध्यक्ष उदयनारायण चौधरी भी इसी जिले से जीतकर विधानसभा पहुंचते हैं. प्रेम कुमार अक्सर कई-कई किस्मों के काम लेकर गया आते रहते हैं, लेकिन इंसेफलाइटिस के कहर के दौरान वे पटना से गया के बीच की लगभग 100 किलोमीटर की दूरी तय नहीं कर सके. जीतन राम मांझी पूरे प्रदेश की अनुसूचित जातियों का मामला देखते रहे हैं, लेकिन अपने इलाके में काल का शिकार बन रहे अनुसूचित जाति के बच्चों की खबर लेने की फुर्सत उन्हें नहीं रही. उदयनारायण चौधरी विधानसभा अध्यक्ष हैं, सदन के सत्र की अवधि के बाद इतनी फुर्सत तो रहती ही होगी कि एक दिन का समय निकाल पहुंच सकें, लेकिन वे भी नहीं आए.
जिम्मेदार लोगों की बेरुखी का असर यह रहा कि केंद्रीय टीम, पीएमओ से आई टीम और राज्य के स्वास्थ्य मंत्री तो गया मेडिकल कॉलेज पहुंचते रहे लेकिन यहां की जिलाधिकारी वंदना प्रेयसी ने कॉलेज में जाकर एक बार भी व्यवस्था देखने की जहमत नहीं उठाई. डीएम नहीं गईं तो कमिश्नर के वहां जाने की उम्मीद क्यों हो. गया में रहने वाले समाजसेवी-संस्कृतिकर्मी संजय सहाय कहते हैं, ’10 में से नौ सीटों पर जिस दिन सत्तारूढ़ गठबंधन का कब्जा हुआ था उसी दिन यह साफ हो गया था कि अगले चुनाव तक जनता के सवाल हाशिये पर रहेंगे, क्योंकि कोई विरोध का स्वर ही नहीं रहाे. अब वही हो रहा है.’यह तो शासन-प्रशासन ने रिकाॅर्ड कायम किया. इससे ज्यादा शर्मनाक पहलू दूसरा है. गया विष्णु और बुद्ध की नगरी है. गयावालों को पालनहार विष्णु की नगरी होने पर अभिमान है. मृत्यु से ही जीवन की सीख लेकर ज्ञान प्राप्ति करने पहुंचे बुद्ध से जुड़ाव का भी. विष्णु के नाम पर पितृपक्ष मेले के समय और कालचक्र पूजा के समय बोधगया में 200 से अधिक संस्थाएं खड़ी दिखती हैं. खिलाने-पिलाने से लेकर धर्मशाला वगैरह उपलब्ध कराने के नाम पर. अन्य प्रकार के उपक्रमों के साथ भी. लेकिन धर्म की इस जुड़वां नगरी के अधिकांश समाजसेवियों को पिछले तीन माह से जारी अमूमन हर रोज की एक मौत ने मानवीय धर्म निबाहने को कतई प्रेरित नहीं किया. अंबेडकर के नाम पर गठित एक अचर्चित संस्था ने जरूर कुछ दिनों पहले प्रदर्शन आदि करके मौत का मुआवजा और विकलांग हुए बच्चों के पुनर्वास की मांग की थी.
पानी पर काम करने वाले गया के प्रभात शांडिल्य कहते हैं, ‘यहां समाजसेवा या तो दिखावे की होती है या दोहन की. धर्म और धन के बीच मानवीय सरोकार नहीं रहता.’ शांडिल्य कहते हैं कि कम लोग जानते हैं कि गया के ही जागेश्वर प्रसाद खलिश ने इस शेर को रचा था-
बरबाद गुलिस्तां करने को, बस एक ही उल्लू काफी है. हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा…
खलिश ने शायद बहुत पहले ही गयानगरी में कई शाखों पर बैठे रहने वाले उल्लुओं को देख िलया होगा.गया में दो माह पहले लगे पितृपक्ष मेले की खुमारी उतर गई है. अब बोधगया में कालचक्र पूजा की तैयारी जोरों पर है. उम्मीद है कि इस बार यहां लगभग ढाई लाख देशी-विदेशी मेहमान पूजा देखने पहुंचेंगे. करीबन 200 से अधिक संस्थाएं कालचक्र पूजा के जरिए कमाई का चक्र पूरा करने में तन्मयता से लगी हुई हैं. भुखमरी, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के नाम पर फंड की फंडेबाजी का खेल परवान चढ़ रहा है.
कालचक्र के आयोजन के बहाने अपने-अपने सेवा कार्य को दिखाने में लगे कथित समाजसेवियों को काल के गाल में समा रहे अपने पड़ोस के बच्चों के लिए समय नहीं मिला. सरकार को कोसने से पहले इस पहलू पर भी गौर करना होगा.