‘मंझली चाची के इस हश्र पर मैं खुश होऊं या दुखी?’

बात उन दिनों की है जब मैं इंटर में पढ़ती थी. पिता जी सरकारी नौकरी में थे और उनकी तैनाती नागपुर में थी. हम अपनी मां के साथ धनबाद में रहते थे. पांच भाई-बहनों में मैं सबसे छोटी थी. मेरी मां स्कूल में टीचर थीं. हालांकि हम लोगों की अभिभावक बड़ी मां थीं. धनबाद में हमारा एक बड़ा-सा संयुक्त परिवार था. हम दो बड़े चाचा और उनके परिवारों के साथ रहते थे. पिता जी को भी मेरी बड़ी मां ही ने पाला-पोसा था. देखा जाए तो बड़ी मां मेरे पिता की भाभी ही नहीं उनकी मां जैसी भी थीं. बड़े पापा के गुजर जाने के बाद वे हमारे साथ ही रहती थीं. 

बड़ी मां से मेरी बहुत छनती. वे हमें तरह-तरह के पकवान बनाकर खिलातीं. हम भाई-बहनों को आइस्क्रीम, चाट, समोसे वगैरह खाने के लिए पैसे देने आदि का काम अक्सर बड़ी मां ही किया करती थीं. मेरी मां स्कूल के काम के बाद समय निकाल कर शाम का नाश्ता बनातीं. वे रात का भी खाना बनातीं. मेरी मां को बड़ी मां बहुत स्नेह करती थीं. 

बड़ी मां का हम लोगों के प्रति प्रेम भरा रुख बड़े चाचा और मंझले चाचा के परिवार को फूटी आंखों नहीं सुहाता था. वे बड़ी मां से मन ही मन कुढ़ते रहते . मौका पाकर बदसलूकी भी कर देते थे. उनका बड़ी मां के प्रति यह व्यवहार मुझे नागवार गुजरता. मैं सोचती थी कि बड़ी मां चने का सत्तू परिवार के सभी सदस्यों के लिए तैयार करती हैं. मंझले चाचा के घर का गेहूं चुनती हैं. उसे धो-फटक कर सुखा भी देती हैं. बड़े चाचा के यहां जाकर खुद ही चना और उड़द दाल हाथों से लोढ़ी-पाटी में पीसकर बड़ी बनाती हैं. उन्हें धूप में सुखा भी देती हैं. सूख जाने पर समेट कर शीशे के बर्तनों में भर कर रख तक देती हैं. फिर भी उन्हें बदले में ऐसा व्यवहार क्यों मिलता है? परिवार के सभी सदस्यों के लिए वे इतना करती हैं. फिर भी ये लोग उनके साथ बदसलूकी क्यों करते हैं? मैं जब भी इसके खिलाफ बोलती तो छोटी होने की वजह से मुझे चुप करा दिया जाता.

एक दिन मैं कॉलेज से लौटी ही थी. घर में घुसी तो देखा कि मेरे बड़े चचेरे भाई बड़ी मां को मारने के लिए हाथ उठाए खड़े हैं. मेरे ये भैया पुलिस की नौकरी में हैं. हालांकि मैं उन्हें गुस्से से आगबबूला होते देख एकबारगी डर गई थी, लेकिन अगले ही पल मुझमें न जाने कहां से हिम्मत आ गई कि मैंने दौड़कर उनका हाथ पकड़ लिया. नतीजा यह हुआ कि मैंने बड़ी मां को थप्पड़ लगने से बचा लिया. हालांकि इस घटना से वे गहरे तौर पर आहत हुईं और उस रात खाए बगैर ही सोने चली गईं. इस घटना को गुजरे कुछ समय हुआ था कि अगला वाकया मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा झटका बनकर आया. उस रोज सुबह के वक्त बड़ी मां दातून कर रही थीं. मेरे वही भैया आए और हिकारत के भाव से बोले, ‘मुंह में दो-एक दांत बचे हैं फिर घंटों दातून क्यों कर रही है रे बुढि़या?’ 

‘मरने वाली तो गई…चलो दीदी के हाथों में जो सोने के कंगन हैं उन्हें रोने का बहाना करते हुए निकाल लेते हैं. एक तुम रख लेना, एक मैं’

यह सुनकर मैं अवाक रह गई. बड़ी मां भी एकदम से बिफर उठीं. उन्हें अचानक ही खांसी शुरू हो गई. मैं अपनी मां और भाइयों को आवाज लगाती उससे पहले मैंने देखा कि बड़ी मां वहीं आंगन में एक तरफ लुढ़क गई हैं. दवाई लेने मैं घर के अंदर भागी. चम्मच में डालकर उन्हें पिलानी चाही तो देखा कि उनकी आंखें खुली हुई हैं. मुझे समझते देर न लगी कि बड़ी मां नहीं रहीं. मौत को पहली बार इतने करीब से देखा और महसूस किया था मैंने. क्या करूं, समझ में नहीं आ रहा था. मेरी मां और चाचियां, बड़े और मंझले चाचा, तीन चचेरे भाई, एक चचेरी बहन, मेरे अपने तीन सहोदर बड़े भाई और एक बहन, सभी वहां इकट्ठे हो गए थे. सभी अपनी राय दे रहे थे. मेरे बड़े भाई ने तत्काल मेरे पिता को नागपुर तार द्वारा खबर भेजी. मेरे पिता तार पाते ही धनबाद के लिए चल पड़े.

बड़ी मां का शव आंगन में रख दिया गया. टोले-मोहल्ले के लोग उन्हें देखने पहुंचने लगे. इसके बाद जो हुआ वह और हैरान करने वाला था. भीड़ का फायदा उठा कर मेरी मंझली चाची ने मेरी मां से कहा, ‘मरने वाली तो चली गई. इसमें हम लोग क्या कर सकते हैं. चलो, दीदी के हाथों में जो सोने के कंगन हैं उन्हें रोने का बहाना करते हुए निकाल लेते हैं. एक तुम रख लेना और एक मैं.’ 

 मां स्तब्ध रह गईं. उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया. लेकिन चाची कहां मानने वाली थीं. बड़ी मां के शव से लिपट कर उन्होंने रोने का जो नाटक किया वह देखने लायक था. हालांकि सोने के कंगन तो वे नहीं निकाल सकीं. पर बड़ी मां के कान के बुंदे निकालने में उन्हें कामयाबी मिल गई. खैर, मेरे पिता जी दूसरे दिन सुबह होते-होते धनबाद पहुंच गए और फिर बड़ी मां का क्रियाकर्म कर दिया गया.

समय बीतता गया. बड़ी मां के गुजर जाने से जो जख्म पैदा हुए थे वे समय के साथ भर गए. लेकिन मंझली चाची की करतूत मैं आज तक नहीं भुला सकी. चाची ने बड़ी मां के कान से चुराए बुंदे बिना झिझक पहन लिए. लेकिन ऊपर वाले का न्याय देखिए, कुछ ही दिनों के बाद उन्हें कान से सुनाई देना बंद हो गया. कुछ दिन बाद वे विधवा भी हो गईं. मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि मेरी मंझली चाची के इस हश्र पर मैं खुश होऊं या दुखी.

(लेखिका नीरा सिन्हा धनबाद में रहती हैं)