2001 भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था. इस साल तहलका ने ऑपरेशन वेस्ट एंड के जरिए तमाम महत्रवपूर्ण लोगों को रक्षा सौदों में दलाली के लिए रिश्वत लेते हुए अपने खुफिया कैमरों में कैद किया. पहली बार ऐसी सच्चाइयां दुनिया के सामने आईं जिन्नेहोंने सबूतों की दुहाई देकर बच निकलने के रास्ते सीमित कर दिए. मगर तब की केंद्र सरकार ने इन उघड़ी सच्चाइयों पर कोई कार्रवाई करने की बजाय उल्टा तहलका के खिलाफ ही एक अभियान छेड़ दिया. तरह-तरह की संस्थाओं से तहलका की हर तरह की जांचें करवाई गईं और उसे बंद होने के लिए मजबूर कर दिया गया. आज ग्यारह साल बाद उसी ऑपरेशन वेस्ट एंड से जुड़े एक मामले में बंगारू लक्ष्मण को अदालत ने दोषी करार दिया है. उन्हें चार साल की सजा सुनाई गई है.
बंगारू लक्ष्मण अकेले नहीं हैं. समता पार्टी की तत्कालीन अध्यक्षा जया जेटली भी रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिज के सरकारी आवास में धन लेते हुए कैमरे की जद में आईं. उनकी पार्टी के कोषाध्यक्ष आरके जैन भी पैसा लेते हुए पकड़े गए. घूस का दलदल सिर्फ राजनीति महकमे तक ही सीमित नहीं था. सेना और नौकरशाही के तमाम आला अधिकारी भी पैसे लेते हुए नजर आए. लेफ्टिनेंट जनरल मंजीत सिंह अहलूवालिया, मेजर जनरल पीएसके चौधरी, मेजर जनरल मुर्गई, ब्रिगेडियर अनिल सहगल इनमें से कुछेक नाम हैं. रक्षा मंत्रालय के दूसरे सबसे बड़े अधिकारी आईएएस एलएम मेहता भी इसी सूची में हैं.
इस भ्रष्टाचार की परतें जब उखड़नी शुरू हुई तो सामने आया कि आरएसएस के ट्रस्टी आरके गुप्ता और उनके बेटे दीपक गुप्ता जैसे लोग भी हथियारों की खरीद में दलाली करते हैं. सीबीआई ने तहलका के ऑपरेशन वेस्ट एंड से जुड़े नौ मामले दर्ज कर रखें हैं. इसके अलावा दो मानहानि के दावे तहलका के खिलाफ उन लोगों ने दायर किए हैं जो इस मामले में घूस लेते हुए पकड़े गए थे.
2004 में तहलका की अंग्रेजी अखबार के रूप में वापसी के पहले अंक में इसकी यात्रा पर लिखा गया मैनेजिंग एडिटर शोमा चौधरी का यह लेख तहलका की अब तक की यात्रा और संघर्षों पर समग्र रोशनी डालता है.
तहलका के पहले अंक तक का इंतजार हमारे लिए बहुत लंबा रहा. इंतजार के इस सफर में काफी मुश्किलें भी आईं. दो बार तो ऐसा हुआ कि पूरी तैयारी के बावजूद हम शुरुआत में ही लड़खड़ा गए. महीने गुजरते गए और मुश्किलों का अंधेरा कम होने के बजाय और घना होता गया. लेकिन अब तीस जनवरी को हम फिर एक नई शुरुआत कर रहे हैं. नए ऑफिस में टाइपिंग की खटखट शुरू हो चुकी है.खिड़की से नजर आ रहा अमलतास का पेड़ मुझे पुराने और बंद हो चुके आफिस की याद दिला रहा है. हर किसी को बेसब्री से कल का इंतजार है.कल सुबह लोग जब तहलका अखबार पढ़ रहे होंगे तो यह केवल हमारी जीत नहीं होगी, ये उन हजारों भारतीयों की भी जीत होगी जिन्होंने हम पर भरोसा किया.
इस जीत के मायने महज एक अखबार निकाल लेने की सफलता से कहीं ज्यादा गहरे होंगे.शायद इस जीत का मतलब उस सफर से भी निकलता है जो हमने तय किया. तहलका अब सिर्फ एक अखबार की कहानी नहीं रही. जैसे-जैसे वक्त गुजरता गया, तहलका के साथ हुई घटनाओं ने तहलका शब्द को लोगों के दिल में बसा दिया. तहलका कासफर गुस्सा, निराशा, ऊर्जा और सपनों के मेल से बना है. ये सिर्फ हमारी कहानी नहीं है. ये उम्मीद, आत्मविश्वास और आदर्शवाद की ताकत की कहानी है.उससे भी ज्यादा ये एकता और सकारात्मक सोच की ताकत का सबूत है. तहलका का अखबार के रूप में लोगों तक पहुंचना कोई छोटी बात नहीं है. इससे यह साबित होता है कि आम लोग सही चीजों के लिए लड़ सकते हैं, और न केवल लड़ सकते हैं बल्कि जीत भी सकते हैं.
तहलका का अखबार के रूप में लोगों तक पहुंचना कोई छोटी बात नहीं है. इससे यह साबित होता है कि आम लोग सही चीजों के लिए लड़ सकते हैं, और न केवल लड़ सकते हैं बल्कि जीत भी सकते हैं.पिछले दो साल के दरम्यान ऐसे कई ऐसे लम्हे आए जब तहलका का नामोनिशां मिट सकता था. रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार को उजागर करते स्टिंग आपरेशन से हमें सुर्खियां तो मिलीं पर दूसरी तरफ हमें सरकार से दुश्मनी की कीमत भी चुकानी पड़ी. जान से मारने की धमकियां, छापे, गिरफ्तारियां और पूछताछ के उस भयावह सिलसिले की याद आज भी रूह में सिहरन पैदा कर देती है. बढ़ते कर्ज के बोझ के बाद ऑफिस भी बस किसी तरह चल पा रहा था. लेकिन जिस चीज ने हमें सबसे ज्यादा तोड़कर रख दिया वो थी ‘बड़े’ लोगों का डर और हमारे मकसद के प्रति उनकी शंका. हमें बधाइयां और तारीफें तो मिलीं लेकिन ऎसे कम ही लोग मिले जिन्हें यकीन था कि हमने ये काम देश और जनता की भलाई के लिए किया. लोग पूछते थे कि हमने इस स्टिंग आपरेशन से कितना मुनाफा बटोरा. कइयों ने ये भी पूछा कि तहलका में किस बड़े आदमी का पैसा लगा है. कोई ये यकीन करने को तैयार नहीं था कि ये काम केवल पत्रकारिता की मूल भावना के तहत किया गया जिसका मकसद है सच दिखाना.
सरकार ने हम पर सीधा हमला तो नहीं किया लेकिन हमें कानूनी कार्रवाई के एक ऎसे जाल में उलझा दिया जिससे हमारा सांस लेना मुश्किल हो जाए.तहलका में पैसा निवेश करने वाले शंकर शर्मा को बगैर कसूर जेल में डाल दिया गया और कानूनी कार्रवाई की आड़ में उनका धंधा चौपट करने की हर मुमकिन कोशिश की गई. हमने कई बार खुद से पूछा कि तहलका और उसके अंजाम को कौन सी चीज खास बनाती है. जवाब बहुत सीधा है- शायद इसका असाधारण साहस. भ्रष्टाचार को इस कदर निडरता से उजागर करने की कोशिश ने ही शायद तहलका को तहलका जैसा बना दिया.तहलका लोगों के जेहन में रच बस गया. अरुणाचल की यात्रा कर रहे एक दोस्त ने हमें बताया कि उसने एक गांव की दुकान में कुछ साड़ियां देखीं जिन पर तहलका का लेबल लगा हुआ था. एक और मित्र ने हमें बीड़ी के एक विज्ञापन के बारे में बताया जिसमें तहलका शब्द का प्रमुखता से इस्तेमाल किया गया था. हमें ऎसा लगा कि लोग अब हमें कम से कम जानने तो लगे हैं. तहलका नैतिकता की लड़ाई की एक कहानी बन चुका था. हमें लगा कि बिना लड़े और बगैर प्रतिरोध हारने का कोई मतलब नहीं. इसी विचार ने हमें ताकत दी.हालांकि ये काम आसान नहीं था. सरकार के हमारे खिलाफ रुख के चलते लोग हमसे कतराते थे.थोड़े शुभचिंतक-जिनमें कुछ वकील और कुछ दोस्त शामिल थे-हमारे साथ खड़े रहे लेकिन ज्यादातर प्रभावशाली लोग तहलका का नाम सुनते ही किनारा कर लेते थे. उद्योगपति, बैंक, बड़े लोग…..हमने सब जगह कोशिश की लेकिन चाय के लिए पूछने से ज्यादा तकलीफ हमारे लिए कोई नहीं उठाना चाहता था.
तहलका का नाम अगर लोगों को खींचता था तो उसका अंजाम हमारे लिए अभिशाप भी बन जाता था. इस बात पर सब एक राय थे कि तहलका एक तूफानी ब्रांड है लेकिन तूफान से दोस्ती कर कौन मुसीबत मोल ले. लगातार मिल रही नाकामयाबी ने हमारे भीतर कहीं न कहीं फिर से वापसी का जज्बा पैदा कर दिया. मुझमें, सबमें, लेकिन खासकर तरुण में. तरुण फिर से वापसी के लिए इरादा पक्का कर चुके थे. लेकिन इस काम में कोई थोड़ी सी भी मदद के लिए तैयार नहीं था.हमें बधाइयां और तारीफें तो मिलीं लेकिन ऎसे कम ही लोग मिले जिन्हें यकीन था कि हमने ये काम देश और जनता की भलाई के लिए किया. लोग पूछते थे कि हमने इस स्टिंग आपरेशन से कितना मुनाफा बटोरा.फिर से वापसी के बुलंद इरादे और इसमें आ रही मुसीबतों ने हमारे भीतर कुछ बदलाव ला दिए. मुश्किलें जैसे-जैसे बढती गईं, गुस्से और हताशा की जगह उम्मीद लेने लगी. हर एक मुश्किल को पार कर हम हैरानी से खुद को देखते थे और सोचते थे “अरे ये तो हो गया, हम ऎसा कर सकते हैं.”कहानी आगे बढ रही थी. तरुण जमकर यात्रा कर रहे थे. त्रिवेंद्रम, उज्जैन,नागपुर, भोपाल, गुवाहाटी, कोच्चि, राजकोट, भिवानी, इंदौर में वो लोगों से मिलकर समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे थे.तरुण के जोश की बदौलत तहलका को लोगों की ऊर्जा मिलती गई. यह एक कैमिकल रिएक्शन की तरह हुआ.
लोगों की ऊर्जा और उम्मीदों ने हमारे इरादे को ताकत दी. ये अब केवल हमारी लड़ाई नहीं रह गई थी. इसने एक बड़ी शक्ल अख्तियार कर ली थी.मुझे आज भी वो दिन अच्छी तरह याद है जब तरुण ने हमें बुलाया और कहा कि हम अखबार निकालने वाले हैं. ये काफी हिम्मत का काम था. पैसे तो बहुत पहले ही खत्म हो गए थे. जनवरी 2002 तक तो ऎसा कोई भी दोस्त नहीं था जिससे हम उधारन ले चुके हों. मई आते-आते आफिस भी बंद हो गया. उसके बाद कई महीने पैसे जुटाने की भागा दौड़ी और जांच कमीशन से निपटने के लिए कानूनी रणनीति बनाने में निकल गए. अब हम केवल छह लोग रह गए थे. तरुण, उनकी बहन नीना, मैं,हमारे एकाउंटेंट बृज, डेस्कटाप आपरेटर प्रवाल और स्टेनोग्राफर अरुण नायर.सबका मकसद एक ही था. तहलका का वजूद अब हमारे जेहन में ही सही, पर काफी मजबूत हो चुका था.
तब तक हम पुराने वाले आफिस में ही थे यानी D-1,स्वामीनगर. लेकिन हमारे पास दो छोटे से कमरे ही बचे थे और पेट्रोल का खर्चा चुकाने के लिए हमें कुर्सियां बेचनी पड़ रही थीं. मकान मालिक के भले स्वभाव का हम काफी इम्तहान ले चुके थे. हमें जगह बदलनी थी और कोई हमें रखने के लिए तैयार नहीं था.लेकिन हमारा उत्साह कम नहीं हुआ. हम एक महत्वपूर्ण मोड़ के पार निकल चुके थे. एक हफ्ता पहले हमने जांच कमीशन से अपना पल्ला झाड़ लिया था.राम जेठमलानी ने बड़ी ही कुशलता से तहलका और इसकी निवेशक कंपनी फर्स्टग्लोबल के खिलाफ सरकारी केस के परखच्चे उड़ा दिए थे. जस्टिस वेंकटस्वामी अपनी अंतरिम रिपोर्ट तैयार कर चुके थे. डरी हुई सरकार ने जस्टिस वेंकटस्वामी को बदलकर जांच की कमान जस्टिस फूकन को थमा दी. खबरें आ रहीं थीं कि जांच एक बार फिर से शुरू होगी. लेकिन हमारे लिए अब और बर्दाश्त करना मुमकिन नहीं था. हमने जांच में पूरा सहयोग किया था. लेकिन सरकार ये गतिरोध खत्म करने के मूड में ही नहीं थी. हमने फैसला किया कि बहुत हो चुका, अब इस अन्याय को बर्दाश्त करने का कोई मतलब नहीं. हमने नए कमीशन से हाथ पीछे खींच लिए.
ये तहलका की कहानी के पहले अध्याय या कहें कि तहलका-1 का अंत था. इसने एक तरह से हमें बड़ी राहत दी. हम मानो मौत के चंगुल से आजाद हो गए. बचाव के लिए दौड़-धूप करने में ऊर्जा बर्वाद करने की बजाय हम अब अपने मकसद पर ध्यान दे सकते थे.पैसा जुटाने के लिए एक साल की दौड़-धूप के बाद तरुण को दो ऑफर मिले जिसमें से हर एक में दस करोड़ रुपये की पेशकश की गई थी. लेकिन तरुण ने उन्हें ठुकरा दिया क्योंकि वे तहलका की मूल भावना के खिलाफ जाते थे. अब तरुण ने कुछ नया करने की सोची. उन्होंने सुझाव दिया कि लोगों के पास जाए और एक राष्ट्रीय अभियान चलाकर आम लोगों से तहलका शुरू करने के लिए पैसा जुटाया जाए. मैंने कमरे में एक नजर डाली. हम सब लोग तो लगान की टीम जितने भी नहीं थे.वो एक अजीब सा दौर था. कुछ समय पहले हमारी जिंदगी में गुजरात के एक व्यापारी और राजनीतिक कार्यकर्ता निरंजन तोलिया का आगमन हुआ था.(तहलका की कहानी में ऎसे कई सुखद पल आए जब अलग-अलग लोगों ने इस लड़ाई में हमारे साथ अपना कंधा लगाया. इससे हमें कम से कम ये आभास हुआ कि हम अकेले नहीं हैं.) तोलिया जी ने साउथ एक्सटेंशन स्थित अपने ऑफिस में हमें दो कमरे दे दिए. तहलका को फिर से शुरुआत के लिए थोड़ी सी जमीन मिली. हम रोज आफिस में जमा होते, चर्चा करते और योजनाएं बनाते. हमें यकीन था कि अखबार शुरू करने के लिए लाखों लोग पैसा देने के लिए तैयार हो जाएंगे.
अब सवाल था कि उन तक पहुंचा कैसे जाए. कई आइडिये सामने आए-स्कूलों, पान की दुकानों,एसटीडी बूथ्स और एसएमएस के जरिये कैंपेन, मानव श्रंखला अभियान आदि. रोज एक नया आइडिया सामने आता था. इनमें से कुछ तो अजीबोगरीब भी होते थे,मिसाल के तौर पर गुब्बारे और स्माइली बटन जिन पर तहलका लिखा हो. हमने उनलोगों की सूची बनाना शुरू किया जिनसे मदद मिल सकती थी. रोज होती बहस के साथ हमारा प्लान भी बनता जाता था. आखिरकार एक दिन हमारा मास्टर प्लान तैयार हो गया. जोश की हममें कोई कमी नहीं थी. दिल्ली में सब्सक्रिप्शन का टारगेट रखा गया 75,000 कापियां. तहलका का नाम अगर लोगों को खींचता था तो उसका अंजाम हमारे लिए अभिशाप भी बन जाता था. इस बात पर सब एक राय थे कि तहलका एक तूफानी ब्रांड है लेकिन तूफान से दोस्ती कर कौन मुसीबत मोल ले.लेकिन असली इम्तहान तो इसके बाद होना था. हमारे पास न पैसा था और न ही संसाधन. यहां तक कि आफिस में एक एसटीडी लाइन भी नहीं थी. इसके बगैर योजना को अमली जामा पहनाने के बारे में सोचना भी मुश्किल था.
कल जब अखबार निकलेगा तो डेढ़ लाख एडवांस कापियों का आर्डर चार महानगरों के जरिये पूरे देश के पाठकों तक पहुंचेगा. तहलका का पुनर्जन्म बिना थके आगे बढ़ने की भावना की जीत है. देखा जाए तो कर्ज में डूबे चंद लोगों द्वारा दो कमरों से एक राष्ट्रीय अखबार निकालने की बात किसी सपने जैसी ही लगती है. लेकिन हमारे भीतर एक अजीब सा उत्साह भरा हुआ था. कभी भी ऎसा नहीं लगा कि ये नहीं हो पाएगा. इसका कुछ श्रेय तरुण के बुलंद इरादों को भी जाता है और कुछ हमारे जोश को. कभी-कभार हम अपनी इस हिमाकत पर खूब हंसते भी थे. सच्चाई यही थी कि हमें आने वाले कल का जरा भी अंदाजा नहीं था. तरुण ने एक मंत्र अपना लिया था. वे अक्सर कहते थे- ये होगा, जरूर होगा, शायद उन्होंने सकारात्मक रहने की कला विकसित कर ली थी.
लेकिन 26 जनवरी 2003 की तारीख हमारे लिए एक बड़ा झटका लेकर आई. हमारे स्टेनोग्राफर अरुण नायर की एक सड़क हादसे में मौत हो गई. दुख का एक साथी, जिसने तहलका के भविष्य के लिए हमारे साथ ही सपने देखे थे, महज सत्ताईस साल की उम्र में हमारा साथ छोड़ गया. इस घटना ने हमें तोड़कर रख दिया. अखबार निकालने की तैयारी कर रहे हम लोगों को उस समय पहली बार लगा कि शायद अब ये नहीं हो पाएगा. हमें महसूस हुआ मानो कोई अभिशाप तहलका का पीछा कर रहा है. तहलका की कहानी के कई मोड़ हैं. इनमें एक वो मोड़ भी है जब जनवरी के दौरान बैंगलोर की एक मार्केटिंग कंपनी एरवोन ने हमसे संपर्क किया. कंपनी के पार्टनर्स में से एक राजीव नारंग तरुण के कालेज के दिनों के दोस्त थे. तरुण के इरादों से प्रभावित होकर उन्होंने तहलका को अपनी सेवाएं देने का प्रस्ताव रखा. हमारी उम्मीद को कुछ और ताकत मिली. राजीव ने जब हमारा प्लान देखा तो उन्होंने कहा कि इसे फिर से बनाने की जरूरत है. उन्होंने सुझाव दिया कि हम बैंगलोर जाएं और उनके पार्टनर्स को तहलका कैंपेन की जिम्मेदारी लेने के लिए राजी करें.अब कमान एरवोन के प्रोफेशनल्स के हाथ में थी. ये हमारे साथ तब हुआ जब हमें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी. एरवोन के काम करने के तरीके ने हममें नया जोश भर दिया. योजना बनी कि पूरे देश में एक जबर्दस्त सब्सक्रिप्शन अभियान शुरू किया जाए. मार्केटिंग के मामले में अनुभवी एरवोन की टीम ने अनुमान लगाया कि तहलका के नाम पर ही कम से कम तीन लाख एडवांस सब्सक्रिप्शंस मिल जाएंगे. लेकिन कैंपेन चलाने के लिए भी तो पैसे की जरूरत थी. ऎसे में हमारे दोस्त और शुभचिंतक अलिक़ पदमसी ने हमें एकरास्ता सुझाया. ये था- फाउंडर सब्सक्राइबर्स का, यानी ऎसे लोग जो इस कामके लिए एक लाख रुपये का योगदान कर सकें.
एक बार फिर तरुण की देशव्यापी यात्रा शुरू हुई. महीने में 25 दिन तरुण ने लोगों से बात करते हुए बिताए. नाइट क्लबों, आफिसों और ऎसी तमाम जगहों में, जहां कुछ फाउंडर सब्सक्राइबर्स मिल सकते थे, बैठकें रखी गईं. हालांकि उस वक्त तक भी सरकार से पंगा लेने का डर लोगों के दिलों में तैर रहा था. अप्रैल में हमें विक्रम नायर के रूप में पहला फाउंडर सब्सक्राइबर मिला. इसके बाद दूसरा फाउंडर सब्सक्राइबर मिलने में तीन हफ्ते लग गए. फिर धीरे-धीरे ये सिलसिला बढने लगा. हालांकि इस दौरान तरुण लगभग अकेले ही थे. मां बनने की वजह से मैं घर पर ही रहती थी. तोलिया जी जगह बदलकर पंचशील आ गए थे इसलिए हमें भी आफिस बदलना पड़ा था. ये जिम्मेदारी नीना के कंधों पर आ गई थी. तरुण की पत्नी गीतन घर संभालने की पूरी कोशिश कर रही थीं. बृज और प्रवाल भी अपनी जिम्मेदारी संभाल रहे थे.इसके बाद मोर्चा संभालने का काम एरवोन का था.हम केवल छह लोग रह गए थे. तरुण, उनकी बहन नीना, मैं, हमारे एकाउंटेंट बृज, डेस्कटाप आपरेटर प्रवाल और स्टेनोग्राफर अरुण नायर. सबका मकसद एक ही था. तहलका का वजूद अब हमारे जेहन में ही सही, पर काफी मजबूत हो चुका था. धीरे-धीरे एरवोन की योजना रंग लाने लगी. मई के आखिर में जब मैंने फिर से ज्वाइन किया तब तक चौदह अच्छी खासी कंपनियों ने तहलका कैंपेन के लिए मचबूती से मोर्चा संभाल लिया था. इनमें O&M, Bill Junction, Encompass जैसे बड़े नाम शामिल थे. एडवरटाइजिंग कंपनियां, कॉल सेंटर्स, SMS सेवाएं,साफ्टवेयर कंपनियां हमारे इस अभियान को सफल बनाने के लिए तैयार थीं. और इसके लिए उन्हें सफलता में अपना हिस्सा चाहिए था.
जिस अंधेरी सुरंग से हम गुजर कर आए थे उसे देखते हुए ये उम्मीद की किरण नहीं बल्कि आशाओं की बड़ी दीवाली थी. मैंने थोड़ा राहत की सांस ली. हमने अपनी नियति को कुशल प्रोफेशनल्स के हाथ में सौंप दिया था. आखिरकार हम उस अंधेरी सुरंग के बाहर निकल आए थे. कैंपेन की तारीख 15 अगस्त 2003 तय की गई. फिर शुरू हुआ तैयारी का दौर.प्लान बना कि इस मिशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए चार हजार जागरूक नागरिकों की फौज तैयार की जाए. इन लोगों को हमने ‘क्रूसेडर’ नाम दिया यानी अच्छाई के लिए लड़ने वाले लोग. क्रूसेडर्स को ट्रेनिंग दी जानी थी और तहलका के प्रचार के साथ उन्हें सब्सक्रिप्शन जुटाने का काम भी करना था जिसके लिए कमीशन दिया जाना तय हुआ. अभियान सात शहरों में चलाया जाना था. हवा बनने लगी. ट्रेनिंग मैन्युअल्स, प्रोडक्ट ब्राशर, टीशर्ट जैसी प्रचार सामग्रियां तैयार की गईं. उधर फाउंडर सब्सक्राइबर्स अभियान भी ठीकठाक चल रहा था. यानी अभियान को सफल बनाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई.तारीख कुछ आगे खिसकाकर 22 अगस्त कर दी गई. अखबार 30 अक्टूबर को आना था.21 अगस्त को दिल्ली में कुछ होर्डिंग्स लगाए गए. उन पर लिखा था कि तहलका एक अखबार के रूप में वापस आ रहा है. हम पूरी रात शहर में घूमे और इनहोर्डिंग्स को देखकर बच्चों की तरह खुश होते रहे. अगले दिन प्रेस कांफ्रेंस के बाद हम एक स्कूल आडिटोरियम में इकट्ठा हुए. जोशो खरोश के साथ 1200 क्रूसेडर्स की टीम को संबोधित किया गया. अगले दो दिन तक हमें सब्सक्रिप्शंस का इंतजार करना था.लेकिन हमारी सारी उम्मीदें औंधे मुंह गिरीं. 1200 क्रूसेडर्स की जिस टीम को बनाने में छह महीने लगे थे वह जल्द ही गायब हो गई. किसी भी कंपनी का प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक नहीं रहा. आने वाले हफ्तों में हम लांच अभियान के तहत चंडीगढ़, मुंबई, पुणे, बेंगलौर, चेन्नई गए मगर सब जगह वही कहानी देखने को मिली. आशाओं का महल भर भराकर गिर गया. इससे बुरा हमारे साथ कुछ नहीं हो सकता था. हर एक ने अपना हिस्सा मांगा और अलग हो गया.
हालांकि एरवोन हमारे साथ खड़ी रही. लेकिन तहलका का दूसरा अध्याय पहले से ज्यादा कष्टकारी था. एक साल बीत चुका था और हमारा आत्मविश्वास लगभग टूट चुका था. हमें लगा कि हम और भी अंधेरी सुरंग में फंस गए हैं. ये सुरंगपहली वाली से कहीं ज्यादा लंबी थी.
तहलका-3, यानी अखबार शुरू होने की कहानी के तीसरे भाग की अवधि सिर्फ तीन महीने है. किसी को भी पूरी तरह ये अंदाजा नहीं था कि हार कितनी पास आ गई थी.मंझधार से अखबार तक भाग-3 ये सितंबर का आखिर था. और हम सभी अब भी यकीन नहीं कर पा रहे थे कि हमारा कैंपेन नाकामयाब हो चुका है. सच्चाई तो ये थी कि कैंपने ढंग से शुरू ही नहीं हो पाया था. तहलका में पहली बार ऎसा दौर आया था कि जी हल्का करने के लिए हंसना भी बड़ी हिम्मत का काम था. हमें मालूम था कि अब हमारे पास कोई मौका नहीं है. धीरे-धीरे हमारी ताकत खत्म हो रही थी. हालात काफी अजीब हो गए थे. अब ऎसा कोई नहीं था जिसका दरवाजा खटखटाया जाए. एरवोन ने दिल से हमारे लिए काम किया था. वे ऎसे वक्त में हमसे जुड़े थे जब कोई भी हमारे पास आने की हिम्मत नहीं कर रहा था. बिना कोई फीस लिए उन्होंने हमारे लिए काफी कुछ करने की कोशिश की थी. लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ. लड़ाई जारी थी और हमारे हथियार खत्म हो चुके थे. अक्टूबर आते-आते हम ग्रेटर कैलाश स्थित अपने आफिस में जस्टिस वेंकटस्वामी अपनी अंतरिम रिपोर्ट तैयार कर चुके थे. डरी हुई सरकार ने जस्टिस वेंकटस्वामी को बदलकर जांच की कमान जस्टिस फूकन को थमा दी. खबरें आ रहीं थीं कि जांच एकबार फिर से शुरू होगी. लेकिन हमारे लिए अब और बर्दाश्त करना मुमकिन नहीं था. दलदल में गहरे धंसने के बावजूद हमें आगे बढ़ना था. इसलिए कि हमें अपने वादों की लाज रखनी थी. कुछ अच्छे पत्रकार हमारे साथ जुड़े. फाउंडर सब्सक्राइबर्स से अब भी कुछ पैसा आ रहा था. लेकिन ज्यादातर पैसा कैंपेन में खर्च हो चुका था.
15 अक्टूबर को तरुण ने हम सबको बुलाया और कहा कि हम 15 नवंबर को अखबार निकालेंगे. तब ये मानना मुश्किल था लेकिन अब लगता है कि ये हताशा में उठाया गया हिम्मत भरा कदम था. हमें लग रहा था कि अब इस लड़ाई का अंत निकट है. लेकिन हमारे लिए और उन सभी लोगों के लिए जिन्होंने हम पर भरोसा जताया था, अखबार का एक इश्यू निकालना तो कम से कम जरूरी था. दिल के किसी कोने में ये उम्मीद भी थी कि किसी तरह अगर हम अखबार निकालने में कामयाब हो जाएं तो शायद कोई चमत्कार हो जाए. आशावाद को हमने जीवन का मंत्र बना लिया. एरवोन ने प्लान बी का सुझाव दिया लेकिन तब तक हम बंद कमरे में लैपटाप पर बनाए गए प्लान के नाम से ही डरने लगे थे. हमारे पास सिर्फ योजनाओं के बूते अच्छे सपने देखने की ऊर्जा खत्म हो गई थी. हम 15 नवंबर की तरफ बढते गए. अचानक तरुण के एक दोस्त सत्याशील का हमारी जिंदगी में आगमन हुआ. दिल्ली के इस व्यवसायी ने बुरे वक्त के दौरान कई बार तरुण की मदद की थी. सत्या को ये जानकर धक्का लगा कि हम कहां पहुंच गए थे. उन्होंने तरुण को सुझाव दिया कि तीन साल की मेहनत और मुसीबतों को यूं ही हवा में उड़ाना ठीक नहीं और बेहतर है कि एक नए प्लान पर काम किया जाए. हमने सभी पार्टनर्स के साथ एक मीटिंग की.सत्या इसमें मौजूद थे. ये शोर शराबे से भरी मीटिंग थी जिसके बाद हमारे कुछ दिन बेकार की दौड़-धूप में बीते. हालांकि इसका एक फायदा ये हुआ कि हमारी अफरातफरी और डर खत्म हो गया. एक बार फिर हमारा ध्यान बड़े लक्ष्य पर केंद्रित हो गया. तहलका के अनुभव इससे जुड़े हर एक शख्स के लिए कई मायनों में कायापलट की तरह रहे. इन अनुभवों ने हमें कई चीजें सिखाईं. तहलका-2 से सबसे महत्वपूर्ण बात जो हमने सीखी वो ये थी कि बड़े सपनों को साकार करने के लिए अच्छी योजनाओं के साथ-साथ काम करने वाले लोग भी चाहिए. हमने इसी दिशा में काम शुरू किया.
अक्टूबर के आखिर तक हम अपने बिखरे सपनों के टुकड़े समेटने में लगे थे.एरवोन भी अब तक जा चुकी थी. हमने फिर से लांच की एक नई तारीख तय की-30जनवरी 2004. धीरे-धीरे, कदम दर कदम काम शुरू होने लगा. अफरा तफरी का दौर अब पीछे छूट चुका था. संसाधन बहुत ज्यादा नहीं थे लेकिन अब हमारे साथ कई लोगों की किस्मत भी जुड़ी थी. तरुण ने एक बार फिर हमें बिना थके आगे बढने का संकल्प याद दिलाया. हम सब ने फिर कंधे मिला लिए. पत्रकारों,डिजाइनर्स, प्रोडक्शन-प्रिंटिंग-सरकुलेशन एक्सपर्ट्स, एड सेल्समैन आदि की एक टीम तैयार की गई. ये एक जुआ था. लेकिन इसमें जीत की अगर थोड़ी सी भी संभावना थी तो वो तभी थी जब हम मैदान छोड़े नहीं. हमें लग रहा था कि अब इस लड़ाई का अंत निकट है. लेकिन हमारे लिए और उन सभी लोगों के लिए जिन्होंने हम पर भरोसा जताया था, अखबार का एक इश्यू निकालना तो कम से कम जरूरी था. दिल के किसी कोने में ये उम्मीद भी थी कि किसी तरह अगर हम अखबार निकालने में कामयाब हो जाएं तो शायद कोई चमत्कार हो जाए.फाउंडर सब्सक्राइबर्स का सिलसिला बना हुआ था. ये सचमुच किसी ऎतिहासिक घटना की तरह हो रहा था. अक्सर हमें तहलका में भरोसा जताती चिट्ठियां मिलती थीं. एक रिटायर कर्नल ने तो फाउंडर सब्सक्राइबर बनने के लिए अपने पेंशन फंड से एक लाख रुपये दे दिये. दूसरी तरफ चांदनी नाम की एक बीस सालकी लड़की ने सब्सक्रिप्शंस कमीशन से मिलने वाली रकम से फाउंडर सब्सक्राइबर बनने जैसा अनूठा कारनामा कर दिखाया. इन अनुभवों ने हमें आगे बढने की ताकत दी. हमें महसूस हुआ कि हम अकेले नहीं हैं. नए साल की शुरुआत के साथ ही हमारी किस्मत के सितारे भी फिरने लगे. अब काम ज्यादा कुशलता से होने लगा था.
17 जनवरी यानी पहला एडिशन लॉंच होने से ठीक बारह दिन पहले हमें एक युवा जोड़ा मिला जो तहलका के विचारों से प्रभावित होकर इसमें पैसा लगाना चाहता था. कुछ दूसरे निवेशकों की भी चर्चा चल रही थी. लगने लगा था कि बुरे दिन बीत चुके हैं. कल तहलका का विचार एक अखबार की शक्ल अख्तियार कर लेगा. कौन जाने वक्त के साथ ये कमजोर पड़ जाए या फिर धीरे-धीरे, खबर दर खबर, इश्यू दर इश्यू इसकी ताकत बढ़ती जाए. हालांकि अभी ये ठीक वैसा नहीं है जैसा हमने सोचा था, लेकिन ये काफी कुछ वैसा ही है जैसा इसे होना चाहिए. हम फिर एक नए सफर की शुरुआत कर रहे हैं और अंधेरी सुरंग पीछे छूट चुकी है. फिलहाल हमारे लिए उम्मीद का ये हल्का उजाला ही किसी बड़ी जीत से कम नहीं ….
शोमा चौधरी, जनवरी 2004