आजकल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की क़सम खा रखी है। लगातार विरोधियों और विपक्षियों के यहाँ सीबीआई, ईडी और आईटी यानी इनकम टैक्स के अधिकारियों की छापेमारी से यह पता चलता है कि देश में जितने भी लोगों के पास कालाधन है, वो निकलवाकर ही प्रधानमंत्री मोदी दम लेंगे। गुजरात में नक़ली नोटों के बक्से पकड़े गये हैं, वो भी एम्बुलेंस में; वो भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक एम्बुलेंस को प्रोटोकॉल तोड़ते हुए रास्ता देने के तीन दिन के अन्दर। है न कमाल की बात। किसे मालूम था कि एक एम्बुलेंस को रास्ता दिया जाएगा और एक एम्बुलेंस में करोड़ों के नक़ली नोट बरामद हो जाएँगे।
ड्रग्स भी कई बार पकड़ी ही जा चुकी है। हाल में पकड़ी गयी, उसमें ज़रूर कुछ पाकिस्तानी और कुछ अफ़ग़ानिस्तानी गिरफ़्तार हुए हैं। बाक़ी इससे पहले मुंद्रा बंदरगाह पर जो पकड़ी गयी थी, उसमें क्या कार्रवाई हुई? कुछ पता नहीं चला। चलना भी नहीं चाहिए। अख़बारों और चैनलों के ज़रिये लोगों तक वही चीज़ें पहुँचनी चाहिए, जो सरकार चाहती है। गुजरात का नमक देश खाता है। इसके मायने कहीं-न-कहीं यही हैं कि अब गुजरात यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के ख़िलाफ़ लोग बोलना बन्द कर दें। लेकिन सवाल यह है कि आख़िर ऐसा क्यों कि सरकार जो चाहती है, वही लोगों तक पहुँचना चाहिए और लोगों को भी उसी को सच मानना चाहिए? बाक़ी सब चीज़ों की ओर से उन्हें आँखें मूँद लेनी चाहिए। क्या भाजपा में भ्रष्ट नेताओं की कमी है? क्या भाजपा के समर्थक व्यापारी भ्रष्टाचार नहीं करते?
अभी हाल ही में यूनाइटेड स्टेट्स सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन (एसईसी) ने ओरेकल कॉर्पोरेशन पर भारतीय रेलवे की एक फर्म को क़रीब 4,00,000 डॉलर की मोटी रिश्वत देने के आरोप में 2,30,00,000 डॉलर का ज़ुर्माना लगाया है।
दरअसल यह घोटाला अमेरिका के भ्रष्टाचार निरोधक क़ानून विदेशी भ्रष्ट आचरण अधिनियम-1977 के तहत पकड़ा गया है। ओरेकल कॉर्पोरेशन पर भ्रष्टाचार का दूसरी बार इस तरह का आरोप लगा है। सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन ने ओरेकल कॉर्पोरेशन को भारत समेत तुर्की, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और अन्य कई देशों में सहायक कम्पनियों द्वारा विदेशी भ्रष्ट आचरण अधिनियम (एफसीपीए) के प्रावधानों का उल्लंघन करने के आरोपों में लिप्त पाते हुए उस पर 23 मिलियन डॉलर (एक अरब 89 करोड़ रुपये) से ज़्यादा की भारी-भरकम रक़म का ज़ुर्माना लगाया है।
सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन की रिपोर्ट बताती है कि उपरोक्त कम्पनी ने सन् 2016 से सन् 2019 के बीच व्यापार के बदले विदेशी अधिकारियों को रिश्वत देने के लिए स्लश फंड (रिश्वत के लिए रखे गये फंड) का इस्तेमाल किया। ऐसा आरोप है कि ओरेकल की सहायक कम्पनियों ने भी ओरेकल नीतियों और प्रक्रियाओं के उल्लंघन करते हुए तुर्की, संयुक्त अरब अमीरात और भारत के अधिकारियों को प्रौद्योगिकी सम्मेलनों में भाग लेने के लिए भुगतान करने के लिए स्लश फंड का इस्तेमाल किया। दरअसल एसईसी ने पहले ओरेकल को स्लश फंड बनाने के सम्बन्ध में मंज़ूरी दी थी। सन् 2012 में ओरेकल ने ओरेकल इंडिया द्वारा लाखों डॉलर के स्लश फंड के निर्माण से सम्बन्धित आरोपों का समाधान किया, जिससे निधि का उपयोग अवैध रूप से हुआ।
चौंकाने वाले ख़ुलासे के मुताबिक, ओरेकल कॉर्पोरेशन ने 67,000 डॉलर की भारी-भरकम रक़म का रिश्वत फंड बनाया था। यानी अपने ग़लत कामों को करने देने के एवज़ में रिश्वत देने के लिए इस कम्पनी ने 67,000 डॉलर (55,00,000 रुपये से ज़्यादा) का स्लश फंड रखा हुआ था। यह तो वो रक़म है, जो दिखायी जा रही है। कहा जा रहा है कि इससे कहीं ज़्यादा पैसा कम्पनी रिश्वत और गिफ्ट के लिए ख़र्च करती थी। यहाँ सवाल यह उठता है कि जब इस कम्पनी के इतने बड़े घोटाले, जो कि अभी 10 फ़ीसदी भी उजागर नहीं हुआ है; के बारे में पूरी दुनिया में हंगामा मचा हुआ है; तो हमारे देश की मोदी सरकार को क्या इसके बारे में पता नहीं चला है? क्या इस कम्पनी के साथ-साथ रिश्वत लेने वाले अधिकारियों, कर्मचारियों और शायद इसमें कुछ नेता भी हों, उनकी जाँच सीबीआई और ईडी के साथ-साथ इनकम टैक्स जैसे विभागों को नहीं करनी चाहिए? क्या इनका इस्तेमाल सिर्फ़ और सिर्फ़ विरोधियों और विपक्षियों को कमज़ोर करने और डराने के लिए ही किया जाता है?
एसईसी के एफसीपीए यूनिट के प्रमुख चाल्र्स केन कहते हैं- ‘ऑफ-बुक स्लश फंड का निर्माण स्वाभाविक रूप से जोखिम को जन्म देता है। इन फंडों का अनुचित तरीक़े से उपयोग किया जाएगा। ओरेकल द्वारा तुर्की, यूएई और भारत की सहायक कम्पनियों में ठीक यही हुआ है। यह मामला कम्पनी के सम्पूर्ण संचालन में प्रभावी आंतरिक लेखा नियंत्रण की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।’
ओरेकल कॉर्पोरेशन का चुपचाप ज़ुर्माना भरना साफ़ ज़ाहिर करता है कि कम्पनी अपनी ग़लती मानती है और बड़ी जाँच से बचने के लिए उसने बिना आनाकानी किये 23 मिलियन डॉलर का ज़ुर्माना देने के लिए सहमति दे दी। सवाल यह है कि भारतीय रेलवे के तहत राज्य के स्वामित्व वाली संस्थाओं में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को यूनाइटेड स्टेट्स सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन के उजागर करने के बावजूद केंद्र की मोदी सरकार इस पर कोई चर्चा नहीं कर रही है और न ही उसने कोई कार्रवाई इस कम्पनी और रिश्वत लेने वालों के ख़िलाफ़ की गयी है। जबकि रिपोट्र्स बताती हैं कि सरकार को सारी कहानी अच्छी तरह मालूम है।
विदेशी भ्रष्ट आचरण अधिनियम अमेरिकी कम्पनियों के लिए विदेशों में रिश्वत देना और लेना दोनों ही अपराध माने जाते हैं। इसके बावजूद हिन्दुस्तान में अनुचित आचरण के तहत सन् 2019 में ओरेकल ने रेलवे के अधिकारियों को रिश्वत खिलाते हुए अपने लिए अत्यधिक छूट का दुरुपयोग किया। इस लेन-देन में से अधिकांश का स्वामित्व भारतीय रेल मंत्रालय (भारतीय एसओई) के पास था।
नाम न छापने की शर्त पर कुछ कर्मचारियों ने ख़ुलासा किया है कि सन् 2019 में सॉफ्टवेयर सामान पर 70 फ़ीसदी की भारी छूट के लिए रिश्वत दी। लेन-देन में शामिल बिक्री कर्मचारियों में किसी ने स्प्रेडशीट बना ली, जिससे पता चलता है कि 67,000 डॉलर की भारी-भरकम रक़म तो एक विशिष्ट भारतीय एसओई अधिकारी के लिए लिए दी गयी। नहीं कहा जा सकता कि इस मामले को हिन्दुस्तान में दबाने के लिए कितनी मोटी रक़म रिश्वत या गिफ्ट के तौर पर ली गयी या ली जाएगी।
बहरहाल एक दूसरे मामले की भी यही कहानी है और यह मामला वालमार्ट द्वारा अपने स्टोर खोलने के लिए रिश्वत दिये जाने का है। कहा जाता है कि सन् 2019 में वालमार्ट ने अपने स्टोर भारत में खोलने के लिए मोटी रिश्वत दी थी, जिसके चलते उसने 292 मिलियन डॉलर का ज़ुर्माना अमेरिका में भरा था। लेकिन केंद्र सरकार ने इस कम्पनी के ख़िलाफ़ और ख़ासतौर पर रिश्वत लेने वाले नेताओं, अधिकारियों, कर्मचारियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की। इसी प्रकार से ब्राजील की एंब्रेय कम्पनी ने वहाँ पर मोटा ज़ुर्माना भरा। इस कम्पनी पर भारतीय वायु सेना को विमान बेचने के लिए रिश्वत खिलाने का आरोप लगा था।
एक राजनीतिक जानकार कहते हैं कि ज़ाहिर है जब अमेरिका जैसे देश की कम्पनियाँ हिन्दुस्तान में अपना व्यापार स्थापित करने के लिए मोटी रिश्वत खिला रही हैं; तो चीनी कम्पनियों ने यहाँ अपना व्यापार स्थापित करने के लिए कितनी मोटी रिश्वत खिलायी होगी? राफेल मामला हममें से किसी से छिपा नहीं है; लेकिन सरकार ने उस पर भी पर्दा डाल दिया है। दरअसल ये कम्पनियाँ मामले को दबाने के लिए मुक़दमे और जाँच से बचने के लिए विदेशों में तो मोटा ज़ुर्माना देकर सेटलमेंट कर लेती हैं; लेकिन क्या हिन्दुस्तान में ओरेकल और वालमार्ट जैसी कम्पनियों पर कोई ज़ुर्माना केंद्र सरकार लगाती है? यहाँ कहा जा सकता है कि अगर ये विदेशी कम्पनियाँ इतनी मोटी रिश्वत देने, ज़ुर्माना भरने और दूसरी मदों में ख़र्चा करती हैं, तो ज़ाहिर है कि वो सारा पैसा निकालने के लिए भारत की जनता का ही ख़ून चूसेंगी। क्या इस लिहाज़ से केंद्र की मोदी सरकार इन पर कोई लगाम कसेगी? सवाल यह भी है कि अधिकतर मामलों में सीबीआई, ईडी और इनकम टैक्स के अधिकारी ऐसे मामलों में तो तुरन्त पहुँच जाते हैं, जिनमें कई बार कोई गम्भीर मामला ही नहीं निकलता। लेकिन जहाँ सब कुछ साफ़-साफ़ दिख रहा है, वहाँ न तो सीबीआई के अधिकारी पहुँचते हैं, न ईडी के अधिकारी पहुँचते हैं और न ही इनकम टैक्स के ही अधिकारी पहुँचते हैं। तो यहाँ ऐसा नहीं लगता कि इन एजेंसियों का आँखें मूँदे रहना और सरकार का सीधे सामने नज़र आ रहे भ्रष्टाचार पर संज्ञान न लेना, एक दोहरा मापदण्ड है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)