बच्चों को नमक के साथ रोटी खिलाने के बाद एक लीटर दूध में एक बाल्टी पानी पिलाया गया। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि यह घटनाएँ उस मिड-डे मील योजना से जुड़ी हैं, जिसका देश-भर का सालाना बजट 11,000 करोड़ रुपये है? एक बहुत ही अच्छे उद्देश्य से शुरू की गयी इस योजना की हालत यह है कि पिछले तीन साल से भी कम समय में इसे लेकर 52 शिकायतें मिल चुकी हैं। भ्रष्टाचार और लापरवाही का असर है कि बिहार में 2013 में मिड-डे मील का खाना खाकर 23 बच्चों की जान चली गयी थी। बच्चों के बीमार होने की घटनाएँ तो बहुत •यादा हैं।
यदि मिड-डे मील योजना का गहराई से मूल्यांकन किया जाए, तो इसका सबसे उजला पहलू यह है कि यह दूरदराज़ के इलाकों में बच्चों को घरों से स्कूलों की चौखट तक लाने में सफल रही है; साथ ही स्कूल छोडऩे का प्रतिशत कम करने में भी। आँकड़े इसके गवाह हैं। लेकिन नमक के साथ रोटी खिलाने और एक लीटर दूध में बाल्टी-भर पानी डालकर बच्चों को पिलाने जैसी घटनाएँ इस योजना की छवि को दागदार कर गयी हैं। योजना का अध्ययन करने से सामने आता है कि देश-भर के 11.30 करोड़ बच्चों को स्कूल में दोपहर का भोजन देने वाली इस योजना में बहुत खामियाँ हैं। स्वच्छता से लेकर मानदंडों के मुताबिक भोजन बच्चों को देने तक बड़े पैमाने पर नियमों को ताक पर रखा जाता है। तहलका की जुटाई जानकारी के मुताबिक पिछले करीब ढाई साल में मिड-डे मील का भोजन खाने से सरकारी स्कूलों में करीब 930 बच्चे बीमार हो चुके हैं, जिनमें कई को गम्भीर स्थिति से गुज़रना पड़ा। इस योजना के तहत खाना स्कूल में ही बनाना होता है, जहाँ सुविधाएँ न के बराबर होती हैं। एक साफ किचन में जो होना चाहिए, वह मिड-डे मील योजना की •यादातर स्कूली रसोइयों में नहीं मिलता। छिपकली से लेकर तमाम ज़हरीले कीड़े-मकौड़े वहाँ दिखते हैं, जो कभी भी जानलेवा साबित हो सकते हैं। मिड-डे मील का खाना खाकर दर्जनों बार बच्चों के बीमार होने की घटनाएँ इसकी गवाह हैं। साल 2013 में तो 23 बच्चों को इसी लापरवाही के चलते अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। जुलाई, 2019 के 2019-20 के बजट में स्कूलों में मध्याह्न भोजन के राष्ट्रीय कार्यक्रम के लिए 11,000 करोड़ रुपये आवंटित किये गये हैं। लेकिन एक सच यह भी है कि सरकार ने पिछले साल इस योजना के लिए निर्धारित राशि से 1050.96 करोड़ रुपये कम खर्च किये गये।
वैसे इस साल (2019-2020) के लिए केन्द्र सरकार की तरफ से मिड-डे योजना के लिए रखे गये 11,000 करोड़ रुपये राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 की कवर की गयी योजना के लिए मोदी सरकार की तरफ से आवंटित सबसे अधिक राशि ज़रूर है; लेकिन यह 2013-14 के दौरान किये गये मनमोहन सिंह सरकार के बजट आवंटन 13,215 करोड़ रुपये से 2,215 करोड़ रुपये कम है। इससे पहले मोदी सरकार ने जब वित्त वर्ष 2013-14 में वार्षिक बजट 13,215 करोड़ रुपये से घटाकर वित्त वर्ष 2014-15 में 9,236 करोड़ रुपये कर दिया, तो कई सामाजिक संगठनों ने इस पर सवाल उठाये थे। हालाँकि कुछ महीने पहले ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने स्कूलों में दोपहर के खाने पर तैयार करने वाली कीमतों में बढ़ोतरी की है। इसके तहत प्राइमरी तक के लिए प्रति छात्र 13 पैसे की बढ़ोतरी की गई है, जबकि अपर प्राइमरी यानी छठी से आठवीं तक के लिए प्रति छात्र 20 पैसे की बढ़ोतरी की गयी है।
इसके तहत प्राइमरी स्तर के प्रति छात्र का खाना तैयार करने का खर्च अब 4.48 रुपये हो गया है; इनमें केन्द्र 2.69 रुपये देगा, जबकि राज्य 1.79 रुपये का खर्च उठाएगा। वहीं बढ़ोतरी के बाद अपर प्राइमरी स्तर के प्रति छात्र खाना बनाने का खर्च 6.71 रुपये कर दिया गया है। इनमें से 4.03 रुपये केन्द्र देगा, जबकि 2.66 रुपये राज्य को देना होगा।
इस योजना का एक बड़ा उद्देश्य बच्चों को आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों के बच्चों को कुपोषण से भी बचाना है। लेकिन स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य के हाल में जारी किये गये सर्वे के आँकड़े बताते हैं कि देश में पाँच साल से कम आयु के 35.7 फीसदी बच्चे कम वजन के हैं। अर्थात् उन्हें पर्याप्त पोषण नहीं मिल पा रहा है। यही नहीं सर्वे बताता है कि 38.4 फीसदी बच्चे अविकसित हैं। और भी चिंताजनक बात यह है कि 58.5 फीसदी बच्चे खून की कमी झेल रहे हैं यानी एनेमिक हैं।
योजना की शुरुआत
मिड-डे मील कार्यक्रम को एक केन्द्रीय प्रवर्तित योजना के रूप में 15 अगस्त, 1995 को पूरे देश में लागू किया गया था। सितंबर 2004 में कार्यक्रम में व्यापक परिवर्तन करते हुए मेन्यू आधारित पका हुआ गर्म भोजन देने की व्यवस्था शुरू की गयी। इस योजना के तहत न्यूनतम 200 दिन के लिए निम्न प्राथमिक स्तर के लिए प्रतिदिन न्यूनतम 300 कैलोरी ऊर्जा और 8-12 ग्राम प्रोटीन, जबकि उच्च प्राथमिक स्तर के लिए न्यूनतम 700 कैलोरी ऊर्जा और 20 ग्राम प्रोटीन देने का प्रावधान है।
मिड-डे मील कार्यक्रम एक बहुद्देशीय कार्यक्रम है और यह राष्ट्र की भावी पीढ़ी के पोषण और विकास से जुड़ा हुआ है। इसके प्रमुख उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनीकरण को बढ़ावा देना, विद्यालयों में छात्रों के नामांकन में वृद्धि और छात्रों को स्कूल में आने के लिए प्रोत्साहित करना, स्कूल ड्रॉप-आउट को रोकना और बच्चों की पोषण सम्बन्धी स्थिति में वृद्धि और सीखने के स्तर को बढ़ावा देना रखा गया है।
क्या-क्या हैं खामियाँ
मिड-डे मील योजना को जिन स्कूलों में चलाया जाता है, उन सभी के लिए सरकार ने गाइडलाइंस तैयार की हैं और इनका पालन हर स्कूल को करना पड़ता है। मिड-डे मील से जुड़ी प्रथम गाइडलाइन के मुताबिक जिन स्कूलों में मिड-डे मील का खाना बनाया जाता है, उन स्कूलों को ये खाना रसोई घर में ही बनाना होता है। कोर्ई भी स्कूल किसी खुली जगह में और किसी भी स्थान पर इस खाने को नहीं बना सकता है। एक और गाइडलाइन के मुताबिक रसोई घर, क्लास रूम से अलग होना चाहिए, ताकि बच्चों को पढ़ाई करते समय किसी भी तरह की परेशानी न हो। स्कूल में खाना बनाने में इस्तेमाल होने वाले ईंधन जैसे रसोई गैस को किसी सुरक्षित जगह पर रखना अनिवार्य है। इसी के साथ ही खाना बनाने वाली चीज़ों को भी साफ जगह पर रखने का •िाक्र इस स्कीम की गाइडलाइन में किया गया है। लेकिन इन नियमों को ताक पर रखा जाता है। देश में ऐसे सैकड़ों स्कूल हैं, जहाँ बच्चों को पढ़ाई के लिए ही पूरे कमरे उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में भला मिड-डे की रसोई के लिए जगह कहाँ होगी?
गाइडलाइन के मुताबिक, खाना बनाने के लिए केवल एग्मार्क गुणवत्ता और ब्रांडेड वस्तुओं का इस्तेमाल किया जाना ज़रूरी है साथ ही जिन चीज़ों का इस्तेमाल खाना बनाने के लिए किया जाएगा, उनकी क्वालिटी अच्छी होनी चाहिए। इसमें पेस्टिसाइड वाले अनाजों का प्रयोग किसी भी प्रकार के खाने में नहीं करने का भी साफ •िाक्र है।
लेकिन सच इससे उलट है। भ्रष्टाचार के चलते कई जगह बिना गुणवत्ता के उत्पादों से समझौता किया जा रहा है। बच्चों के मुँह में जाने वाला निवाला भ्रष्टाचारियों के पेट में जा रहा है। गाइडलाइन के मुताबिक, कक्षा एक से पाँच तक के हर बच्चे को दिए जाने वाले खाने में कैलोरी की मात्रा 450 और प्रोटीन (ग्राम में) की मात्रा 12 तक होनी चाहिए, जबकि छठी से आठवीं कक्षा में पढऩे वाले छात्र को दिए जाने वाले खाने में कैलोरी की मात्रा 700 और प्रोटीन (ग्राम में) की मात्रा 20 होनी चाहिए। लेकिन इसका पालन बहुत काम स्कूलों में किया जा रहा है। यदि निष्पक्ष जाँच हो तो ऐसा कड़ुवा सच सामने आयेगा, कि इस योजना पर ही गम्भीर सवाल खड़े हो जाएँगे, जबकि यह योजना बहुत ही अच्छे उद्देश्य के लिए शुरू की गयी थी।
जहाँ तक सफाई की बात है, उसका बहुत कम ध्यान रखा जाता है। अगर सफाई रखी जा रही होती, तो ढाई साल में 900 से •यादा बच्चों के बीमार पडऩे के मामले सामने नहीं आते। लापरवाही का प्रमाण बिहार के जमुई •िाले के सिकन्दरा से सटे लखीसराय के हलसी के उत्क्रमित मध्य विद्यालय बेला मध्याह्न भोजन खाने से 30 अप्रैल, 2019 को करीब 60 बच्चे बीमार पड़ गये। मध्याह्न भोजन में छिपकली मिलने के बाद छात्रों को पेट दर्द की शिकायत हुई, जिसके बाद उन्हें इलाज के लिये अस्पताल भेजा गया। वहीं 2013 में 23 बच्चों की जान जाने की शर्मनाक घटना न होती। वैसे गाइडलाइन में साफ लिखा है कि खाना बनाने से पहले सब्•िायों, दालों और चावलों को अच्छे से धोया जाए। लेकिन बहुत कम स्कूलों में इस गाइडलाइन को सही तरीके से फॉलो किया जाता है। खाना खिलाने से पहले बच्चों के हाथ तक नहीं धुलवाए जाते। यहाँ तक कि खाना बनाने वाले भी सफाई के मामले में घोर लापरवाही बरतते हैं। उनके नाखून भी बड़े होते हैं, जो कि गाइडलाइन का एक अहम हिस्सा है।
गाइडलाइन में एक जगह लिखा गया है कि खाना बनने के बाद उसे बच्चों को परोसने से पहले खाने का स्वाद पहले 2-3 लोगों को चखना होगा और इन दो तीन लोगों में से कम से कम एक टीचर होना चाहिए। यही नहीं गाइडलाइन में साफ है कि समय-समय पर बच्चों को दिये जाने वाले इस खाने के नमूनों का टेस्ट स्कूलों को मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं में करवाना होगा।
बहुत कम स्कूलों में ऐसा किया जाता है। बहुत से स्कूलों में खाना खाने के बाद बच्चों की तबीयत खराब होने या उनके बीमार पडऩे की खबरें आयी हैं, जो ज़ाहिर करती हैं कि न तो खाना पहले 2-3 लोग टेस्ट करते हैं, न कभी किसी प्रयोगशाला में खाने के नमूनों की जाँच कर उनकी क्वालिटी जाँचने की जहमत उठायी जाती है। ऐसा किया गया, तो बच्चों को बीमार पडऩे से बचाया जा सकता था। गाइडलाइन के मुताबिक, जैसे ही बच्चों को खाना परोस दिया जाए, खाना बनाने में इस्तेमाल हुए बर्तन साफ कर दिये जाएँ, सच यह है कि कई जगह ऐसा नहीं होता। कई स्कूलों में बर्तन माँझने का काम भी बच्चों से करवाया जाता है। यही नहीं कई स्कूलों में भोजन की मात्रा में भी गड़बड़ की जाती है। भोजन न तो संतुलित होता है न पौष्टिक, जबकि नियमावली में साफतौर पर छ: के छ: दिन का चार्ट बनाया गया है।
इसी साल सितंबर में एक वेबसाइट की रिपोर्ट ने चौंकाने वाला खुलासा किया कि देश के विभिन्न स्कूलों में नामांकन या एडमिशन लेने वाले लगभग तीन करोड़ बच्चों को मिड-डे मील यानी मध्याह्न भोजन योजना का लाभ नहीं मिल पाता है। मिड-डे मील की सरकारी वेबसाइट पर दिये वार्षिक आँकड़ों के मुताबिक, पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2018-19 में देश में कुल 11.93 करोड़ बच्चों का दािखला विभिन्न स्कूलों में हुआ है; लेकिन इनमें से 9.036 करोड़ बच्चों को ही मिड-डे मील दिया गया है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि मिड-डे मील की मॉनीटरिंग करने वाली बॉडी पीएबी (प्रोजेक्ट अप्रूवल बोर्ड) ने ही स्कूलों में भर्ती कुल छात्रों की संख्या को दरकिनार करते हुए करीब 9.58 करोड़ बच्चों को मिड-डे मील का आवंटन किया। यानी पीएबी ने ही करीब 2.40 करोड़ बच्चों का मिड-डे मील (स्वीकृत) नहीं किया।
इतना ही नहीं, जिन 9.58 करोड़ बच्चों को मिड-डे मील का अप्रूवल मिला है, उनमें से भी लगभग 55 लाख बच्चों को मिड-डे मील वित्तीय वर्ष 2018-19 में नसीब नहीं हुआ है। यानी मिड-डे मील को लेकर सरकार भले ही लाख दावे कर ले, वास्तविकता उससे बहुत दूर है। अब भी बड़ी संख्या में बच्चों को गर्म खाना मुहैया नहीं कराया जा सका है। ये सरकारी और अब तक के नवीनतम आँकड़े हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर राज्यों के आँकड़े देखें और उदाहरण के तौर पर राजस्थान को लें, तो यहाँ पर 2018-19 में लगभग 62 लाख बच्चों का दािखला हुआ; लेकिन पीएबी ने 45 लाख बच्चों के लिए ही मिड-डे मील अप्रूव किया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, बच्चों को मिड-डे मील मुहैया करा पाने में नाकाम रहने वाले बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश पहले नम्बर पर आता है। यहाँ पर सिर्फ 57.08 प्रतिशत नामांकित बच्चों को ही मिड-डे मील मिल पा रहा है। इसके बाद बिहार का नम्बर आता है। यहाँ पर 59.39 प्रतिशत बच्चों को मिड-डे मील मिलता है। तीसरे नम्बर पर झारखण्ड है। यहाँ के 61.45 प्रतिशत बच्चों को दोपहर का गर्म खाना मिलता है। चौथे नम्बर पर मध्य प्रदेश और पाँचवें पर राजस्थान हैं। यहाँ क्रमश: 71.45 और 73.80 प्रतिशत नामांकित बच्चों को मिड-डे मील दिया जा रहा है। इसमें आगे कहा गया है कि यदि बेहतर प्रदर्शन की बात करें, तो बच्चों को मिड-डे मील देने में पूर्वोत्तर के राज्यों का प्रदर्शन अच्छा हैं। अगर पाँच बड़े राज्यों की बात करें, तो उनमें अरुणाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, केरल, असम और कर्नाटक आते हैं, जहाँ 90 प्रतिशत से •यादा बच्चों को मिड-डे मील मुहैया कराया जा रहा है। मिड-डे मील में सरकार द्वारा प्रति छात्र खर्च की जाने वाली रकम भी बहुत कम है। यह योजना वैसे तो पूरी तरह से केन्द्र सरकार की है, लेकिन इसको तैयार करने पर होने वाले खर्च में केन्द्र और राज्यों दोनों की हिस्सेदारी रहती है। इसका फैसला केन्द्रीय फंडिंग पैटर्न के आधार पर तय होता है।
एक रिपोर्ट में राजस्थान के उपायुक्त, (क्रिन्यान्वन और मूल्यांकन) मिड-डे मील आयुक्तालय, आशीष व्यास का बयान भी दिया है, जिसमें उन्होंने कहा कि कुल भर्ती छात्रों की संख्या नि:संदेह •यादा है। लेकिन मिड-डे मील की मॉनीटरिंग करने वाली बॉडी पीएबी छात्रों की उपस्थिति के आधार पर अप्रूवल देती है। राजस्थान राज्य में पिछले पाँच साल में छात्रों की उपस्थिति लगभग 75 प्रतिशत के करीब है। अप्रूवल भी इसी आधार पर दिया गया है। आप आँकड़ों को देख लीजिए। दूसरी बात स्कूल में आने वाले हर बच्चे को मिड-डे मील दिया गया है। हम इसकी गारंटी लेते हैं।
भ्रष्टाचार के उदाहरण
हाल में उत्तर प्रदेश के तीन •िालों- रायबरेली, कन्नौज और प्रतापगढ़ में हुए एक बड़े मिड-डे मील घोटाले में 29 लोगों के िखलाफ मामला दर्ज किया गया था। आरोपियों पर मिड-डे मील के लिए आवंटित अनाज को बाज़ार में बेचने के आरोप हैं। रायबरेली में एक निजी व्यापारी के गोदाम में इस योजना के लिए भारी मात्रा में आये खाद्यान्न की बरामदगी के लिए छापेमारी के बाद प्रतापगढ़ के चार पर्यवेक्षकों और 17 आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को निलंबित कर दिया गया।
रायबरेली के सलोन ब्लॉक के गोदाम में लगभग 155 बैग (करीब 9,300 किलोग्राम) अनाज मिला, जिसे पड़ोस के प्रतापगढ़ से लाया गया था। विभागीय जाँच के बाद यह खुलासा हुआ कि मिड-डे मील के लिए आया यह अनाज प्रतापगढ़ के रामपुर-संग्रामगढ़ और रामपुर खास ब्लॉकों के लिए था, जिसे गैर-कानूनी ढंग से रायबरेली के व्यापारियों के बेच दिया गया। जाँच रिपोर्ट के आधार पर व्यापारी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। योजना के वितरण में अनियमितता पाये जाने के बाद कन्नौज में भी चार मुख्य सेविकाओं और एक मुख्य क्लर्क को निलंबित कर दिया गया था। कन्नौज में •िाला मजिस्ट्रेट (डीएम) की टीम को मिड-डे मील के लिए आवंटित अनाज बड़ी मात्रा में एक ऑटो रिक्शा में मिले थे, जिसे कहीं ले जाया जा रहा था।
पत्रकार के िखलाफ ही कर दी कार्रवाई
करीब तीन महीने पहले एक वीडियो सामने आया, जो उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के एक गाँव का था। सरकारी स्कूल के बच्चे मिड-डे मील में नमक-रोटी खाते दिख रहे थे। वीडियो वायरल में हंगामा मच गया। परेशान अधिकारियों को और कुछ नहीं सूझा तो उस पत्रकार के िखलाफ ही मामला दर्ज कर लिया गया, जिसने वीडियो रिकॉर्ड किया था। सच्चाई सामने लाने वाले पत्रकार पर धोखाधड़ी और आपराधिक सा•िाश के आरोप जड़ दिये गये। इस मामले में नमक के साथ रोटी खिलाने वालों के िखलाफ क्या कार्रवाई हुई, किसी को पता नहीं।
इस घटना की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि उत्तर प्रदेश में ही एक और घटना सामने आ गयी। मिड-डे मील में दिये जाने वाले दूध की यह शर्मनाक घटना भी तब सामने आयी, जब रसोइया द्वारा दूध में पानी मिलाने का वीडियो स्कूल के ही किसी कर्मचारी ने वायरल कर दिया। रसोइये का कहना था कि उसने ऐसा शिक्षा मित्र के कहने पर किया। सोनभद्र सलाइबनवा प्राइमरी स्कूल की रसोइया फूलवंती ने मीडिया को बताया कि मात्र एक पैकेट दूध में बाल्टी भरकर पानी डाला गया और 81 बच्चों को पिलाया गया। घटना सामने आने के बाद दो शिक्षामित्र बर्खास्त कर दिये गये।
फिर लापरवाही, खाने में मिला मरा चूहा
मिड डे मील में लापरवाही की एक और बड़ी घटना इसी 3 दिसंबर की है। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर स्थित एक सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में कक्षा छ: के छात्रों को परोसे गये मिड-डे मील के भोजन में मरा हुआ चूहा मिला। इसे खाने से कई बच्चों की हालत बिगड़ गयी। इसकी सूचना मिलते ही स्कूल प्रशासन में हडक़ंप मच गया। मिड-डे मील बाँटने वाली संस्था युवा कल्याण सेवा समिति की ओर से मिड-डे मील में दाल-चावल स्कूल भेजे गए थे। इस घटना के बाद इस एनजीओ को ब्लैकलिस्ट कर उनके िखलाफ एफआईआर दर्ज कर दी गयी।
घट रहा योजना का बजट
वर्ष 2001 में शुरू की गयी मिड-डे-मील योजना का उद्देश्य देश-भर के सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन प्रदान करना है। लेकिन मोदी सरकार में इस योजना प्राथमिकता नहीं मिली है। कुल खर्च में एमडीएम की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2014-15 में 0.63 फीसदी से घटकर वित्त वर्ष 2019-20 में 0.39 फीसदी (आवंटित 11,000 करोड़ रुपये) हो गयी है। दूसरी तरफ करोड़ों वंचित बच्चे कोर्ई लाभ नहीं उठा सके। उदाहरण के लिए केवल बिहार में कुल 1,80,95,158 छात्रों (कक्षा 1-8) का उन स्कूलों में दािखला है जहाँ ये योजना लागू है। इनमें से लगभग 41 फीसदी या 73 लाख छात्रों को बिहार में इस योजना के तहत लाभ नहीं मिल पाया।
तीन साल में 52 शिकायतें
पिछले तीन साल के दौरान देश भर में मिड-डे मील में भ्रष्टाचार की 52 शिकायतें मिली हैं। इनमें उत्तर प्रदेश नम्बर एक पर है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, अक्टूबर, 2019 तक उत्तर प्रदेश में सबसे •यादा 14, बिहार से 11, पश्चिम बंगाल 6, महाराष्ट्र 5, राजस्थान 4, असम, दिल्ली, हरियाणा से 2-2 और छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, पंजाब, त्रिपुरा और उत्तराखंड से एक-एक शिकायत मिली है। वैसे यह वे आँकड़े हैं, जो सामने आये हैं। जानकारों के मुताबिक, देश के कई दूर-दराज़ इलाकों से आमतौर पर कोई शिकायत नहीं मिलती; जबकि बड़े पैमाने पर मिड-डे मील योजना में गड़बड़ की जाती है। इन इलाकों में शिकायत आये भी तो उसे दबा दिया जाता है। गौरतलब है कि अकेले उत्तर प्रदेश में करीब 1.59 करोड़ बच्चों को मिड-डे रोज़ परोसा जाता है।