जनवादी परम्परा के लेखक मुक्तिबोध अपनी ‘साहित्यिक डायरी’ में लिखते हैं- ‘दिल्ली से प्रांतीय राजधानियों तक जो अवसरवाद, अनाचार और भ्रष्टाचार फैला हुआ है, उसके लिए हमारे बुज़ुर्ग ज़िम्मेदार थे।’
असल में जिन्हें समाज को ईमानदारी की सीख और संस्कार देने थे, उन्होंने भ्रष्टाचार और अनाचार को प्रश्रय दिया। वर्तमान में इस कुव्यवस्था से संस्कार प्रदाता और व्यक्तित्व निर्माणक शिक्षण संस्थान भी अतिशप्त हैं। कुछ समय पूर्व उच्च शिक्षण संस्थान के प्राध्यापकों की योग्यता का एक विद्रूप दृश्य तब देखने को मिला, जब तिलकामांझी विश्वविद्यालय, भागलपुर में विश्वविद्यालय सेवा आयोग से चयनित असिस्टेंट प्रोफेसरों से कुलपति ने पूछा कि बेरोज़गारी क्या है? बेरोज़गारी दर क्या है? मौलिक अधिकार कितने और कौन-कौन से हैं? शिक्षा का अधिकार क्या है? अब तक संविधान में कितनी बार संशोधन हुआ है? इन सामान्य स्तर के प्रश्नों का उत्तर देने में असिस्टेंट प्रोफेसरों के पसीने छूट रहे थे। निकट ही उत्तर प्रदेश के एक विश्वविद्यालय में नवनियुक्त शिक्षक ठीक ढंग से प्रार्थना पत्र नहीं लिख पा रहे थे। इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा आयोग में भर्तियों में हुई धाँधली पर आन्दोलनरत प्रतियोगी छात्रों की शिकायत और जाँच की माँग को सरकार लगातार अनसुनी कर रही है। ज़रा कल्पना कीजिए कि जिन अयोग्य तथाकथित शिक्षकों की विषय की समझ ही अपर्याप्त है, वे विद्यार्थियों को क्या पढ़ाएँगे? देश के भविष्य का निर्माण कैसे करेंगे?
इस दूरावस्था के मूल कारण नियुक्ति में होने वाला भ्रष्टाचार, उच्च शिक्षण संस्थानों में राजनीतिक दख़ल, भाई-भतीजावाद, धन के आधार पर नियुक्ति आदि हैं। नियुक्तियों में राजनीतिक दख़ल का ज्वलंत उदाहरण केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के निजी सचिव के.के. रागेश की पत्नी प्रिया वर्गीज का कन्नूर विश्वविद्यालय द्वारा मलयालम भाषा विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति का मामला है। प्रिया वर्गीज का शोध स्कोर मात्र 156 था, जबकि द्वितीय स्थान पर नामित हुए प्रत्याशी को 651 अंक प्राप्त थे। साक्षात्कार में द्वितीय स्थान पर आये उम्मीदवार को कुल 50 में से 32 अंक मिले, वहीं प्रिया वर्गीज को मात्र 30 अंक। विवाद बढऩे पर केरल उच्च न्यायालय ने प्रिया की नियुक्ति पर रोक भी लगा दी और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को समन (नोटिस) जारी किया। ग़ौरतलब है कि प्रिया के पति रागेश माकपा के छात्र संगठन एसएसआई के प्रमुख एवं माकपा के सांसद रहे हैं। यह कोई पहला मामला या अपवाद नहीं है। सभी दलों की सरकारें ऐसे ही अपने-अपने लोगों की नियुक्तियाँ करती-कराती रही हैं। अल्लामा इकबाल ने शायद ऐसे ही धूर्त और पतित शिक्षितों के लिए लिखा है :-
‘तेरी बेइल्मी ने रख ली, बेइल्मों की शान।
आलिम-फ़ाज़िल बेच रहे हैं अपना दीन-ईमान।।’
अब प्राध्यापकों के भीतर पिछले दो दशकों से विशेष रूप से फैल चुके राजनीतिक सक्रियता के मर्ज के व्यसन से शिक्षक समाज बुरी तरह संक्रमित हो चुका है। गिरते राजनीतिक स्तर और सोशल मीडिया के दौर में ऊल-जुलूल बयान देना, टीवी डिबेट, मीडिया चैनलों के कार्यक्रमों और विभिन्न आयोजनों में तर्कहीन, लक्ष्यहीन, ध्येयहीन बहसबाज़ी और बयानबाज़ी करना प्राध्यापकों का शौक़ बन चुका है। महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी के अतिथि प्राध्यापक द्वारा सोशल मीडिया पर नवरात्रि जैसे पवित्र त्योहार के विषय में आपत्तिजनक पोस्ट करना इसकी एक झलक है। हालाँकि इसकी उन्हें सज़ा मिली; लेकिन यह बयान उनकी विकृत मानसिकता को दर्शाता है। इससे पहले लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के एक एसोसिएट प्रोफेसर ने काशी विश्वनाथ मन्दिर पर विवादित बयान दिया। आख़िर उच्च शिक्षकों को यह ध्यान क्यों नहीं रहता कि विद्यालय, महाविद्यालय (कॉलेज) और विश्वविद्यालय शिक्षा के मन्दिर हैं, राजनीति और सामाजिक विघटनवाद की गन्दगी फैलाने के अखाड़े नहीं। छोटे शहरों के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की यह स्थिति है, तो देश की राजधानी दिल्ली के विश्वविद्यालयों में राजनीतिक दख़ल की सहज कल्पना की जा सकती है। वर्तमान परिस्थितियों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि विश्वविद्यालय ऐसे तत्त्वों का गढ़ बनते जा रहे हैं, जिन्हें न अपने पद की गरिमा का ख़याल है, न समाज को गुमराह करने की अपनी हरकतों पर शर्म है, न शासन-प्रशासन का भय है और न ही राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य का भान।
एक से डेढ़ लाख तक की मोटी तनख़्वाह पाने वाले इन आधुनिक गुरुओं की अकर्मण्यता का आलम यह है कि इनका एक बड़ा वर्ग समय से कॉलेज आना, नियमित कक्षाएँ लेना ज़रूरी नहीं समझता। शोध छात्रों के फाइलों के काम निपटाने के लिए प्रोफेसर्स की कौन कहे काम आगे बढ़ाने के लिए क्लर्क और चपरासी से लेकर फाइलों पर हस्ताक्षकर करने के एवज़ में विभागाध्यक्ष तक छात्रों से नोटों से भरे लिफ़ाफ़े लेते हैं। ये कोई निराधार आरोप नहीं है। सम्भव है कि आप अपने नज़दीकी महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में जाकर जाँच करें, तो इससे भी विद्रूप स्थिति का सामना करना पड़े।
उदाहरणस्वरूप स्वनामधन्य मगध विश्वविद्यालय में किसी भी कोर्स की पढ़ाई पूरी करने में निर्धारित समय से दोगुना लगता है। कुछ दिन पहले तीन साल से लम्बित परिणामों को लेकर सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने पटना में प्रदर्शन किया। जब विद्यार्थी राज्यपाल से मिलने राजभवन की ओर बढ़े, तब पुलिस ने उन्हें बल प्रयोग करके रोक दिया। कुछ छात्राओं ने रोते हुए पुलिसकर्मियों का पैर भी पकड़े और विश्वविद्यालय प्रशासन की प्रताडऩा के जारी रहने पर आत्महत्या की बात भी कही; लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। युवाओं के भविष्य को रौंदने वाले शिक्षण संस्थान की इस अकर्मण्यता एवं निर्लज्जता की वीभत्सता को समझना होगा।
प्रसंगवश बताते चलें कि इसी मगध यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रोफेसर राजेंद्र प्रसाद अपने भ्रष्टाचार के कारनामों को लेकर सुर्ख़ियों में रहे थे। यूनिवर्सिटी में ख़रीदारी के नाम पर 30 करोड़ रुपये से ज़्यादा के ग़लत इस्तेमाल को लेकर उनके आवास, बोधगया के दफ़्तर और गोरखपुर स्थित घर पर छापेमारी हुई। गोरखपुर के उनके घर से 70,00,000 की भारतीय नक़दी, क़रीब 5,00,000 की विदेशी मुद्रा के अलावा 15,00,000 रुपये के ज़ेवर बरामद हुए। ज़मीन के कई काग़ज़ात, बैंक खातों में नक़दी और लॉकर में रखी दौलत अलग।
शिष्य को पुत्र के और शिष्या को पुत्री के समकक्ष मानने वाले भारतीय शिक्षण-परम्परा में प्राध्यापक वर्ग के नैतिक पतन की एक बानगी बोकारो के एक महाविद्यालय के उस प्रोफेसर की हरकत से पता चलती है, जिसने स्नातक अन्तिम वर्ष की छात्रा से अश्लील हरकत की और उसके मोबाइल में अश्लील वीडियो भेजे। प्रकरण सामने आने के बाद कई अन्य छात्राओं ने ऐसे उत्पीडऩ की शिकायत की। हालाँकि प्रोफेसर को गिरफ़्तार किया गया। लेकिन शिक्षा प्राप्त करने आयी इन छात्राओं पर इसका कितना बुरा असर पड़ा होगा, किसी को इसका अंदाज़ा है? यह कोई पहली या एकमात्र घटना नहीं है, बल्कि ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएँगे। सरकार और प्रशासनिक स्तर पर तो शिक्षण संस्थानों में बदलाव की उम्मीद छोड़ ही दें। लेकिन अगर किसी विश्वविद्यालय का कुलपति या उप कुलपति निजी स्तर पर सुधार का प्रयास करे, तो प्राध्यापकों से लेकर कर्मचारी तक अपने संगठनों के बल पर एकत्रित होकर आन्दोलन पर उतर आते हैं। एक समय विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों के कैंपस में छात्र राजनीति के आवरण में बढ़ रही अराजकता एवं गुंडागर्दी को रोकने के लिए जिस तरह लिंगदोह कमेटी की सिफ़ारिशों ने एक अवरोधक का कार्य किया और छात्र राजनीति की दशा-दिशा बदल दी। उसी प्रकार प्राध्यापकों एवं विश्वविद्यालय कर्मचारियों की वर्तमान कार्यशैली के विरुद्ध भी किसी निर्णायक और नियंत्रणकारी प्रयास की आवश्यकता है।
देश में प्राध्यापकों की नियुक्ति में भी ए.पी.आई. स्कोर महत्त्वपूर्ण होता हैं, जिसका निर्धारण शैक्षणिक योग्यता के अतिरिक्त शोध पत्रों का प्रकाशन, शिक्षा के क्षेत्र में प्राप्त सम्मान आदि से होता है। लेकिन अब इसके मानक भी समुचित एवं प्रामाणिक नहीं हैं। इसी वजह से अब शिक्षकों की भर्ती में धाँधली हो रही है। कई प्रकार की अनाम संस्थाएँ पैसा बटोरने के लिए सम्मान समारोह और शोधशालाएँ आयोजित करवाकर अपात्रों को प्रमाण-पत्र वितरित करतीं हैं, जिनके आधार पर परीक्षार्थी की योग्यता निर्धारित होती है। इसके लिए 1,500 रुपये से 5,000 रुपये या उससे अधिक का शुल्क भी वसूलती हैं। शोध पत्रों के प्रकाशन के लिए प्री-रिव्यू और यूजीसी केयर लिस्ट जर्नल की मान्यता है, जिसके सम्पादकों द्वारा शोधार्थियों से 2,000 रुपये से लेकर 10,000 रुपये तक वसूले जाते हैं। यही नहीं, 5,000 से 10,000 रुपये का शुल्क वसूलकर शोध-पत्र लिखने वाले को शोध प्रकाशित करवाने वाले गिरोह भी लूटते हैं। इन विसंगतियों के बीच बची-खुची कसर पैसा, पहुँच और राजनीतिक दबाव द्वारा पूरी हो जाती है।
ऊपर से जिस पीएचडी की डिग्री को ए.पी.आई. स्कोर में सबसे ज़्यादा अंक मिलते हैं, उसे देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में ठेके पर पूरी करवाये जाने की बात सर्वविदित है। विसंगति देखिए कि एक प्रकाशित शोध-पत्र के लिए दो अंक दिये जाते हैं और दो अंक ही एक वर्ष शिक्षण के अनुभव पर दिये जाते हैं। विमर्श के लिए ऐसे और भी कई मसले हैं। हाल में यूजीसी के अध्यक्ष एम. जगदीश कुमार ने असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्ति के नये मानक घोषित करते हुए इस पर एक समिति गठित करने की घोषणा की है। यह एक राहत भरी बात है; लेकिन सकारात्मक परिवर्तन के लिए अभी लम्बे संघर्ष और दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।
देश में निम्न स्तर के शोधों को लेकर सरकार की लम्बे समय से शिकायत रही है। लेकिन उसे इसकी वजह भी जानने-समझने का प्रयास करने चाहिए और सरकारी संरक्षण में पल रहे विश्वविद्यालयों के भ्रष्ट तत्त्वों की जाँच करानी चाहिए। आज देश में लगभग 1,000 विश्वविद्यालयों और 40,000 से अधिक महाविद्यालयों के होते हुए भी ग्लोबल टैलेंट कॉम्पिटिटिव इंडेक्स के 132 देशों की फ़ेहरिस्त में भारत का स्थान 72वाँ क्यों है? दुनिया की महाशक्ति होने का दावा करने वाले भारत में उच्च शिक्षा गृहण करने वाले विदेशी छात्रों की हिस्सेदारी महज़ एक फ़ीसदी क्यों है? जाहिर है कि उच्च शिक्षा की दुरावस्था और धीमी गति ही इसका परिणाम है और यह भारत की उच्च शिक्षा नीति के मूलभूत दोषों का प्रत्यक्ष प्रमाण है। आज अनैतिकता से भरे ये शैक्षणिक केंद्र और शिक्षक नैतिकतावादी, चरित्रवान विद्यार्थी और देश को समर्पित भले नागरिक कैसे तैयार कर रहे हैं? यह चिन्ता का विषय है।
(लेखक राजनीति एवं इतिहास के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)