भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को ‘सेक्सुअल हरैस्मेंट’ के मामले में अदालत की इन हाउस कमेटी ने क्लीन चिट दे दी। इस पर भौहें तनीं ज़रूर। इस इन हाउस कमेटी में थे जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस इंदु मल्होत्रा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी। कमेटी ने अदालत की ही एक कर्मचारी की शिकायत में कोई सत्यता नहीं पाई। शिकायतकर्ता ने ‘नेचुरल जस्टिस (सहज प्राकृतिक न्याय) के उसूलों पर अमल न होने की बात कही थी और खुद ही इस जांच कमेटी से इस आधार पर अलग हो गई थी क्योंकि इन हाउस कमेटी की सुनवाई के दौरान उसके वकील को पेश होने की अनुमति नहीं मिली। पहले, इन हाउस कमेटी ने शिकायतकर्ता के बयान के आधार पर जांच शुरू की लेकिन वह तो उससे अलग ही हो गई। दूसरे, इन हाउस कमेटी ने शिकायतकर्ता की उस मांग को दरकिनार कर दिया, जिसमें वह एक वकील के साथ आती और बंद कमरे में हो रही सुनवाई की वीडियो रिकार्डिंग भी की जाती। तीसरे, कमेटी अपने निर्णय को सार्वजनिक करने में नाकाम रही।
आरोप लगाने वाली वह महिला (36 वर्ष) मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के आवास में बने दफ्तर में तैनात थी। उसने ‘सेक्सुअल हरैस्मेंट के आरोपों की सूची बना रखी थी। उसने अपना एफिडेविट (हलफनामा) एपेक्स कोर्ट के बाइस जजों को 19 अप्रैल को भेजा था। अदालत ने तीन सदस्यों की एक जांच समिति बना दी थी। इसने छह मई को मुख्य न्यायाधीश को तमाम आरोपों से बरी कर दिया था।
एफिडेविट में पूर्व कर्मचारी ने दावा किया था कि उसने जब मुख्य न्यायाधीश की पहल को तवज्ज़ो नहीं दी तो उसे और उसके परिवार को लगातार सताया गया और उसकी भी नौकरी जाती रही। असल सवाल यही है कि क्या शिकायतकर्ता को यह भी अधिकार नहीं है कि कमेटी ने जो सुनवाई की और जिस नतीजे पर पहुंची उसकी सुनवाई के ब्यौरे की एक प्रति उसे दी जाती? जिससे वह समिति की कार्यप्रणाली को जानती और समझती। उस कमेटी ने यह निष्कर्ष निकाला कि उसके आरोपों में काई तथ्य नहीं है। यदि इन हाउस कमेटी के निष्कर्ष कानूनी सिद्धांतों के अनुरूप हैं तो इस फैसले को शिकायतकर्ता को न बताने पर इस पूरे मामले की आलोचना ही हुई है।
विचित्र है कि सुप्रीम कोर्ट में कोई विशाखा कमेटी ही नहीं है। जबकि निशाने पर जज खुद हो। इन हाउस कमेटी ने पूरी प्रक्रिया उस नियमावली पर आधारित थी जो 1999 की बनी हुई है। इसमें दो मत नहीं कि एपेक्स कोर्ट के जज लाचार है क्योंकि उन्हें संविधान की रक्षा करनी है, कानून की व्याख्या भी करनी है और उस साजिश की भी जांच करनी है जिसके तहत मुख्य न्यायाधीश को इसमें फंसाया गया। लेकिन उस पुरानी घिसीपिटी प्रणाली को सुधारना चाहिए क्योंकि देश में ‘मी टू’ आंदोलन भी हुए और समय-समय पर न्यायाधीशों खिलाफ साथ सेक्सुअल हरैस्मेंट के मामले समय-समय पर सामने आते रहे हैं।
इसके पहले बेंच पर मुख्य न्यायाधीश की मौजूदगी और उनकी मौखिक दखलंदाजी और अपनाई गई प्रक्रिया पर भी सवाल उठे थे। कहावत है कि न केवल न्याय हो बल्कि न्याय हुआ है यह दिखना भी चाहिए।
अब महिला कार्यकर्ताओं ने मुख्य न्यायाधीश को मिली ‘क्लीन चिट’ के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया है। उधर बार कौंसिल के नेता भी इस मुद्दे पर आपस में बंटे हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट के लिए यह परीक्षा की घड़ी है क्योंकि संस्था और इसके प्रमुख की साख दांच पर लगी है। सुप्रीम कोर्ट के जजों में यह क्षमता है कि अपने घर को वे सही रख सकें।