सभी मज़हबों (धर्मों) में कहा गया है कि अगर पापों से मुक्ति चाहते हो, तो ईश्वर की शरण में चले जाओ। ईश्वर दयालु है और वह बड़े-बड़े पापियों को माफ़ कर देता है। यह एक ऐसा लोक-लुभावन धार्मिक जुमला है, जिसने पापियों के मन से डर को ख़त्म करके उन्हें और पाप करने को प्रोत्साहित किया है।
हद तो यह है कि दुनिया में कुछ लोग पाप करने इल्ज़ाम भी ईश्वर पर डाल देते हैं। वे कहते हैं कि वे जो भी कर रहे हैं उसमें ईश्वर की मर्ज़ी है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि दूसरे धर्म के लोगों की हत्या करने का हुक्म उन्हें उनके ईश्वर ने दिया है। मेरी समझ में नहीं आता कि किसी की हत्या कर देने, किसी का हक़ मार लेने या किसी पर अत्याचार करने का हुक्म किस ईश्वर ने दिया है? अगर यह किसी धर्म में लिखा है, तो वह धर्म धर्म कैसे हो सकता है? और अगर ईश्वर ने ऐसा कहा है, तो इसके क्या सुबूत हैं? फिर धर्म-ग्रन्थों में पापियों को सज़ा देने की बात क्यों कही गयी है? कई धर्मों में साफ़ कहा गया है कि शैतान या राक्षस बुरे होते हैं या बुरे कर्म के लिए प्रोत्साहित करते हैं। यह बात कहीं भी नहीं कही गयी है कि ईश्वर बुरे कर्म करवाता है; या करने को कहता है। ईश्वर को तो हर धर्म में दयालु, पापनाशक और पतित पावन, सबका जन्मदाता, परम्पिता, जन्म-मरण से मुक्ति देने वाला और परम् दयालु बताया गया है। जो लोग जीव हत्या और दूसरों पर अत्याचार को ईश्वर का हुक्म मानते हैं, क्या वे बताएँगे कि जो दयालु है; जन्मदाता है; वह भला किसी की हत्या को प्रेरित क्यों करेगा? जो मन को पापमुक्त, पवित्र करने वाला है; वह किसलिए किसी के मन में पाप के बीज बोयेगा? जब कोई भी इंसान एक ही तरह का हो सकता है; या तो बुरा या फिर अच्छा। तो ईश्वर दो अच्छा भी और बुरा भी कैसे हो सकता है? हाँ, आदमी में अच्छाई और बुराई दोनों हो सकती हैं। किसी में अच्छाई ज़्यादा होती है और किसी में बुराई। लेकिन ईश्वर तो सिर्फ़ अच्छाई से ही समृद्ध है। अगर ऐसा नहीं होता, तो शैतान और उसमें फ़र्क़ क्यों होता? बड़ी हैरानी होती है, जब कोई यह कहता है कि पाप करने के बाद ईश्वर माफ़ कर देता है। अगर ऐसा होता, तो दुनिया के सारे पापी तर जाते और आज कोई भी अपने पापों का भोग नहीं भोग रहा होता। सभी का भाग्य चमक रहा होता। दुनिया में असमानता और नसीबों का खेल नहीं होता। अलग-अलग दण्ड भुगतने का प्रावधान नहीं होता। लोग अलग-अलग भोग नहीं भोग रहे होते। किसी भी बुरे या अनैतिक काम को बुरा नहीं कहा जाता।
दरअसल ईश्वर पापियों को माफ़ नहीं करता। वह तो ख़ुद निष्पाप और कर्म-अकर्म से परे है। इसीलिए कहा गया है कि जो भी निष्काम और निश्छल होकर ईश्वर की शरण में जाता है, ईश्वर उसके मन को निर्मल और निष्पाप कर देता है। अर्थात् जो ईश्वर के विधान को मानते हुए उसकी भक्ति करता है, उसका मन पाप करने की कल्पना तक नहीं करता। मन निर्मल-पावन हो जाता है; और बुद्धि शुद्ध हो जाती है। इससे इंसान पाप करने से बच जाता है। न कि पापियों को वह माफ़ कर देता है। अगर ऐसा होता, तो बड़े-बड़े पापियों को संसार बुरा नहीं कह रहा होता; न ही कोई पाप करने के बाद पछताता; और न अन्त में किसी की दुर्गति होती। क्योंकि पापी-से-पापी आदमी भी यही सोचता है कि वह जो कर रहा है, उसमें ईश्वर की ही मर्ज़ी है। हो सकता है कि कोई ऐसा न भी सोचे; लेकिन अन्त में हर आदमी ईश्वर को याद ज़रूर करता है। भले ही वह अपने पापों की क्षमा माँगने के लिए ऐसा करे।
इसलिए पाप करने से बचो और ईश्वर की शरण में पाप करने के बाद जाने के बजाय, पाप करने से पहले ही जाओ; ताकि तुम पाप करने से बच सको। अन्यथा आपको अपने किये कर्मों के साथ-साथ पापों का फल भी भोगना ही पड़ेगा। धर्म का रास्ता दिखाने वाले जो लोग यह कहते हैं कि उसकी शरण में गये, तो आपके पाप-कर्मों को ईश्वर माफ़ कर देगा; तो ऐसे लोग आपको गुमराह कर रहे हैं। वे लोग ख़ुद धर्म पर नहीं हैं। क्योंकि उनके मन में भी कहीं-न-कहीं पाप पल रहा है। और जिनका मन ख़ुद निष्पाप नहीं है, वे दूसरों को निष्पाप होने का मार्ग कैसे दिखा सकते हैं? अगर किसी को सत्कर्मों का सुफल मिल सकता है, तो बुरे कर्मों की सज़ा क्यों नहीं मिलेगी? कई लोगों में यह भ्रान्ति फैली है कि अगर उनसे जीवन में कोई पाप हुआ भी है, तो अन्त में वो अपने तीर्थस्थल जाकर या फिर ईश्वर का नाम लेकर उस पाप से बच जाएँगे। अगर ऐसा होता, तो तीर्थ स्थलों या विभिन्न धर्मों के पूजा-स्थलों के पास रहने वालों का तो उद्धार हो गया होता!
दरअसल भ्रांतियाँ और विसंगतियाँ धर्म के वही ठेकेदार फैलाते हैं, जो अपनी प्रभुता बचाये और बनाये रखने के लिए ईश्वर को भी मेरे-तेरे में बाँटने का ढोंग करके लोगों को बाँटे रखते हैं। समझने वाली बात यह है कि जिनको यह भी अक्ल नहीं कि ईश्वर एक ही है; वे भला दूसरों को रास्ता कैसे दिखा सकते हैं? जो ख़ुद ही धर्म से बुरी तरह भटके हुए हैं, उनका बताया धर्म का रास्ता कैसे सही हो सकता है? जो लोग ख़ुद निष्पाप नहीं हैं, वे दूसरों को निष्पाप किसी विधान अथवा पूजा-इबादत आदि से कैसे कर सकते हैं? वैसे भी अगर कोई निष्पाप नहीं है, तो कोई भी पूजा-इबादत, तीर्थ उसे निष्पाप नहीं कर सकता। सोना भी आग में तपने से कुंदन होता है, धोने से नहीं। इसी तरह आदमी भी सत्य, तपस्या, ईमानदारी, अहिंसा और मेहनत की भट्ठी में तपकर ही शुद्ध अर्थात् निष्पाप हो सकता है। और यह वही कर सकता है, जिसके मन में ईश्वर का डर है। अन्त में अपना एक दोहा, आपके लिए-
‘‘अन्धा बन खोजत फिरै, पारब्रह्म को मूढ़।
ब्रह्म ज्ञान से सूक्ष्म है, दीप प्रेम लै ढूँढ।।’’