आज हम सब कोरोना जैसी महामारी के डर से एक-दूसरे से काफी दूर हो चुके हैं; जानबूझकर न सही, पर मजबूरीवश अलग-थलग पड़ गये हैं। हमने पिछले समय में सदियों से एक-दूसरे से झगड़े किये हैं; एक-दूसरे से घृणा की है; एक-दूसरे को कमतर समझा है और एक-दूसरे को अपना दुश्मन भी माना है। और यह सब हमने केवल मज़हब और जातिवाद की दीवारें खड़ी करके किया है। एक-दूसरे से काफी गहरा सरोकार होते हुए भी; एक ईश्वर, एक प्रकृति और एक जीवात्मा होते हुए भी; सभी की मूलभूत ज़रूरतें एक जैसी होने के बावजूद भी हमने एक-दूसरे को कभी उतने अंतर्मन से नहीं अपनाया, जितने गहरे तक ईश्वर ने हमें जोड़कर पृथ्वी पर भेजा है।
कहने का तात्पर्य यह है कि हम एक ही नीली छत के नीचे रहकर भी एक-दूसरे से इस तरह कटे-कटे रहने लगे थे, जैसे कि हम इंसान नहीं हैं; दिमागदार नहीं हैं। आज प्रकृति ने हमें एक-दूसरे से उससे भी ज़्यादा अलग रहने को मजबूर कर दिया है। आज महज़ एक बीमारी के खौफ से हम घरों में दुबकने को, एक-दूसरे से दूर रहने को विवश हो चुके हैं। मज़े की बात यह है कि अब हम एक-दूसरे से मिलने के लिए छटपटाने लगे हैं। खुली हवा में साँस लेने के लिए तरसने लगे हैं। सभी की बनायी मिली-जुली दुनिया देखने के लिए बेचैन हैं। एक-दूसरे से हाथ मिलाने की तमन्ना दिल में दफ्न करे उदास बैठे हैं। आज प्रकृति ने हमें सिखा दिया कि स्वार्थ और नफरत की उम्र बहुत लम्बी नहीं होनी चाहिए; वरना यह हमारे और भावी पीढिय़ों के लिए घातक सिद्ध होगी। यह ठीक वैसे ही है, जैसे दो पड़ोसियों को बार-बार झगडऩे और एक-दूसरे से नफरत करने से आजिज़ पुलिस उनके घरों में पहरेदारी कर घरों में कैद कर दे या जेल के अलग-अलग बैरकों में बन्द कर दे। सोचिए, बार-बार झगडऩे, एक-दूसरे से नफरत करने और एक-दूसरे को न जीने देने की सज़ा आपको घरों में कैद होने की मिले, तो क्या आपका मन ऊब नहीं जाएगा? क्या आपके मन में घर कर चुकी नफरत अन्दर-ही-अन्दर आपको ही नहीं खाने लगेगी? क्या आपका मन लोगों से मिलने, उन्हें प्यार से देखने के द्रवित और दु:खी नहीं हो उठेगा? ज़रूर हो उठेगा। क्योंकि यह नफरत, यह भेदभाव, यह वैमनस्य और ये मज़हब तथा जातिवाद की दीवारें हमने अपने स्वार्थ और अहंकार की बुनियाद पर खड़ी की हैं। और आज जब हम घरों में कैद हो चुके हैं, तब हम उकताने लगे हैं। क्योंकि इंसान प्रकृति प्रेम और रक्षा करने की है। हमारा काम एक-दूसरे के वगैर चल ही नहीं सकता। हम सब इंसानों को एक-दूसरे के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर हमेशा ज़रूरत रही है और हमेशा रहेगी; अन्यथा न तो हम अपने जीवन में तरक्की कर पाएँगे और न ही जीवन का आनन्द ले पाएँगे।
हमें सदियों से यह बात सिखायी जाती रही है कि आपसी प्रेम, भाईचारे और एक-दूसरे का सहयोग करके चलने में ही हम इंसानों की भलाई है। संतों ने, धर्म-ग्रन्थों ने, प्रकृति ने हमें बार-बार इस बात के संकेत दिये हैं कि हमारा जीवन बहुमूल्य है, लेकिन यह नश्वर भी है। इसे गलत तरीके से बर्बाद नहीं करना चाहिए। हमें कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए, जिससे किसी इंसान, किसी जीव, प्रकृति या हमारी आत्मा को दु:ख या हानि पहुँचे। पर हम आज तक नहीं सुधरे। मैंने कई ऐसे लोगों का बुरा अन्त देखा है, जिन्होंने उम्र भर दूसरों के साथ बुरा किया। कई ऐसे लोगों को भी देखा-सुना है, जो दूसरों का बुरा करते रहे और जब उनका अन्तिम समय आया, तो रोते-रोते मुआफी माँगते हुए इस संसार से विदा हुए।
अकड़ इंसान की सबसे बड़ी दुश्मन है। लालच इंसान के शरीर में लगी हुई दीमक है। नफरत दिल-ओ-दिमाग का कैंसर है और किसी के नुकसान की भावना दमा की तरह है।
क्योंकि अकड़ अंतत: उसी इंसान को तोड़ देती है, जो उम्र भर दूसरों को तोड़ देने, नष्ट कर देने का वहम् पाले रहता है। लालच इंसान को धीरे-धीरे अन्दर से इतना खोखला कर देता है कि वह अपनी ही नज़र में खत्म होने लगता है। क्योंकि कोई लालचवश भले ही बहुत सारा धन कमा ले, लेकिन वह भूल जाता है कि उसका अस्तित्व इससे भी आगे, इससे भी बड़ा हो सकता था। नफरत इंसान के दिल-ओ-दिमाग को इस तरह जकड़ लेती है कि वह कैंसर के रोगी की तरह खुद ही उसी नफरत की आग में जल-जलकर मरता है। इसी तरह दूसरे के नुकसान की भावना इंसान के अन्दर ऐसी घुटन पैदा करती है कि एक दिन दूसरे का नुकसान करने-चाहने वाले का दम खुद ही घुटने-सा लगता है।
यह सब बातें मैंने सिर्फ और सिर्फ एक ही बात बताने के लिए कही हैं और यह बात केवल इतनी-सी है कि हमें एक-दूसरे से प्रेम करना चाहिए। क्योंकि हमारे बाद इस पृथ्वी पर और भी लोग आएँगे, जिनकी बेहतर या बद्तर ज़िन्दगी की पैमाइश हमारे कर्मों से ही की जाएगी। उन आने वाली पीढिय़ों के सुख-दु:ख के ज़िम्मेदार कहीं-न-कहीं हम भी होंगे।
आज प्रकृति ने महज़ एक बीमारी का भय दिखाकर हमारी ही भावनाओं के अनुकूल हमें एक-दूसरे से इतना ज़्यादा अलग कर दिया है, जिसकी हमने कल्पना तक नहीं की थी। क्योंकि हम एक-दूसरे से कटने लगे थे। ऐसे में आज हम सबको शपथ लेनी चाहिए कि अब हम एक-दूसरे से कभी नफरत नहीं करेंगे। मज़हब और जातिवाद की दीवारों का सहारा लेकर कभी एक-दूसरे से नहीं लड़ेंगे। एक-दूसरे का बुरा नहीं सोचेंगे। एक-दूसरे को कभी कमतर नहीं समझेंगे। एक-दूसरे का सहयोग करेंगे। एक-दूसरे के साथ-साथ प्रकृति और दूसरे जीवों की रक्षा करेंगे। ईश्वर एक है; प्रकृति एक है और जीवात्मा एक है; इस सिद्धांत को मानते हुए ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय:; सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत्’की भावना से आगे बढ़ेंगे।