काशी में सड़कों का कोई महत्व नहीं है, इसलिए बहुत कम लोग सड़कों पर चलते हैं। सड़कों का उपयोग जुलूस निकालते समय होता है। उस पर पैदल से अधिक लोग सवारी से चलते हैं। इधर कुछ ऐसे लोग (शायद मेंटल हास्पिटल से छुटकर)आ गये हैं जो सड़कों को महत्व देने लग गये हैं। ऐसे लोग लबे सड़क ‘मकान बिकाऊ है,’ ‘दुकान $खाली है,’ अथवा ‘भाड़े पर लेना है’ का विज्ञापन छपवाते हैं।
काशी की अधिकांश गलियां ऐसी हैं जहां सूर्य की रोशनी नहीं पहुंचती। कुछ गलियां ऐसी हैं जिनमें से दो आदमी एक साथ गुज़र नहीं सकते। इन गलियों की बनावट देखकर कई विदेशी इंजीनियरों की बुद्धि गोल हो गयी थी जो लोग यह कहते हैं कि बम्बई-कलकत्ता की सड़कों पर खो जाने का डर रहता है, वे काशी की गलियों का चक्कर काटें तो दिन भर के बाद शायद ही डेरे तक पहुंच सकेंगे। आज भी ऐसे अनेक बनारसी मिलेंगे जो बनारस की सभी गलियों को छान चुके हैं, कहने में दाँत निपोर देंगे।
इन गलियों से गुज़रते समय जहां कहीं चूके तुरन्त ही दूसरी गली में जा पहुंचेंगे। कोलकत्ता, मुंबई की तरह सड़क की मोड़ पर अमुक दुकान, अमुक निशान रहा- याद रहने पर मंजि़ल तक पहुंच सकते हैं – पर बनारस में इस तरह के निशान-दुकान-साइनबोर्ड भीतरी महाल में नहीं मिलेंगे। नतीजा यह होगा कि काफी दूर आगे जाने पर रास्ता बन्द मिलेगा। उधर से गुज़रने वाले आपकी ओर इस तरह देखेंगे कि यह ‘चाँइया’ इधर कहाँ जा रहा है। नतीजा यह होगा कि आपको फिर गली के उस छोर तक आना पड़ेगा जहां से आप गड़बड़ाकर मुड़ गये थे। कुछ गलियाँ ऐसी हैं कि आगे बढऩे पर मालूम होगा कि आगे रास्ता बन्द है, लेकिन गली के छोर के पास पहुंचने पर देखेंगे कि बगल से एक पतली गली सड़क से जा मिली है। अक्सर इन गलियों में जब खो जाने में आता है, खासकर रात के समय, तब लगता है जैसे ऊँचे पहाड़ों की घाटियों में खो गये हैं। इन गलियों में लोग चलते-फिरते कम नज़र आते हैं। जो नज़र भी आते हैं, वे उस गली के बारे में पूर्ण विवरण नहीं बता सकते। हो सकता है, वे भी आपकी तरह चक्कर काट रहे हों। गलियों का तिलिस्म इतना भयंकर है कि बाहरी व्यक्ति को कौन कहे अन्य लोग भी जाने में हिचकते हैं। कुछ गलियाँ ऐसी हैं जिनसे बाहर निकलने के लिए किसी दरवाज़े या मेहराबदार फाटक के भीतर से गुज़रना पड़ता है।
मुंबई, कोलकत्ता की तरह यहां की सड़कों मे चार से अधिक रास्ते नहीं हैं, पर गलियों में चार से 14 तक रास्ते हैं। किस गली से आप तुरन्त घर पहुंच सकते हैं यह बिना जाने या बिना पूछे नहीं जान सकते। जिस गली से आप घर पहुंच सकते है उसी से आप श्मशान या नदी किनारे भी जा सकते हैं।
गलियों का नगर
शैतान की आंत की भांति यह भूल-भुलैया संसार का एक आश्चर्यजनक दर्शनीय स्थान है। इन गलियों में कितनी आज़ादी है। नंगे-घूमो, गमच्छा पहिने चलो, जहां जी में आए बैठो और जहां जी आए सो जाओ। कोई बिगड़ेगा नहीं, भगाएगा नहीं और न डांटेगा। गावटी का गमच्छा या सिल्क का कुरता पहने बनारसी रईस भी इन गलियों में छाता लगाये चलते हैं। शायद आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिस गली में सूर्य की रोशनी नहीं पहुंचती, बरसात का मौसम नहीं है, फिर भी लोग वहां छाता लगाकर क्यों चलते हैं? कारण है – गन्दगी। मान लीजिए आप बाज़ार से लौट रहे हैं, अचानक ऊपर से कूड़े की बरसात हो गयी। यह बात अच्छी तरह जान लीजिए- बनारसी तीन मंजि़ले या चार मंजि़ले पर से बिना नीचे झांके थूक सकता है, पानी फेंक सकता है और कूड़ा गिरा सकता है। दुकान झाड़ बटोरकर आपके चेहरे पर सारा गर्द फेंक सकता है। यह उसका जन्म-सिद्ध अधिकार है: नीचे इस सत्कार्य से घायल व्यक्ति जब गालियां देता है तब सुनकर भाई लोग प्रसन्न हो उठते हैं। उनका रोम-रोम गाली देने वाले को साधुवाद देगा। अगर कहीं वे सज्जन चुपचाप चले गये तो इसका उन्हें अपार दु:ख होगा और उस दु:ख को मिटाने के लिए मुख से अनायास ही निकल जाएगा – ‘मुर्दार निकसल!’
किसी-किसी गली में बनारसी रईसों का पनाला इस अदा से चूता है कि फुहारे का मज़ा आ जाता है! गरमी के दिनों में रात को ऐसी गलियों से गुज़रना और $खतरनाक होता है। सोते समय ‘शंका समाधान’ के लिए बनारसी अपने को अधिक कष्ट नहीं देगा। परिणाम स्वरूप छत के पनाले से आप पर ‘शुद्ध गंगाजल’ बरस सकता है। गुस्सा उतारने के लिए ऐसे घरों में आप घुसने की हिम्मत नहीं कर सकते। एक तो बाहर का भारी दरवाज़ा बन्द है, दूसरे भीतर जाने पर भी यह पता चलना मुश्किल है कि यह सत्कार्य किसने किया है। मुंह आपका है, गालियां बक लीजिए और राह लीजिए, बस! $खासकर नंगे पैर चलना तो और भी मुश्किल हैं। घर के बच्चे ‘दीर्घशंका’ गलियों में रात को कर देते हैं।
अगर इन गलियों में भगवान शंकर के किसी मस्ताने वाहन से भेंट हो गयी अर्थात् उसने नाराज़ होकर आपको हुरपेटा तो जान बचाकर भागना मुश्किल हो जाएगा। खासकर उन गलियों में जो आगे बन्द मिलती हैं। क्योंकि आप पीछे भाग नहीं सकते, आगे रास्ता बन्द है, बगल के सभी मकानों में भीतर से भारी सांकल लगी है और इधर सांड़ महाराज हुरपेटे आ रहे हैं! साल में दो-एक व्यक्ति इन सांड़ों के कारण काशी-लाभ करते हैं। लगे हाथ एक उदाहरण सुन लीजिए। अब्राहिम लिंकन के बाद जनरल ग्रांट अमेरिका के राष्ट्रपति हुए थे। एक बार जब वे हिन्दुस्तान में दौरे पर आये तब बनारस भी आये थे। उन्होंने इस शहर को ‘एक सिटी ऑफ लेन्स’ अर्थात् गलियों का शहर कहा है। कहा जाता है कि उनकी पत्नी को शंकर भगवान के वाहन ने अपने सींग पर उठा लिया था।
कहा जाता है कि राजा रामचन्द्र के सुपुत्रों (लव और कुश) से बुरी तरह शिकस्त खाकर पवनसुत हनुमान जी अपनी बिरादरी के साथ बनारस में आकर बस गये हैं। आज वे इन गलियों में क्रीड़ा-स्थल बनाकर परम प्रसन्न हैं। ऐसी घटनाएं प्राय: सुनने में आती हैं कि गली से गुज़रते समय अचानक ऊपर छत से पत्थर का बड़ा रोड़ा सिर पर आ गिरा और बड़ी आसानी से स्वर्ग में सीट रिजर्व हो गयी। असल में यह पवनसुत के वंशजों का महज़ खिलवाड़ है। ‘खिलवाड़’ में अगर कोई सीधे स्वर्ग पहुंच जाता है तो वह अपराध कैसे हो सकता है? पवनसुत के वंशजों का तर्क $कानून शास्त्रियों को घपले में डाल देता है। इस आसमानी ख़तरे से बचने के दो ही उपाय हैं – एक तो सिर पर फौजियों वाली लोहे की टोपी या फिर आपका अपना भाग्य! क्योंकि इस तरह की फौजदारी की घटना किसी थाने मे दर्ज नहीं होती और न इसके मु$कदमे अदालत में स्वीकार किये जाते हैं।
इन गलियों के नामकरण और उनकी दूरी को यदि आप नज़र अन्दाज़ करें तो बनारस के पोस्टल विभाग की प्रशंसा करेंगे। हर बनारसी अपने को ‘सरनाम’ (प्रसिद्ध) समझता है। मुहल्ले का एक व्यक्ति समुचे मुहल्ले की जानकारी रखता है। उसका विश्वास है कि मुहल्ले के डाकिये से मुख्यमंत्री तक उसके नाम से परिचित हैं। काशी में ‘दसपुतरिया गली’ महज आठ-दस मकानों का एक मुहल्ला है, पर वहां के रहने वालों को ‘दसपुतरिया गली’ के नाम पर पत्र मिल जाते हैं। इस प्रकार छोटी-छोटी गलियां यहां काफी प्रसिद्ध हैं। नगरपालिका भले ही नेताओं के नाम पर गलियों का नामकरण करे, पर बनारस वाले अपनी पुरानी परम्परा को नहीं बदल सकते।
इन गलियों में गर्मी के दिनों में शिमले का मज़ा, जाड़े में पुरी का मज़ा और बरसात में पहाड़ी स्थानों का मज़ा अनायास मिलता रहता है। यही वजह है कि बनारसी लोग पहाड़ी स्थानों में कभी नहीं जाते। रहा गन्दगी का प्रश्न, सो कहां नहीं है। जिस गली में इमली के बीज बिखरे हों, समझ लें इस गली में मद्रासी रहते हैं। जिस गली में मछली महकती हो, वह बंगालियों का मुहल्ला है। जिस गली में हड्डी लृुढ़की हो, वह मुसलमान दोस्तों का मुहल्ला है। इस प्रकार हर गली में प्रत्येक वर्ग का ‘साइनबोर्ड’ लटकता रहता है। अध्ययन करने वालों को इन साइनबोर्डों से बड़ी ‘हेल्प’ मिलती है। मदनपुरा, पांडे हवेली, सोनारपुरा
आदि मुहल्लों में साडिय़ां बनती हैं और रानीकुआं, कुंजगली आदि मुहल्लों में बिकती हैं। गोबिन्दपुरा, राजा दरवाज़ा, रानीकुआं, कोदई की चौकी मे सोने-चांदी का व्यवसाय होता है। कचौड़ी गली की कचौड़ी, ठठेरी बाजार के पीतल के बर्तन, विश्वनाथ गली की चूडिय़ां, लकड़ी के खिलौने भारत में प्रसिद्ध हैं। मिश्रपोखरा स्थित ज़र्दे के कारखाने, लोहटिया और नखास में लोहे, लकड़ी का व्यवसाय होता है। अधिक दूर क्यों, काशी में मंगलामुखियों का व्यवसाय भी गलियों में ही होता है। दालमंडी-छत्तातले, मडुवाडीह में आशि$क लोग नित्य शाम कोvजुटा करते हैं।
मतलब यह है कि बनारस की प्रसिद्धि जिन वस्तुओं के कारण है, उन वस्तुओं का व्यवसाय गलियों में ही होता है।
साभार: बना रहे बनारस
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ