1935 से 1947 के बीच भुवनेश्वर ने अपना पूरा साहित्य रचा। प्रेम और दया, माया, ममता जैसे परम्परागत मूल्यों के नाम पर बनी नैतिकता के पीछे छिपकर समाज ने नैतिक पतन ही ज़्यादा किया। मंटो की तरह भुवनेश्वर ने किसी नैतिकता की लाग-लपेट को स्वीकारे बिना अपने समाज के भीतर झाँकने का साहस किया। उनके पात्र इसीलिए ज़्यादा प्रकृत हैं और ज़्यादा तीखे भी। वैयक्तिक जीवन में निराशा और उपेक्षा झेलने के कारण भुवनेश्वर कटु हो गये थे।
इस तथ्य की ओर प्राय: सभी आलोचकों का ध्यान गया है। पर यह कटुता सिर्फ वैयक्तिक जीवन से उपजी हो, यही एकमात्र तथ्य नहीं है। साहित्य पढऩे-पढ़ाने वालों के प्रति समाज की उपेक्षा, व्यक्ति की खेमेगत पहचान और आदर्शवादिता के झूठे ढाँचों के बीच के नंगे चेहरे भी भुवनेश्वर को उतना ही परेशान करते रहे, जिससे उनका वैयक्तिक और सामाजिक जीवन प्रभावित अवश्य हुआ। एक तरफ आदर्श की चाशनी में देश के लिए जान देने को तैयार युवा दिख रहे थे, तो दूसरी ओर कड़वी वास्तविकता, जहाँ उनके लिए कोई जगह नहीं थी। जान देने वाले युवक मर रहे थे। वहीं नेता बना उच्च वर्गीय समाज आने वाले दिनों में अपनी सुविधा के रास्ते तलाश रहा था। बाबूगीरी इस वर्ग के हिस्से नहीं आयी, बल्कि शान-ओ-शौकत और ताकत का पर्याय बन यह वर्ग आने वाले समय का सत्ता वर्ग बनने वाला था। साठोत्तरी दौर में जिस मोहभंग की परिभाषा गढ़ी गयी। भुवनेश्वर उसे शायद पहले ही अनुभव कर रहे थे। मोहभंग के इस दौर ने भुवनेश्वर को बोहेमियन भी बनाया और झूठे तर्कों से भी निजात दिलायी।
हिन्दी समाज जिस तरह खेमेबाज़ी में उलझा अपनी तरह का एक बन्द समाज है; भुवनेश्वर उसके विरुद्ध रच रहे थे। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में तीखापन और कड़वाहट ज़्यादा है। एकदम आदर्श से मुक्त, कड़वे यथार्थ से लबरेज और हर तर्क को अताॢकक करती रचनाएँ।
कितना आत्ममुग्ध है हिन्दी समाज? जिसने बड़ी आसानी से न समझ आने वाले रचनाकार को 100 बरस बाद का रचनाकार कहकर आसानी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। यही प्रसाद के साथ हुआ और यही भुवनेश्वर के साथ भी। मोहभंग की इस त्रासदी का एक सूत्र खुद उनके जीवन से जुड़ा है, तो दूसरी ओर अपने युग के साथ संवाद से। जयशंकर प्रसाद पारसी मंच के विरोध में लिख रहे थे और इसीलिए आदर्श की व्यापकता उनकी रचनाओं में बहुत अधिक है। भुवनेश्वर शाहजहाँपुर के जिस समाज से आये थे, वहाँ तब उसी पारसी मंच का बोलबाला था। एक बौद्धिक समझ से बना युवक जो कुछ बदलना चाहता था; पर कहीं कुछ बदल नहीं रहा था। कितनी खलबली रहती होगी भुवनेश्वर के भीतर? माँ की मृत्यु के बाद परिवार का साथ न देना। शिक्षा पूरी न होना। बौद्धिकता के कारण समकालीनों द्वारा भी अस्वीकृत किया जाना। पश्चिम की नकल का आरोप और धीर-धीरे आत्मविस्मृति के संसार का बनना। इस सबसे भुवनेश्वर टूटते चले गये। लेकिन किसी का अहसान लेने को तैयार नहीं हुए। जहाँ भी गये, अपना अधिकार दिखाकर ही गये; छोटे बनकर नहीं। हो सकता है कि यह किसी को उनका अभिमान ही लगे। पर हिन्दी में कुछ अभिमानी बचे ही रह जाएँ, तो इस भाषा का भी भला हो जाए।
1947 के बाद कहानी का कलेवर बदला, जहाँ आज़ादी के बाद अतीत की स्मृतियाँ भी थीं और मनुष्यता के समाप्त होने की महागाथा भी। भुवनेश्वर आदमी के भीतर छिपे इस भेडिय़े को देख रहे थे और साफ-साफ महसूस कर रहे थे कि आदमी कहा जाने वाला जीव अपनी जान बचाने के लिए हर चीज़ को दाँव पर लगा सकता है। आदर्शों की चिन्दियाँ उड़ा देने वाले भुवनेश्वर झूठे नकाब को उधेड़ फेंकने के लिए बेसब्र थे। इस यथार्थवाद के प्रकृत रूप की सबसे अधिक शिकार होती है स्त्री। भुवनेश्वर स्त्री के प्रति सदाशय नहीं रहे। इसके कई कारण हो सकते हैं। मसलन, विमाता का व्यवहार अथवा अपने जीवन में आने वाली स्त्रियों से मिली उपेक्षा। अथवा एक तरह की पितृसत्ता, जिसके शिकार होते हुए भी भुवनेश्वर उससे अलग नहीं हो सकते थे। या फिर वह उस समाज की ग्रन्थियों का प्रकृत चित्रण करना चाहते थे, जो आदर्शों के नाम पर झूठी शान-औ-शौकत को बनाये रखता है। हो सकता है कि भुवनेश्वर उस सत्य को पकड़ पाने में समर्थ हुए हों, जहाँ देवी बनाने के खेल के साथ महत्त्वहीनता की स्थिति भी स्त्री के हिस्से में ही आती है। यह समाज जहाँ स्त्री को देवी कहकर प्रेम, दया, ममता को उसका गुण बताकर झूठी महिमा के तले उसे दबाये रखता है। वहीं काम-वासना का संचार करने वाली कहकर कभी मन-मुताबिक अप्सरा कहता है, तो कभी कुलटा! जब ज़रूरत हो, तब सबसे पहले झटककर जिसे अलग किया जाता है, वह भी स्त्री ही है। दान देने से लेकर सम्पत्ति से विलग सबसे पहले उसे ही किया जाता है। डाॢवन के सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट के सिद्धांत के मुताबिक भी फिटेस्ट होने (स्वस्थ्यतम उत्तरजीविता) का अधिकार अभी भी स्त्री के पास नहीं है। पुरुष को जन्म देना उसके महत्त्व की कसौटी है और उसी के इर्द-गिर्द घूमती स्त्रियों के लिए समाज में स्वीकार भाव है। हो सकता है कि भुवनेश्वर इस बनी-बनायी व्यवस्था को ढहाने के लिए हर स्त्री की आदर्श झाँकी तोड़ देते हैं; ताकि ठहरकर कुछ विचार तो किया ही जा सके। ब्रेख्त की एलियनेशन की सैद्धांतिकी यहाँ हमें इस टूटन को समझने की कुंजी दे सकती है। पर उससे पहले कहानियों पर नज़र डाल ली जाए।
1934 में ‘हंस’ में कहानी प्रकाशित हुई ‘मौसी’। कहानी के प्रचलित फॉर्म में ही लिखी गयी हृदय को खोलकर लुटा देने वाली स्त्री की कथा। पर साथ ही आदर्श के खोल के बीच यथार्थ की हल्की-सी आहट, स्त्री-पुरुष के बीच के वे सम्बन्ध, जिन्हें समाज अवैध कहकर तिरस्कृत करता है और उन्हें छिपाने की ज़िम्मेदारी भी स्त्री की और तिरस्कार भी उसका। भुवनेश्वर अपनी पहली ही कहानी में पुरुष की फितरत साफ कर देते हैं- ‘बसंत का बाप उन मनुष्यों में से था, जो अतृप्ति के लिए ही जीवित रहते हैं। जो तृप्ति का भार नहीं उठा सकते।’ यानी पुरानी छायावादी भाषा में नयी ज़मीन तोडऩे की तैयारी। कंकाल की रचना कर रहे प्रसाद इसी काल में अवैध सम्बन्धों को लेकर काशी की ओर प्रस्थान का रास्ता ढूँढ रहे थे। वहीं भुवनेश्वर की पतित दिखने वाली मौसी उसी की याद को लेकर दम तोड़ देती है, जिसने उसकी ओर देखने का भी समय नहीं जुटाया। पर साथ ही बसंत का चरित्र रचकर वे पुरुषों की धूर्तता की कड़ी को छोटी-सी कथा के भीतर रच देते हैं। मोह का तोडऩा मौसी को भी तोड़ देता है। कड़वा होते हुए भी यह आज भी सत्य ही है। सारे स्त्री विमर्श के बीच ऐसी ही स्त्रियाँ हमारे आस-पास हैं, जो जीवन दे देती हैं। पर समर्पण को नहीं छोड़ती। ऐसा घुला-मिला आदर्शनुमा यथार्थ तब भी था, आज भी है। भले ही कथा-कहानियों में स्त्री मुक्ति के कदम आगे बढ़ गये हों। भुवनेश्वर की कहानियाँ लम्बे समय तक आदर्श के इसी जामे में नज़र आती हैं।
‘हाय रे मानव हृदय’ कहानी का पहला साक्षात्कार किसी गुमनाम और अनजाने सिहरन भरे अहसास से गुज़रने जैसा होता है। जैसे आप किसी भूतिया कहानी के भीतर प्रवेश कर रहे हों और न जाने अन्त में क्या हासिल हों? कहानी के अन्त तक भुवनेश्वर इस रहस्य को खोल देते हैं और कहानी के अन्त में एक बदनाम स्त्री के भीतर छिपी घर के प्रति समर्पित स्त्री को दिखाते हैं। शायद अपने पहले परिवार की याद उसे उनके प्रति दया भाव से भरती है। जहाँ वह उनके लिए कुछ करना तो चाहती है, पर समाज के बने-बनाये नियमों के कारण वह लौट नहीं सकती। वेश्या कही जाने वाली स्त्री के भीतर के द्वंद्व और उसके भीतर छिपी स्त्री कोमलता को दिखाने में भुवनेश्वर कामयाब तो होते हैं, पर कहानी कुछ खास नहीं कहती। इतना अहसास ज़रूर हो जाता है कि भुवनेश्वर बने-बनाये प्रतिमानों में दखल देना शुरू कर चुके हैं।
‘जीवन की झलक’ कहानी पूरी तरह द्विवेदी युगीन आदर्शवाद से प्रेरित कथा है। कुछ-कुछ प्रेमचन्द अंदाज़ में लिखी आदर्श और भावुकता की कहानी। पति और पत्नी के रिश्ते के बीच भावुकता की बहती कहानी। जहाँ कुछ लोग साथ छोडक़र चले जाते है और अन्त में क्षमा माँगते हुए फिर लौट आते हैं। पर पत्नी को पति की अर्धांगिनी बनकर हर जन्म में उनके साथ रहने की साधना पर विश्वास है, जिसके लिए वह पूजा और पुजारी जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी करती है। मिला-जुलाकर यह कहानी भुवनेश्वरीय यथार्थ की कहानी न होकर प्रेमचंदीय यथार्थ की ही कथा शैली का विस्तार है।
‘हंस’ पत्रिका में छपी वर्ष 1936 की कहानी ‘एक रात’ से भुवनेश्वर अपने लिए भाषा ढूँढ लेते हैं- अलगाव और झटककर अलग कर देने की भाषा। खीजने, तोडऩे और फिर तटस्थ करके एक विचित्रता बोध से भरने वाली भाषा। यहाँ भुवनेश्वर का वाक्य याद करना चाहिए- ‘यथार्थ और आदर्श का अन्तर पाठक के मस्तिष्क में होता है; लेखक के मन में नहीं।’ एक बैचेनी-सी पैदा करके ठण्डे हथौड़े से वार करती भाषा और पाठक ठगा-सा खड़ा रह जाता है। पहले तो स्त्री की बनावट और रूप रचना को भुवनेश्वर जिस तरह से तैयार करते हैं, उसमें प्रेम के नाम पर खिलवाड़ को वह केंद्र में रखते हैं, जो केवल हृदय से खेलती है। पुरुष स्त्री को देखने की एक खास दृष्टि विकसित करता है। भुवनेश्वर के जीवन में जो घटनाएँ घटीं, उनके केंद्र में स्त्री तो थी ही, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। मध्य वर्ग के भीतर आदर्श के नाम पर जो बन्धन बाँधे गये हैं, उसी के भीतर कुत्सित और घृणित स्थितियाँ नहीं होती। यह कहना एक तरह से मध्यवर्गीय सच्चाई से पलायन करना है। लिजलिजे और गीज से भरे मध्य वर्ग के भीतर न तो विद्रोह का साहस है, न ही बदलाव का। …और इसमें स्त्री-पुरुष दोनों की अपनी ज़िन्दगी के क्षणों को चुराते और छिपाते देखे जा सकते हैं। इसी मध्यवर्गीय समाज पर नैतिकता की ठेकेदारी भी है और इसी के बीच पतन की हज़ारों कहानियाँ भी। भुवनेश्वर जिस सच को उधेडक़र रख देते हैं, वह बड़े समाज का सत्य भले ही न हो; पर एक छोटे तबके का सच तो ज़रूर है। आज जब वेब-सीरीज के दौर में ऐसी ढेरों कहानियों को मैट्रो की भरी भीड़ में देखते और छिपाते युवाओं को देखती हूँ, तो भुवनेश्वर बहुत याद आते हैं। नैतिकता बोध के संकट में घिरे इन युवाओं के बीच स्त्री-पुरुष की यौनिक वर्जनाओं की टूटन की लोकप्रियता के सत्य को भुवनेश्वर पहले ही दरका देते हैं। एक रात की पत्नी प्रेमा पति को छोडऩा नहीं चाहती। प्रेमी को पाकर अघा चुकी है। फिर पति को पाकर सम्पूर्णता और असम्पूर्णता के द्वंद्व के बीच जी रही है। मध्यवर्गीय समाज के बीच रिश्तों में सबसे पहले रस खत्म होता है और फिर रिश्ते केवल आॢथक और सामाजिक मजबूरी के नाम पर जीए जाते हैं। भुवनेश्वर की रचनाओं में जिस तबके का सत्य मूर्त हो रहा है, उसे खारिज नहीं किया जा सकता। डी.एच. लौरेंस का प्रभाव भले ही उन पर रहा, लेकिन आज के समाज में ऐसे ढेरों उदाहरण हैं, जिसे केवल पश्चिमी प्रभाव कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। भावुकता की लिजलिजाहट से प्रेमा को कुछ हासिल नहीं होता। पति रूपी यथार्थ में लौटकर ही उसका जीवन चल सकता है। इस सत्य का सटीक नमूना है- ‘चुम्बन’, पर उसमें तृप्ति कहाँ। तृप्ति तो अतृप्ति में ही खोजी जा सकती थी। पर प्रेमा उसे भी हासिल नहीं कर पायी। क्या इसे केवल स्त्री की तृष्णा के अंदाज़ में पढ़ा जाए? क्या इसे मध्यवर्गीय तृष्णा के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता? जो लगातार भाग रहा है, पर कहीं संतुष्टि नहीं…; तेरे फिरोज़ी होठों पर बर्बाद मेरा जीवन के अंदाज़ में!
भुवनेश्वर की कहानियों का कैनवस स्त्री-पुरुष सम्बन्ध पर टिका होने के कारण अत्यंत विस्तृत तो नहीं है पर निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग के बीच सेंध लगाता उनका कैनवस कई सूक्तियों का निर्माण करता है जिसके सहारे उनकी दृष्टि को पढ़ा जा सकता है। ‘डाकमुंशी’ कहानी में कई सूक्तियाँ हैं, जो कहानी को ही नहीं, बल्कि भुवनेश्वर के साहित्य को समझने में सहायता देती हैं; जैसे- ‘कल्पना जीवन और प्रकृति के विरुद्ध विद्रोह है।’ कल्पना को भुवनेश्वर एक तरह का भुलावा मानते हैं जो हमें एक सीमा तक यथार्थ से दूर ले जाती है। भुवनेश्वर कल्पना की अतिशयता से दूर यथार्थ की अतिशयता का निर्माण करते हैं। इस अतिशयता से घबराहट भले ही हो, पर इसके होने से इन्कार करना मुश्किल है। डाकमुंशी चीना के प्रति कई काल्पनिक कहानियों के निर्माण से उसके लिए एक दयाभाव निर्मित करता है। पर जब सच उसके सामने आता है, तो केवल एक कड़वाहट ही बची रह जाती है। ऐसी कड़वाहट जिसका असर उसके आने वाले पूरे जीवन पर होने वाला है। कल्पना की दुनिया उसे जीने का सहारा तो देती है। पर वह सहारा पूरी तरह पलायनवादी है, झूठा और निकम्मा सहारा! चीना का एक पत्र लिखने का अनुरोध उसे एक झूठी दुनिया से निकालकर केंद्रविहीन कर देता है। इस पूरी कहानी को एक तरफ चीना और दरोगा के प्रेम प्रसंग और उस प्रेम प्रसंग के कारण चीना के घर छोडऩे या छूट जाने के रूप में पढ़ा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर डाकमुंशी की झूठी कल्पना और उस कल्पना के रथ पर सवार होकर मसीहा बनने की लालसा और धड़ाम से ज़मीन पर गिरने और बिखर जाने की कथा के रूप में भी देखा जा सकता है। डाकमुंशी इतना बोदा और कायर है कि चीना पर क्रोध होने पर चीना को गाली भी नहीं दे सकता, बल्कि एक बालक को गाली देकर अपना अहम तुष्ट करने की कोशिश करता है… आहत सर्प के समान फुफकारकर क्या भाषा है और क्या बिम्ब! फुफकार कर ही रह आता है डाकमुंशी और यथार्थ की चोट इसे तोडक़र रख देती है। भुवनेश्वर की भाषा का तीखापन यहाँ और धारदार होकर चीर देता है।
‘माँ-बेटे’ कहानी मौत की पदचाप की कहानी है, ऐसा लगता है जैसे मौत धीरे-धीरे अपने कदम रखती कहानी की माँ को घेर रही है, पर असल में मर रहे है सारे पात्र, सारा परिवार! मौत का यह भयावह मंज़र, जिसमें आदमी तिल-तिलकर मरता है, पर भाग नहीं सकता। पूरी कहानी में अपनी तीव्रता के साथ मौज़ूद है। दूधनाथ सिंह इस कहानी के कुछ मूमेन्ट्स को भुवनेश्वरपन कहते हैं। जहाँ भुवनेश्वर उस लपट को पकड़ लेते हैं, जो मरने वाले के भीतर कौंध रही है। अल्ल-बल्ल प्रसंगों से भुवनेश्वर इस मृत्यु बोध को और गहरा ही करते हैं, तोड़ते नहीं! कथा प्रवाह के भीतर मध्य वर्ग की कटुताएँ भी है, बोदापन और छोटापन एक साथ है। मरने वाले के जाने का इंतज़ार भी है। ठीक वैसे ही जैसे हर परिवार के भीतर होता है- कड़वे यथार्थ की तरह! पल-पल रिसता हुआ!
‘भेडिय़े’ कहानी को आज कम-से-कम एक पुरानी विसंगत-सी कहानी कहकर नहीं टाला जा सकता! अपने पूरे खूनी अंदाज़ में यह कहानी चेतन और अवचेतन दोनों से टकराती है। खारू के नाम में जो कड़वाहट, खारापन और कसैली-सी गन्ध है वो भेडिय़ों के पूरे आतंक के साथ पाठक पर तारी रहती है। क्या ये भेडिय़े वही हैं, जो दिखाई देते हैं? पता नहीं! मुझे भेडिय़ों की इस प्रकृति के संदर्भ में कुछ ज्ञान नहीं पर यदि ये वही भेडिय़े भर हैं, तो कहानी कुछ विशेष नहीं कहती। बस इतना भर ही कि आदमी सबसे पहले कम मूल्यवान चीज़ों से निजात पाता है और इस लिहाज़ से औरतें हमेशा कम-मूल्यवान होती हैं या मूल्यवान होती ही नहीं! उन्हें किसी भी हालत में फेंका जा सकता है- कभी खुद को बचाने के लिए तो कभी किसी मुसीबत से बचने के लिए! एकदम कड़वी कहानी उतनी ही कड़वाहट से ज़िन्दगी के सच पर थूकती कहानी भुवनेश्वर ही लिख सकते थे। मैं इसे स्त्री विरोधी कहानी नहीं मानती, क्योंकि ये सच का जिस तटस्थ तरीके से बखान करती है, उसे विरोध न मानकर आईना क्योंकर न माना जाए? मध्य वर्ग की लालसाएँ और भौतिकताओं की होड़ में आगे रहने की शिकार हर जगह स्त्री ही बनती है—एशट्रे के साथ बॉस के सामने परोसी/ फेंकी जा सकती है, बाज़ार में उतारी जा सकती है। आदमी वैसे भी इतना नंगा है कि अपने आप को बचाने के नाम पर वह किसी को भी खत्म कर सकता है- जीने की लालसा इतनी प्रबल है कि उसके लिए सब कुछ दाँव पर लगाया जा सकता है। आज के बाज़ार के माहौल में तो यह और भी बड़ा सच है कि अधिक मूल्य की वस्तु (यहाँ जीवन) पाने के लिए कम मूल्य (यहाँ व्यक्ति) की वस्तु दाँव पर लगायी जा रही है। कहानी में तो भेडिय़े के सामने औरों को फेंका जा रहा है, ताकि जीवन बचा रह सके पर आज तो आदमी अपना जीवन भी दाँव पर लगा देता है; जिससे वस्तुएँ और भौतिक आपूर्ति हो सके।
भुवनेश्वर इस पूरे सिस्टम और बाज़ार को भेडिय़ा बनाकर नंगा कर देते हैं और इस कहानी का भुवनेश्वरपन यही है कि खारू भागता है पर लडऩे के लिए लौटता है, हार नहीं मानता। ये भुवनेश्वर कर सकते थे और उन्होंने किया भी! खारू ने अगले बरस और भेडिय़े मारे, खारू ने हार नहीं मानी! बाज़ार हमें हरा रहा है पर हार मानकर उसी के अनुसार खुद को फेंक देना भुवनेश्वर का लक्षण नहीं! खारू लौटता है, भेडिय़ों को मारता है और अगले बरस और अधिक भेडिय़े मारने का संकल्प लेता है। कहानी एक अलग स्तर पर सब कुछ सहते जाने का ही विरोध करती है। अपनी जान बचाकर खारू केवल ज़िन्दगी की आड़ में एक कायर बनकर भी समय काट ही सकता था, जैसा हम सब करते हैं। यहाँ खारू उतना ही पैना और हमलावर है जितने भेडिय़े हैं। बाज़ार जितनी तेज़ी से हमला करेगा, उतनी ही आक्रामकता से उसका विरोध भी करना होगा वर्ना हाथ से जीवन निकल जाएगा। भुवनेश्वर किसी अहिंसा के मिथ से कहानी का अन्त नहीं रचते, बल्कि हिंसक के प्रति हिंसा का सूत्र भी कहीं-न-कहीं रच देते हैं। जब आदमी के पास कुछ खोने के लिए नहीं रहता तब वह विरोध की भाषा और ताकत को रचता है। खारू उस मध्य वर्ग की लिजलिजी सन्तान नहीं, जो सुविधाओं के लालच में हिंसा भी सहती चली जाती है। खारू नंगा है। भूखा है और इसीलिए ज़्यादा विश्वसनीय भी है। ‘और वह भूखा, नंगा उठकर सीधा खड़ा हो गया।’
‘मास्टरनी’ कहानी एक ऊब और उदासी के पीलेपन की रंगत की कहानी है। स्केचिंग की भुवनेश्वर के पास अद्भुत प्रतिभा है। जिस तरह ‘भेडिय़े’ कहानी में भुवनेश्वर खारू का स्केच खींचते है; ठीक वैसे ही मास्टरनी की बाहरी से ज़्यादा भीतरी बुनावट का स्केच खींचकर कहानी को और पीला और रंगहीन कर देते हैं। ‘उसका चेहरा और भी लम्बा, और भी पीला, और भी चिड़चिड़ा हो गया था…’ यहाँ और भी पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है। मुझे लगता है कि कम से कम शब्दों में ताकतवर कथन की प्रवृत्ति भुवनेश्वर में गज़ब है। उसकी परिस्थितियों ने उसे पहले भी कमज़ोर, पीली और चिड़चिड़ी बनाया हुआ था; जिसके विरोध स्वरूप वह शायद या फिर उससे लडऩे के लिए अपेक्षित साहस जुटाकर वह जिस काम को कर रही थी, उस काम से भी उसकी परिस्थितियाँ नहीं बदलीं; बल्कि उसका जीवन और भी पीला, अधमरा, रंगहीन होता चला गया! एक वाक्य और उसके भीतर उदासी और आॢथक, सामाजिक, वैयक्तिक, भौतिक हार की इतनी परतें? यह एक ईसाई औरत है। हालाँकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि यह कहने को तो ईसाई है, पर उसका जीवन हिन्दुस्तान की निम्नतम परिस्थितियों में जीने वालों जैसा ही भयावह और भयंकर है। हो सकता है कि नौकरी और मुक्ति की बहस के लिए भुवनेश्वर ईसाई महिला को चुनते हों। क्योंकि हिन्दू परिवारों के बन्द समाज में तो उस समय उन्हें ऐसी स्त्री शायद ही दिखी हो। ईसाई वर्ग की यह महिला निम्न-मध्यवर्गीय समाज से आती है, जिसका नाम एक बार उसके भाई के मुख से ही सुनाई देता है-लूसी!
लूसी को पुरुष मर्दानी अवज्ञा से देखते हैं और औरतें डर के भाव से। जिस जगह पर वह रहती है, वह स्कूल का ही कमरा है। इसी कमरे में क्लास भी होती है और क्लास के बाद इसी पीले, बदबूदार कमरे में लूसी रहती है। यहाँ पढऩे वाले विद्यार्थी भी जब जाते हैं, तो उनकी कमर बूढ़े लोगों की तरह झुकी है। सोचने की बात है कि शिक्षा प्राप्त होने पर भी उनके भीतर की उदासी क्यों नहीं जा रही? क्यों कमर बूढ़ों की तरह झुकी है? ये सवाल भुवनेश्वर अधूरे छोड़ देते हैं। पर आज की शिक्षा-पद्धति पर भी एक सवाल तो खड़ा करते ही हैं।
परिवार इस इंतज़ार में ही जी रहा है कि किसी तरह लूसी खुद को निचोडक़र उन्हें भी ज़िन्दा रखने की कोशिश करेगी। लूसी ऐसा कर भी रही है। पर शायद अब उसकी हिम्मत जवाब दे रही है। मोज़े बनाकर भेजे पर उससे ठण्ड जाने वाली नहीं, अब उसके भीतर की ऊष्मा भी खत्म हो गयी है; जो कभी उसे शायद अपने भाई को जिस्म से लगाकर मिलती भी थी। मास्टरनी भी अपना जीवन जीना चाहती होगी। पर जीवन वैसा कहाँ होता है, जैसा हम चाहते हैं। मास्टरनी मजबूरी के तहत ही शायद उस आदमी के प्रस्ताव को मानने पर बाध्य है, जिसकी दो बेटियाँ हैं और जो बुझे हुए चेहरे का किसान है। मास्टरनी का यह सपना भी झूठा ही साबित होगा। क्योंकि उस उदास जीवन में इससे कोई अन्तर नहीं आएगा। पर फिर भी जैसे दुनिया चलती है, वो भी चलना चाहती है! झूठे सपने, झूठी कल्पनाएँ और एक झूठा घरबन्दा बसने की चाहत। हालाँकि वह जानती है कि जो वह चुनने जा रही है, वह सपना उसके लिए है ही नहीं। भुवनेश्वर की कहानियों में शुरू से अन्त तक यह जो अनकही त्रासदी है, उससे किसी पात्र को निजात नहीं मिलती। लूसी भी अपने भाई और परिवार से कोई सरोकार नहीं रखना चाहती पर वह ऐसा सिर्फ कहती है, ऐसा कर नहीं सकती।
कड़वाहट और घृणा से भरी यह मास्टरनी अपनी तिक्त स्थितियों से तिक्त हो गयी है। वरना सपने उसके भीतर भी हैं। उसके सपने, जिसमें विवाह और माँ बनने की ललक शामिल है; जब किसी तरह पूरे होने वाले हैं, तो उसके भाव देखिए- ‘मैं कैसे ज़िन्दा दफना दी गयी? पर मुझे कब्र की शान्ति तो दे दो!’ कैसा विरोधाभास है? जिसे बाहर की नज़र-सी सपने पूरे होने जैसा देखा जा सकता है। भीतर से वह कब्र में दफ्न होने जैसा है। पर तकलीफ यह कि कब्र में भी शान्त होकर मरने का अधिकार सबको नहीं मिल जाता। वह जानती है कि इन स्थितियों से निकलने का उसके पास कोई उपाय नहीं। पर फिर भी वह उस मृत्यु बोध में भी कुछ शान्ति चाहती है, जो उसे जीवन में कभी नहीं मिली। भुवनेश्वर की कहानियों में यह ऊब, उदासी, निराशा अस्तित्व का गहरा संकट हर जगह मौज़ूद है। इससे भागकर आदमी कहाँ जाएगा? जिस काल में आदर्श बोध इतना अधिक था कि हर संकट का समाधान आदर्श निर्माण में दिखायी देता था, उस काल में भुवनेश्वर आदर्श खण्डन का काम करते हैं। यह खण्डन हमे मध्यवर्गीय नैतिकता के नियमों पर फिर से सोचने के लिए विवश करता है। यह नियम वास्तव में हैं भी? या हम ही झूठी मान्यताओं के फेर में ही आदर्शों का निर्माण कर रहे हैं? अक्सर मध्यवर्गीय/ उच्च-मध्यवर्गीय समाज इन आदर्शों की दुहाई देता है। पर निम्न मध्यवर्गीय समाज के सामने इनसे टकराने, तोडऩे या फिर खुद टूट जाने के अलावा कोई विकल्प दिखायी नहीं देता।
‘सूर्यपूजा’ कहानी ऐसे ही कई सवालों को हमारे सामने खड़ा करती है। ‘वेटिंग फॉर गोदो’ को जब बेकेट ने लिखा, तो दूसरे विश्वयुद्ध से उत्पन्न हताशा और निराशा के बीच मनुष्य के अस्तित्व के तलाश का सवाल केंद्र में था। यही सवाल यहाँ भुवनेश्वर की रचना ‘सूर्यपूजा’ में दिखाई देता है। भुवनेश्वर की कहानियों में अस्तित्व का संकट विशेष रूप से देखा जा सकता है। जीवन की तलाश इनकी कहानियों में हर जगह नज़र आता है। भुवनेश्वर बड़ी-बड़ी बातों के विरोध में हैं। क्योंकि उन्होंने जीवन की कड़वाहट को देखा और जीया है। एक तरह से विलास का चरित्र भुवनेश्वर के अपने चरित्र को प्रकट करता है, जो प्रोलीतरीयत को प्यार करता है और उसके लिए कुछ करना चाहता है। पर समाज उसे समझने में नाकाम है और उसकी पीड़ा को समझने के लिए तैयार नहीं।
इस कहानी में कुल जमा दो पात्र हैं- डॉक्टर और विलास! कहानी किसी ढाँचे में नहीं लिखी गयी, कम-से-कम उस समय के कहानी के खाँचे में तो कतई नहीं। कोई कथानक भी नहीं! कहानी की शुरुआत से लेकर डॉक्टर और विलास की ऊब का कोई कारण भी नहीं मिलता। पर अन्त तक आते-आते अहसास होने लगता है कि डॉक्टर ऊबे आदमी की तरह दिखता है और विलास प्रोलीतरीयत समूह से जुड़ा है। दोनों एक-दूसरे को समझते हैं। पर दोनों के बीच का वर्गीय चरित्र उन्हें अलग-अलग कर देता है- मोटा, भद्दा डॉक्टर और रोगी-सा विद्यार्थी विलास! डॉक्टर और विलास के वर्गीय चरित्र का घालमेल उन्हें एक दूसरे की चीज़ों में घुलने-मिलने नहीं देता। विलास उस जश्न से ऊबकर लौट रहा है, जिसका ज़िक्र भर कहानी में मिलता है। विलास जैसे ही म्यूनिसिपालिटी की लाल धुएँदार लालटेन देखता है- ‘आँख की तरह, चिपकी, सूजी हुई आँख, जिसमें सामने की रौशनी से खून की एक बूँद डबडबा उठी है…।’ उसके भीतर की बोरियत, ऊब सब मिट जाती है और उसे जीवन का उद्देश्य मिल जाता है। इसे वह ‘नयी दुनिया की रोशनी; कहता है। डॉक्टर वापस अपनी दुनिया में लौटकर जाना नहीं चाहता, वहाँ उसके लिए कुछ नहीं है। इस दुनिया में वह जा नहीं सकता। क्योंकि उसका इससे कोई सम्बन्ध नहीं। डॉक्टर इसीलिए सुबक रहा है। पर वो वापस ही लौटेगा, आगे का रास्ता विलास के लिए ही है। विलास जैसे लोग ही इस दुनिया को बदलने के लिए कोशिश कर सकते हैं और करेंगे। ऐसा लगता है, जैसे- मुक्तिबोध की कड़वता के पूर्वपक्ष में इन रचनाओं को पढ़ा जा सकता है।
(संदर्भ ग्रन्थ :- ‘भुवनेश्वर समग्र’ -दूधनाथ सिंह एवं ‘कथादेश’ -भुवनेश्वर अंक)