भाषा का सवाल जितना सीधा व सरल है, उसका उत्तर उतना ही कठिन व जटिल। हम क्यों बोलते हैं? क्या बोलते हैं, से आज ज्य़ादा महत्वपूर्ण यह होता जा रहा है कि हम किस भाषा में बोल रहे हैं। हम अपनी बोली व लिखी जाने वालीभाषा को ही सार्वभौमिक बना देखना चाहते हैं। जाहिर है, सामने वाला भी यही चाहेगा। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो समझ में आता है कि शासन बदलने के साथ-साथ अक्सर भाषा भी बदलती गई। सम्राट अषोक के समय भीउपयोग में आई लिपि को अब तक हम लोग ठीक से समझ नहीं पाए हैं। उससे भी पहले हड़प्पा-युगीन लिपि भी हमारे लिए रहस्य बनी हुई है। समय के साथ संस्कृत, पाली, प्राकृत, फारसी, अरबी, उर्दू, हिन्दी और अंत में अंग्रेज़ी समय-समय पर प्रमुखता पाती गई। वैसे यह सरलीकरण ही है, क्योंकि इस सबके समानांतर भारत के तमाम रजवाड़ों में अपनी-अपनी भाषाएं, बोलियां और लिपियां प्रचलन में थीं और उनमें से तमाम अभी भी प्रचलन में हैं।
एकीकृत भारत की परिकल्पना में इतनी सारी भाषाओं का सहअस्तित्व बहुत कठिन था। तमिल के अलावा अधिकांश भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से मानी जाती है। सिर्फ तमिल का अपना अनूठा भाषा विन्यास है। अतएव तमिलनाडुमें भाषा को लेकर व्यग्रता बेहद ज्य़ादा है और इसका स्वागत और सम्मान किया जाना चाहिए। प्रस्तावित शिक्षा नीति के त्रिभाषा सिद्धान्त ने फिर भाषाओं की स्वीकार्यता को सर्वोच्चता की दृष्टि से देखने को मजबूर सा कर दिया।तमिलनाडु व दक्षिण के अन्य राज्यों में इसे लेकर बेहद विवाद की स्थिति बनी और नीति से वह बात हटा दी गई।
बात को आगे बढ़ाने से पहले भाषा को लेकर विनोबा भावे के अनूठे रवैये पर विचार करते हैं। वे लिखते हैं, ”मुझे भाषाओं के लिए अत्यन्त प्रेम है। कोशिश करके मैंने अपनी भाषाओं का अध्ययन किया। हिन्दुस्तान के संविधान में 15 भाषाओं के नाम हैं। उन सब भाषाओं का अध्ययन बाबा को हुआ है। उसके बाद फारसी और अरबी इन दोनों भाषाओं का भी अच्छा अध्ययन बाबा को है। ”विनोबा यहीं नहीं ठहरते, उन्हें जापानी व चीनी भाषा का भी ज्ञान था। वे कहतेथे, ”मेरे ध्यान में आया यदि नागरी लिपि भारत में चलेगी तो जापान के लोग भी नागरी लिपि स्वीकार कर सकते हैं क्योंकि वे भी लिपि की तलाश में है।
विनोबा एक ही लिपि यानी सभी भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि की वकालत भी करते नजऱ आते हैं। वे कहते हैं, चीनी बड़ी विकट भाषा है। छोटे-छोटे शब्दों में पूरा वाक्य बन जाता है। बड़ी सुन्दर भाषा है। यह चित्र लिपि की भाषा हैऔर चित्रलिपि के नाते उसमें 1000-1200 ”सिम्बल हैं। ये सारे ”सिम्बलÓÓ सीखने के बाद भाषा आती है। चीन में अनेक भाषाएं हैं, लेकिन उनकी एक लिपि-चित्रलिपि होने से उस लिपि पर से चीनी लोग अपनी-अपनी भाषाएं पढ़ लेतेहैं। ”विनोबा पहले दौर में अत्यन्त व्यावहारिकता के साथ केवल उत्तर भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि की बात को स्वीकारते है। गौर करिए विनोबा ने जर्मन और फ्रेंच भी सीखी। फिर किसी ने कहा कि आपने एक नई भाषा, ”एस्पिरेण्टो” का अध्ययन नहीं किया। जब वे पंजाब में पदयात्रा कर रहे थे किसी ने उनके पास युगोस्लाविया से एक शिाक्षक को उन्हें ”एस्पिरेण्टो” सिखाने के लिए भेजा। विनोब ने 20 दिन में वह नई भाषा भी सीख ली। वे कुल 20 भाषाएं जानते थे।
ऐसा ही कुछ राहुल सांस्कृतायन के बारे में भी है। वे भाषा को समझ कर उसी में रचना भी करते थे। अगर महात्मा गांधी की बात करें तो वो 12 भाषाएं जानते थे। इसमें भारतीय भाषाओं की बात करें तो गुजराती, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, तमिल व तेलगू पर उनकी अच्छी पकड़ थी। वे मराठी भी ठीक-ठाक बोल लेते थे। यरवदा व शेगांव जेल में उन्होंने मराठी व तमिल सीखी थी। उन्होंने गुरूदेव से मिलने और उन्हें अच्छे से समझने के लिए सन् 1920 के दशक में थोड़ीबंगाली भी सीखी थी। वही अपने जीवन के अंतिम दिनों (जनवरी-1948) में भी फिर बंगाली सीख रहे थे, जिससे कि वहां के शरणार्थियों और पीडि़तों से वे उनकी भाषा में बात कर उन्हें अधिक दिलासा दे सकें। विदेशी भाषाओं में उनकाअंग्रेजी, लेटिन, अरबी, फारसी व फ्रांसीसी पर अच्छा अधिकार था। उनका मानना था कि भारत के प्रत्येक बच्चे को अपनी मातृभाषा के अलावा एक अन्य भारतीय भाषा में पारंगत होना आवश्यक है। यानी भाषा अधिकार नहींअपनापन बढ़ाने का जरिया बनना चाहिए।
परन्तु भारत में कुछ ऐसा घट गया, जिससे भाषा बजाए सम्प्रेषण के टकराव का जरिया बनती चली गई। इस लेख की शुरूआत में जि़क्र आया था कि भारत में पिछले 2,500 वर्षों में जैसे-जैसे शासन बदले कमोवेश राज्य की भाषा भीबदलती गई, परन्तु जब 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ, तब पहली बार ऐसा हुआ कि हम शासक, वह भी औपनिवेशिक शासक की भाषा को अपनी भाषा के रूप में अंगीकार करने को विवश हो गए। यही बात बेहद घातकभी सिद्ध हुई।
गांधी भारत के लिए एक राष्ट्र्रभाषा चाहते थे और इसके लिए हिन्दी को उपयुक्त समझते थे। वे मानते थे कि राष्ट्र्र्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है। वे भी विनोबा की तरह हिन्दुस्तान के लिए देवनागरी लिपि की पैरवी करते थे तथा रोमन लिपि केबेहद खिलाफ थे। वे हिंदी के प्रश्न को स्वराज्य का प्रश्न मानते थे। साथ ही राष्ट्र्रभाषा के प्रयोग को वे देश की शीघ्र उन्नति से भी जोड़ते थे। गांधी ने अंग्रेज़ी की सर्वोच्चता के अंधविष्वास से बाहर निकलने का आहवान भी किया था। वे मानतेथे कि अंग्रेज़ी कतिपय अफसरों के अनुकूल हो सकती है, सबके नहीं। बाकी जनता के लिए तो वह सिरदर्द ही साबित होगी। वे जानते थे कि इसकी वजह से शासन, प्रशासन और जनता के बीच गहरी खाई पैदा होगी, इसीलिए हिन्दीको राष्ट्र्रभाषा का दर्जा देने के साथ-ही साथ वे चाहते थे कि शिक्षण का माध्यम तो मातृभाषा ही होनी चाहिए।
हमें यह भी समझ लेना होगा कि गांधी मूल रूप से हिन्दी भाषी नहीं गुजराती बोलने-समझने वाले थे। वे जानते थे कि भारत में अन्य तमाम लिपियां बंगाली, तमिल, तेलगु, गुरूमुखी, गुजराती आदि प्रचलन में है, परन्तु देवनागरी में अन्यभाषाओं को अपनाने की क्षमता सबसे ज़्यादा है। उन्होंने अंग्रेज़ी भूल जाने की घोषणा भी की थी। उनके मन में हिन्दी को सर्वोच्चता प्रदान करने का विचार नहीं बल्कि भारत में आपसी सम्प्रेषणीयता में वृद्धि था। परन्तु दक्षिण भारतीयसमाज ने इसे अपने पर थोपे जाना समझ लिया। उनकी इस समझ के पीछे दिल्ली में बैठे कांग्रेसी नेताओं की भी गलती रही है।
यहां इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है मौजूदा तमिलनाडु जो कि पहले मद्रास या मद्रास प्रेसिडेंसी के नाम से जाना जाता था, में हिन्दी विरोधी आंदोलन आज़ादी के भी पहले सन् 1937 में प्रारंभ हो गया था। यह तब हुआ जबकिभारतीय राष्ट्र्रीय कांग्रेस की सी.राजगोपालाचारी सरकार ने हिन्दी पढ़ाने का निश्चय किया। इस कदम का ई.वी.रामास्वामी ने विरोध किया। यह आंदोलन करीब 3 साल तक चला और सन् 1939 में कांग्रेस सरकार के इस्तीफा दे देने केबाद फरवरी 1940 में ब्रिटिश सरकार ने हिन्दी पढ़ाई का आदेश वापस ले लिया। जैसा कि हम जानते हैं कि संविधान सभा में भी भाषा (राष्ट्र्रभाषा) एक चर्चित मुद्दा रहा है। भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था। सरकारके प्रस्ताव कि सन् 1965 के बाद हिन्दी को एकमात्र आधिकारिक भाषा बना दिया जाए, से अनेक गैर हिन्दी भाषी राज्य सहमत नहीं थे। वहीं जैसे-जैसे 26 जनवरी 1965 नजदीक आता गया वैसे-वैसे अहिन्दी भाषी राज्यों में स्थितियांबिगडऩे लगी।
मद्रास में 25 जनवरी 1965 को छात्रों ने बड़ा आंदोलन किया। राज्य में अर्धसैनिक बलों की तैनाती करनी पड़ी। इन दंगों में 70 से ज्य़ादा लोग मारे गए। यह सब कुछ कांग्रेसी शासन के अन्तर्गत हो रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने यह आश्वासन दिया कि अंग्रेज़ी को तब तक आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त रहेगा, जब तक कि अहिन्दी भाषी राज्य चाहते हैं। इस असंतोष का एक परिणाम यह निकला कि सन् 1967 में हुए विधानसभा चुनावों मेंकांग्रेस हार गई और डी.एम.के. की जीत हुई और कांग्रेस फिर आज तक वहां सत्ता में नहीं आ पाई। आखिर केन्द्र में सत्ता में आई इंदिरा गांधी सरकार ने सन् 1967 में आधिकारिक भाषा अधिनियम में संशोधन कर यह सुनिश्चित करदिया कि हिन्दी व अंग्रेज़ी का आधिकारिक भाषा के रूप में प्रचलन अनिश्चित काल तक जारी रहेगा।
रोचक तथ्य यह है कि जब मद्रास (अब तमिलनाडु) में हिन्दी विरोधी आंदोलन चल रहा था। ठीक उसी समय उत्तर भारत में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन भी अपने चरम था। इस संदर्भ में उन्होंने सन्1965 में उत्तर प्रदेश में विधायकों के समक्ष एक महत्वपूर्ण भाषण ”अंग्रेज़ी कैसे हटे दिया था। उनका मानना था कि लोग अंग्रेज़ी को इसलिए भी पढ़ते हैं क्योंकि इससे रूतबा बढ़ता है। उन्होंने कहा, ”यह संभव नहीं है कि वर्तमान नीतिके चलते बंगाल और तमिलनाडु स्वेच्छा से अंग्रेज़ी हटा देंगे। करोड़ों लोग हिन्दी मुर्दाबाद के नारे लगते हैं और बंगाल में तो यहां तक नारे चल पड़े हैं कि ”जय हिन्दी देश तोड़ती है और जय अंग्रेज़ी देश जोड़ती है।” वे मानते थे कि बंगालमें दो धाराएं काम करती हैं, एक हिन्दी को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करने और दूसरी धारा हिन्दी का तिरस्कार करने की। इसके दो वर्ष पश्चात सन् 1967 में उन्होंने नारा दिया ”अंग्रेज़ी हटाओ। वे अंग्रेज़ी भाषा का विरोध ब्रिटिशऔपनिवेशिक मानसिक गुलामी से मुक्तिके लिए कर रहे थे। डॉ. लोहिया भी अनेक हिन्दुस्तानी और विदेशी भाषाओं के जानकार थे। उनका मानना था कि ”दरअसल, हथियार और पलटन किसी कौम को जिताया नहीं करते। सबसेपहले नम्बर की ज़रूरत होती है दिल की यह ताकत, इच्छा शक्ति, संकल्प शक्ति से ही राष्ट्र्र अपना जीवन बनाया करते हैं। अपने लंबे संवाद के अंत में वे कहते हैं, ”देखो पलटन का अफसर किस भाषा में बोलता है? सिपाही किस भाषामें बोलता है ? अपनी मातृभाषा चाहे मलयालम हो या बंगला हो पर ज़्यादातर पलटन में जो सिपाही लोग हैं वे तो हिन्दुस्तानी वाले हैं ना तो पलटन के सिपाही तो बोले, समझें, सब कुछ काम करें अपनी भाषा में, मातृभाषा में औरअफसर लोग कागज घिसें, हुक्म दें और सब व्युह रचें अंग्रेज़ी में। कैसे काम चल सकता है।
लोहिया का मानना था कि भारत में उत्पादकता में कमी का एक बड़ा कारण अंग्रेज़ी भाषा का वर्चस्व ही है। वे कहते थे ”हिन्दी के साथ सबसे बड़ी झंझट यह हुई है कि इसका क्या बोलते हैं, अभिषेक तो हो गया तिलक नहीं लगा, यातिलक लग गया पर अभिषेक नहीं हुआ। लिख तो दिया, हो गई हिन्दी हिन्दुस्तान की भाषा, लेकिन तिलक नहीं चढ़ा। नतीजा यह हुआ कि काम हुआ नहीं लेकिन लोगों का मन बिगड़ गया। बंगाली, तमिल, तेलगू जितने थे उनको मौकामिल गया और वे एक सैकड़ा लोग थे, उनको मौका मिल गया कि वे चारों तरफ इसके खिलाफ आवाज उठा दें।ÓÓ इसके प्रतिकार स्वरूप वे चाहते थे कि बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और हरियाणा इन पांच सूबो कोअंग्रेज़ी हटा देनी चाहिए। डॉ. लोहिया के इस सैद्धान्तिक विरोध व आंदोलन को उस दौरान काफी समर्थन भी मिला था, परन्तु बाद में उन्हें इस बात के लिए कोसा जाने लगा कि उनकी वजह से उत्तर भारतीय पिछड़ गए। जबकिसमस्या भाषा के चयन की थी और दक्षिण भारत पर हिन्दी नहीं थोपी जा सकी, परन्तु उत्तर व मध्य भारत में चुपचाप अंग्रेज़ी थोप दी गई।
हिन्दी विरोधी व अंग्रेज़ी हटाओं आंदोलनों को बीते अब 50 बरस से भी ज़्यादा हो गए हैं। दक्षिण भारत ने अपने हिन्दी विरोधी तेवरों में ज़्यादा कमी नहीं आने दी, परन्तु उत्तर भारतीय, खासकर हिन्दी भाषी राज्यों ने हाथ टेक दिये याअपने हथियार डाल दिए। दक्षिण भारत ने अंग्रेज़ी के साथ अपनी मातृभाषा को जबरदस्त ढंग से प्रोत्साहित किया और अगली पीढ़ी के मन में मातृभाषा के प्रति जबरदस्त लगाव भी बनाए रखा। वहीं हिन्दी भाषी समाज को जैसे हिन्दी सेविरक्ति नहीं बल्कि वितृष्णा सी हो गई। गली-गली में अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालय खुल गए। इन विद्यालयों में पढ़ाने वालों को न तो अंग्रेज़ी आती थी और न ही शास्त्रीय हिन्दी।
अंग्रेज़ी का ज्ञान सामाजिक प्रतिष्ठा का पैमाना बनता चला गया और स्थितियां दिनों दिन बद् से बद्तर होती चली गई। हिन्दी प्रदेशों में यह मानसिकता पैठ बनाती गई कि हिन्दी एक हीन भाषा है, और इसके माध्यम से जीवन के उच्चतमशिखरों (अर्थात धन कमाने) तक नहीं पहुंचा जा सकता। इस बीच भारत की अधिकांश आबादी के लिए सूचना क्रांति का अर्थ मोबाइल क्रांति तक सीमित हो कर रह गया। साहित्य को छोड़ दें, तो हिन्दी में अन्य पठन-पाठन व लेखन कासर्वथा अभाव होता चला गया और यह माना जाने लगा कि सर्वश्रेष्ठ तो अंग्रेज़ी में ही लिखा जा सकता है, फिर बात विज्ञान की हो, कला की हो, साहित्य की हो, दर्शनशास्त्र की हो या फिर समाजशास्त्र आदि की। अतएव हमें लेखक वरचियता नहीं बल्कि अच्छे अनुवादक चाहिए। और माने या न माने हिन्दी प्रदेशों ने इसमें पारंगता प्राप्त की और इसे एक बेहतरीन व्यवसाय में बदल डाला। हिन्दी में अनुदित पुस्तकों की बिक्री बढ़ती गई। अतएव प्रकाशकों कोअनुवादकों की बिरादरी की तलाश थी, जो उन्हें सस्ते में और आसानी से उपलब्ध हो गई। वहीं सरकार के अधिकांश विभाग व एजेंसियों को भी सस्ते अनुवादकों की आवश्यकता थी, उन्हें भी यह परिस्थिति काफी अनुकूल जान पड़ी।इधर फेसबुक आदि पर स्तरहीन अनुवाद भी त्वरित उपलब्ध होने से हिन्दी की बची-खुची अस्मिता भी दांव पर लग गई।
इस सबके चलते कोढ़ में खारिश के रूप में वर्तमान भाषा विवाद सामने आया और 50 साल पहले की परिस्थितियों का पुन: दुहराव हो गया और एक बार फिर हिन्दी विरोध के ईंधन ने दक्षिण भारत को भाषायी विविधता व राजनीतिकविरोधाभास के चलते एकसाथ ला खड़ा किया। केन्द्र सरकार दोबारा हिन्दी व राष्ट्र्रभाषा के मुद्दे पर असफल सिद्ध हुई और वही हुआ जो 5 दशक पहले हुआ था। त्रिभाषा फार्मूला हिन्दी थोपने के नाम पर बदनाम कर दिया गया औरऔपनिवेशिकता या गुलामी की पहचान, अंग्रेज़ी के पैर और भी मजबूत हो गए। इस बार हिन्दी विरोधियों के तरकश में और भी घातक तीर थे। जैसे सूचना क्रांति, दुनिया का सिमट कर छोटा हो जाना आदि-आदि। परन्तु इस सबकेचलते यह कोई नहीं समझ रहा कि अब अंग्रेज़ी को हटाने की बात नहीं रह गई है बल्कि राष्ट्र्रीय स्तर पर संप्रेषण व संवाद के लिए एक भारतीय भाषा के चयन की बात प्रमुख है। खेद की बात यह है कि इक्का-दुक्का को छोड़ दें तोहिन्दी भाषी समुदाय भी अपनी ही मदद को सामने आने को तैयार नहीं है। इस भाषा विवाद का सबसे ज़्यादा लाभ अंग्रेज़ी के नाम पर शिक्षा की दुकानें चलाने वाला वर्ग उठाएगा और आमफहम को समझा देगा कि देखिए अब अंग्रेज़ीका वर्चस्व, पूरे भारत में शाश्वत हो गया है और हमने गांधी, विनोबा लोहिया को अंतिम शिकस्त दे दी है।
अनुपम मिश्र लिखते हैं, ”लेकिन कभी-कभी समाज के कुछ लोगों का माथा थोड़ा बदलने लगता है। यह माथा फिर अपनी भाषा बदलता है। यह सब इतने चुपचाप होता है कि समाज के सजग माने गए लोगों के भी कान खड़े नहीं होपाते। इसका विश्लेषण, इसकी आलोचना तो दूर इसे कोई क्लर्क या मुंशी की तरह भी दर्ज नहीं कर पाता।ÓÓ धीरे-धीरे हिन्दी में अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग कर इसे हिग्लिंष्श में बदला। अब पूरी तरह से नकारने का दौर चल रहा है।परन्तु इस वर्ग के सामने समस्या यह है कि हिन्दी अभी भी बाज़ार की भाषा है और करीब 70 करोड़ से ज्य़ादा लोगों द्वारा बोली-समझी जाती है। गौरतलब है आज से 800 वर्ष से भी पहले सारी दुनिया में हिन्दी जानने वाले लोग थे, क्योंकि यह व्यापार की भाषा थी। भारत में तीन तरह की हिन्दी प्रचलन में थी जिसमें एक दखनी हिन्दी भी है, जिसका रूप हमें अभी हैदराबाद के आसपास दिखाई देता है कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दी बाज़ार की भाषा बने,बाज़ारू नहीं।
हम जानते हैं कि सृष्टि के प्रारंभ में शब्द नहीं थे, भाषा नहीं थी। इसे मानव ने ही विकसित किया है। इसे लेकर दो तथ्य सामने आते हैं, पहला यह कि भाषा के न होने पर आदिम मनुष्य ने भारी दिक्कतों का सामान किया होगा औरदूसरा यह कि भाषा को विकसित करने में मनुष्य को कितनी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा होगा। उसे कितनी कल्पनाशीलता का उपयोग करना होगा। आज हम इसे सहज ही पा लेते हैं। अतएव यह समझना होगा कि प्रत्येकभाषा या बोली का विकास मानव सभ्यता के विकास की क्रमबद्ध कहानी जैसा ही है, इसलिए भाषाएं विवाद नहीं सामंजस्य का द्योतक है। हिन्दी भाषा-भाषियों को समझना होगा कि हिन्दी से लगाव ही उनकी संस्कृति को सहेज सकताहै। हिन्दी को अनुवाद नहीं, रचना की भाषा बनाए रखना होगा। हमें अपनी मर्जी से अपनी मातृभाषा के अलावा एक और भारतीय भाषा सीखनी होगी। सौहार्द बढ़ाने के लिए यह भाषा ”तमिलÓÓ भी हो सकती है। परन्तु किसी भी हालमें भाषा के आधार पर सामाजिक तानाबाना टूटना नहीं चाहिए। वैसे हमने भाषा के आधार पर राज्यों का गठन कर अनेक भाषाओं को लुप्त होने से बचाया है। आगे क्या यह संभव हो पाएगा? अंत में विनोबा ही एक बात, ”भगवानशंकर को तीसरी आँख थी, वह ज्ञान दृष्टि कहलाती है। वैसे ही हमें भी तीसरी आँख चाहिए। संस्कृत भाषा का अध्ययन हमें लाभदायी होगा। अंग्रेज़ी भाषा चश्में के तौर पर काम आयेगी। चश्में की ज़रूरत सबको नहीं होती। कुछ लोगोंको कभी ज़रूरत होती है, तो उतना अंग्रेज़ी का स्थान है। पर भारत में तो चश्मा ही आँख का पर्याय हो गया है।