बीते दिनों भारत भवन ने भोपाल में भूमंडलीकरण और भाषा के क्रियोलीकरण की समस्या पर दो दिन का एक परिसंवाद आयोजित किया. हालांकि परिसंवाद जितना महत्वपूर्ण था, लोगों की उपस्थिति या भागीदारी उस लिहाज से काफी कम थी. हो सकता है, इसकी एक वजह आयोजन की परिकल्पना या आयोजकों की सीमा में निहित हो, लेकिन यह भी स्पष्ट तौर पर समझ में आता रहा कि लोगों के लिए भाषा वह मुद्दा नहीं रह गई है जिस पर वे संजीदगी से विचार करने की फुरसत निकालें. क्या इसलिए कि वाकई भाषा की भूमिका हमारे जीवन में सीमित होती जा रही है? तकनीक हमारे जीवन में इस बुरी तरह छा गई है कि उसने कई दूसरी चीज़ों को बेदखल कर डाला है. दोस्ती, रिश्तेदारी, आपसदारी- ये सब या तो तकनीक के माध्यम से संभव हो पा रही हैं या बिल्कुल हमारी स्मृति से गायब होती जा रही हैं. उनके लिए हमारे पास तकनीक के अलावा कहीं और कोई अवकाश नहीं है. इन सामाजिक उपादानों के संदर्भ में जो बात स्थूल स्तर पर बहुत प्रत्यक्ष है वही सूक्ष्म स्तर पर भाषा को लेकर भी अनुभव की जा सकती है- अगर हमारे पास अनुभव करने की इतनी क्षमता बची भर हो.
जब दुनिया इतनी आसान और आरामदेह हो जाए, जब ज़माना वाकई मुट्ठियों या चुटकियों में सिमटा दिखाई दे तो फिर भाषा की ज़रूरत क्यों रह जाती है?
दरअसल तकनीक ने किया क्या है? वह हर चीज को न्यूनीकृत कर रही है. वह सब कुछ पहले से इतना व्यवस्थित, इतना पूर्वनियोजित कर दे रही है कि दिल और दिमाग को किसी तरह का कष्ट न हो. ऐल्विन टॉफ़लर 1964 के नितांत सुस्त समय में- कम से कम आज की रफ्तार के मुकाबले- जिस ‘फ्यूचर शॉक’ से आक्रांत था, उसे भी जैसे यह तकनीक एक तरह से नियोजित कर ले रही है. उसके पास अब अतीत की सारी तस्वीरें हैं- बिल्कुल हमारी पैदाइश से लेकर हमारे डिग्री और नौकरी हासिल करने और पिछली शाम पहाड़ घूमने तक की- और भविष्य की सारी परिकल्पनाएं हैं- आने वाले दिनों में हमें कहां बसना है, कहां नौकरी करनी है, बच्चों को किन स्कूलों में पढ़ाना है, उन्हें आगे चल कर क्या बनाना है- इन सब के ब्योरों सहित- और अतीत और भविष्य के बीच उस सारे वर्तमान पर भी उसका कब्ज़ा है जिसमें हमारे मित्र, सहयोगी, अपने-पराये, घर-दफ्तर सब शामिल हैं.
जब दुनिया इतनी आसान और आरामदेह हो जाए, जब जमाना वाकई मुट्ठियों या चुटकियों में सिमटा दिखाई दे तो फिर भाषा की जरूरत क्यों रह जाती है, या उसकी जगह क्या रह जाती है? एक तरह से यह तर्क उन माध्यमों में भी चल पड़ा है जिनका वास्ता शब्दों या भाषा से है. अखबार अब बड़े लेख नहीं छापते, छापते हैं तो वे पढ़े नहीं जाते. वे बहुत जानी-पहचानी शब्दावली से बाहर नहीं जाते- इस डर से कि उनका पाठक शब्दों के अर्थ और आशय खोजने की जगह कोई नया अखबार खोज लेगा जिसकी भाषा कहीं ज्यादा ‘आरामदेह’ हो- यानी दिलो-दिमाग पर सोचने का अतिरिक्त बोझ न डाले. टीवी चैनलों का नजरिया भी बेहद साफ है- खबर वैसी हो जो पाठक को कुछ बहलाए, कुछ सहलाए और कुछ यह तसल्ली दे कि यह खबर उसके काम की है, उसी की है. दिन भर के थके-मांदे दिमाग को विचार और सरोकार का बोझ नहीं चाहिए.
सवाल है कि इसमें बुराई क्या है. वाकई जब जीवन इतना आसान है तो उसे हम बोझिल क्यों बनाएं- नकली भाषा की तरह नकली चिंताओं की दुकान क्यों सजाएं? दरअसल दुकान का यह रूपक जान-बूझ कर इस्तेमाल किया गया है- बस यह याद दिलाने के लिए कि जो तकनीक इतना आराम दे रही है वह मुफ्त में नहीं दे रही, उसकी वह पूरी कीमत भी वसूल रही है और हमें-आपको बस ऐसे ग्राहकों की तरह देख रही है जो मोल चुकाएंगे तभी कुछ हासिल कर पाएंगे. और हम मोल चुका भी रहे हैं. जीवन में जो थकान है, किसी नए या दूर खड़े तनाव से बचने की जो घबराहट है, लगातार भागते रहने की जो मजबूरी है, और इस सारे तनाव के बीच मनोरंजन के नाम पर बहुत हल्का और विचारशून्य खोजने की जो चाहत है, वह इस नए जीवन की देन है. अगर ठीक से समझने की कोशिश करें तो हम पाएंगे कि दरअसल यह तकनीक का नहीं, उस पूंजी का खेल है जो इस तकनीक को संभव करती है और हमारा जीवन हमारे ऊपर थोपी हुई इच्छाओं के मुताबिक बदलता चलता है.
तकनीक के कंधों पर सवार यह पूंजी हमें एक नया मनुष्य बना रही है और इसी क्रम में चुपचाप हमसे हमारी भाषा भी छीन ले रही है. साफ तौर पर यहां भाषा से आशय हिंदी या मराठी या तमिल या तेलुगु या फिर अंग्रेजी से नहीं है- मनुष्य की उस बुनियादी जरूरत से है जो उसकी निजी गढ़न का आधार भी बनती है और उसके सामाजिक सरोकार का माध्यम भी. यह भाषा जितनी गहरी होती है, उसमें जितना फैलाव होता है, एक व्यक्ति और समाज के रूप में हमारे भीतर भी उतनी ही गहराई, उतना ही फैलाव आते-जाते हैं. ये फैलाव तकनीक और पूंजी को रास नहीं आते, उसे एक सपाट-समतल मैदान चाहिए जहां उसके अश्व दौड़ सकें, जहां उसका वैश्विक अश्वमेध संभव हो सके.
हमारी पूरी शब्दावली में तर्क-पद्धति और प्रक्रिया की पूरी तरह उपेक्षा करके सिर्फ कारोबार करने की नीयत दिखाई पड़ती है
भाषा का क्रियोलीकरण दरअसल इसी प्रक्रिया का हिस्सा है जिसकी मार हमारे समाज के संदर्भ में इन दिनों सबसे ज्यादा भारतीय भाषाओं और हिंदी को झेलनी पड़ रही है. हमारे अखबारों में धीरे-धीरे बिल्कुल आमफहम हिंदी शब्दों की जगह उनके अंग्रेजी अनुवादों के इस्तेमाल का फैशन चल पड़ा है, हमारे टीवी चैनलों में देवनागरी के बीच बहुत धड़ल्ले से रोमन लिपि की घुसपैठ बढ़ रही है, हमारी पूरी शब्दावली में सरोकार और विचार को बेदखल करके, किसी तर्क-पद्धति और प्रक्रिया की पूरी तरह उपेक्षा करके सिर्फ सनसनी बेचने और कारोबार करने की नीयत सक्रिय दिखाई पड़ती है.
लेकिन यह सिर्फ एक भाषा को खत्म करने की नहीं, यह एक पूरे समाज से उसकी अभिव्यक्ति, उसके अनुभव और अंततः उसका आत्मसम्मान छीनने की प्रक्रिया है जो उसे पहले एक आत्महीन और असुरक्षित समाज में बदलती है और फिर एक ऐसे ग्राहक में जिसके हलक के भीतर कुछ आसान शब्द डाले जा सकें और उसकी जेब में पड़ा माल निकाला जा सके. निश्चय ही इस प्रक्रिया से एक भाषा के रूप में अंग्रेजी का भी नुकसान हुआ है. इन दिनों- कम से कम भारत में- जो अंग्रेजी लिखी जा रही है वह कहीं ज्यादा सतही, इकहरी और स्मृतिविहीन है. उसमें एक पेशेवर तराश जरूर है जिसकी वजह से वह एक चमकदार, विज्ञापनबाज भाषा के रूप में अपनी जगह बना लेती है. लेकिन फिर भी अंग्रेजी इस तकनीक और पूंजी की भी भाषा है, वह भारत के संदर्भ में एक विशेषाधिकार संपन्न भाषा है जो इसी विशेषाधिकार की वजह से अपना एक सांस्कृतिक दावा भी आरोपित करती चलती है, इसलिए यह समूचा क्रियोलीकरण उसके दबदबे को कुछ और अभेद्य बनाता है. फिर अंततः शिक्षा के माध्यम के तौर पर वह अपना एक अलग और विशेष समाज बनाती है जिसके अपने लेखक और बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें यह बाजार झुक कर प्रणाम करता है, अपनी बचत का एक हिस्सा दक्षिणा की तरह उन्हें देता भी है और साबित करता है कि वह उतना संस्कृतिविहीन नहीं, जितना उसे बताया जाता है.
अंततः संस्कृतिविहीनता का आरोप उस विराट भारतीय समाज पर आकर टिकता है जिससे उसकी भाषा, उसकी अभिव्यक्ति और उसके अभ्यास छीने जा रहे हैं. इस भारतीय समाज को बाजार के बौद्धिक समाज में तभी स्वीकृति मिलती है जब वह अंग्रेजी लिखना-बोलना सीखता है, उसकी पूजा करता है. भारत में दलित चेतना का जो नया उभार है उसकी कई सार्थक अभिव्यक्तियां मराठी, हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में हैं, उसको बौद्धिक नेतृत्व दे रहे लोगों की कतार बहुत बड़ी है, लेकिन अंग्रेजी के माध्यम एक ही दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद को जानते हैं जो निहायत सतही ढंग से कुछ अतिरेकी स्थापनाओं के पक्ष में खड़े होकर किसी बहस का एक उपयोगी पुर्जा बनने को तैयार रहते हैं. बाकी समाज में साहित्य और संस्कृति का ठेका बॉलीवुड के तथाकथित गिने-चुने बुद्धिजीवियों के हाथ में है. इनमें गुलजार जैसे संवेदनशील गीतकार, एक जमाने के फाॅर्मूला फिल्मों के संवाद लेखक और इन दिनों गीतकार हो गए जावेद अख्तर और विज्ञापन की दुनिया से आए प्रसून जोशी जैसे लोग हैं, लेकिन उनकी यूएसपी भी सिर्फ उनका रचनाकर्म नहीं, एक माध्यम के रूप में अंग्रेजी से उनकी निकटता और अंग्रेजी के तथाकथित बौद्धिकों से संवाद कर सकने की उनकी क्षमता है. वरना जावेद अख्तर और प्रसून जोशी जैसे रचनाकार हिंदी में निहायत औसत प्रतिभा के लोग ठहरते हैं; उनसे बेहतर कवि, गद्यकार और विचारक दस-बीस नहीं, सैकड़ों में निकलेंगे.
लेकिन इस नए बनते समाज की निगाहों में हिंदी या भारतीय भाषाओं की अपनी बौद्धिकता एक पिछड़े जमाने की चीज है. क्योंकि वह कुछ बाजार-विरोधी और प्रगतिविरोधी जान पड़ती है. क्योंकि वह विकास द्वारा बनाई जा रही मीनारों को नहीं, उसके द्वारा बेदखल किए जा रहे मैदानों को देखती है. क्योंकि वह तकनीक की नहीं, भाषा की बात करती है.
भाषा का क्रियोलीकरण दरअसल इसलिए भी खतरनाक है कि वह भाषा को उसके मूल अर्थों में भाषा नहीं रहने देता, वह उसे बस एक तकनीक में बदल डालता है जिसके जरिए आप अपनी इच्छा या राय- अगर कोई अपनी इच्छा या राय हो तो- दूसरों तक पहुंचा सकें. इसीलिए न उसमें व्याकरण का अनुशासन चाहिए और न लिपि की अपरिहार्यता. ऐसी भाषा बोलने और बरतने वाले लोग धीरे-धीरे अपनी बौद्धिक स्वतंत्रता से भी वंचित होते जाते हैं, और उन्हें पता भी नहीं चलता. वे बस एक दिया हुआ काम दिए हुए वेतन पर करते हैं और दी हुई खुशी पर निसार होकर जीवन जीते रहते हैं. क्रियोलीकरण इस बौद्धिक गुलामी का पहला क़दम है जिसका प्रतिरोध जरूरी है ताकि हम सोचने-समझने वाली जमात के तौर पर बचे रह सकें.