प्रतिवर्ष गर्मियों के मौसम में सूखे की चपेट आने वाला भारत नदियों का एक ऐसा देश है जहां आधुनिक युग में भी जल संकट से निपटने के लिए बहुत पुराने तरीकेअपनए जा रहे हैं। जल भंडारण करने की अवैज्ञानिक विधि के तहत सरकार बांध बनवाकर प्रतिवर्ष तेज रतार से जंगलों को ध्वस्त कर जलाश्यों की संया मेंइजाफा करती जा रही है।
इसी कारण प्रतिवर्ष सूखे की चपेट में आने वाले भूभाग का विस्तार भी उसी रतार से होता जा रहा है। पीने के पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसने वालों की संख्याबढ़ रही है। दूषित जल पीकर मरने वालों की संख्या में इजाफा होता जा रहा है और भूजल के अत्यधिक दोहन से धरती की गागर खाली होती जा रही है।
ब्रह्मांड में पृथ्वी एक मात्र ऐसा स्थान है जहां जीवन है और यह मनुष्यों सहित लाखों प्रजातियों का घर है यही नहीं पृथ्वी ही जीवन की उत्पत्ति के अनुकूल है और जन्मलेने, जीवित रहने के लिए सबसे जरूरी अनमोल प्राकृतिक संपदा जीवन की डोर हवा, पानी और मिट्टी जो करोड़ों वर्षों की प्राकृतिक धरोहर के रूप में हमें मिली।विकास नियोजक के गलत तरीके और प्रकृति से छेड़छाड़ कर हमने अपने जीवन की सांसों की डोर ‘हवा, पानी और मिट्टीÓ को ऐसी दशा में पहुंचा चुके हैं जहांप्यास बुझाने वाला पानी, सांस लेने वाली हवा और अन्न उगाने वाली मिट्टी जहरीला बना चुके हैं।
भीषण गर्मीं में देश का 42 फीसदी हिस्सा सूखे की चपेट में आने के कारण 60 करोड़ लोग पीने के पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे हैं। नीति आयोग भीअपनी रिपोर्ट में खुलासा कर चुका है कि देश की 70 फीसदी आबादी दूषित और जहरीला पानी पीने को विवश है जिस कारण दूषित पानी पीकर मरने वालों कीसंया प्रतिवर्ष दो लाख पहुंच चुकी है।
दूसरी तरफ 2017 में नेशनल रजिस्टर ऑफ लार्ज डैस (एनआरएलडी) की रिपोर्ट के मुताबिक सरकार देश में 5254 बड़े बांध बनवा चुकी थी और 447 निर्माणाधीन थे।
वर्ष 1980 में वन अधिनियम के अस्तित्व में आने से पहले नदियों पर बांध बनाकर जलाश्य बनाने के लिए कितने भूभाग पर आबाद प्राकृतिक जंगलों को ध्वस्त कियागया है इसके आंकड़े जुटा पाना तो संभव नहीं हैं लेकिन वन अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद 1980 से लेकर 2000 के बीच बने 1877 बांधों में से जिन 60 बांधोंकी जानकारी उपलब्ध थी।
उनके आधार पर गणना करने पर इस अवधि में 91 लाख 57 हजार 883 हेक्टर जमीन डूबी। यानी प्रत्येक बांध से औसतन 4879 हेक्टर जंगल का विनाश हुआ है।जबकि केन्द्रीय जल आयोग के आंकडों से गणना करने पर जंगल विनाश का आंकडा 45 लाख 4 हजार 800 हेक्टर बैठता है।
प्रकृति से ऐसी छेड़छाड़ का भीषण असर, जलवायु परिवर्तन के रूप में उभर कर आ चुका है। जलवायु परिवर्तन के कारण धरती का तापमान बढऩे से हिमालय केग्लेशियरों का रकबा सिमटता जा रहा है, प्राकृतिक जल स्त्रोत सूखते जा रहे हैं नदियों का जल स्तर गिरता जा है और वर्षा चक्र गड़बड़ाने, भीषण गर्मी और अत्यधिकभूजल के दोहन के कारण धरती की गागर खाली होती जा रही है।
करोड़ों वर्षों से विरासत में मिली जीवन दायनी हवा, पानी और मिट्टी को हमने अंधाधुंध विकास के नाम पर दूषित कर डाला जहां जिंदा रहने के लिए प्यास बुझाने केलिए जो दूषित पानी हम पी रहे हैं वह देश में प्रतिवर्ष दो लाख लोगों की जान लेने लगा है, जिंदा रहने के लिए जिस दूषित हवा में हम सांस ले रहे हैं वह प्रतिवर्ष 12 लाख लोगों की जान ले रही है और भूख मिटाने के लिए थाली में जो भोजन हम ले रहे हैं उसमें फसलों में छिड़का कीटनाशक और रसायन युक्त जहर जाने अनजानेहम खा रहे हैं। खेती में जिन कीटनाशकों और रसायन का उपयोग हम कर रहे हैं वह जहर बनकर हमारी भोजन की थाली में,बरसात के पानी से नदियों में और हवामें शामिल हो जाता है। जो भोजन हम करते हैं, फल खाते हैं, पानी पीते हैं सांस लेते है, इन सभी के जरिए वास्तव में हम अनजाने में जहर का सेवन भी करते हैं।
एक तरफ सरकार ने जीवन जीने के प्राकृतिक अहम स्त्रोत वायु के रूप में आक्सीजन के पोषक पेड़-पौधों और प्राकृतिक जंगलों को बचाने के लिए वर्ष 1980 में जमू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में वन संरक्षण अधिनियम 1980 को लागू किया, और दूसरी तरफ नदियों पर बांध बनाकर एकएक जलाश्य के लिए वनअधिनियम 1980 के अस्तित्व को नकारते हुए हजारों एकड़ भूभाग में आबाद प्राकृतिक जंगलों को ध्वस्त कर रही है।
सरकार दूसरी तरफ जीवन जीने प्राकृतिक अहम स्रोत जल संकट से देश को बचाने के लिए अविरल बहने वाली नदियों समाधान के लिए नदियों पर बांध बनाकरजलाश्यों की गिनती में विस्तार करती जा रही है लेकिन सरकार न तो दूषित पानी पीने को विवश देश की 70 फीसदी आबादी को पीने का साफ पानी उपलब्ध करापा रही है, न प्रतिवर्ष भीषण गर्मियों में सूखे की चपेट में आने वाले करोडों लोगों को प्रर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध करा पा रही है। न भूजल के अत्यधिक दोहन सेखाली हो रही धरती की गागर को खाली होने से बचा पा रही है। न दूषित जल पीने से होने वाली मौतों में हो रही बढोत्तरी रोक पा रही है।
पेयजल स्वच्छता गुणांक की 122 देशों की सूची में भारत का स्थान 120वां है।
देश में एक तो पानी की समस्या है। दूसरे जहां है वहां अधिक जगहों पर दूषित है। कहीं आर्सेनिक मिला हुआ है तो कहीं लोराइड। लेकिन मज़बूरी में लोग इसीपानी को पी रहे हैं।
इंडिया वाटर पोर्टल के अनुसार भारत के 50 फीसद शहरी, 85 प्रतिशत फ ीसद इलाकों में पानी चिंताजनक ढंग से विलुप्त हो रहा है। 3400 विकासखण्डों में सेदेखा गया कि 449 विकासखण्डों में 85 फ ीसद से अधिक पानी खत्म है। ज्य़ादातर राज्यों में भूमिगत जलस्तर 10 से 50 मीटर तक नीचे जा चुका है।
नीति आयोग की वर्ष 2018 में आई रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2020 तक दिल्ली और बंगलुरू जैसे भारत के 21 बड़े शहरों से भूजल गायब हो जाएगा। इससे करीब 10 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। अगर पेयजल की मांग ऐसी ही रही तो वर्ष 2030 तक स्थिति और विकराल हो जाएगी। वर्ष 2050 तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद मेंछह फीसद तक की कमी आएगी।
हम देख रहे हैं कि प्रतिवर्ष देश में भूजल के स्तर में गिरावट और सूखे की चपेट में आने वाले भूभाग का न केवल विस्तार हो रहा है बल्कि गर्मियों में पीने के पानी कीएक-एक बूंद के लिए तरसने वाले और दूषित व जहरीला पानी पीने वालों की संया में भी बढ़ोत्तरी हो रही है। प्रतिवर्ष गंदा पानी पीकर कैंसर जैसे असाध्य रोगों सेभी मरने वालों की संया में भी इजाफा हो रहा है। प्रतिवर्ष पानी के कारोबारियों के कारोबार में वृद्धि हो रही है। प्रतिवर्ष नदियों के जल स्तर में कमी और नदियांअधिक दूषित होती जा रही हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) कह चुका है कि गंगा का पानी भी न तो नहाने के लायक है और न पीने के लायक है।
हैरानी की बात है कि ज़मीन पर पर्याप्त मात्रा में जल होने के बावजूद लोग प्यास से तड़प रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि जल संकट से निपटने के लिए सरकार नदियों के उतने ही हिस्से में बांध बनाकर जलाश्यों में पानी रोकने में सक्षम है
एक अनुमान के मुताबिक पर्वतीय क्षेत्र में नदियां अपने पूरे सफर का सात से 15 फीसदी रास्ता तय करती हैं और बाकी पूरा सफर समतल धरती पर तय होता है।भारत सरकार के पास नदिय़ों के बाकी 85 से 93 फीसदी हिस्से के माध्यम से प्रतिवर्ष बरसात के दिनों में भीषण बाढ़ और तबाही मचाकर सीधे समुद्र में पहुंचने वालेथल को रोकने की न तो विधि है और न जल संकट का ऐसा वैज्ञानिक समाधान करने की कला।
वैज्ञानिक श्याम सुंदर राठी की साफ मान्यता है कि जब तक जल को साधारण वह तुच्छ तरल पदार्थ मान कर अवैज्ञानिक प्रणाली से भण्डारण करने की प्रक्रिया कात्याग कर दुनिया के सारे तरल पदार्थों की भांति एक ऐसे बर्तन में नहीं रखा जाता है जिस बर्तन को टंकी के रूप में पहचान मिली हुई है।
दूसरे बरसात के दिनों में नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुंचने वाले अतिरिक्त जल का भंडारण करने की प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती है तब तक न तो जल संकट कासमाधान हो सकता है और न भूजल के अत्धिक दोहन से खाली हो रही धरती की गागर को बचाया जा सकता है और न देशवासियों को पीने का साफ पानी उपलब्ध कराया जा सकता है।
वैज्ञानिक श्याम सुंदर राठी की साफ राय है। जल भंडारण के लिए जल भीमकाय टंकियों में रखना ज़रूरी है। इसके लिए उन्होंने अपने शोध के तहत एमएसडीटंकियों का विकास व टंकियों में जल भराव की विशेष विधि का विकास किया है। उनका दावा है एमएसडी टंकियों में रखा हुआ जल वर्षो तक साफ बिना नुकसानके रह पाएगा।
भारत सरकार श्यामा सुंदर राठी के महाविज्ञान को अपना कर देश में पीने के पानी की आपूर्ति के साथ-साथ सिंचिंत भूमि के लिए 100 फ ीसद पानी का भंडारणकर सकती हैं।