दुनिया में जब लॉकडाउन की शुरुआत हुई, तो नागरिकों के दमन की खबरें सबसे ज़्यादा केन्या व अन्य अफ्रीकी देशों से आयीं। उस समय ऐसा लगा था कि भारत का हाल बुरा अवश्य है, लेकिन उन गरीब देशों की तुलना में हमारे लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं। हमें उम्मीद थी कि हमारी सिविल सोसायटी, जो कम-से-कम हमारे शहरों में मज़बूत स्थिति में है; उस तरह के दमन की सम्भावना को धूमिल कर देगी। लेकिन यह सब कुछ बालू की भीत (रेत की दीवार) ही था। आधुनिकता और नागरिक अधिकार सम्बन्धी हमारे नारे सिर्फ ऊपरी लबादे थे।
पिछले दिनों विश्व के प्राय: सभी प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों ने रेखांकित किया है कि लॉकडाउन के दौरान भारत, नागरिक अधिकारों के अपमान में दुनिया में अव्वल रहा। दुनिया भौचक होकर भारत की हालत देख रही है। एक परदा था, जो हट गया है। तूफानी हवा के एक झोंके ने हमें नंगा कर दिया है।
न्यूयार्क टाइम्स ने अपनी 15 फरवरी, 2020 की रिपोर्ट में चीन के लॉकडाउन को माओ-स्टाइल का सामाजिक नियंत्रण बताते हुए दुनिया का सबसे कड़ा और व्यापक लॉकडाउन बताया था। लेकिन भारत में लॉकडाउन के बाद समाचार-माध्यमों ने भी महसूस किया कि चीन और इटली का नहीं, भारत का कोरोना वायरस लॉकडाउन दुनिया में सबसे कठोर है। भारत की संघीय सरकार ने पूरे देश के लिए समान नीति बनायी। जबकि चीन में लॉकडाउन के अलग-अलग स्तर थे। भारत के विपरीत बीजिंग में बसें चल रही थीं। वहाँ लॉकडाउन के एक सप्ताह बाद ही यात्री और ड्राइवर के बीच एक प्लास्टिक शीट लगाकर टैक्सी चलाने की इजाज़त दे दी गयी थी। केवल कुछ प्रान्तों से घरेलू उड़ानों और ट्रेनों की आवाजाही को रोक दिया गया था; वह भी सभी जगह पर नहीं। जबकि भारत में हमने देखा कि न सिर्फ पूरे देश का आवागमन रोक दिया गया, बल्कि कई जगह से पुलिस की पिटाई से होने वाली मौतों की खबरें भी आयीं। बिहार में पुलिस ने लॉकडाउन तोडऩे की सज़ा स्वरूप दो युवकों की गोली मारकर हत्या कर दी।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने देश-व्यापी लॉकडाउन शुरू होने से पहले ही अपने राज्यवासियों को चेतावनी दी कि लॉकडाउन तोडऩे वालों को देखते ही गोली मारने का आदेश जारी किया जा सकता है और अगर आवश्यकता पड़ी, तो राज्य में सेना को भी तैनात किया जाएगा। लॉकडाउन की घोषणा होते ही दिल्ली से सटे लोनी से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के विधायक नंदकिशोर गुर्जर ने एक वीडियो जारी करके कहा कि लोनी में बिना पुलिस को बताये और बिना अनुमति लिये अगर कोई बाहर निकले, तो पुलिस ऐसे देशद्रोहियों की टाँगें तोड़ दे। अगर तब भी लोग न मानें, तो उनकी टाँगों में गोली मार दी जाए। क्योंकि ये लोग भी किसी आतंकवादी से कम नहीं हैं; ये लोग देशद्रोही हैं। ये घटनाएँ और बयान सिर्फ बानगी भर हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो अधिकांश प्रशासकों के रवैये में महामारी से लडऩे की संवेदनशीलता की बजाय हिंसक क्रूरता झलक रही थी। उनके इस व्यवहार ने लॉकडाउन को गरीबों के लिए काल-कोठरी में बदल दिया। जैसा कि बाद में वैश्विक अर्थ-शास्त्र और राजनीति पर लिखने वाले भारतीय निवेशक व फंड मैनेजर रुचिर शर्मा ने भी न्यूयॉर्क टाइम्स के अपने लेख में चिह्नित किया कि भारत के अमीरों ने लॉकडाउन को अपनी इच्छाओं के अनुरूप पाया। लेकिन गरीबों के लिए इसकी एक अलग ही दर्दनाक कहानी है। नरेंद्र मोदी को उनकी निरंकुश और हिन्दुत्व केंद्रित कार्यशैली को लगातार कोसते रहने वाला भारत के कथित उदारवादी, अभिजात तबके ने सम्पूर्ण तालाबन्दी के पक्ष में नरेन्द्र मोदी द्वारा घोषित लॉकडाउन के पीछे लामबन्द होने में तनिक भी समय नहीं गँवाया।
दरअसल यह कोई नयी बात नहीं थी। भारत के इस उदारवादी तबके पास सेकुलरिज्म के अतिरिक्तकोई ऐसा मूल्य नहीं रहा है, जिसके बूते वह लम्बे समय तक हिन्दुत्व के बहुआयामी वर्चस्ववाद से लड़ सके। सामाजिक न्याय, सामाजिक बन्धुत्व जैसे मूल्य इस तबके में सिरे से नदारद रहे हैं। यह तबका आधुनिक शिक्षा प्रणाली से अत्यधिक आक्रांत है और औपचारिक शिक्षा के आधार पर विभेदात्मक श्रेणियों को वैधता देने की वकालत करता है। कमोवेश यही हाल राजनीतिक विपक्ष का भी है। कांग्रेस का हिरावल दस्ता तो इसी उदारवादी अभिजात वर्ग का नेतृत्व करता है; जबकि समाजवाद और दलितवाद जैसी विचारधाराओं के पैरोकारों के पास नागरिक अधिकारों को लेकर कोई विश्वदृष्टि नहीं है। यह भी एक कारण रहा कि काम की तलाश में अपने गृह-क्षेत्र से दूर गये मज़दूरों, जिनमें से अधिकांश निरक्षर या बहुत कम पढ़े-लिखे हैं; ने जो अकथनीय पीड़ा झेली है, उसकी नृशंसता से यह उदारवादी वर्ग और मीडिया लगभग असम्पृक्त बना रहा। इतना ही नहीं, उन्होंने इन मज़दूरों को अविवेकी, रोग के वैज्ञानिक आधार को न समझने वाली एक अराजक भीड़ के रूप में देखा; जो सिर्फ उनकी दया की पात्र हो सकती थी। वे इन्हें समान अधिकारों से सम्पन्न नागरिकों के रूप में देखने में अक्षम थे। हमारे पास इससे सम्बन्धित कोई व्यवस्थित आँकड़ा नहीं है कि इस सख्त लॉकडाउन के कारण कितने लोग मारे गये। स्वभाविक तौर पर सरकार कभी नहीं चाहेगी कि इससे सम्बन्धित समेकित आँकड़े सामने आयें, जिससे उसकी मूर्खता और हिंसक क्रूरता सामने आये।
बेंगलूरु के स्वतंत्र शोधकर्ताओं- तेजेश जीएन, कनिका शर्मा और अमन ने अपने स्तर पर इस प्रकार के आँकड़े विभिन्न समाचार पत्रों, वेब पोर्टलों में छपी खबरों के आधार पर जुटाने की कोशिश की है। उनके अनुसार, जून के पहले सप्ताह तक 740 लोग भूख से, महानगरों से अपने गाँवों की ओर पैदल लौटने के दौरान थकान या बीमारी से, दुर्घटनाओं से, अस्पतालों में देखभाल की कमी या अस्पतालों द्वारा इलाज से इन्कार कर देने से, पुलिस की क्रूरता से और शराब की दुकानों के अचानक खुल जाने के कारण मारे जा चुके हैं। इन शोधकर्ताओं द्वारा जुटायी गयी खबरों के अनुसार, 50 लोगों की मौत पैदल चलने के दौरान थकान से हुई, जबकि लगभग 150 लोग इस दौरान सडक़ दुर्घटना और ट्रेन से कटकर मर गये। हालाँकि ये शोधकर्ता अपने संसाधनों की सीमाओं, भाषा सम्बन्धी दिक्कतों और स्थानीय संस्करणों के बहुतायत के कारण सभी प्रकाशित खबरों को नहीं जुटा पाये हैं। लेकिन अगर सभी समाचार-माध्यमों में प्रकाशित खबरों के आधार पर आँकड़े जुटा भी लिये जाएँ, तो क्या वो सच्चाई की सही तस्वीर प्रस्तुत करने में सक्षम होंगे? लगभग दो दशक तक सक्रिय पत्रकारिता के अपने अनुभव के आधार कह सकता हूँ कि कतई नहीं! लॉकडाउन द्वारा मार डाले गये लोगों की संख्या अखबारों में छपी खबरों की तुलना में कई गुना अधिक है। इसे एक उदाहरण से समझें- ‘भारत सरकार ने लॉकडाउन में ढील देकर अपने गाँवों से दूर महानगरों में फँसे कामगारों को घर पहुँचाने के लिए 01 मई से श्रमिक ट्रेनें चलाने की शुरुआत की थी। इन श्रमिक ट्रेनों से महज़ 18 दिन में (9 मई से 27 मई के बीच) 80 लोगों की लाशें बरामद हुईं। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुँचा। कोर्ट में सरकार ने कहा कि इनमें से एक भी श्रमिक भूख, दवा की कमी अथवा बदइंतज़ामी से नहीं मरा है; बल्कि मरने वाले पहले से ही किसी बीमारी से पीडि़त थे।’ सरकार चाहे जो कहे, लेकिन यह बात किसी से छुपी नहीं है कि ये मौतें किन कारणों से हुई हैं? ज़ाहिर है कि परेशानी में ही सही ट्रेन का सफर बच्चों को गोद में लेकर गृहस्थी का सामान उठाये हज़ारों किलोमीटर के पैदल-सफर की तुलना में निश्चित ही कम जानलेवा होता है। इन पैदल चलने वालों में हज़ारों बूढ़े-बुज़ुर्ग, महिलाएँ (जिनमें अनेक गर्भवती भी थीं), बच्चे, दिव्यांग और बीमार लोग भी थे। कई दिनों से कम भोजन पर जी रहे या भूखे रह रहे लोगों के न कहीं खाने का ठिकाना, न पीने के लिए पानी का इंतज़ाम, न आराम और सोने का समय और इंतज़ाम; उस पर लगातार सफर। आसानी से समझा जा सकता है कि ट्रेन में सफर के दौरान महज़ 18 दिनों में जिस जानलेवा थकान और बदहवासी ने 80 लोगों से उनका जीवन छीन लिया, उसने पिछले ढाई महीने में पैदल चल रहे लाखों में से कितने लोगों की जान ली होगी? क्या वे उतने ही होंगे, जितने लोगों की मरने की सूचना मीडिया में आयी है?
जब देश भर की स्वास्थ्य सुविधाएँ कथित महामारी के नाम पर बन्द कर दी गयी थीं, तो कितने लोग तमाम बीमारियों और दुर्घटनाओं के कारण बिना इलाज के मरे होंगे? इनकी भी कोई गिनती नहीं हो रही। इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए हमें यह देखना होगा कि पत्रकारिता कैसे काम करती है? ट्रेन में हुई मौतों के आँकड़े मीडिया संस्थानों को कैसे मिले? क्या ये आँकड़े मीडिया संस्थानों ने खुद जुटाये? क्या उनके संवाददाताओं ने अलग-अलग जगहों से इन लाशों के मिलने की खबरें भेजीं? उत्तर है- नहीं।
मीडिया संस्थानों के पास न तो इतना व्यापक तंत्र है कि वो यह कर सकें और न ही वो इसके लिए इच्छुक रहते हैं। हमारे मीडिया संस्थानों का काम राजनीतिक खबरों, राजनेताओं के वक्तव्यों और वाद-विवाद से सम्बन्धित खबरों को जमा करने और प्रेस कॉन्फ्रेंस आदि में कुछ प्रश्न करने तक सीमित रहता है। इसके अतिरिक्तजो कुछ भी प्रसारित होता है, वह सामान्यत: विभिन्न संगठनों द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्तियों या सरकारी अमले द्वारा उपलब्ध करवायी गयी सूचनाओं की प्रस्तुति भर है। वास्तव में स्वतंत्र पत्रकार बरखा दत्त जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो कोई भी संवाददाता फील्ड में नहीं है। समाचार माध्यम में अपने संवाददाताओं के बीच बीटों (कार्य क्षेत्र) का बँटवारा इस प्रकार करने की परिपाटी है, जिससे कि उनकी मुख्य भूमिका सरकारी विभागों के प्रवक्ता भर की होकर रह जाती है। ज़िला मुख्यालय और कस्बों से होने वाली पत्रकारिता भी ज़िलाधिकारी, पुलिस कप्तान, प्रखण्ड विकास पदाधिकारी या स्थानीय थानों द्वारा उपलब्ध करवायी गयी जूठन से संचालित होती है। बहरहाल ट्रेनों में हुई इन मौतों के आँकड़े रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ) ने जारी किये। आरपीएफ ने मीडिया संस्थानों को बताया कि इन ट्रेनों में 23 मई को 10 मौतें, 24 मई को 9 मौतें, 25 मई को 9 मौतें, 26 मई को 13 मौतें, 27 मई को 8 मौतें हुईं। सभी मीडिया संस्थानों में ट्रेनों में हुई मौतों से सम्बन्धित आप यही खबर पाएँगे। यहाँ तक कि उन सब खबरों के वाक्य विन्यास, प्रस्तुति आदि सब एक तरह की ही होगी। चूँकि सीआरपीएफ ने 9 मई से 27 मई के बीच हुई मौतों के ही आँकड़े दिये, तो सभी मीडिया संस्थानों ने उन्हें ही प्रसारित किया। आरपीएफ ने एक मई से 9 मई के बीच और 27 मई के बाद श्रमिक ट्रेनों में हुई मौतों के आँकड़े नहीं जारी किये हैं। इसलिए मीडिया संस्थानों के पास यह जानने का कोई साधन नहीं है कि इस बीच ट्रेनों में कितने लोगों की मौत हुई। इसी प्रकार अगर किसी पैदल सफर कर रहे व्यक्तिकी मौत होने पर अगर सम्बन्धित थाना पत्रकारों को सूचित करता है, तो उसकी खबर वहाँ के स्थानीय अखबारों में आ जाती है। अगर कोई थाना पत्रकारों को किसी की मौत की सूचना न दे, तो सामान्यत: वह मौत मीडिया में दर्ज नहीं होती है। कभी किसी पत्रकार को अन्य स्रोत से सूचना मिल जाए और वह प्रकाशित हो जाए; यह अपवाद स्वरूप ही होता है। लॉकडाउन के दौरान तो इसकी सम्भावना नगण्य ही थी। क्योंकि पुलिस की पिटाई के भय से छोटे पत्रकार तो सडक़ पर निकलने की हिम्मत तक नहीं सके। इसलिए कफ्र्यू की तरह सख्त लॉकडाउन के कारण हुई मौतों से सम्बन्धित जो खबरें मीडिया में आ सकीं, वे चाहें जितनी भी भयावह लगें, लेकिन वास्तविक हालात जितने भयावह थे, उसका वो एक बहुत छोटा हिस्सा थीं।
कोविड-19 से अभी तक 7,000 लोगों की मौत को सरकारी आँकड़ों में दर्ज किया गया है। हालाँकि कोविड-19 से हुई मौतों के ये आँकड़े भी संदेहास्पद ही हैं; क्योंकि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की नये दिशा-निर्देशों के अनुसार इनमें निमोनिया, हृदयाघात आदि से हुई मौतों के आँकड़े भी जोड़ दिये जा रहे हैं। सिर्फ कोविड-19 से मरने वालों की संख्या इससे बहुत कम है। दूसरी ओर लॉकडाउन से अब तक लाखों लोगों की जान जा चुकी है। भारत में मध्य वर्ग के परिवारों द्वारा बड़ी संख्या में सामूहिक आत्महत्याओं का सिलसिला 8 नवंबर, 2016 को प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित नोटबन्दी के बाद शुरू हुआ था; जिसमें 2019 तक आते-आते कुछ गिरावट आने के संंकेत मिलने लगे थे। भारत में इन चीज़ों को अलग से देखने के लिए बहुत कम अध्ययन होते हैं। लेकिन जाति की राजनीति के लाभ-हानि का अध्ययन करने वालों के लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि नोटबन्दी के बाद सामूहिक आत्महत्या के लिए विवश होने वाले ज़्यादातर परिवार निम्न-वैश्य परिवारों (वैश्य समुदाय की दो श्रेणियाँ हैं- सामान्य वर्ग में आने वाला उच्च वैश्य और अन्य पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत आने वाला निम्न-वैश्य) के थे। स्वयं प्रधानमंत्री मोदी इसी सामाजिक समूह से आते हैं। वर्ग के आधार पर देखें, तो इनमें से ज़्यादातर मध्यम व उच्च-मध्यम वर्ग के थे; जिनके रोज़गार नोटबन्दी में चौपट हो गये और कर्ज़ बढ़ता गया। लॉकडाउन के उपरांत आॢथक तंगी के कारण मध्य वर्ग के बीच आत्महत्याओं का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वह अगले कितने वर्षों तक जारी रहेगा। यह कोई नहीं जानता।
डब्ल्यूएचओ की प्रेस ब्रीङ्क्षफग की चुनिंदा रिपोॄटग
पिछले चार महीने से डब्ल्यूएचओ कोविड-19 के सम्बन्ध में रोज़ाना प्रेस ब्रीङ्क्षफग करता है। इस वर्चुअल प्रेस ब्रीङ्क्षफग का प्रसारण उसके मुख्यालय, जेनेवा (स्विटजरलैंड) से उसके सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर होता है; जिसमें दुनिया भर से पत्रकार भाग लेते हैं। दुनिया भर के अखबारों और समाचार एजेंसियों का इस कथित महामारी से सम्बन्धित खबरों का मुख्य स्रोत यह प्रेस ब्रीङ्क्षफग ही रही है। भारत समेत अनेक विकासशील और गरीब देशों की सरकारों के मुखिया इस ब्रीङ्क्षफग के दौरान अपनी तारीफ सुनना चाहते हैं। इस ब्रीङ्क्षफग के दौरान संगठन के डायरेक्टर जनरल टेड्रोस अदनोम घेब्रेयसस ने जब-जब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ की है, तब-तब भारत के समाचार-माध्यमों में प्रसन्नता से खिली हुई खबरें विस्तार से प्रसारित हुई हैं।
30 मार्च को किसी भारतीय पत्रकार (उनका नाम फोन नेटवर्क की गड़बड़ी के कारण ठीक से सुना नहीं जा सका था) ने इस प्रेस ब्रीङ्क्षफग में डब्ल्यूएचओ के पदाधिकारियों से कहा- ‘आपको ज्ञात होना चाहिए कि लॉकडाउन के दौरान भारत अपने प्रवासी मज़दूरों के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने को लेकर अभूतपूर्व मानवीय संकट देख रहा है। मैं यह जानता हूँ कि आपको किसी देश विशेष पर टिप्पणी करना पसन्द नहीं है; लेकिन यह एक अभूतपूर्व मानवीय संकट है। हमारी सरकार को आपकी क्या सलाह होगी?’
चूँकि इस दौरान भारत में गरीबों-मज़दूरों के ऊपर जिस प्रकार की अमानवीय घटनाएँ घट रही थीं, और उसकी जो छवियाँ सोशल मीडिया के माध्यम से सामने आ रहीं थीं; उन्होंने सबको मर्माहत और चौकन्ना कर दिया था। लाखों की संख्या में मज़दूर (जिनमें महिलाएँ, बच्चे, युवा और बूढ़े सभी शामिल थे) हज़ारों किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर पैदल निकल पड़े थे; जिन्हें रोकने के लिए जगह-जगह सीमाएँ सील की जा रही थीं। हज़ारों लोग अलग-अलग शहरों में से अपने गाँवों के लिए निकलना चाह रहे थे। लेकिन पुलिस उन पर डण्डे बरसा रही थी। ऐसा लग रहा था कि कहीं गृह-युद्ध जैसे हालात न पैदा हो जाएँ। डब्ल्यूएचओ के अधिकारी इससे सम्बन्धित प्रश्न आने पर खुद को रोक नहीं पाये। डब्ल्यूएचओ के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर माइकल जे. रयान ने इस प्रश्न के उत्तर में लॉकडाउन का समर्थन किया; लेकिन यह भी कहा कि देशों को अपने विशिष्ट आवश्यकताओं को देखते हुए सख्त या हल्का लॉकडाउन लगाना चाहिए और हर हाल में प्रभावित लोगों के मानवाधिकार का सम्मान करना चाहिए। माइकल रयान के बाद संगठन के डायरेक्टर जनरल डॉ. टेड्रोस ने भी भावुकता भरे शब्दों में कहा कि मैं अफ्रीका से हूँ, और मुझे पता है कि बहुत से लोगों को वास्तव में अपनी रोज़ की रोटी कमाने के लिए हर रोज़ काम करना पड़ता है। सरकारों को इस आबादी को ध्यान में रखना चाहिए। मैं एक गरीब परिवार से आता हूँ और मुझे पता है कि आपकी रोज़ी-रोटी की चिन्ता करने का क्या मतलब है? सिर्फ जीडीपी के नुकसान या आॢथक नतीजों को ही नहीं देखा जाना चाहिए। हमें यह भी देखना चाहिए कि गली के एक व्यक्तिके लिए इसका (लॉकडाउन का) क्या अर्थ है? मेरी यह बात सिर्फ भारत के बारे में नहीं है; यह दुनिया के सभी देशों पर लागू होती है।
विश्व स्वास्थ संगठन के इस बयान को भारतीय मीडिया में कहीं जगह नहीं मिली। लेकिन इस बयान के बाद भारत सरकार सक्रिय हुई और लॉकडाउन के दौरान उठाये गये कथित कदमों को प्रेस ब्रीङ्क्षफग में रखने के लिए डब्ल्यूएचओ पर दबाव बनाया। परिणामस्वरूप 01 अप्रैल, 2020 की प्रेस ब्रीङ्क्षफग में डब्ल्यूएचओ प्रमुख डॉ. टेड्रोस ने भारत सरकार द्वारा जारी किये गये राहत पैकेज के बारे में जानकारी दी। यह वह पैकेज था, जिसे भारत सरकार पाँच दिन पहले (26 मार्च को ही) घोषित कर चुकी थी। टेड्रोस ने कहा कि भारत में प्रधानमंत्री मोदी ने 24 बिलियन अमेरिकी डॉलर (20 लाख करोड़ रुपये) के पैकेज की घोषणा की है; जिसमें 800 मिलियन (8,000 लाख रुपये) वंचित लोगों के लिए मुफ्त भोजन, राशन, 204 मिलियन (2,040 लाख रुपये) गरीब महिलाओं को नकद राशि हस्तांतरण और 80 मिलियन (800 लाख रुपये) घरों में अगले तीन महीनों के लिए मुफ्त खाना पकाने की गैस शामिल है। इसके अलावा इंडिया टुडे के पत्रकार अंकित कुमार के एक प्रश्न के उत्तर में माइकल रयान ने कहा कि भारत में लॉकडाउन के परिणामों के बारे में कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी; लेकिन जो जोखिम में हैं, उन पर लॉकडाउन के प्रभावों को सीमित करने के लिए भारत ने बड़ा प्रयास किया है। अगले दिन भारत के सभी हिन्दी-अंग्रेजी समाचार माध्यम इस खबर से अटे पड़े थे कि डब्ल्यूएचओ ने प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की है और कहा है कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कोरोना के खिलाफ उठाये गये कदम अच्छे हैं। अनेक न्यूज चैनलों ने डब्ल्यूएचओ के वक्तव्य की रिपोॄटग करते हुए यहाँ तक कहा कि कोरोना वायरस को कैसे रोका जाए इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी और उनके विशेषज्ञों की एक टीम लगातार काम कर रही है। 21 दिन के लॉकडाउन का फैसला भी प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी इसी टीम की सलाह पर लिया है। प्रधानमंत्री हर रोज़ करीब 17-18 घंटे काम कर रहे हैं। कोरोना वायरस के खिलाफ संघर्ष में विश्व स्वास्थ संगठन भी प्रधानमंत्री मोदी और भारत की तारीफ कर चुका है। ये खबरें समाचार माध्यमों के पास कहाँ से आयी होंगी? यह आसानी से समझा जा सकता है। ये वही मीडिया संस्थान थे, जिन्होंने डब्ल्यूएचओ द्वारा दी गयी मानवाधिकारों का खयाल रखने की सलाह को प्रकाशित करने से परहेज़ किया था।
महामारी और वैक्सीन व्यवसाय
मुख्यधारा के मीडिया और उदारवादी-अभिजात तबके की बात छोड़ भी दें, तो भी जन-पक्षधर माने जाने वाले पत्रकारों व अन्य बुद्धिजीवियों में भी लॉकडाउन की इस त्रासदी की जड़ को देखने की उत्सुकता और प्रयास प्राय: नहीं रहा है। इस खेमे का अधिक बल हिन्दुत्व की राजनीति को घेरने पर रहा है; जो उचित है। लेकिन वास्तविक संकट को समझने के लिए उनका यह प्रयास इसलिए अधूरा है। क्योंकि वे इसके वैश्विक संदर्भों को नहीं देख पा रहे हैं। भले ही भारत समेत अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने लॉकडाउन की घोषणा स्वयं की हो, लेकिन वह उनका स्वयं का सुचिन्तित निर्णय नहीं था, बल्कि एक भेड़चाल थी; जिसके आगे-आगे कुछ अदृश्य ज़रिये चल रहे थे। एक धर्म-ग्रन्थ में ईसा नामक एक गड़रिया करुणा और मानवता का पथ-प्रर्दशक है; लेकिन महामारी का भय दिखाने वाले इन गड़रियों की भूमिका हमें एक अन्धे कुएँ की मुँडेर तक पहुँचाने की थी।
गड़रिया कौन था? इस प्रश्न के उत्तर में तथ्यों की लगभग सभी कडिय़ाँ दुनिया के सबसे अमीर आदमियों में शुमार, परोपकारी व्यवसाय के अगुआ बिल गेट्स की ओर इशारा करती हैं। वास्तव में इन कडिय़ों को देखना भौचक और मानसिक तौर पर अस्त-व्यस्त कर देने वाला अनुभव है। इस ओर देखने पर आप पाएँगे कि बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन (बीएमजीएफ) प्राय: हर जगह मौज़ूद है। चाहे वह कथित महामारी की भविष्यवाणी हो, जर्म-वॉर (रोगाणु युद्ध) का ट्रायल हो, लॉकडाउन जैसे कड़े कदमों की वकालत हो, इन कड़े कदमों के लिए आधार उपलब्ध करवाने वाले अध्ययनों (मॉडलों) की प्रत्यक्ष-परोक्ष फंङ्क्षडग (धनराशि प्राप्त) हो, वैक्सीन (टीका) की खोज हो या निर्माण और व्यवसाय हो। इस कथित महामारी ने डिजिटल इकोनॉमी को बढ़ाने तथा मनुष्य की आज़ादी को सीमित करने व डिजिटल सॢवलांस के लिए मौका उपलब्ध करवाया है। गेट्स फाउण्डेशन इन सभी की प्रक्रिया को तेज़ करने के लिए पहले से ही सक्रिय रहा है। इन चीज़ों का विरोध करने वाली आवाज़ों को दबाने और अविश्वनीय बनाने की कोशिश करने वाले अनेकानेक सुचिन्तित प्रोजेक्टों (योजनाओं) को भी यह फाउण्डेशन चला रहा है। इन कडिय़ों को देखने पर स्वभाविक सवाल उठता है कि गरीबों के स्वास्थ को लेकर चिन्तित दिखने वाले, अनेक गरीब देशों को अनुदान देने वाले, बिहार एक छोटे से गाँव में गरीब की झोंपड़ी में बैठकर उनकी व्यथा सुनने वाले बिल गेट्स के इस रूप को हम कैसे देखें? दुनिया भर में करोड़ों लोग बिल गेट्स में चतुर लोमड़ी और नदी किनारे घात लगाकर बैठे बूढ़े भेडिय़े का चेहरा देखते हैं। इनमें किञ्चित अतिवादी विचारधाराओं के संगठित समूह भी शामिल हैं। बिल गेट्स जब भी अपने सोशल मीडिया एकाउंट्स (खातों) और ब्लॉग्स पर कोविड-19 की भयावहता या वैक्सीन की अनिवार्यता के बारे में कुछ लिखते हैं, तो उन्हें एक षड्यंत्रकारी के रूप में चित्रित करने वाली टिप्पणियों की बाढ़ आ जाती है। आम लोगों के अतिरिक्तबिल गेट्स के इस रूप का संकेत स्वास्थ, पर्यावरण, वैश्विक अर्थ-तंत्र आदि के कई विशेषज्ञ भी करते रहे हैं।
डब्ल्यूएचओ के लिए बिल और मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन का स्थान पिछले कई वर्षों से किसी भी देश की चुनी हुई सरकार से अधिक महत्त्वपूर्ण है। डब्ल्यूएचओ को इस साल तक सबसे अधिक पैसा अमेरिका सरकार से प्राप्त होता था। उसके बाद मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन का स्थान था। तीसरा स्थान ब्रिटेन का था। लेकिन इस साल कोविड-19 के मामले में चीन का पक्ष का लेने के आरोप में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उसकी फंङ्क्षडग बन्द कर दी है। अब गेट्स फाउण्डेशन डब्ल्यूएचओ का सबसे बड़ा डोनर (दानदाता) है।
मीडिया संस्थानों की कमज़ोरी से अच्छी तरह वािकफ गेट्स फाउण्डेशन का मीडिया मैनेजमेंट पर बहुत बल रहता है। वह मीडिया संस्थानों को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित करने के लिए निरंतर नये-नये तरीके ईज़ाद करता रहा है। अमेरिका के वॉक्स डॉट काम (1श3.ष्शद्व) की स्वास्थ्य संवाददाता जूलिया बेलुज़ ने कुछ वर्ष पहले इस सम्बन्ध में- ‘मीडिया गेट्स फाउण्डेशन से प्यार करता है, लेकिन विशेषज्ञों को इस पर संदेह है’ शीर्षक से एक रिपोर्ट लिखी थी। उन्होंने अपनी पड़ताल में पाया कि शोध-पत्रिकाओं में विशेषज्ञों द्वारा गेट्स फाउण्डेशन की गतिविधियों पर कुछ गम्भीर सवाल उठाये जाते रहे हैं; लेकिन मुख्यधारा की मीडिया में उनकी कोई चर्चा प्राय: नहीं होती। सिर्फ मीडिया ही नहीं, बहुत कम ही विषय-विशेषज्ञ भी इस फाउण्डेशन के खिलाफ बोलने की हिम्मत जुटा पाते हैं। जूलिया बेलुज़ जेनेवा में 19-24 मई, 2014 के दौरान आयोजित वल्र्ड हेल्थ असेंबली (विश्व स्वास्थ सभा) में बतौर पत्रकार शामिल हुई थीं। जब उन्होंने वहाँ आमंत्रित विश्व प्रसिद्ध स्वास्थ विशेषज्ञों तथा अन्य लोगों से फाउण्डेशन के बारे में पूछना चाहा, तो उनमें अधिकांश कन्नी काटने लगे। उन्होंने देखा कि अक्सर लोग इस सम्बन्ध में कोई भी बात ऑन रिकॉर्ड नहीं करना चाह रहे थे। क्योंकि या तो उन्हें मौज़ूदा समय में फाउण्डेशन से फंङ्क्षडग हो रही थी, या फिर वे अतीत में गेट्स के लिए काम कर चुके थे।
फाउण्डेशन पर अपने एक शोध में क्वीन मैरी कॉलेज, लंदन में ग्लोबल हेल्थ की प्रोफेसर सोफी हरमन ने भी पाया था कि इस विषय को नज़दीक से जानने वाला हर आदमी गेट्स फाउण्डेशन को चुनौती देने से डरता है। क्योंकि कोई भी नहीं चाहता कि फाउण्डेशन से मिलने वाली उनकी फंङ्क्षडग बन्द हो। भारत में भी यही हालत है। भारत में सैकड़ों स्वास्थ सम्बन्धी संस्थाएँ गेट्स फाउण्डेशन के अनुदान से चल रही हैं। आई टीवी नेटवर्क और संडे गाॢजयन के एडिटोरिल डायरेक्टर (सम्पादकीय निदेशक) माधव दास नलपत अपने एक लेख में बताते हैं कि भारत में स्वास्थ संवाददाताओं पर फाउण्डेशन की ओर से अपने पक्ष में की जाने वाली खबरों की लगातार बमबारी की जाती है।
आंध्र प्रदेश की मासूम गिनी पिग
बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन द्वारा प्रायोजित संस्था ‘प्रोग्राम फॉर एपरोप्रिएट टेक्नोलॉजी इन हेल्थ’ (पाथ) ने वर्ष 2009 में भारत में आदिवासी और दलित बच्चियों पर सर्वाइकल कैंसर (ग्रीवा कैंसर) के वैक्सीन का कथित तौर पर डेमोनस्ट्रेशन (प्रमाणीकरण/परीक्षण) किया था; जो अमूमन गिनी पिग (चूहों) पर किया जाता है। इस परीक्षण में कई बच्चियों की मौत हो गयी थी। बाद में जाँच में पाया गया था कि प्रमाणीकरण नाम पर दरअसल नियमों को धता बताकर वैक्सीन का क्लीनिकल ट्रायल (रोग-विषयक परीक्षण) किया जा रहा था। इस मामले में राज्य सरकारों के स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी और भारत की स्वास्थ सम्बन्धी शीर्ष संस्था इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की जो भूमिका सामने आयी थी, वह अन्दर तक हिला देने वाली है। सर्वाइकल कैंसर सॢवक्स की लाइनिंग यानी गर्भाशय के निचले हिस्से को प्रभावित करता है। ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) नामक वायरस से होने वाली यह बीमारी यौन-सम्बन्ध तथा त्वचा के सम्पर्क से फैलती है। ‘पाथ’ को इस वैक्सीन के ट्रायल के लिए ऐसी बच्चियों की आवश्यकता थी, जिन्हें मासिक-धर्म आरम्भ नहीं हुआ हो। उसने इसके लिए सरकारी स्कूलों की छात्राओं व अनुदान प्राप्त सरकारी हॉस्टलों में रह रही 9 से 13 वर्ष की उम्र की बच्चियों को चुना। वैक्सीन के दुष्प्रभावों के बारे में न बच्चियों को बताया गया, न ही उनमें से कई के माता-पिता से सहमति ली गयी। बल्कि इससे सम्बन्धित नियमों का उल्लंघन करते हुए हॉस्टल के वार्डन (छात्रावास के प्रबन्धक) से परीक्षण के लिए निर्धारित फॉर्म पर सहमति ले ली गयी। इनमें कुछ बच्चियों के निरक्षर माता-पिता से कथित तौर पर सहमति ली गयी; उनसे अंग्रेजी में लिखे हुए कागज़ात पर फर्मों द्वारा अँगूठे का निशान ले लिये गये। ये लोग इन कागज़ात को न पढ़ सकते थे और न ही उन्हें बताया गया था कि इनमें क्या लिखा है? इनमें से अधिकांश बच्चियाँ आदिवासी परिवारों की थीं; जबकि कुछ दलित और पिछड़ा वर्ग की थीं। इनमें अधिकांश के परिजन मज़दूरी करके गुज़र-बसर करते थे।
यह परीक्षण तेलंगाना (तत्कालीन आंध्र प्रदेश) के खम्मम ज़िले और गुजरात के वडोदरा ज़िले में किया गया था। खम्मम में सात बच्चियों की परीक्षण के दौरान ही मौत हो गयी थी। इसके अलावा करीब 1200 बच्चियाँ मिर्गी का दौरा, पेट में विकट मर्मांतक पीड़ा, सिर दर्द और मूड ङ्क्षस्वग (बाइपोलर डिसऑर्डर) जैसे साइड इफेक्ट (खराब प्रभाव) का शिकार हुईं। महिला सशक्तिकरण के लिए काम कर रहे ‘सामा’ नामक एक स्वयंसेवी संगठन द्वारा इस मामले में संज्ञान लेने, निरंतर सरकार को पत्र लिखने और जगह-जगह जनसभाएँ करने के बाद इसकी जाँच शुरू हुई। आरम्भ में इसकी जाँच आंध्र प्रदेश के स्वास्थ विभाग ने की; जिसमें बच्चियों की मौत की ज़िम्मेदारी से पाथ को यह कहते हुए बरी कर दिया था कि इन बच्चियों की मौतें अलग-अलग ऐसे कारणों से हुई, जिसे वैक्सीन ट्रायल (टीका परीक्षण) से सीधे तौर पर नहीं जोड़ा जा सकता। जबकि सच्चाई यह थी कि वैक्सीन ट्रायल के दौरान मारी गयी बच्चियों का पोस्ट मार्टम तक नहीं करवाया गया था। बिना पोस्ट मार्टम के यह पता लगाना असम्भव था कि उनकी मौत वैक्सीन से हुई, अथवा नहीं? स्वयंसेवी संगठनों द्वारा निरंतर आवाज़ उठाने पर भारत के स्वास्थ मंत्रालय ने इसकी जाँच के लिए समिति का गठन किया, जिसने पाथ की लापरवाही तथा भारत के संरक्षित जनजातीय समुदायों की लड़कियों को इस परीक्षण में शामिल करने पर सवाल उठाये थे। इस समिति ने 2011 में जारी अपनी रिपोर्ट में पाया कि वैक्सीन ट्रायल के लिए प्रतिभागियों की सहमति लेने के दौरान उन्हें इसके बारे में अच्छी तरह जानकारी नहीं दी गयी थी। न ही ट्रायल करने वाली संस्था ने ऐसे ट्रायलों के लिए बने उचित मानकों का प्रयोग किया था। लेकिन इस समिति ने भी पाथ को मौतों की ज़िम्मेदारी से अलग रखने की हर सम्भव कोशिश की। वर्ष 2011 में इस मामले की जाँच के लिए भारत सरकार ने स्थायी संसदीय समिति (पीएससी) के माध्यम से करने का फैसला किया। 30 अगस्त, 2013 को भारतीय संसद में पेश की गयी समिति की रिपोर्ट में जो तथ्य सामने आये, उससे पाथ की आपराधिक संलिप्तता तो समाने आयी ही, साथ ही भारत की स्वास्थ सम्बन्धी सर्वोच्च शोध तथा कार्यान्वयन संस्था इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर), ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) और एथिक्स कमेटी (ईसी) की कार्य प्रणाली भी संदेह के घेरे में आ गयी।
संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में परीक्षण के दौरान मरने वाली लड़कियों का पोस्ट मार्टम करने में विफल रहने के लिए पाथ और आईसीएमआर को दोषी ठहराया। साथ ही समिति ने पाया कि महिलाओं के स्वास्थ्य की रक्षा करने के प्रयास के बजाय पाथ विदेशी दवा कम्पनियों का एक सचेत उपकरण था; जो भारत सरकार को अपने सार्वभौमिक वैक्सीन कार्यक्रम (यूनिवर्सल इम्युनाइज़ेशन प्रोग्राम) में एचपीवी वैक्सीन को शामिल करने के लिए राज़ी करने के लिए लॉबिंग कर रहा था। इसके तहत इस वैक्सीन को निर्धारित अंतराल पर लोगों को दिया जाता; जिसका भुगतान भारत सरकार करती। समिति ने कहा कि इस सम्बन्ध में देश में चिकित्सा अनुसंधान के लिए सर्वोच्च निकाय के रूप में कार्यरत इंडियन कॉउन्सिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) न केवल अपनी अनिवार्य भूमिका और ज़िम्मेदारी निभाने में पूरी तरह से विफल रही है, बल्कि इसने अति उत्साहित होकर पाथ की साज़िशों के मामले में सुचिन्तित फैसिलेटर (सुविधादाता) की भूमिका निभायी। यही नहीं, इसके लिए उसने अन्य सरकारी एजेंसियों के अधिकार क्षेत्रों का उल्लंघन तक किया; जिसके लिए यह कड़ी ङ्क्षनदा और कड़ी कार्रवाई की पात्र है। समिति ने पाया कि आईसीएमआर पाथ को लाभ पहुँचाने के लिए उत्सुक था कि उसने सरकार का अनुमोदन मिलने से पूर्व ही इस वैक्सीन को देश में प्रयोग करने के बारे में करार (एमओयू) पर हस्ताक्षर कर दिये थे। गौरतलब है कि पाथ को धन उपलब्ध करवाने वाले बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन से आईसीएमआर को भी अकूत धन अनुदान के रूप में प्राप्त होता है; जिसमें वैज्ञानिकों के सभा-सेमिनार और ग्लोबल यात्रा-आवास आदि का व्यय भी शामिल रहता है। गेट्स फाउण्डेशन की वेबसाइट्स पर इस आईसीएमआर को मिलने वाले इस दान का ब्यौरा देखा जा सकता है। इसी आईसीएमआर के पास कथित तौर पर कोविड-19 सम्बन्धी नीतियों की कमान है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वैश्विक स्वास्थ से सम्बन्धित नीतियों पर फाउण्डेशन का गहरा प्रभाव रहा है और उसने इस क्षेत्र में अनेक सकारात्मक भूमिकाएँ निभायी हैं। लेकिन समस्या तब पैदा होती है, जब इसके परोपकारी कार्य और व्यापार एक-दूसरे में घुलने-मिलने लगते हैं।
एक निजी संगठन के रूप में गेट्स फाउण्डेशन केवल अपने तीन मुख्य ट्रस्टियों- बिल, मेलिंडा और वॉरेन बफेट के प्रति जवाबदेह है। जनता या विभिन्न देशों के चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रति इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। फाउण्डेशन वैक्सीन और दवा निर्माता कम्पनियों (बिग फार्मा) में बड़े पैमाने पर निवेश करता है तथा अनेक पड़तालों में पाया गया है कि इसने सम्बन्धित कम्पनियों को लाभ पहुँचाने वाली नीतियाँ बनायीं और उन्हें आक्रामक ढंग से गरीब और विकासशील देशों पर थोपा। अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि अनेकानेक शाखाओं वाला यह फाउण्डेशन आज इतना विशालकाय हो चुका है कि इसकी गतिविधियों को पड़ताल और निगरानी के दायरे में लाना असम्भव-सा हो गया है। कोविड-19 से सम्बन्धित डब्ल्यूएचओ की उपरोक्तप्रेस ब्रीङ्क्षफ्रग में 10 अप्रैल, 2020 को स्विटज़रलैंड की एक न्यूज वेबसाइट ‘द न्यू ह्यूमनटेरियन’ के वरिष्ठ सम्पादक और सह-संस्थापक बेन पार्कर ने बिल गेट्स के बारे में एक सवाल पूछा था। डब्ल्यूएचओ के पदाधिकारियों ने उनके प्रश्न का उत्तर जिस तत्परता से दिया, वह तो देखने लायक था ही, साथ ही प्रश्नकर्ता के बारे में पड़ताल से यह भी संकेत मिलता है कि कितने-कितने छद्म रूपों से बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन के पक्ष में खबरों के प्रसारण को सुनिश्चित किया जा रहा है। बेन पार्कर ने पूछा था कि हम बिल और मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन, वैक्सीन और आईडी 2020 नामक एक डिजिटल पहचान परियोजना के आसपास बहुत-सी अफवाहों और कांस्पीरेसी थ्योरी (सम्मेलन सिद्धांत) देख रहे हैं। क्या आप इन नयी भ्रामक सूचनाओं पर नज़र रख रहे हैं तथा इन्हें हटाने के लिए कुछ कर रहे हैं?
इस प्रश्न के उत्तर में माइकल रयान ने कहा कि हम बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन के कृपापूर्वक समर्थन के लिए आभारी हैं। हम निश्चित रूप से उस प्लेटफार्म को देखेंगे, जिसका आपने उल्लेख किया है। हम लगातार भ्रामक सूचनाओं से निपटने के लिए कदम उठा रहे हैं तथा उन्हें हटाने के लिए डिजिटल क्षेत्र की कई कम्पनियों के साथ काम कर रहे हैं।
बेन पार्कर के सवाल पर डॉ. टेड्रोस ने भी अपनी बात विस्तार से रखी और गेट्स की प्रशंसा के पुल बाँध दिये। उन्होंने कहा कि मैं अनेक वर्षों से बिल और मिलिंडा को जानता हूँ। ये दोनों मनुष्य अद्भुत हैं। मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूँ कि इस कोविड-19 महामारी के दौरान उनका समर्थन वास्तव में बड़ा है। हमें उनसे वह सभी सहायता मिल रही है, जिनकी हमें आवश्यकता है। हमारा साझा विश्वास है कि हम इस तूफान को मोड़ सकते हैं। गेट्स परिवार के योगदान से दुनिया परिचित है। उन्हें प्रशंसा और सम्मान मिलना ही चाहिए। प्रश्नकर्ता बेन पार्कर के बारे में गूगल पर सर्च करने पर पता चलता है कि उनका दुनिया भर में मानवीय संकटों से प्रभावित लाखों लोगों की सेवा में स्वतंत्र पत्रकारिता का संस्थान ‘द न्यू ह्यूमनटेरियन’ मुख्य रूप से बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन के पैसे से चलता है। वह उनका सबसे बड़ा दानदाता है। इसके एवज़ में प्रश्नकर्ता बेन पार्कर ट्वीटर से लेकर अपनी वेबसाइट तक पर बिल गेट्स के पक्ष में कथित फैक्ट चेङ्क्षकग (वास्तविक जाँच) में सक्रिय रहते हैं; ताकि गेट्स परिवार को बदनामी के गर्त से बाहर निकाला जा सके।
गेट्स के खिलाफ जाने वाले तथ्य और संकेत इतने ज़्यादा हैं कि इन्हें देखने वाले लोग स्वाभाविक रूप से किसी डीप स्टेट (राज-व्यवस्था को पर्दे के पीछे से संचालित करने वाली गुुप्त शक्तियाँ) की मौज़ूदगी की कल्पना करने लगते हैं। यही कारण है कि गेट्स पर लगने वाले आरोप न सत्ता की कार्यप्रणाली को नज़दीक से जानने वाले नीति-निर्माताओं को प्रभावित कर पाते हैं, न ही इस प्रणाली में विश्वास करने वाली प्रभावशाली बौद्धिक जमात का विश्वास हिला पाते हैं। बात सिर्फ बिल गेट्स की नहीं है। कथित ‘डीप स्टेट’ सम्बन्धी आरोप एकांगी इसलिए बने रहते हैं, क्योंकि इनमें इसके कर्ताधर्ताओं की विश्व दृष्टि और मनोविज्ञान का अध्ययन शामिल नहीं रहता है। इस डीप स्टेट की मौज़ूदगी अगर है, तो केवल तथ्यों के गणितीय अध्ययन से इसका धुँधला रूप ही सामने आयेगा। अपेक्षाकृत साफ छवियों को देखने के लिए समाज शास्त्र और मनोविज्ञान के उपकरणों और साहित्य की सहज-बोधगम्यता (सामान्य समझ) की आवश्यकता होगी।
सम्भवत: इन उपकरणों से गेट्स जैसे लोगों की छवि मानव जाति की बदहाली से दु:खी एक ऐसे सनकी मसीहा के रूप में दिखेगी, जो मनुष्यों की सबसे बड़ी समस्या उनकी विकराल संख्या को मानता है और सभी दु:खों का समाधान तकनीक के विकास में देखता है। बहरहाल इस लेख में हम यह देखने की कोशिश करें कि किस प्रकार भारत का लॉकडाउन सिर्फ दुनिया का सबसे सख्त लॉकडाउन ही नहीं था, बल्कि कुछ संस्थाओं को सुझाये गये निदान का अंधानुकरण मात्र था। अगर कोई महामारी थी, तब भी भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले गरीब देश के लिए लॉकडाउन जैसा कदम, महामारी की तुलना में बहुत अधिक घातक साबित होने वाला था; जो हुआ भी।
आवश्यकता से अधिक नकल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत 22 मार्च, 2020 को जनता-कफ्र्यू का आह्वान कर अपने इकबाल, विपक्ष की दिशाहीनता और जनता की मासूमियत का लिटमस टेस्ट (रासायनिक प्रयोग) किया था। जिसके शत-प्रतिशत सफल होने के बाद 25 मार्च से भारत में दुनिया का सबसे सख्त और लम्बा लॉकडाउन रहा। दरअसल यहाँ लॉकडाउन नहीं, बल्कि वास्तविक कफ्र्यू था; जिसका संकेत प्रधानमंत्री ने स्वयं अपनी 24 मार्च की उद्घोषणा में ‘कफ्र्यू जैसा’ कहकर दे दिया था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर अपनी जनता के सामने स्वयं को एक विजनरी विश्व नेता के रूप प्रस्तुत करने की कोशिश करते दिखते हैं। लेकिन सच्चाई यह थी कि थाली-ताली बजाने से लेकर मोमबत्ती जलवाने तक का उनका हर कदम सिर्फ यूरोपीय देशों की नकल था। सिर्फ इन भावनात्मक मामलों में ही नहीं, बल्कि अन्य तकनीकी, वैज्ञानिक और रणनीतिक मामलों में भी भारत सरकार के पास कुछ भी मौलिक नहीं था। सरकार डब्ल्यूएचओ और बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन जैसे संगठनों द्वारा दिये जा रहे निर्देशों का कठपुतली की भाँति पालन कर रही थी। प्रधानमंत्री की कार्रवाइयों में जनता के प्रति जवाबदेही का कोई पुट नहीं था; बल्कि वह सिर्फ विश्व समुदाय द्वारा पीठ थपथापाये जाने के लिए आतुर थे। डब्ल्यूएचओ की मातृसंस्था यूनाइटेड नेसंस की बेबसाइट पर 24 मार्च को प्रकाशित डब्ल्यूएचओ के मार्गदर्शन के अनुसार, ‘पूरे भारत में लॉकडाउन’ शीर्षक से प्रकाशित खबर बताती है कि किस प्रकार भारत ने इस अतिवादी कदम की घोषणा करते हुए अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं को भूलकर सिर्फ डब्ल्यूएचओ के निर्देर्शों का पालन किया। इसी प्रकार 01 मई से देश को ग्रीन और रेड जोन में बाँटने की कवायद भी भारत के नौकरशाहों ने नहीं खोजी थी, बल्कि यह फ्रांस के तीन प्राध्यापकों द्वारा 6 अप्रैल को प्रकाशित गणितीय मॉडल पर आधारित थी; जिसका पालन करने की सलाह वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम की वेबसाइट पर दी गयी थी। इन प्राध्यापकों ने यह मॉडल वुहान के अनुभव को ध्यान में रखते हुए बनाया था। दरअसल इस मॉडल में ग्रीन जोन के बहाने गैर-संक्रमण वाले उन इलाकों को सबसे पहले खोलने की ज़रूरत बतायी गयी थी, जहाँ से लेबर-मार्केट (श्रमिक बाज़ार) को मज़दूर मुहैया हो सकें। प्रवासी मज़दूरों को औद्योगिक महानगरों से वापस अपने घर न लौटने देने की कोशिश भी इसी रणनीति का हिस्सा थी। भारत में इसी मॉडल के अंधानुकरण के आधार पर देश को विभिन्न रंगों के जोन में बाँटने की कोशिश की गयी, जो पूरी तरह असफल रही। लेकिन मोदी के इन कदमों को भारतीय मीडिया और कुछ विदेशी संस्थाओं से खूब प्रशंसा मिली। प्रशंसा करने वालों में डब्ल्यूएचओ के अतिरिक्त सिर्फ बिल गेट्स भी थे; जिन्होंने अप्रैल के दूसरे सप्ताह में पत्र लिखकर मोदी की तारीफ की। गेट्स ने न सिर्फ लॉकडाउन की तारीफ की, बल्कि कहा कि उन्हें खुशी हुई कि भारत सरकार कोविड-19 की प्रतिक्रिया में अपनी असाधारण डिजिटल क्षमताओं का पूरी तरह से उपयोग कर रही है और कोरोना वायरस ट्रैङ्क्षकग, सम्पर्क ट्रेङ्क्षसग और लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं से जोडऩे के लिए सरकार ने ‘आरोग्य सेतु’ डिजिटल एप लॉन्च किया है। हम आपके नेतृत्व और आपकी सरकार के सक्रिय कदमों की सराहना करते हैं।
अनेक रिपोट्र्स बताती हैं कि डब्ल्यूएचओ बिल गेट्स की ऐसी जेबी संस्था बन चुका है तथा गेट्स की दिलचस्पी स्वास्थ्य और वैक्सीन बाज़ार के अतिरिक्त लोगों की डिजिटल ट्रेङ्क्षसग में भी है। अपने पत्र में बिल गेट्स ने जिस कॉन्टैक्ट ट्रेङ्क्षसग एप को लागू करने के लिए मोदी की तारीफ की, उसकी अविश्वसनीयता और इसके माध्यम से लोगों की आज़ादी पर पहरे का संदेह अनेक देशों में व्यक्त किया जा रहा है। कई देशों ने नागरिकों के विरोध के कारण इसे लागू नहीं किया है। जबकि कई देशों ने इस एप को इस प्रकार बनाया है, ताकि आँकड़े केंद्रीकृत रूप से जमा न हों; बल्कि उन्हें इस प्रकार विकेंद्रित रूप से जमा किया जाए; ताकि उन पर सम्बन्धित व्यक्ति का अधिक-से-अधिक नियंत्रण रहे। भारत में इन आँकड़ों पर पूरी तरह केंद्रीय नियंत्रण रखा गया है। इसके बाद 14 मई को मोदी और बिल गेट्स ने वीडियो कॉन्फ्रेंङ्क्षसग के ज़रिये बातचीत की, जिसके बिना आवाज़ के फुटेज भारतीय टी.वी. चैनलों को उपलब्ध करवाये गये। इसलिए हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है कि उन दोनों के बीच वास्तव में क्या-क्या बातचीत हुई? राज्य सभा टी.वी. की वेबसाइट पर इस बातचीत का जो ब्यौरा प्रसारित हुआ है, उसमें बताया गया कि उन्होंने कोविड-19 पर वैश्विक प्रतिक्रिया, वैज्ञानिक नवाचार और वैश्विक समन्वय के महत्त्व पर चर्चा की; ताकि वे (भारत और गेट्स फाउण्डेशन) मिलकर इस महामारी का मुकाबला कर सकें। मोदी ने बिल गेट्स को कहा कि गेट्स फाउण्डेशन कोविड-19 के बाद दुनिया की जीवन शैली, आॢथक संगठन, सामाजिक व्यवहार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के प्रसार के तरीकों में परिवर्तन के विश्लेषण का नेतृत्व करे। भारत अपने स्वयं के अनुभवों के आधार पर इस तरह के विश्लेषणात्मक अभ्यास में योगदान देकर खुश होगा। यह बातचीत दो देशों के बीच की नहीं, बल्कि 140 करोड़ जनसंख्या वाले प्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्र भारत और एक ऐसी संस्था के प्रमुख के बीच की थी, जिसकी गैर-ज़िम्मेदारी और सनक के खिलाफ पिछले एक दशक से अधिक समय से दुनिया भर में आवाज़ें उठ रही हैं। भारत के प्रधानमंत्री द्वारा उपरोक्त बातचीत में बिल गेट्स को कोविड-19 के बाद दुनिया की जीवनशैली, आॢथक संगठन, सामाजिक व्यवहार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के प्रसार के तरीकों में परिवर्तन के विश्लेषण का नेतृत्व का प्रस्ताव देने के गम्भीर निहितार्थ हैं।
पिछले ही महीने इटली की संसद में सांसद सारा कुनियल ने बिल गेट्स को मानवता का अपराधी बताया है। सारा कुनियल ने आधुनिक राजनीतिक दर्शन के जनक माने जाने वाले ब्रिटिश दार्शनिक थॉमस हॉब्स (5 अप्रैल, 1588 ई. – 4 दिसंबर, 1679 ई.) को उद्धृत करते हुए कहा कि हम लोगों को निश्चित रूप से समझ में आ गया है कि हमें अकेले वायरस से नहीं मरना है। हमें आपके कानूनों की बदौलत गरीबी से पीडि़त, दुर्गति को प्राप्त होने और मरने दिया जाएगा, और (हॉब्स के सर्वश्रेष्ठ शासन के सिद्धांत की तरह) सारा दोष नागरिकों पर मढ़ दिया जाएगा कि उन्होंने स्वयं ही अपनी रक्षा के लिए स्वतंत्रता का हरण करवा लेना पसन्द किया था। कुनियल इटली की राजधानी रोम से सांसद हैं। उन्होंने अपने भाषण के अन्त में अध्यक्ष को सम्बोधित करते हुए कहा कि आप मेरी ओर से प्रधानमंत्री ग्यूसेप कोंट को सलाह दें कि अगली बार जब भी उन्हें परोपकारी बिल गेट्स का फोन आये, तो वह उस कॉल को मानवता के खिलाफ अपराध के लिए सीधे इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट में फॉरवर्ड करें (भेजें)। अगर वह ऐसा नहीं करते हैं, तो हमें बताएँ कि हमें उन्हें किस रूप में परिभाषित करना चाहिए? क्या हम उन्हें एक ऐसे दोस्त वकील के रूप में परिभाषित करें, जो अपराधी से सलाह लेता है? कुनियल ने अपने भाषण में गेट्स फाउण्डेशन द्वारा भारत में गेट्स द्वारा किये गये वैक्सीन परीक्षण का भी ज़िक्र किया। कुनियल के इस भाषण की सोशल मीडिया पर खूब चर्चा हुई है; जिसे दबाने के लिए गेट्स फाउण्डेशन और टेक-जायंट्स (गूगल, फेसबुक, ट्वीटर आदि) के पैसे से संचालित फैक्ट चेङ्क्षकग (तथ्य जाँच करने वाली) संस्थाएँ ज़ोर-शोर से सक्रिय हैं। मैंने एक अन्य लेख में इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली के बारे में बताया है। गेट्स के बारे में अगर आप इंटरनेट पर कुछ सर्च करेंगे, तो इन सबके ऊपर दर्ज़नों फैक्ट चेङ्क्षकग संस्थाओं के लिंक आएँगे, जिनमें तथ्यों को चयनित रूप से प्रस्तुत करके गेट्स से सम्बन्धित हर नकारात्मक खबर का खण्डन प्रस्तुत किया गया होगा।
सूचना-तंत्र के डिजिटल होने का यह एक बड़ा खतरा है कि उसे केंद्रीकृत रूप से संचालित किया जा सकता है। यह सरकारी सेंसरशिप और परम्परागत मीडिया-मोनोपॉली की तुलना में कई गुना घातक है। ऐसी फैक्ट चेङ्क्षकग संस्थाएँ अनेक राजनीतिक संगठनों-व्यक्तियों व अन्य निहित स्वार्थों से प्रेरित संस्थाओं के पैसों से चलायी जा रही हैं। हालाँकि ऐसी भी संस्थाएँ हैं, जिनके उद्देश्य किञ्चित जन-पक्षधर हैं। लेकिन प्राय: तकनीकी और आॢथक रूप से उतने सम्पन्न नहीं है कि सर्च इंजनों की फीड में उनके रिजल्ट ऊपर आ सकें। उद्देश्य चाहे जो हो; लेकिन ये संस्थाएँ विचारों, तर्क-प्रणालियों, तथ्यों और भावनाओं के सहज संचरण में बाधक हैं और जानने तथा बोलने जैसे मूलभूत नागरिक अधिकारों के दमन में किसी राज-व्यवस्था द्वारा प्रायोजित सेंसरशिप की तरह ही; बल्कि उससे अधिक ही नुकसानदेह साबित हो रही हैं। कोरोना-काल के बाद की दुनिया में इनका प्रभाव और बढ़ेगा। लेकिन भारतीय मीडिया में इन चीज़ों की कोई चर्चा नहीं है; जबकि पिछले कुछ वर्षों से विभिन्न अफ्रीकी सरकारों के प्रतिरोध के कारण भारत का स्थान बिल मिलिंडा गेट्स फाउण्डेशन, अमेरिकी सरकार की संस्था ‘सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन’ (सीडीसी) आदि की पसन्दीदा प्रयोग स्थली के रूप में ऊपर चढ़ता गया है।
(लेखक असम विश्वविद्यालय के रवींद्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज में प्राध्यापक हैं और सबाल्टर्न अध्ययन तथा आधुनिकता के विकास में दिलचस्पी रखते हैं। डॉ. रंजन अनेक चर्चित पुस्तकें लिख चुके हैं और करीब दो दशक तक मीडिया संस्थानों में सेवाएँ दे चुके हैं।)