विश्व में आज किशोरों व युवाओं की कुल आबादी क़रीब 1.8 अरब है। यह संख्या विश्व की कुल आबादी का एक-चौथाई हिस्सा है। भारत की ओर रुख़ किया जाए, तो राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अनुसार देश में 25.3 करोड़ किशोर (10-19 आयुवर्ग के) हैं और देश की तक़रीबन 65 फ़ीसदी आबादी 35 साल से कम की है। दुनिया के सबसे अधिक युवा व किशोर भारत में हैं और ये देश की एक प्रमुख ताक़त भी हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने भी कई मर्तबा अपने भाषणों में भारत को युवा देश कहा है और इस युवा शक्ति को विशेष मानव पूँजी मानते हुए देश को विश्व में अपना विशेष स्थान बनाने वाला संदेश भी दिया है। आँकड़े इसकी तस्दीक़ करते हैं कि आज ही नहीं, बल्कि आने वाले कई दशकों में भारत की युवा शक्ति का एक प्रबल शक्ति के तौर पर असर रहेगा। ये युवा न केवल कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं, बल्कि आने वाले वक़्त में सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक विकास की ओर भी इशारा करते हैं। लेकिन इसके साथ-साथ इतनी बड़ी व महत्त्वपूर्ण आबादी को स्वस्थ रखना, ख़ासकर मानसिक तौर पर स्वस्थ रखना देश के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती भी है।
इस चुनौती के मद्देनज़र हाल ही में दिल्ली में यूनिसेफ और स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय ने ‘हेल्थ ऑफ यूथ : वेल्थ ऑफ नेशन’ समिट का आयोजन किया। इसमें किशोर स्वास्थ्य के कई पहलुओं पर बात की गयी, जिसमें मानसिक स्वास्थ्य, पोषण, यातायात सुरक्षा आदि शामिल थे। भारत सरकार का कहना है कि सतत् विकास लक्ष्य 2030 को हासिल करने के लिए सरकार प्रयासरत है और इसी के मद्देनज़र भारत ने जी-20 की प्राथमिकताओं की सूची में स्वास्थ्य व शिक्षा को भी शामिल किया है। भारत इस समय जी-20 की अध्यक्षता कर रहा है, और अपनी अध्यक्षता में उसका ज़ोर युवाओं में बढ़ते मानसिक स्वास्थ्य संकट को संबोधित करने की ज़रूरत पर चर्चा करना व उसके निराकरण के लिए प्रभावशाली क़दम उठाना भी है। वर्ष 2030 तक सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा का लक्ष्य हासिल करने के लिए युवाओं के स्वास्थ्य पर विशेष फोकस करना होगा। क्योंकि युवा स्वस्थ, तो राष्ट्र स्वस्थ। स्वस्थ युवा ही राष्ट्र की सम्पदा हैं। इस समय भारत विश्व की सबसे बड़ी पाँचवीं अर्थव्यवस्था है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोशिश इसे पाँच ख़रब डॉलर बनाने की है। इसके लिए युवा आबादी की कुशलता पर निवेश करना होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन स्वास्थ्य की परिभाषा में शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक व भावनात्मक स्वास्थ्य को भी शामिल करता है। भारत में मानसिक सेहत का ख़ुलासा स्वास्थ्य मंत्रालय व इंडियन कॉउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च-2019 में जारी जिस रिपोर्ट में किया गया, उसके मुताबिक हर सात में से एक भारतीय मानसिक रोगी है।
भारत में अंदाज़न 20 करोड़ लोगों को मानसिक इलाज की ज़रूरत है। इंडियन जर्नल ऑफ साइक्रेटी-2019 के अनुसार, भारत में कोरोना महामारी से पहले लगभग पाँच करोड़ बच्चे मानसिक स्वास्थ्य के मद्दे से संघर्ष कर रहे थे। राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वे 2015-2016 के अनुसार, 13-17 साल के आयुवर्ग के क़रीब 7.5 प्रतिशत बच्चों ने अवसाद, चिन्ता और कंडक्ट डिसऑर्डर यानी बात-बात पर आक्रामक व्यवहार, झूठ बोलना आदि मानसिक विकार का अनुभव किया था। कोरोना महामारी ने मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। मानसिक स्वास्थ्य और बिगड़ गया। 43 प्रतिशत व 24 प्रतिशत विद्यार्थियों ने अपने दिमाग़ के साथ ही भावात्मक बदलाव के बारे में बताया।
विद्यार्थियों में आत्महत्या की दर भी ख़तरनाक है। परीक्षा के दिनों में, परीक्षा चाहे वह बोर्ड की हो या प्रतियोगी; उनके नतीजे वाले दिनों में असफल होने वाले विद्यार्थियों व उम्मीदवारों में से कुछ आत्महत्या की राह अपनाते हैं। ऐसे दु:खद समाचार बहुत कुछ सोचने को विवश करते हैं। भारतीय युवाओं में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति बहुत ही चिन्ताजनक मुद्दा है। भारत में मानसिक स्वास्थ्य की समस्या कितनी गंभीर है, इसका अंदाज़ा सरकारी आँकड़ों से ही लगाया जा सकता है। नेशनल क्राइम रिकॉड्र्स ब्यूरो की भारत में दुर्घटना से मौतें और आत्महत्या नामक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019 में 90,000 से अधिक युवाओं ने आत्महत्या की थी। इसी रिपोर्ट के अनुसार, 18 साल से कम आयु के लोगों में आत्महत्या के कारणों में परिवारिक समस्याएँ, परीक्षा में फेल होना, प्यार में असफलता, बीमारी, विवाह सम्बन्धित मुद्दे आदि शामिल हैं। आत्महत्या विश्व की 10 बड़ी घातक बीमारियों में से एक है। विश्वभर में सबसे अधिक आत्महत्याएँ भारत में होती हैं।
हैरत की बात यह है कि मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धित चुनौतियों का सामना करने में हम कहाँ खड़े हैं? देश में प्रति एक लाख आबादी पर प्रशिक्षित 1.93 मानसिक पेशेवर स्वास्थ्य कार्यकर्ता है, यानी ऐसे मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की बहुत कमी है, मानसिक बीमारी को लेकर एक लाख की आबादी पर औसतन दो बिस्तर उपलब्ध हैं। यही नहीं, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं तक लोगों की पहुँच भी बहुत ही कम है, स्कूलों में अध्यापकों की छात्रों को मानसिक सपोर्ट मुहैया कराने की क्षमता भी सीमित है और किशोरों के लिए सामाजिक कलंक ज़रूरी देखभाल और पर्याप्त इलाज पाने की राह को और भी मुश्किल बना देता है। यह भी ध्यान रखने योग्य है कि भारत में किशोर युवा कई चुनौतियों का सामना करते हैं, इसमें गुणवत्ता शिक्षा तक पहुँच, स्वास्थ्य देखभाल, रोज़गार, और बुनियादी ज़रूरतें, जैसे- आश्रय और भोजन। भारत एक विकासशील देश है और बहुत किशोर युवा ग़रीबी में रहते हैं। जो उनके आगे बढऩे के मौ$कों को सीमित बनाता है और वे इस तरह धीरे-धीरे समाज से बाहर होते चले जाते हैं। यह पहलू भी कई मानसिक विकारों के पैदा होने व पनपने का एक कारण बन सकता है।
युवाओं के स्वास्थ्य सम्बन्धी मुद्दे पेचीदा हैं, जिन पर ख़ास ध्यान देने की ज़रूरत है। ग़ौरतलब है कि 2021 में यूनिसेफ की एक रिपोर्ट से पता चला था कि भारत में 15-24 आयु वर्ग का हर सातवें इंसान ने बताया था कि वह अक्सर अवसाद महसूस करता है या कुछ करने में उसकी रुचि बहुत कम होती है। यूनिसेफ ने अपनी उस रिपोर्ट में दुनिया को आगाह किया था कि कोरोना महामारी बच्चों व युवाओं की सेहत व कुशलता को कई वर्षों तक प्रभावित कर सकती है। यह सर्वे 21 देशों के 20,000 बच्चों व वयस्कों में किया गया था। इस सर्वे से यह भी सामने आया कि भारत के युवा मानसिक तनाव के लिए सपोर्ट लेने को लेकर मौन हैं। केवल 41 प्रतिशत ने कहा कि ऐसे मामलों में सहारा लेना अच्छा है, जबकि अन्य देशों में औसतन 83 प्रतिशत सहारा लेने के पक्ष में थे। सर्वे किये गये 21 देशों में केवल भारत ही ऐसा था, जहाँ सबसे कम यानी केवल 21 प्रतिशत ने ही माना कि मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धित मुद्दों का सामना कर रहे लोगों को मदद के लिए दूसरों के पास जाना चाहिए। अन्य देशों में भी अधिकतर युवा लोगों (56 से 95 प्रतिशत) ने माना कि ऐसा करना चाहिए।
दरअसल किशोरों व युवाओं को सशक्त बनाने के लिए उनके मानसिक स्वास्थ्य पर ख़ास ध्यान देने की ज़रूरत है। उनकी क्षमता और उनके हुनर का अधिक-से-अधिक लाभ समाज व देश को हो, यह करने के लिए निवेश करना होगा। अभी हम पाते हैं कि सरकार मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बहुत कुछ करने का दावा तो करती है; लेकिन हक़ीक़त सरकार भी जानती है। भारत में निमांस द्वारा 2016 के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण में भी कहा गया था कि देश में मनोरोगियों में से 80 प्रतिशत लोगों को किसी प्रकार का कोई इलाज नहीं मिलता। लैंसेट जर्नल में 2021 में छपे सर्वेक्षण के अनुसार, 1990-2017 की अवधि में भारत में मानसिक विकारों के मामलों में 35 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। बेशक भारत सरकार ने वर्ष 1982 में देश में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति को सुधारने और इस सम्बन्ध में जागरूकता लाने के मक़सद से राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरुआत की थी। वर्ष 1987 में मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम लागू किया गया और वर्ष 2017 में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम ने 1987 के अधिनियम का स्थान ले लिया। इस अधिनियम का एक उल्लेखनीय पक्ष यह है कि आत्महत्या का प्रयास करने वाले व्यक्ति को मानसिक बीमारी से पीडि़त माना जाएगा एवं उसे आईपीसी के तहत दंडित नहीं किया जाएगा।
इस अधिनियम ने आईपीसी की धारा-309 में संशोधित किया, जो पहले आत्महत्या को अपराध मानती थी। देश में मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धित समस्याएँ बढ़ रही हैं। विश्व की सबसे ज़्यादा युवा आबादी अब भारत में है, तो सरकार को और लोगों को भी इस समस्या से निपटने के लिए चौतर$फा प्रयास करने की ज़रूरत है।